Sunday, March 23, 2025
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हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप (124)

हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप वैसा ही था जैसा सांपों के झुण्ड में पक्षीराज गरुड़! हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप ऐसा था जैसा दो मुंह वाला योद्धा! हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप वैसा ही था जैसा कौरवों के बीच अर्जुन। हल्दीघाटी का युद्ध कोई सामान्य युद्ध नहीं था। यह हिन्दू गौरव की पराकाष्ठा को प्रतिष्ठित करने वाला था। इस युद्ध की गूंज सदियों तक सुनाई देने वाली थी।

18 जून 1576 को हल्दीघाटी के मैदान में दोनों पक्षों के सैनिक लड़ते हुए रक्ततलाई तक जा पहुंचे। कहा जाता है कि उस समय इस स्थान का नाम रक्ततलाई नहीं था अपितु दोनों पक्षों के सैनिकों के रक्त के भूमि पर गिरने से यहाँ रक्त की एक तलाई बन गई जिसके कारण इस स्थान का नाम रक्ततलाई पड़ गया।

मध्याह्न पश्चात् महाराणा प्रताप के रक्ततलाई छोड़ने के साथ ही युद्ध रुक गया। महाराणा प्रताप किसी भी हालत में युद्ध-क्षेत्र छोड़ना नहीं चाहता था किंतु हकीम खाँ सूरी तथा भामाशाह महाराणा प्रताप के घोड़े को जबर्दस्ती युद्ध-क्षेत्र से खींच कर ले गए।

महाराणा मुट्ठी भर सैनिकों के साथ युद्ध के मैदान से निकला था। यदि मुगल सैनिक चाहते तो महाराणा का पीछा कर सकते थे किंतु किसी भी मुगल सेनापति की हिम्मत महाराणा के पीछे जाने की नहीं हुई।

मुल्ला बदायूंनी लिखता है- ‘जिस समय महाराणा प्रताप युद्ध में घायल होकर रक्ततलाई से निकला, उस समय आग के समान भयानक गर्म लू चल रही थी। हमारी सेना में यह खबर फैल गई कि राणा छल करने के लिए पहाड़ के पीछे घात लगाये खड़ा है।

इस कारण हमारे सैनिकों ने राणा का पीछा नहीं किया। वे अपने डेरों में लौट गये और घायलों का इलाज करने लगे।’

हल्दीघाटी का युद्ध निश्चित रूप से दो पक्षों के बीच हुआ। एक पक्ष भारत की सर्वशक्तिशाली मुगल सत्ता का था तथा दूसरा पक्ष भारत के सबसे पराक्रमी और गौरवशाली राजकुल गुहिलों का।

मुगलों की तरफ से लड़ने के लिये मानसिंह के नेतृत्व में कच्छवाहे सरदार तथा मुगल सल्तनत के लगभग समस्त प्रसिद्ध अमीर आये थे जबकि गुहिलों की तरफ से लड़ने के लिये प्रमुख रूप से ग्वालियर के तंवर, मुट्ठी भर चौहान, सोलंकी, डोडिया, समदड़ी के झाला, जालोर के सोनगरे, मेड़तिया राठौड़, भामाशाह, उसका भाई ताराचंद ओसवाल एवं अफगान हकीम खाँ सूरी आये थे।

मुगलों का पक्ष बहुत भारी था और महाराणा के पास बहुत कम सेना थी।

इस प्रकार हल्दीघाटी के युद्ध में यही दो पक्ष स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं किंतु एक तीसरा पक्ष भी इस लड़ाई में मौजूद था जो इन पक्षों के केन्द्र में था, वही मुख्य भूमिका में भी था। वह था कच्छवाहों का राजकुमार मानसिंह, जो इस समय अकबर का सेनापति बनकर आया था।

मानसिंह तथा महाराणा प्रताप का सैंकड़ों साल पुराना रोटी-बेटी का सम्बन्ध था। जिस प्रकार महाराणा के कुल ने हिन्दुओं की बड़ी सेवा की थी, उसी प्रकार मानसिंह के कुल ने भी आगे चलकर हिन्दुओं की बड़ी सेवा की। विशेषतः तब, जब अकबर का वंशज औरंगजेब भारत का शासक बना। तब मानसिंह के वंशजों ने छत्रपति शिवाजी के प्राणों की रक्षा एक से अधिक बार की थी।

इसलिए इस युद्ध में मानसिंह को युद्धरत दो पक्षों में से एक समझने की बजाय तीसरे पक्ष के रूप में देखा जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि अकबर का सेनापति होते हुए भी मानसिंह अपने पक्ष की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का आकांक्षी था। तीसरे पक्ष के रूप में मानसिंह हल्दीघाटी के युद्ध में अपनी विजय की स्पष्ट घोषणा करता है।

अकबर का पक्ष प्रमुख रूप से मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी तथा अबुल फजल ने लिखा जबकि महाराणा प्रताप का पक्ष चारण कवियों ने ख्यातों एवं फुटकर रचनाओं में लिखा। अमरकाव्य वंशावली, राजरत्नाकर, जगन्नाथराय प्रशस्ति, राणा रासौ आदि रचनाओं में भी राणा प्रताप का पक्ष अच्छी तरह से रखा गया है।

मानसिंह का पक्ष ऐतिहासिक महाकाव्य ‘मानप्रकाश’ के रूप में सामने आता है जिसकी रचना मानसिंह के दरबारी कवि मुरारीदास ने की थी। वह लिखता है कि दोनों सेनाएं बहुत देर तक युद्ध की भावना से तथा चमकती हुई तलवारों की कांति से उद्दीप्त थीं।

राजा मानसिंह भुज-प्रताप से क्षण भर में विपक्षियों को छिन्न-भिन्न कर, जीत कर अपने प्रताप से वैरी वर्ग को सन्तप्त करता हुआ, इन्द्र के समान सुशोभित हुआ।

जब मानसिंह युद्ध कर रहा था तब उसका छोटा भाई माधवसिंह आ गया। उसने मानसिंह से कहा- राजन्! आप क्षण भर के लिये विश्राम कर लीजिये, इस युद्ध को समाप्त कीजिये। यह कहकर वीर माधवसिंह युद्धाभिमुख हुआ तथा समस्त विपक्षी योद्धाओं को व्यग्र बना दिया। उस समय उसके भय से कोई भी योद्धा, युद्ध के लिये सामने नहीं आया।

 माधवसिंह के बाण से अनेक योद्धा छिन्न-भिन्न हो गये। अनेक राजा दीन हो गये, कुछ युद्ध भूमि छोड़कर भाग गये, कुछ युद्ध करने के लिये कुछ समय तक खड़े रहे। दुर्मद-वीर-वर्य राणा प्रताप, माधवसिंह से लड़ने के लिये सामने आया।

कर्ण के समान प्रतापी राणा प्रताप, अर्जुन के समान शक्तिशाली राजा मान को जीतने की इच्छा से कठोर वचन बोला- माधवसिंह! वीरों को अपने बल से विद्रावित कर तुम इस रणभूमि में जो हर्ष का अनुभव कर रहे हो, मैं अभी क्षण भर में राजा मान सहित तुम्हें हर्षहीन बना दूंगा।

राणा प्रताप के जीवित रहते तुम युवकों की जो जीतने की इच्छा है, वह व्यर्थ ही है। मैं जो कह रहा हूँ, उसे अच्छी तरह जान लो, मैं भगवान विष्णु के चरणों की शपथ खाकर कह रहा हूँ।

इस प्रकार कहकर वीर प्रताप ने उन दोनों को सैंकड़ों बाणों से ढक दिया। आकाश, बाण समूह से आच्छन्न हो गया और वह दिन, दुर्दिन के समान प्रतीत होने लगा।

सर्वप्रथम हाथी से हाथी भिड़ गये तथा घोड़े से घोड़े। पैदल से पैदल लड़ने लगे, इस प्रकार उस समय बराबरी का युद्ध हो रहा था। इस भयंकर संग्राम को देखकर देवताओं का समूह भी आश्चर्य चकित हो गया। शस्त्रों की अधिकता से हुए घने अंधकार में भय से आक्रांत मन व शरीर वाले योद्धा इतस्ततः भागने लगे।

जो जिसके सामने आया, उसने उसे मार डाला। अपने पराये का भेद नहीं रखा गया। राणा की सेना बाणों से छिन्न-भिन्न शरीरा विदेह के समान इतस्ततः दौड़ने लगी। जिस प्रकार बादल जलधारा से भूमि को रोक देता है, उसी प्रकार उस राणा ने पुनः सैंकड़ों बाणों से शूरवीर मानसिंह को रुद्ध कर दिया।

उसके बाणों से आच्छन्न धनुर्धारी युद्ध की कामना से उसके सामने जा खड़ा हुआ। राणा प्रताप के बाणों से उत्पन्न घने अंधकार को दूर करके सूर्य के समान मानसिंह रणभूमि में शत्रुओं के लिये उत्पेक्षणीय हो गया।

खड़ग से काटे गये हाथी और बाणों से छिन्न-भिन्न घुड़सवार वहाँ गिरे हुए थे। महीपालमणि मान के भय से अनेक योद्धा गिर पड़े थे। युद्ध करने वाले योद्धाओं के रक्त की नदी उत्पन्न हो गयी। मरे हुए हाथी महान् पर्वत के समान लग रहे थे तथा योद्धाओं के केश, शैवाल की भांति शोभा दे रहे थे। मानसिंह ने अपने पराक्रम से रणनदी को विशाल बना दिया।

दो मुख वाले व्यक्ति के समान बड़े वेग से आगे तथा पीछे देखता हुआ राणा प्रताप, हत-गति हो गया। राणा प्रताप के पीछे क्रोध से दौड़ते हुए राजा मानसिंह ने भी निष्प्राण के समान इस एक को ही छोड़ा। अर्थात् राणा प्रताप के अतिरिक्त सब को मार डाला।

यह एक अच्छी साहित्यिक रचना है किंतु मानप्रकाश का यह वर्णन अतिश्योक्तिपूर्ण तो है ही, काफी अंशों में असत्य भी है। साथ ही, राजस्थान में इस युद्ध के सम्बन्ध में जो बातें बहुतायत से और उसी काल से प्रसिद्ध हैं, मानप्रकाश की बातें उनसे भी मेल नहीं खातीं। 

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

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