हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में एक प्राचीन पहाड़ी नगर स्थित है जिसे नगरकोट कहा जाता है। इस नगर में देवी दुर्गा के इक्कावन सिद्धपीठों में से एक सिद्धपीठ स्थित है जिसे वज्रेश्वरी सिद्ध पीठ कहा जाता है। ऐतिहासिक मान्यता है कि ज्वालादेवी मंदिर में अकबर ने छत्र अर्पित किया।
मान्यता है कि पाण्डवों ने इस स्थान पर एक मंदिर बनवाया था। यह मंदिर कई बार टूटा एवं कई बार बना। इस मंदिर में हजारों वर्षों से पूरे देश से श्रद्धालु आते हैं। हिन्दुओं में मान्यता है कि देवी माता, अपने भक्तों की प्रार्थना सुनती है और उनकी मनोकामनाएं पूरी करती है।
इस मंदिर के सभामण्डप के सामने की दीवार पर पत्थर का एक पैनल लगा हुआ है जिसमें एक मनुष्य के मुंह की प्रतिमा लगी हुई है। इस पैनल पर ध्यानू भगत लिखा हुआ है।
मंदिर के दाहिनी भाग में स्थित एक बरामदे में भी ध्यानू भगत की एक प्रतिमा रखी हुई है जिसमें उसके धड़ ने अपना सिर अपने हाथों में पकड़ रखा है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि ध्यानू भगत अपना सिर स्वयं ही काटकर देवी को अर्पित कर रहा है।
ब्रज अंचल के हिन्दुओं में मान्यता है कि अकबर के शासन काल में ब्रज प्रदेश में स्थित नदौन ग्राम निवासी ध्यानू भगत एक हजार यात्रियों सहित देवी माता के दर्शनों के लिए जा रहा था।
इतना बड़ा दल देखकर बादशाह के सिपाहियों ने उन्हें रोक लिया और उन्हें अकबर के समक्ष प्रस्तुत किया। अकबर ने पूछा कि तुम इतने आदमियों को साथ लेकर कहाँ जा रहे हो!
ध्यानू भगत ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया कि मैं ज्वाला माई के दर्शनों के लिए जा रहा हूँ। मेरे साथ जो लोग हैं वे भी माता के भक्त हैं और यात्रा पर जा रहे हैं। अकबर ने उससे पूछा कि ज्वाला माई कौन है और वहाँ जाने से क्या होगा!
ध्यानू भगत ने उत्तर दिया कि माता पार्वती ही ज्वाला माई हैं जो संसार की रचना एवं पालन करती हैं। वे भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करती हैं। उनके तेज से उनके मंदिर में बिना तेलबत्ती के ही अखण्ड ज्योति जलती रहती है। हम लोग प्रतिवर्ष उनके दर्शन करने जाते हैं।
अकबर ने कहा कि तुम्हारी ज्वाला माई इतनी शक्तिशाली है कि सबकी मनोकामनाएं पूरी कर सकती है, इस बात का विश्वास हमें कैसे होगा? तुम कोई चमत्कार दिखाओ तो हम भी मान लेंगे।
ध्यानू ने उत्तर दिया कि मैं तो माता का एक तुच्छ सेवक हूँ, मैं भला क्या चमत्कार दिखा सकता हूँ। इस पर अकबर ने कहा कि हम तुम्हारी माता की परीक्षा लेंगे। हम तुम्हारे घोड़े की गर्दन अलग कर देते हैं। तुम अपनी देवी से कहकर उसे दुबारा जीवित करवा लेना। इस प्रकार घोड़े की गर्दन काट दी गयी।
ध्यानू भक्त ने बादशाह से कहा कि आप एक माह तक मेरे घोड़े के सिर एवं धड़ को सुरक्षित रखें। मैं देवी माँ के पास जाकर उनसे प्रार्थना करूंगा कि घोड़े को जीवित कर दें। अकबर ने ध्यानू भगत की बात मान ली और ध्यानू भगत अपने साथियों के साथ ज्वाला देवी के दर्शनों के लिए चला दिया।
ध्यानू भक्त ने देवी मंदिर में पहुंचकर देवी से प्रार्थना की कि बादशाह मेरी भक्ति की परीक्षा ले रहा है। मेरी लाज रखो। मेरे घोड़े को अपनी कृपा से जीवित करो। अन्यथा मैं भी अपना सर काटकर आपके चरणों में अर्पित कर दूंगा।
जब देवी ने कोई उत्तर नहीं दिया तो ध्यानू ने अपनी तलवार से अपना शीश काटकर देवी को भेंट कर दिया। उसी समय साक्षात ज्वाला माई प्रकट हुई और ध्यानू भगत का सिर धड़ से जुड़ गया और ध्यानू भगत फिर से जीवित हो गया।
माता ने उससे कहा कि तेरे घोड़े का सिर भी धड़ से जुड़ गया है। तू कोई और वर मांग। ध्यानू भक्त ने कहा माता! आप सर्व-शक्तिमान हैं किंतु अपने भक्तों की इतनी कठिन परीक्षा न लिया करें। संसारी मनुष्य आपको शीश काटकर भेंट नहीं चढ़ा सकते। कृपा करके साधारण भेंट से ही अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण किया करें।
देवी ने कहा कि अब से मैं केवल नारियल की भेंट एवं सच्चे हृदय से की गयी प्रार्थना से मनोकामना पूर्ण करुँगी। इसके बाद ध्यानू भगत अकबर से मिलने के लिए रवाना हो गया।
अकबर के सेवकों ने अकबर को बताया कि ध्यानू का घोड़ा फिर से जीवित हो गया है किंतु अकबर को अब भी उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि वे माता ज्वालादेवी के मंदिर में निकल रही ज्योति पर लोहे के तवे रखवा दें।
अकबर के आदेश की पालना की गई किंतु जब इस पर भी अग्नि नहीं बुझी तो अकबर ने पहाड़ों से निकल रहे एक झरने के पानी को एक नहर के माध्यम से मंदिर पर डलवाया। इस पर भी मंदिर की ज्योति नहीं बुझी। तब अकबर ने देवी के लिए सोने का छत्र बनवाया तथा उसे लेकर ज्वाला देवी के मंदिर पहुंचा।
मान्यता है कि जब अकबर ने यह छत्र देवी को अर्पित करना चाहा तो वह अकबर के हाथों से गिरकर टूट गया तथा सोने की बजाय किसी और धातु का बन गया। यह धातु न तो पीतल थी, न सोना थी, न चांदी थी, न ताम्बा थी और न लोहा!
अकबर समझ गया कि देवी ने उसकी भेंट अस्वीकार कर दी है। इसलिए वह चुपचाप लौट गया। अकबर द्वारा चढ़ाया गया खंडित छत्र माता के दरबार में आज भी रखा है। यह घटना ज्वालादेवी के मंदिर की बताई जाती है जो नगरकोट मंदिर से लगभग 35 किलोमीटर दूर स्थित है किंतु ध्यानू भगत की प्रतिमाएं नगर कोट मंदिर में लगी हुई हैं।
कुछ स्थानों पर नगरकोट मंदिर और ज्वाला देवी मंदिर को एक ही माना जाता है। यह संभव है कि ध्यानू द्वारा देवी को शीश अर्पित करने की घटना नगरकोट वाले मंदिर में हुई हो। बाद में इस मंदिर से ज्वाला देवी की ज्योति विलीन हो गई हो और यहाँ से 35 किलोमीटर दूर ज्वाला देवी के मंदिर में प्रकट हुई हो।
यह भी संभव है कि पौराणिक काल के ये दोनों मंदिर आरम्भ से ही अलग रहे हों और ध्यानू भक्त की घटना नगरकोट के मंदिर में घटित हुई हो और उसकी कथा के साथ अकबर के साथ ज्वालादेवी के मंदिर में हुई किसी घटना को जोड़ दिया गया हो।
पिछले पांच सौ सालों से ध्यानू भगत के वंशज अपने शरीर पर लोहे की जंजीरें बांध कर अपने परिजनों के साथ इस मंदिर की परिक्रमा करने आते हैं। ये लोग अपने कंधे पर मोर-पंखों का एक गुच्छा धारण करते हैं तथा शरीर को लोहे की जंजीर से बांधते हैं।
यह जंजीर इस बात की द्योतक है कि किसी समय उनके किसी पूर्वज को लोहे की जंजीरों से बांधकर इस मंदिर तक लाया गया था। ध्यानू के वंशजों को लगता है कि ऐसा करके वे ध्यानू भगत की परम्परा को जीवित रखे हुए हैं। सच क्या है, यह तो काल के गाल में समा गया है किंतु ध्यानू भगत आज भी मंदिर की प्रतिमाओं में तथा ध्यानू के वंशजों की मान्यताओं में पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित है।