Sunday, March 23, 2025
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रामशाह तंवर का बलिदान (125)

जिस प्रकार मानसिंह कच्छवाहा हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की उपलब्धियों से विलग और स्वतंत्र अभिव्यक्ति का आकांक्षी है। उसी प्रकार ग्वालियर नरेश रामशाह तंवर का बलिदान भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अभिलाषी है। तंवरों को भारत के इतिहास में तोमरों के नाम से भी जाना जाता है।

राजा रामशाह तंवर, महाराणा प्रताप की बहिन का ससुर था तथा महाराणा उदयसिंह के समय से मेवाड़ का सामंत था। एक समय था जब आगरा का लाल किला ग्वालियर के तोमरों के अधिकार में हुआ करता था किंतु दिल्ली के लोदी सुल्तानों ने तोमरों से आगरा और ग्वालियर के किले छीन लिए थे।

तब से ग्वालियर के तोमर लोदियों के अमीर बन गए थे। ई.1536 में जब रामशाह तंवर की माता ने मुगल शहजादे हुमायूँ को बहुत सारा धन एवं कोहिनूर हीरा देकर अपने परिवार के प्राण बचाए थे, उस समय राजकुमार रामशाह तंवर 9-10 वर्ष का बालक था।

आगरा से निकलकर यह परिवार चम्बल के बीहड़ों में आ गया और बाद में इन्हें मेवाड़ के महाराणाओं का आश्रय मिल गया। तब से ग्वालियर के तोमर मेवाड़ के महाराणाओं के सामंतों के रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए थे।

ई.1556 में रामशाह ने ग्वालियर के दुर्ग पर फिर से अधिकार कर लिया। ई.1558 में अकबर ने ग्वालियर पर आक्रमण करके रामशाह को पुनः ग्वालियर से बाहर निकाल दिया।

इस बार भी रामशाह तंवर तथा उसका परिवार महाराणा उदयसिंह की सेवा में मेवाड़ चला आया। महाराणा उदयसिंह ने रामशाह के पुत्र शलिवाहन से अपनी एक पुत्री का विवाह कर दिया तथा रामशाह को प्रतिदिन 800 रुपये की वृत्ति बांधकर 20 लाख रुपये वार्षिक आय की जागीर प्रदान की थी।

जब ई.1567 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया तब यही रामशाह तोमर, महाराणा उदयसिंह के साथ पहाड़ियों में गया था।

हल्दीघाटी के मैदान में रामशाह तोमर महाराणा प्रताप के घोड़े के ठीक सामने रहा और रणक्षेत्र में उसने महाराणा की सुरक्षा का दायित्व निर्वहन किया। उसके तीनों पुत्रों- शालिवाहन, भवानीसिंह तथा प्रतापसिंह ने भी इस युद्ध में भाग लिया।

उसका एक पुत्र महाराणा की गजसेना का अध्यक्ष था तथा एक पुत्र महाराणा की अश्व सेना का अध्यक्ष था। युद्धक्षेत्र में जगन्नाथ कच्छवाहा ने वीर कुल शिरोमणि रामशाह तंवर के प्राण लिए।

राजकुमार शालिवाहन के नेतृत्व में तोमर वीरों ने मुगलों की सेना पर ऐसा प्रबल धावा किया कि मुगल सेना हल्दीघाटी के मैदान से पांच कोस दूर भाग गई। राजा रामशाह के तीनों पुत्र अपने 300 तोमर वीरों सहित इस युद्ध में रणखेत रहे।

खमनौर तथा भागल के बीच जिस स्थान पर तंवरों की छतरियां बनी हुई हैं, वह स्थान रक्ततलाई कहलाता है क्योंकि यहाँ रामशाह के पुत्रों एवं तोमर सैनिकों ने भयानक मारकाट मचाई जिससे रक्त की तलैया बन गई। वीरवर रामशाह तंवर, उसके पुत्र तथा सैनिक इसी तैलया में अपना रक्त मिलाकर शोणित की वैतरणी पार कर गये।

भारत का इतिहास तंवर वीरों के अमर बलिदान पर गर्व करता है। निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि इस युद्ध में यदि किसी ने सर्वाधिक बलिदान दिया था तो वह रामशाह तंवर तथा उसका परिवार ही था। रामशाह तंवर का बलिदान तोमरों के इतिहास का ठीक वैसा ही गौरवशाली पृष्ठ है जैसा कि तराईन के युद्ध में राजा गोविंद राय तोमर द्वारा दिया गया बलिदान।

कर्नल जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी युद्ध को अत्यंत महत्त्व देते हुए इसे मेवाड़ की थर्मोपेली और दिवेर युद्ध को मेवाड़ का मेरेथान लिखा है। पाठकों की सुविधा के लिए बताना समीचीन होगा कि दिवेर का युद्ध, हल्दीघाटी युद्ध के सात साल बाद ई.1583 में हुआ था।

आधुनिक काल में कर्नल टॉड को ही हल्दीघाटी युद्ध को प्रसिद्ध करने का श्रेय जाता है। हल्दीघाटी का युद्ध कई प्रकार से थर्मोपेली के युद्ध से बढ़-चढ़कर था। थर्मोपेली के युद्ध में यूनानवासियों की हार तथा लियोनिडास की मृत्यु हुई थी जबकि हल्दीघाटी के युद्ध में मेवाड़वासियों की विजय हुई थी तथा इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप दीर्घकाल तक सुखपूर्वक जिया था।

थर्मोपेली के युद्ध में यूनानवासियों ने लियोनिडास को धोखा दिया था किंतु हल्दीघाटी के युद्ध में किसी मेवाड़वासी ने प्रताप से धोखा नहीं किया था। इस कारण हल्दीघाटी तथा थर्मोपेली की परस्पर तुलना नहीं की जा सकती किंतु थर्मोपेली के युद्ध तथा उसके नायक लियोनिडास को सम्पूर्ण यूरोप में जो प्रसिद्धि मिली थी, ठीक वैसी ही अपितु उससे भी बढ़कर हल्दीघाटी के युद्ध तथा उसके नायक महाराणा प्रताप को भी विश्वव्यापी प्रसिद्धि प्राप्त हुई।

पाठकों की सुविधा के लिए थर्मोपेली के बारे में कुछ तथ्य बताने समीचीन होंगे। थर्मोपेली, उत्तरी और पश्चिमी यूनान के बीच एक संकरी घाटी है जिसके बीच की भूमि सपाट है। ई.480 में ईरान के बादशाह जर्कसीज ने बड़े सैन्य दल के साथ यूनान देश पर आक्रमण किया।

उस समय यूनान में भी हिन्दुस्तान की तरह अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य थे, जिन्होंने मिलकर अपने में से स्पार्टा के वीर राजा लियोनिडास को थर्मोपेली की घाटी में 8,000 सैनिकों सहित ईरानियों का सामना करने के लिये भेजा।

ईरानियों ने कई बार उस घाटी को जीतने का प्रयास किया परंतु हर बार उन्हें बड़े नरसंहार के साथ पराजित होकर लौटना पड़ा। अंत में एक विश्वासघाती पुरुष की सहायता से ईरानी लोग पीछे से पहाड़ पर चढ़ आये।

लियोनिडास ने अपनी सेना में से बहुत से सिपाहियों को ईरानियों के पक्ष में मिल जाने के संदेह में केवल 1000 विश्वासपात्र योद्धाओं को अपने पास रखा और शेष को निकाल दिया। लियोनिडास अपने सिपाहियों सहित लड़ता हुआ मारा गया।

उसकी सेना में से केवल एक सैनिक जीवित बचा जिसने इस युद्ध का विवरण यूरोपवासियों को बताया और लियोनिडास सम्पूर्ण यूनान का गौरव बन गया।

हल्दीघाटी युद्ध की भयावहता का वर्णन करते हुए मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने काव्यमय शैली में लिखा है-

सेना की जब सेना से मुठभेड़ हुई,

पृथ्वी पर स्वर्ग जाने का दिन जल्दी आ गया।

खून के दो समुद्रों ने एक दूसरे को टक्कर दी,

उनसे उठी उबलती लहरों ने पृथ्वी को रंग-बिरंगा कर दिया।

जान लेने और जान देने का बाजार खुल गया।

दोनों ओर के योद्धाओं ने

अपना जीवन दे दिया और अपना सम्मान बचा लिया।

बहुसंख्यक वीर एक दूसरे से लड़े,

रण क्षेत्र में बहुत सा रुधिर बहने लगा।

दिल बलने लगे, चिल्लाहटें गूंजने लगीं,

गरदनें फन्दों से भिंच गईं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

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