हल्दीघाटी के मैदान में जब महाराणा प्रताप के सामंत झाला मानसिंह (झाला मन्ना अथवा झाला बीदा) ने महाराणा को संकट में पड़ा हुआ देखा तो वह महाराणा की ओर दौड़ा। उसने प्रताप के घोड़े पर लगा महाराणा का छत्र उतारकर स्वयं अपने घोड़े पर लगा लिया और शत्रुओं को ललकार कर कहा कि मैं महाराणा हूँ।
महाराणा का छत्र लगाए हुए झाला मन्ना बिना किसी भय के आगे बढ़ने लगा। मुगल सैनिकों में सभी राणा प्रताप को स्वयं पकड़ने अथवा मारने को उत्सुक थे। इसलिए वे सब झाला मानसिंह को महाराणा समझकर उसके पीछे भागे। इस कारण वास्तविक महाराणा प्रताप पर से मुगल सैनिकों का दबाव ढीला पड़ गया।
बलवंतसिंह मेहता ने ‘प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप’ नामक स्मारिका में अपने आलेख ‘हल्दीघाटी स्वतंत्रता-संग्राम’ में लिखा है कि प्रताप की अत्यधिक घायल अवस्था देखकर हकीम खाँ सूरी ने प्रताप से निवेदन किया कि वे युद्ध-क्षेत्र से बाहर निकल जायें किंतु प्रताप ने रणक्षेत्र में ही युद्ध के बीच रहना चाहा।
प्रताप की ऐसी प्रबल इच्छा देखकर हकीम खाँ सूरी, चेटक की लगाम को खींचे आगे बढ़ा जहाँ भामाशाह थे। वे लोग प्रताप को हल्दीघाटी के सुरक्षित स्थान की ओर ले गये। महाराणा के स्वामिभक्त सामंत घायल महाराणा प्रताप को रक्ततलाई से निकालकर हल्दीघाटी होते हुए बाहर ले गये। प्रताप की जगह झाला बीदा के प्राण गये। इस बलिदान के लिये उसने स्वयं अपने को प्रस्तुत किया था। झाला बीदा के गिरते ही हल्दीघाटी का युद्ध रुक गया।
यह एक आश्चर्य की ही बात है कि मेवाड़ के दो प्रमुख इतिहासकारों गौरीशंकर हीराचंद ओझा तथा श्यालदास ने हल्दीघाटी के युद्ध में झाला मानसिंह द्वारा महाराणा का छत्र धारण किए जाने की घटना का उल्लेख नहीं किया है किंतु कर्नल जेम्स टॉड ने इस घटना को पूरी तरह से साफ करके लिखा है।
आधुनिक इतिहासकारों द्वारा कर्नल टॉड के मत पर ही अधिक विश्वास किया जाता है तथा माना जाता है कि खानवा के मैदान में हुई घटना की पुनरावृत्ति हल्दीघाटी के मैदान में भी हुई। अर्थात् जिस प्रकार खानवा के मैदान में झाला अज्जा ने महाराणा का छत्र एवं राजकीय चिह्न धारण किए थे, उसी प्रकार हल्दीघाटी के युद्ध में झाला मन्ना ने महाराणा का छत्र धारण किया था।
उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में राजपूताने का इतिहास लिखने वाले अंग्रेज अधिकारी कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि महाराणा प्रताप के युद्धक्षेत्र से हट जाने से मेवाड़ी सेना की हिम्मत टूट गयी।
झाला मानसिंह, राठौड़ शंकरदास, रावत नेतसी आदि वीर सेनानियों ने अपने सैनिकों को थोड़ी देर और युद्ध के मैदान में जमाये रखने का यत्न किया परंतु कच्छवाहा मानसिंह की सेना ने मेवाड़ी सैनिकों के पैर जमने नहीं दिये और अंततः मेवाड़ी सेना के बचे हुए लोगों को भी या तो देह छोड़नी पड़ी या मैदान छोड़ना पड़ा। झाला मन्ना अपने 150 सैनिकों के साथ रणखेत रहा।
बीसवीं शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में राजपूताना रियासतों का इतिहास लिखने वाले महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि हल्दीघाटी के युद्ध में झाला बीदा, तंवर रामशाह अर्थात् रामसिंह तोमर, रामशाह के तीनों पुत्र, रावत नेतसी (सारंगदेवोत), राठौड़ रामदास, डोडिया भीमसिंह, राठौड़ शंकरदास आदि कई सरदार काम आये।
रामशाह अथवा रामसिंह तोमर ग्वालियर के उसी तोमर राजा विक्रमादित्य का पुत्र था जो ई.1526 में लोदियों की तरफ से बाबर के विरुद्ध लड़ता हुआ पानीपत के मैदान में काम आया था। तब रामशाह बालक ही था। हल्दीघाटी के युद्ध के समय राजा रामशाह लगभग 60 वर्ष का वृद्ध था।
इस लड़ाई में चित्तौड़ दुर्ग में साका करने वाले जयमल राठौड़ का पुत्र राठौड़ रामदास और ग्वालियर का राजा रामशाह अपने पुत्र शालिवाहन सहित बड़ी वीरता के साथ लड़कर मारे गये। कुछ लेखकों के अनुसार ग्वालियर के तोमर राजवंश का एक भी पुरुष इस युद्ध में जीवित नहीं बचा। जबकि कुछ लेखकों के अनुसार राजा रामशाह का पोता बलभद्र इस युद्ध में घायल तो हुआ पर जीवित बच गया। कच्छवाहा माधवसिंह के विरुद्ध लड़ते समय महाराणा प्रताप पर तीरों की बौछार की गई और हकीम खाँ सूर, जो सैय्यदों से लड़ रहा था, हल्दीघाटी से भागकर महाराणा के पीछे आया तथा महाराणा से मिल गया। इस प्रकार राणा के सैन्य के दोनों विभाग फिर एकत्र हो गये। फिर राणा लौटकर उन विकट पहाड़ों में चला गया, जो किसी दुर्ग के समान सुरक्षित था। तबकाते अकबरी का लेखक निजामुद्दीन अहमद बख्शी, महाराणा के दो घाव, एक तीर का और एक भाले का लगना लिखता है। इलियट ने इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी और अबुल फजल महाराणा प्रताप के घायल होने का उल्लेख नहीं करते।
अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि उष्णकाल के मध्य के इस दिन गर्मी इतनी पड़ रही थी कि खोपड़ी के भीतर मगज भी उबलता था। ऐसे समय लड़ाई प्रातःकाल से मध्याह्न तक चली और 500 आदमी खेत रहे, जिनमें 120 मुसलमान और 380 हिन्दू थे। 300 से अधिक मुसलमान घायल हुए।
अबुल फजल पहर दिन चढ़े लड़ाई का प्रारम्भ होना लिखता है, जो कि ठीक नहीं है। उदयपुर के जगदीश मंदिर की प्रशस्ति में प्रतापसिंह का प्रातःकाल युद्ध में प्रवेश करना लिखा है, यही विवरण सही है।
अबुल फजल द्वारा अकबर की तरफ के सैनिकों के मरने के सम्बन्ध में दी गई 120 संख्या पूरी तरह अविश्वसनीय है। एक तरफ वह स्वयं ही लिखता है कि दोनों ओर के सैनिकों के शवों से रणखेत पट गया और दूसरी ओर उसने युद्ध में मरने वालों की संख्या 500 ही लिखी है।
इस सम्बन्ध में सैय्यद अहमद खाँ बारहा का एक वक्तव्य विचारणीय है। जब अकबर की सेना के कर्मचारी, युद्ध में मारे गए मुगल सैनिकों एवं घोड़ों की सूची बनाने लगे, तो सैय्यद अहमद खाँ बारहा ने उनसे कहा कि ऐसी फेहरिश्त बनाने से क्या लाभ है? मान लो कि हमारा एक भी घोड़ा व एक भी आदमी नहीं मारा गया। इस समय तो खाने के सामान का बंदोबस्त करना चाहिये।
सैय्यद अहमद खाँ बारहा के इस वक्तव्य से अनुमान लगाया जाना कठिन नहीं है कि इस युद्ध में बड़ी संख्या में मुगल सैनिक मारे गये थे और मुगल अधिकारी अकबर तक उनकी सही सूची पहुंचाने से बचना चाहते थे। इस कारण मुगल अधिकारियों द्वारा महाराणा की पराजय और अकबर की विजय सिद्ध करने के लिये युद्ध में मृत मुगल सैनिकों की संख्या चालाकी से छिपा ली गई।
महाराणा का छत्र अजेय रहा एवं शत्रु के मुख पर पराजय की कालिख पुत गई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!