चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई। उस समय भारत भूमि पर मुस्लिम शासन विकराल गति से विस्तार पा रहा था। उत्तर भारत पर सुन्नी मुसलमानों का कब्जा था तो दक्षिण भारत में पांच शिया राज्यों की नींव रखी जा रही थी। दिल्ली की सत्ता पर क्रूर तुगलकों का शासन था और पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण में सैंकड़ों मुस्लिम अमीर (जागीरदार), सूबेदार (प्रांतपति), सुल्तान और बादशाह राज्य कर रहे थे। हिन्दू राज्य इक्का-दुक्का ही बचे थे और वे अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए अपने पड़ौसी मुसलमान राज्यों से घनघोर संघर्ष कर रहे थे। वह काल हिन्दू-धर्म एवं संस्कृति के लिए बहुत विपत्ति का काल था। चारों तरफ सर्वनाश के लक्षण दिखाई दे रहे थे।
इस घनघोर विपत्ति के काल में दक्षिण भारत में कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदियों के बीच स्थित रायचूर के समृद्ध दोआब क्षेत्र में हिन्दू-धर्म एवं संस्कृति की रक्षा करने के संकल्प के साथ महान् विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई। विजयनगर साम्राज्य लगभग साढ़े तीन सौ साल तक अस्तित्व में रहा। इस साम्राज्य का बनना, बने रहना और हिन्दू धर्म को बचाए रखने के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देना, अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं था।
यदि यह कहा जाए कि विजयनगर साम्राज्य भारत माता की आत्मा द्वारा संजोया गया एक स्वर्णिम-स्वप्न था जिसे आर्य संस्कृति के चारों वर्णों- ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शिल्पियों ने मिलकर साकार किया था, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
शृंगेरी मठ का ब्राह्मण माधव विद्यारण्य विजयनगर साम्राज्य का स्वप्नदृष्टा था जिसके नाम पर इस साम्राज्य की स्थापना हुई। संगम वंश के दो क्षत्रिय युवकों हरिहर एवं बुक्का ने इस दिव्य स्वप्न को मूर्त्त रूप दिया। धनी एवं उदारमना वैश्यों ने इस साम्राज्य को सजाया, संवारा, समृद्ध बनाया तथा शिल्पियों ने इस स्वप्न को हिन्दू-मानसलोक से बाहर निकालकर धरती पर खड़ा कर दिया।
महान् विजयनगर साम्राज्य कृष्णा एवं तुंगभद्रा के जिस समृद्ध दोआब में स्थापित हुआ, उस भूमि पर प्राचीन काल में अनेक प्रतापी हिन्दू राजवंशों का शासन रहा था जिनमें सातवाहन, होयसल, काकतीय, वनवासी, कदम्ब, गंग, चोल, चालुक्य, तैलंग, राष्ट्रकूट, पाण्ड्य तथा चेर प्रमुख थे। इन गौरवशाली प्राचीन हिन्दू राज्यों की लगभग समस्त भूमि विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत रही।
विजयनगर साम्राज्य की विशालता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आधुनिक भारत के कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल एवं गोआ आदि सम्पूर्ण प्रांत, उड़ीसा प्रांत के कुछ भाग, महाराष्ट्र प्रांत के कुछ भाग तथा श्रीलंका के भी कुछ भाग न्यूनाधिक समय के लिए विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत रहे। चूंकि सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी में विजयनगर राज्य का मुख्य क्षेत्र कर्नाटक तक ही सीमित होकर रह गया था, इसलिए अनेक पुस्तकों में विजयनगर साम्राज्य को कर्नाटक राज्य भी लिखा गया है।
जब बहमनी सुल्तानों ने रायचूर पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया तो पूरे साढ़े तीन सौ साल तक विजयनगर के राजा रायचूर पर फिर से अधिकार करने का प्रयास करते रहे। वे बार-बार रायचूर के दोआब पर अधिकार करते किंतु मुलसमान शासक उसे बार-बार छीन लते। रायचूर का दोआब ही अंततः विजयनगर साम्राज्य के अंत का मुख्य कारण बना।
विजयनगर साम्राज्य के राजा पूरे साढ़े तीन सौ साल तक अपने पड़ौसी मुस्लिम राज्यों से तलवार बजाते रहे। उनकी तलवार एक पल के लिए भी नहीं रुकी। विजयनगर की यह तलवार तभी थमी, जब विजयनगर साम्राज्य की सांसें भी थककर अनंत में विश्राम करने चली गईं।
विजयनगर जैसे महान् साम्राज्य धरती पर कम ही खड़े हुए हैं। आज भी हम्पी की हवाओं में अप्रतिम राजाओं की तलवारों की खनखनाहटें, योद्धाओं के घोड़ों की टापें, संगीतकारों की वीणाओं से निकली झंकारें तथा नृत्यांगनाओं के घुंघरुओं की रुनझुन सुनाई देती है। विजयनगर के साहित्यकारों की लेखनी ने सम्पूर्ण मानव संस्कृति को परिष्कृत किया। हम्पी के भवनों को देखकर ऐसा लगता है मानो उन अनजान हजारों शिल्पियों की छेनियों की खनखन इतिहास के नेपथ्य से निकलकर आज भी हवाओं में तैर रही है जिन्होंने अपना पूरा जीवन विजयनगर को संवारने में लगा दिया।
विजयनगर के समृद्ध एवं साहसी व्यापारी अपनी विशाल नौकाओं में भांति-भांति की विक्रय सामग्री भरकर देश-विदेश के तटों तक पहुंचते थे और वहाँ से विशाल मात्रा में स्वर्ण एवं रजत मुद्राएं लाकर न केवल विजयनगर के राजाओं का कोष भरते थे, अपितु पूरे समाज की समृद्धि के लिए सुदृढ़ आर्थिक आधार प्रस्तुत करते थे।
इस पुस्तक को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि यदि महान् विजयनगर साम्राज्य का उदय नहीं हुआ होता तो ई.1947 में भारत की स्वतंत्रता के समय पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान की तरह दक्षिणी पाकिस्तान भी अस्तित्व में आया होता जिसके लिए बहुत से अंग्रेज अधिकारियों एवं हैदराबाद के निजाम ने पूरी शक्ति झौंक दी थी तथा जिसके लिए आज भी लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर षड़यंत्र चल रहे हैं। यदि दक्षिणी पाकिस्तान न बन सका तो उसके लिए न केवल आधुनिक काल के विलक्षण नेता सरदार पटेल धन्यवाद के पात्र हैं, अपितु विजयनगर के महान् राजा भी साधुवाद के अधिकारी हैं।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ में तुर्कों एवं मुगलों का इतिहास बड़े विस्तार से लिखा किंतु विजयनगर साम्राज्य पर केवल दो पैराग्राफ लिखे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के विश्वविद्यालयों ने इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को पत्थर की लकीर की तरह अंगीकार कर लिया। इस कारण विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में तुर्कों, मुगलों एवं अग्रेजों के इतिहास को बड़े विस्तार के साथ लिखा गया है जबकि विजयनगर का इतिहास अत्यंत संक्षेप में समेट दिया गया है। इस कारण भारत के विद्यार्थी अपने देश के गौरवमयी इतिहास से वंचित रह जाते हैं तथा उनके मानस में भारत के इतिहास का समग्र चित्र अंकित नहीं हो पाता।
विजयनगर साम्राज्य का इतिहास जहाँ एक ओर भारतीय इतिहास का गौरव है, वहीं यह भारत के इतिहास की दुखती हुई रग भी है। यह संसार के महानतम साम्राज्यों में से एक था जो कतिपय हिन्दू राजकुमारों के स्वार्थ, सामंतों की क्षुद्र-बुद्धि तथा इस्लामिक जेहाद की भेंट चढ़ गया। संसार भर के साम्राज्यों में सबसे विलक्षण, सबसे ऊर्जावान, सबसे अधिक प्रतिभावान, सबसे अधिक रचनात्मक एवं सबसे अधिक समृद्ध विजयनगर साम्राज्य न केवल इस्लामिक कट्टरता के कारण अपितु अपनी ही कुछ गलतियों के कारण तिनका-तिनका होकर बिखर गया।
इस पुस्तक में विजयनगर साम्राज्य का इतिहास उसकी समस्त विशेषताओं एवं दुर्बलताओं का वास्तविक चित्रण करते हुए लिखा गया है ताकि हम भविष्य में उन गलतियों को दोहराने से बचें। यह पुस्तक महान् विजयनगर साम्राज्य के महान् राजाओं को एक विनम्र श्रद्धांजलि है। आशा है कि इस पुस्तक के माध्यम से हमारी नई पीढ़ी विजयनगर साम्राज्य और उसके महान् राजाओं के योगदान के बारे में जान सकेगी। शुभम्।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता