Monday, October 14, 2024
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इबादतखाना (143)

अकबर द्वारा स्थापित इबादतखाना सोलहवीं शताब्दी ईस्वी के युग में एक बहुत बड़ी घटना थी। अकबर इसके माध्यम से विभिन्न मजहबों एवं पंथों के नेताओं के बीच बहस करवाकर धर्म के किसी वास्तविक स्वरूप की खोज करना चाहता था किंतु अकबर इसमें बुरी तरह असफल हुआ। इसका कारण यह था कि अकबर केवल यह छोटा सा तथ्य नहीं समझ सका कि इस्लाम कभी किसी से सहमत नहीं होता।

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव की पुस्तक भारत का इतिहास के अनुसार अकबर ने लिखा है- ‘बीस वर्ष की आयु पूरी करने पर मैं आंतरिक कट्टरता का अनुभव करने लगा था और अपनी अंतिम यात्रा के लिए किसी आध्यात्मिक समाधान के अभाव में मेरा मन अत्यंत कठिन हो चला था।’

अकबर के दरबारी लेखकों ने लिखा है कि ई.1575 में अकबर ने सत्य की खोज के उद्देश्य से सीकरी में इबादतखाना का निर्माण करवाया। इबादतखाना का अर्थ पूजाघर होता है परन्तु इस इबादतखाने में पूजा नहीं की जाती थी अपितु इसमें इस्लाम के सैद्धांतिक पक्ष पर विचार-विमर्श तथा वाद-विवाद होते थे ताकि इस्लाम के मूल-तत्त्वों की बारीक बातों की जानकारी हो जाये।

इबादतखाना चार भागों में विभक्त था। पश्चिम की ओर सैयद लोग बैठते थे। दक्षिण की ओर उलेमा बैठते थे। उत्तर की ओर शेख तथा पूर्व की ओर अकबर के वे अमीर तथा दरबारी बैठते थे जो अपनी विद्वता तथा अलौकिक प्रतिभा के लिए प्रसिद्ध थे।

आरम्भ के दो सालों में यह मजहबी वाद-विवाद केवल मुसलमान शेख-सैय्यद और उलेमाओं तक ही सीमित था और केवल मुसलमान अमीर ही इसमें निमंत्रित किए जाते थे। उनकी बैठक प्रत्येक बृहस्पतिवार की रात्रि को होती थी। इस बैठक में अकबर उपस्थित रहकर इस्लामिक विद्वानों के व्याख्यान सुनता था।

अकबर ने इस्लामिक विद्वानों से कहा कि इबादतखाने की स्थापना करने का उद्देश्य सत्य की खोज करना, सच्चे धर्म के सिद्धान्तों का अन्वेषण करना, सच्चे धर्म का प्रचार करना और सच्चे धर्म की दैवी उत्पत्ति का पता लगाना है। इसलिये कोई भी विद्वान सत्य पर पर्दा डालने का प्रयास नहीं करे परन्तु मुल्ला मौलवी, अपनी वैचारिक संकीर्णताओं को नहीं छोड़ सके। इस कारण इबादतखाने की कार्यवाहियाँ संतोषजनक सिद्ध नहीं हुईं।

इबादतखाने में जो वाद-विवाद होते थे उनमें संयम तथा मर्यादा का बड़ा अभाव था। वाद-विवाद करते समय विद्वान आपस में लड़ने लगते थे। इस कारण कटुता तथा पारस्परिक मनोमालिन्य बढ़ जाता था। कुछ समय बाद इबादतखाना विवादखाना बन गया।

अकबर को यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि प्रतिष्ठत विद्वान् भी विवाद के समय संयम खो बैठते थे। बहुत से गम्भीर तथा वयोवृद्ध विद्वानों ने झगड़े से बचने के लिये इबादतखाने की बैठकों में भाग लेना बंद कर दिया।

सुल्तानपुर के मुल्ला अब्दुल्ला जिसे मखदूम-उल-मुल्क की उपाधि प्राप्त थी तथा प्रमुख सदर शेख अब्दुल नबी इन विवादों में प्रमुख रूप से भाग लिया करते थे। मखदूम-उल-मुल्क और अब्दुल नबी इस्लाम सम्बन्धी सैद्धांतिक प्रश्नों पर परस्पर लड़ बैठे और एक दूसरे के तर्क-कुतर्क के प्रति अवांछनीय असहिष्णुता का खुला प्रदर्शन भी करने लगे।

इन विद्वानों के इस आचरण को देखकर अकबर के ऊपर इनका प्रभाव कम होने लगा। कुछ विद्वानों ने तो अपने विरोधियों को बुरा-भला कहा और एक-दूसरे की नीतियों पर हमला भी कर डाला। बदायूनी ने लिखा है एक रात उलेमाओं की गर्दनों की नसें आवेश में तन गईं और भयंकर कोलाहल मचने लगा। शहंशाह उनके इस व्यवहार से बहुत क्रोधित हुआ। इस प्रकार की घटनाएं इबादतखाने में कई बार घटित हुईं।

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि यह सुनने पर कि हाजी इब्राहिम ने पीली और लाल रंग की पोशाकें पहने को न्याय-संगत घोषित करते हुए फतवा जारी किया है, मीर आदिल सैयद मोहम्मद ने बादशाह की उपस्थिति में उसे धूर्त और मक्कार कहा और उसे मारने के लिए अपना डंडा भी उठा लिया।

इन लोगों के इस प्रकार के उत्तरदायित्व-शून्य-व्यवहार, इस्लाम की तात्विक दृष्टि से विवेचना करने की असमर्थता तथा इन लोगों के व्यक्तिगत स्वार्थों को देखकर अकबर यह समझ गया कि सत्य की खोज इन लोगों की आपसी तू-तू, मैं-मैं से बाहर ही की जानी चाहिए।

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ई.1578 में अकबर ने इबादतखाने का द्वार हिन्दू, बौद्ध, जैन, ईसाई, पारसी आदि समस्त धर्मों के आचार्यों एवं विद्वानों तथा नास्तिकों के लिये भी खोल दिए। यदि विभिन्न धर्मों के आचार्य अकबर के वास्तविक उद्देश्य को समझ गये होते और सत्य के अन्वेषण की भावना से बहस करते तो इबादतखाना एक धार्मिक संसद का रूप धारण कर लेता और इससे मानवता का बड़ा कल्याण हुआ होता परन्तु दुर्भाग्यवश अन्य धर्मों के आचार्र्यों के आगमन से भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ और इबादतखाना पूर्ववत् निरर्थक विवादों का रण-स्थल बना रहा जिसमें संयम, धैर्य तथा मर्यादा का अभाव था।

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लिखा है कि अलग-अलग मजहबों के लोग इबादतखाने में अकबर के चारों तरफ बैठते थे और हरेक इस महान् बादशाह को अपने मजहब में शामिल करने की उम्मीद रखता था। वे अक्सर एक-दूसरे से झगड़ पड़ते थे और अकबर बैठा-बैठा उनकी बहसें सुनता रहता और उनसे बहुत से सवाल पूछता रहता था।

मालूम होता है कि उसे यह विश्वास हो गया था कि सत्य का ठेका किसी खास मजहब या फिरके ने नहीं ले रक्खा है। और उसने यह ऐलान कर दिया कि वह संसार के सारे मजहबों में आपसी उदारता के सिद्धांत को मानता है।

इबादतखाना में आत्म-संयम तथा आत्म-नियंत्रण का इतना अभाव था कि यदि अकबर उपस्थित नहीं रहता तो मार-पीट हो जाती थी। इबादतखाने की कार्यवाहियों से अकबर को बड़ी निराशा हुई। उसने सोचा था कि विभिन्न धर्मों के आचार्य परस्पर विचार-विमर्श करके एक-दूसरे के धर्म के वास्तविक ध्येय तथा उसके मौलिक सिद्धांतों का पता लगायेंगे परन्तु वे आपस में लड़-झगड़ कर मनोमालिन्य तथा साम्प्रदायिक संकीर्णता की भावना को और अधिक पुष्ट कर रहे थे। धीरे-धीरे अकबर इबादतखाने की बैठकों से उदासीन होता चला गया और इबादतखाने की बैठकें खानापूर्ति बन कर रह गईं।

पण्डित नेहरू ने लिखा है कि अकबर के शासनकाल के एक इतिहास लेखक बदायूनी जो कि खुद एक कट्टर मुसलमान था, उसने मुगल साम्राज्य का इतिहास लिखा है, जिसके हरेक पन्ने पर उसके कट्टरपन की छाप है। वह हिन्दुओं से बहुत चिढ़ता था। वह अकबर की इन कार्यवाहियों को बिल्कुल नापसंद करता था। बदायूनी ने जो ऐसे बहुत से मजमों में सम्मिलित होता रहा होगा, अकबर के बारे में मजेदार बयान लिखा है।

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