बैराम खाँ का विद्रोह मुगलों के इतिहास की ऐसी दर्दनाक दास्तान है जिसे पढ़कर किसी भी नेकदिल इंसान का दिल सियासत लिए हिकारत के भावों से भर जाएगा।
वापस आगरा न जाकर बैराम खाँ वहीं से अलवर के लिये रवाना हो गया ताकि वहाँ से अपने परिवार को लेकर मक्का के लिये प्रस्थान कर सके। जब उसके बचे-खुचे सेवकों को पता लगा कि बैराम खाँ अलवर चला गया है तो वे भी आगरा खाली करके उसके पीछे-पीछे अलवर चले आये। बैराम खाँ अलवर से अपना परिवार लेने के बाद सरहिंद की ओर गया जहाँ उसका गुप्त खजाना गढ़ा हुआ था।
जब पंजाब में नियुक्त जागीरदारों और सूबेदारों को बैराम खाँ के आगरा खाली कर देने के समाचार मिले तो उन्होंने बादशाह की हुकूमत से विद्रोह कर दिया और वे खानखाना के पक्ष में एकत्र होने लगे। ये वे लोग थे जिन पर खानखाना की बहुत मेहरबानियाँ थीं और जो यह समझते थे कि हुकूमत का वास्तविक मालिक तो बैराम खाँ ही है, अकबर ने बादशाह बनते ही उसके साथ गद्दारी की है।
जब बैराम खाँ के पंजाब की ओर जाने और पंजाब के अमीरों द्वारा विद्रोह करने के समाचार हरम सरकार को मिले तो हरम की सारी औरतों ने मिलकर अकबर को खूब भड़काया। हम तो पहले से ही कहते थे कि बैराम खाँ पूरा बदमाश और दगाबाज है। अकबर को भी हरम सरकार की बातें ठीक लगने लगीं। उसने बैराम खाँ को चिठ्ठी भिजवाई-
”बैराम खाँ को मालूम हो कि तू हमारे नेक घराने की मेहरबानियों का पाला हुआ है। चालीस साल की स्वामिभक्ति को भुलाकर विद्रोह करना ठीक नहीं है। तूने हमें बहुत कष्ट दिये हैं। फिर भी हम तुझे दण्ड नहीं देते। इससे तो अच्छा है कि तू लाहौर और सरहिंद में रखे अपने खजाने को हमारे पास भेज दे और खुद हज करने के लिये चला जा। जब तू हज से लौटकर आयेगा, तब तू जैसा कहेगा वैसा ही किया जायेगा क्योंकि अभी तो तेरे दुश्मनों ने मुझसे तेरी बुराइयां करके हमारा दिल तेरी ओर से फेर दिया है। बुरे लोगों के फेर में पड़कर तू अपनी प्रतिष्ठा तो खत्म कर ही चुका है, हम नहीं चाहते कि तू और अधिक कलंक अपने मुँह पर लगाये।”
अकबर की ओर से ऐसी रूखी चिट्ठी पाकर बैराम खाँ का दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया। यह वही अकबर था जिसे बैराम खाँ तोपों के गोलों के बीच से जीवित निकाल लाया था! क्या यह वही तेरह साल का अनाथ बालक था जिसे बैराम खाँ ने दुश्मनों के हाथों से कत्ल होने से बचाया था! यह वही अकबर था जिसे बैराम खाँ ने मिट्टी के कच्चे चबूतरे से उठाकर दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया था!
क्या यह वही अकबर था जिसके लिये बैराम खाँ ने सिकंदर सूर और हेमू जैसे प्रबल शत्रुओं को नेस्तनाबूद कर दिया था! क्या यह वही अकबर था जिसके लिये बैराम खाँ ने कामरान, हिंदाल और असकरी जैसे शहजादों को अंधा करके मक्का भेज दिया था! क्या आज वही अकबर बैराम खाँ को मक्का जाने के लिये कह रहा था! सत्ता का खेल किस खिलाड़ी को धूल नहीं चटा देता! बैराम खाँ तकदीर के इस तरह पलटने पर हैरान था!
अकबर की ओर से पूरी तरह निराश होकर बैराम खाँ नागौर के रास्ते पंजाब को रवाना हुआ। अकबर को सूचना मिली तो उसने फिर पत्र लिखकर कहा कि मैं अब भी कहता हूँ कि हज को चला जा। हिन्दुस्तान में तेरे लिये जागीर मुकर्रर कर दी जायेगी जिसका हासिल तुझे पहुँचा दिया जाया करेगा।
सियासत के नापाक दामन से अपना नाता तोड़ लेने कि लिये बैराम खाँ हज के लिये रवाना हो गया। अपनी योजनाओं को इस तरह सफल होते देखकर दुष्टा माहम अनगा ने अपने खूनी जाल का दायरा और फैलाया। उसने नासिरुलमुल्क को बैराम खाँ के पीछे भेजा।
एक जमाने में नासिरुलमुल्क गरीब विद्यार्थी के रूप में बैराम खाँ के पास मदद मांगने के लिये आया था। बैराम खाँ की कृपा से ही वह मुल्ला से अमीर बना था। माहम अनगा ने नासिरुलमुल्क को यह जिम्मा सौंपा कि वह बैराम खाँ से समस्त राजकीय चिह्न छीनकर उसे हिन्दुस्तान से निकाल कर बाहर कर दे।
जब बैराम खाँ की सेना ने सुना कि नासिरुलमुल्क के नेतृत्व में मुगल सेना आक्रमण के लिये आयी है तो बैराम खाँ के सैनिक दगा करके मुगलसेना में जा मिले। बैराम खाँ ने अपने हाथी, तुमन, तौग, निशान और नक्कारा आदि समस्त राजकीय चिह्न नासिरुलमुल्क को भिजवा दिये और स्वयं अपने निश्चय के अनुसार मक्का की ओर बढ़ता रहा।
जब नासिरुलमुल्क ये सारे राजकीय चिह्न लेकर दिल्ली लौट आया तो भी माहम अनगा का दिल नहीं भरा। उसने पीर मुहम्मद को बैराम खाँ के पीछे भेजा। पीर मुहम्मद भी एक जमाने में बैराम खाँ के नमक पर पला था किंतु आज वह भी बैराम खाँ के खून का प्यासा होकर उसके पीछे लग गया।
बैराम खाँ उस समय बीकानेर रियासत के राव कल्याणमल और कुंवर रायसिंह का मेहमान था। नासिरुलमुल्क के बाद पीर मोहम्मद को आया देखकर बैराम खाँ भड़क गया। उसके मन से सात्विक भाव जाते रहे और उसने मक्का जाने से पहले अकबर का दिमाग दुरुस्त करने का निश्चय किया।
बैराम खाँ ने उत्तर दिशा में तैनात सूबेदारों को चिठ्ठियाँ लिखीं कि मैं तो दुनिया से उदास होकर मक्के को जा रहा था किंतु दुष्टा माहम अनगा बादशाह का मन मेरी ओर से फेर कर मुझे हर कदम पर अपमानित कर रही है। इसलिये अब मेरा विचार है कि मैं माहम अनगा और पीर मुहम्मद से निबट कर ही मक्का को जाऊंगा। इस प्रकार हरम सरकार की ज्यादतियों के चलते चालीस वर्षों का सबसे विश्वस्त और सबसे नमकख्वार नौकर बागी हो गया।
बैराम खाँ का विद्रोह मुगलों के इतिहास की ऐसी दर्दनाक दास्तान है जिसे पढ़कर किसी भी नेकदिल इंसान का दिल सियासत लिए हिकारत के भावों से भर जाएगा।
-अध्याय 51, डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित ऐतिहासिक उपन्यास चित्रकूट का चातक।



