दुनिया तेज गति से दौड़ रही है, भारत की गति कुछ अधिक ही तेज है। भारत की इस तेज गति को चौके चूल्हे वाली औरतें ही संतुलन प्रदान कर सकती हैं।
भारत सरकार द्वारा टीवी चैनलों पर एक लम्बा फीचर विज्ञापन दिखाया जा रहा है जिसमें विगत 11 साल में देश में हुई आर्थिक उन्नति का विवरण दिया गया है। इस फीचर में एक पंक्ति का भाव इस प्रकार है कि हमने दुनिया को दिखा दिया है कि अब भारत ऐसा देश नहीं रहा जिसमें औरतों को चौके चूल्हे तक सीमित रखा जाता है।
चौके-चूल्हे से औरतों को हटा देना, सिक्के का एक पहलू है जो कि कहने-सुनने में बहुत अच्छा लगता है। सिक्के का दूसरा पहलू बहुत भयावह है जिस पर इस फीचर में चर्चा नहीं की गई है।
मेरी समझ में यह नहीं आया कि भारत दुनिया को यह क्यों दिखाना चाहता है कि अब हम औरतों को चौके-चूल्हे तक सीमित रखने वाले देश नहीं रहे।
क्या यह पंक्ति उन औरतों का अपमान नहीं है जो अपने घर में चौका-चूल्हा करके अपना घर-संसार सजाती हैं, घर के लोगों को पौष्टिक खाना देती हैं, अपने बच्चों को स्कूल से लाती-ले जाती हैं। उनके कपड़े धोती हैं, उन्हें होमवर्क करवाती हैं, उन्हें अच्छे संस्कार देती हैं। उन्हें पार्क में खिलाने ले जाती हैं, उन्हें जिन्दगी की धूप-छांव और गलियों के कुत्तों से बचाती हैं, उन्हें देश का जिम्मेदार नागरिक बनाने में अपना पूरा जीवन लगा देती हैं।
चौके चूल्हे वाली औरतें अपने घर के बूढ़े, बीमार, अशक्त सदस्यों की सेवा करती हैं। उन्हें नहलाती हैं, सहारा देती हैं, बीमार होने पर उन्हें हॉस्पीटल ले जाती हैं। ऐसी कौनसी जिम्मेदारी है जिसे ये चौके चूल्हे वाली औरतें नहीं निभातीं।
चौके चूल्हे वाली औरतें दोपहर के खाली समय में कढ़ाई, बुनाई, सिलाई करती हैं, खीचे-पापड़, चिप्स बनाती हैं। घर की साफ-सफाई पर अधिक समय व्यय करती हैं। फिर चौके चूल्हे वाली औरतों का यह अपमान क्यों?
निश्चित रूप से विगत 11 साल में भारत सरकार ने देश की तस्वीर बदली है। देश में रोजगार के अवसर बढ़ाए हैं, लोगों में समृद्धि लाने में सफलता मिली है। स्त्री शिक्षा में वृद्धि हुई है। लोगों का स्वास्थ्य पहले से बेहतर हुआ है। औरतें घरों से बाहर निकलकर कमा रही हैं और देश की जीडीपी बढ़ा रही हैं। नए सड़क-पुल, बांध, वैज्ञानिक संस्थानों के कारण दुनिया भर में भारत का डंका बज रहा है। क्या इस डंके में चौके चौके चूल्हे वाली औरतें कोई योगदान नहीं देतीं?
चौके चूल्हे वाली औरतें परिवार को अद्भुत सुरक्षा और संरक्षण देती हैं, जिसके कारण परिवार के लोगों को किसी का थूका हुआ, पेशाब किया हुआ, पसीने से सना हुआ खाना नहीं खाना पड़ता। चौके-चूल्हे वाली इन औरतों के कारण परिवार में हर तरह की प्रसन्नता आती है।
क्या चौके चूल्हे वाली औरतें उन औरतों से पिछड़ी हुई हैं जो चौका-चूल्हा छोड़कर घर से बाहर कमाने निकलती हैं।
ऐसे बहुत से प्रकरण सीसीटीवी कैमरों में कैद हुए हैं जब बाजार से खाना लाने वाले लड़के रास्ते में टिफिन खोलकर उनमें थूकते हैं या खाने में से कुछ चुराकर खाते हैं।
भारत में ऐसे प्रकरण भी हुए हैं जब अपने बच्चों को घर पर छोड़कर ऑफिस जाने वाली महिलओं के बच्चों को उसकी आया ने नंगा करके चौराहे पर बैठा कर भीख मंगवाई। ऐसे प्रकरण भी सीसी टीवी कैमरों में कैद हुए हैं जब घर में खाना बनाने वाली औरतों को किसी बात पर डांट देने पर वे अपने पेशाब में आटा गूंध कर रोटियां बनाती हैं या सब्जी में अपना पेशाब डालकर घर वालों से डांट का बदला लेती हैं।
ऐसे प्रकरण भी हुए हैं जब अपने बच्चों को घर में आया के भरोसे छोड़कर जाने वाली औरतों ने सीसीटीवी कैमरों में देखा कि आया ने बच्चे को अफीम खिलाकर सुला दिया है और कॉलोनी की आयाएं घर में इकट्ठी होकर बच्चे के दूध और बिस्किट की पार्टी करती हैं।
ऐसे प्रकरण भी सीसीटीवी कैमरों में पकड़े गए हैं जब आयाओं द्वारा बच्चों को चुप करवाने के लिए उन्हें बेरहमी से मारा-पीटा जाता है और बच्चा डर-सहम कर सो जाता है।
चौके चूल्हे वाली औरतें ही अब घरों में तुलसी का पौधा लगाती हैं, सुबह शाम तुलसी के पास दिया रखकर उसे प्रणाम करती हैं। चौके चूल्हे वाली औरतें ही अपने घरों में भगवान की आरती करती हैं, अपने परिवार के सदस्यों की प्रसन्नता के लिए तरह-तरह के त्यौहार और पर्व मनाती हैं तथा त्यौहार पर विविध प्रकार के व्यंजन बनाती हैं।
नौकरी पर जाने वाली औरतों में अधिकांश के पास इतना सब करने के लिए समय नहीं होता। इस कारण अब भारतीय परिवारों में परम्परागत व्यंजन बनने बंद हो गए हैं। इस मामले में हालत इतनी ज्यादा खराब है कि अब किसी नई उम्र की लड़की को कढ़ी जैसी सामान्य चीज भी बनानी हो तो वे यूट्यब पर वीडियो देखकर बनाती हैं।
मैं नौकरी करने वाली औरतों का दुश्मन नहीं हूँ। मुझे उनके साथ बहुत सहानुभूति है। निश्चित रूप से परिवार में आर्थिक समृद्धि लाने में उनका बड़ा बड़ा योगदान है किंतु इस समृद्धि के लिए उन्हें बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। वे सुबह से शाम तक काम करती हैं।
ये पढ़ी-लिखी औरतें बसों में धक्के खाती हैं, बॉस की डांट सुनती हैं, ऑफिस से छुट्टी लेने के लिए हर समय तनाव में रहती हैं। ऑफिस जाने से पहले घर में खाना बनाती हैं, ऑफिस से लौटकर फिर खाना बनाती हैं या बाजार से बना-बनाया खाना मंगवाती हैं। किसी तरह से बच्चों को पीट-पाटकर उनका होमवर्क करवाती हैं और थकान से चूर-चूर होकर पलंग पर गिर जाती हैं। यह थकान ही अक्सर दाम्पत्य जीवन में तनाव उत्पन्न करने का कारण बनती है। आजकल बहुत सी लड़कियां वर्क फ्रॉम होम करती हैं। उन्हें 12-14 घण्टे प्रतिदिन काम करना पड़ता है।
आज बहुत सी औरतें हैं जो किसी अच्छी नौकरी पर लग जाती हैं तो फिर नौकरी करने के लिए परिवार नहीं बसातीं। विवाह नहीं करतीं, लिव इन रिलेशन में रहती हैं, बॉयफ्रैंड बनाती हैं। ऑफिस और बॉयफ्रैंड के चक्कर में अपने परिवार से पूरी तरह कटकर जीती हैं। बच्चे पैदा नहीं करतीं जिसके कारण देश की डेमोग्राफी तेजी से बदल रही है।
मैंने ऐसी लड़कियों को महानगरों में सड़कों के किनारे खड़े होकर पिज्जा-बर्गर, चाउमीन और समोसे खाते हुए देखा है। इन्हें पौष्टिक आहार के नाम पर कुछ नहीं मिलता। धीरे-धीरे मन और जीवन दोनों में पसर आए खालीपन को दूर करने के लिए इनमें से बहुत सी लड़कियां सिगरेट और शराब का सहारा लेती हैं।
युवावस्था में तो सब झेल लिया जाता है किंतु वृद्धावस्था में इनमें से अधिकांश औरतों को कोई सहारा देने वाला तक नहीं मिलता।
बात निकलेगी तो दूर तक जाएगी। आज स्त्री और पुरुष दोनों कमाते हैं, उसके चलते चीजें कितनी महंगी हो गई हैं, पहले एक कमाता था, सात-आठ लोग खाते थे, आज पति-पत्नी दोनों कमाते हैं, मिलर अपनी छोटी सी गृहस्थी भी नहीं चला पाते हैं।
उनकी आय का लगभग सारा पैसा बच्चों की एज्यूकेशन, मेडिकल ट्रीटमेंट, डिलीवरी, मकान का किराया, कार का लोन, मकान का लोन चुकाने में खर्च होता है। क्या फायदा हुआ, दोनों के कमाने से। जो मकान आज से बीस-तीस साल पहले हजारों में आता था, अब करोड़ों में आता है।
क्या चौका-चूल्हा करना पिछड़ेपन की निशानी है। कोई तो इस काम को करेगा। चौका-चूल्हा के बिना परिवार के सदस्यों के मुंह में पौष्टिक भोजन का निवाला कैसे जाएगा!
यदि कोई औरत अपने घर में चौका-चूल्हा करे तो पिछड़े पन की निशानी और जब वही औरत किसी होटल में जाकर शेफ बने, किसी रेस्टोरेंट में टेबल-टेबल जाकर खाने को ऑर्डर ले या ग्राहकों के झूठे बर्तन उठाए, उन्हें शराब परोसे, तो वह एडवांसमेंट की निशानी है।
ऐसा एडवांसमेंट किस काम का? इससे तो घर में चौका चूल्हा करके अपने परिवार की सजाना-संवारना कई गुना अधिक अच्छा है। परिवार और देश की जीडीपी में चौके-चूल्हे वाली औरतों का योगदान किसी से कम नहीं होता, अधिक ही होता है।
देश की जीडीपी में ग्रोथ के साथ-साथ देश का डेमोग्राफिक बैलेंस भी जरूरी है। यदि डेमोग्राफी बदल गई तो हमारा देश ही नहीं रहेगा, फिर तो जीडीपी का भी क्या अर्थ रह जाएगा। इसलिए चौके चूल्हे वाली औरतें हर तरह से अभिनंदन के योग्य हैं, सम्मान और श्रद्धा की पात्र हैं। चौका-चूल्हा हमारे लिए गौरव का विषय है, न कि हीनता की निशानी या पिछड़ेपन की निशानी। इंदिरा गांधी और मार्गेट थैचर तक चौका-चूल्हा करती थीं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता