क्या महाराणा प्रताप तथा अकबर का संघर्ष दो जातियों का संघर्ष था?
निश्चित रूप से महाराणा प्रताप तथा अकबर का संघर्ष दो जातियों का संघर्ष था किंतु साम्यवादी इतिहासकारों ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की रक्षा के लिए इसे केवल दो राजाओं के बीच का संघर्ष कहकर इसकी गरिमा को कम करने का घिनौना खेल खेला है।
महाराणा प्रताप द्वारा मुगलों के विरुद्ध किए गए दिवेर युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने मेवाड़ रियासत के खोए हुए क्षेत्रों पर बड़ी तेजी से पुनः अधिकार कर लिया। इस समय तक अकबर की शक्ति और सेना, उसके राज्य और अनुभव सभी में विपुल वृद्धि हो चुकी थी किंतु फिर भी वह महाराणा प्रताप के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सका।
ई.1597 में महाराणा प्रताप ने चावण्ड के महलों में नश्वर देह का त्याग किया। अकबर ने इस समाचार को सुनकर राहत की सांस ली। संभवतः अकबर को लगता था कि महाराणा प्रताप के निधन के बाद अकबर मेवाड़ पर अधिकार कर लेगा किंतु यह अकबर की भूल थी। महाराणा प्रताप के निधन के आठ साल बाद तक अकबर जीवित रहा किंतु वह मेवाड़ को अपने अधीन नहीं कर सका।
महाराणा प्रताप तथा अकबर तो इस नश्वर संसार से चले गए किंतु उनके वंशजों के बीच यह युद्ध लगभग दो सौ सालों तक और चलता रहा। जब मुगल बादशाह कमजोर पड़कर लाल किले में ही सीमित हो गए तब भी मेवाड़ का हिंदुआ सूरज भारत की राजनीति के गगन पर उज्जवल प्रकाश बिखेरता रहा और भारतवासियों को अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देता रहा।
महाराणा प्रताप तथा अकबर के बीच के भयानक संघर्ष को कुछ इतिहासकारों ने दो जातियों तथा दो धर्मों का संघर्ष बताया है। उनके विचार से महाराणा प्रताप हिन्दू जाति तथा हिन्दू धर्म के गौरव की रक्षा के लिए मुगलों के विरुद्ध युद्ध कर रहा था। जबकि कुछ इतिहासकार इस मत को स्वीकार नहीं करते तथा महाराणा पर आरोप लगाते हैं कि उसने हिन्दू धर्म की रक्षा की बजाय अपने राज्य की रक्षा के लिये युद्ध किया।
यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो महाराणा प्रताप एवं अकबर के पूर्वजों के बीच ई.1527 से ही युद्ध आरम्भ हो गया था जब खानवा के मैदान में महाराणा प्रताप के दादा महाराणा सांगा ने अकबर के दादा बाबर से युद्ध किया था। यदि जातीय स्तर पर देखा जाए तो महाराणा प्रताप के पूर्वज बप्पा रावल के समय में आठवीं शताब्दी ईस्वी में ही मेवाड़ के शासकों ने खलीफा की सेनाओं से युद्ध करने आरम्भ कर दिए थे।
खुम्मांण (तृतीय) के समय में मेवाड़ तथा खलीफा की सेनाओं के बीच का युद्ध विशुद्ध जातीय संघर्ष के रूप में सामने आता है जो महाराणा प्रताप के बहुत से पूर्वजों के समय भी जारी रहता हुआ प्रताप के समय एवं उसके बाद भी चलता रहा था।
कुछ इतिहासकार महाराणा प्रताप द्वारा अकबर के विरुद्ध जातीय संघर्ष जारी रखने को उचित नहीं मानते, उनके अनुसार महाराणा प्रताप अव्यवहारिक तथा अदूरदर्शी था इसलिये महाराणा प्रताप ने सुलह एवं संधि का मार्ग न अपनाकर युद्ध एवं विनाश का मार्ग अपनाया। इस मत के समर्थन तथा विरोध में कई तर्क दिये जाते हैं।
महाराणा प्रताप के समर्थन में तर्क देने वालों का कहना है कि निश्चित रूप से महाराणा प्रताप हिन्दू धर्म तथा हिन्दू जाति के गौरव की रक्षा के लिये लड़ रहा था न कि अपने राज्य के लिये। यदि महाराणा प्रताप चाहता तो वह भी कुंवर मानसिंह तथा राजा भगवानदास के बहकावे में आकर अकबर की अधीनता स्वीकार करके सरलता से चित्तौड़ का दुर्ग प्राप्त कर सकता था तथा उदयपुर को अपनी राजधानी बनाये रख सकता था किंतु हिन्दुआनी आन, बान और शान ने महाराणा को अकबर के समक्ष झुकने नहीं दिया।
महाराणा के समर्थकों का कहना है कि यदि महाराणा के विरोधियों की यह बात मान ली जाए कि महाराणा प्रताप अपने राज्य तथा सिसोदिया कुल की राज्यसत्ता की रक्षा के लिये ही लड़ रहा था तो महाराणा यह कार्य अकबर की अधीनता स्वीकार करके भी बड़ी सरलता से कर सकता था।
महाराण के समर्थकों के अनुसार यदि महाराणा के विरोधियों की यह बात मान ली जाए कि महाराणा प्रताप अव्यवहारिक, कल्पनाशील तथा वास्तविकता को नहीं समझने वाला था तो उसने अपने शासन के आरम्भ में अकबर द्वारा भेजे गये उपहार क्यों स्वीकार किये?
महाराणा ने अपने शासन के आरम्भ में कुंवर अमरसिंह को अकबर के दरबार में भेजकर सद्भावना का परिचय क्यों दिया?
स्पष्ट है कि महाराणा प्रताप, अकबर द्वारा दिखाई गई सद्भावना के बदले में सद्भावना का ही प्रदर्शन करता रहा। महाराणा ने अकारण युद्ध खड़ा नहीं किया किंतु जब अकबर ने यह इच्छा की कि महाराणा प्रताप अकबर की अधीनता स्वीकार करे तो महाराणा प्रताप हिंदुआनी आन को बेचने के लिए तैयार नहीं हुआ।
महाराणा के समर्थकों के अनुसार यदि महाराणा प्रताप अव्यवहारिक व्यक्ति होता तो वह अवश्य ही तलवार के बल पर अपने पूर्वजों के दुर्ग चित्तौड़ को लेने का प्रयास करता किंतु महाराणा ने परिस्थितियों की वास्तविकता को समझते हुए, ऐसा करने का प्रयास नहीं किया।
महाराणा के समर्थकों का कहना है कि महाराणा ने अकबर पर आक्रमण नहीं किया अपितु अकबर ने महाराणा पर आक्रमण करके महाराणा को युद्ध करने के लिये विवश किया था।
यदि महाराणा को हिन्दू धर्म की आन, बान और शान की चिंता नहीं होती तो वह अपने अंतिम दिनों में इस बात को लेकर चिंतित क्यों होता कि संभवतः उसका पुत्र अमरसिंह हिन्दुओं के गौरव की रक्षा नहीं कर सकेगा!
अकबर ने महाराणा प्रताप पर निरंतर दबाव बनाया कि महाराणा प्रताप, अकबर के दरबार में उपस्थित होकर उसे मुजरा करे किंतु महाराणा ने हिन्दू धर्म, हिन्दू जाति की मर्यादा तथा उसके गौरव की रक्षा के लिये अकबर के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।
यदि महाराणा को हिन्दू धर्म के गौरव की चिंता नहीं होती तो अकबर के दरबारी पीथल (पृथ्वीराज राठौड़) द्वारा महाराणा को पत्र लिखे जाने पर प्रताप ने अकबर के प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग करके अकबर का तिरस्कार नहीं किया होता।
महाराणा प्रताप के समर्थन में तर्क देने वालों का कहना है कि यदि महाराणा प्रताप हिन्दू धर्म के गौरव की रक्षा के लिये नहीं लड़ रहा होता तो महाराणा के समकालीन तथा बाद के समय में हुए चारणों, भाटों एवं स्थानीय कवियों ने महाराणा प्रताप की युद्ध गाथा को हिन्दू जाति के गौरव की रक्षा से जोड़कर नहीं लिखा होता।
सिसोदियों का इतिहास बताता है कि वे मुगलों, मराठों और अंग्रेजों से बराबरी के स्तर पर मित्रता करने को तैयार थे किंतु उनकी अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए। महाराणा प्रताप से पहले, रानी कर्णवती ने भी हुमायूँ को राखी भेजकर मुगलों की तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाया था जिसे हुमायूँ ने अस्वीकार कर दिया था।
वह मित्रता का प्रस्ताव था न कि अधीनता का। जबकि दूसरी ओर आम्बेर के राजा भारमल ने अकबर की अधीनता स्वीकार करके मुगलों की सहायता प्राप्त की थी न कि बराबर के स्तर पर मित्रता करके।
वर्तमान राजनीतिक वातावरण में अधिकांश इतिहासकारों को हिन्दू धर्म के गौरव से अधिक चिंता स्वयं को धर्मनिरपेक्ष दिखाने की है। इसलिये वे महाराणा प्रताप के महान त्याग एवं संघर्ष को तुच्छ राज्य के लिये किया गया संघर्ष बताते हुए नहीं हिचकिचाते।
वास्तव में अकबर और महाराणा प्रताप के बीच का संघर्ष दो राजाओं के बीच का संघर्ष नहीं था, अपितु यह विदेशी आक्रांताओं एवं स्वदेशी राष्ट्रवादियों के बीच का संघर्ष था जो इन दोनों राजाओं के पूर्वजों के समय में आठवीं शताब्दी ईस्वी में आरम्भ होकर उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी में मुगल राज्य के कमजोर पड़ जाने तक चलता रहा।
–डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!