Tuesday, July 1, 2025
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ऋग्वैदिक समाज एवं धर्म

ऋग्वैदिक समाज एवं धर्म स्वयं को प्रकृति का आभारी समझता था इस काल का मानव समझ गया था कि प्रकृति की अनुकूलता से ही मानव का जीवन संभव है। इसलिए ऋग्वैदिक समाज पूर्णतः धर्म पर आधारित था।

हे आदित्य, हे मित्र, हे वरुण, हे इन्द्र! आपके प्रति मैंने बहुत अपराध किए हैं; उन्हें क्षमा करें और मुझे उस अभय-ज्योति का वरदान दें जिससे मुझे अज्ञान का क्लेश न सताए। -ऋग्वेद, 2.27.14.

भारत में ऋग्वैदिक सभ्यता का प्राकट्य सर्वप्रथम सप्त-सिंधु क्षेत्र तथा सरस्वती नदी के निकट दिखाई देता है। ऋग्वेद में सप्त-सैन्धव प्रदेश तथा सरस्वती नदी का अनेक मंत्रों में गुण-गान किया गया है। यद्यपि अब सरस्वती नदी विद्यमान नहीं है और उसे प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर अदृश्य मान लिया गया है परन्तु उन दिनों वह सतजल तथा कुरुक्षेत्र के मध्य बहती थी।

ऋग्वैदिक आर्यों की राजनीतिक व्यवस्था

यद्यपि ऋग्वेद एक धार्मिक ग्रन्थ है तथापि उसकी अनेक ऋचाओं में उस काल की राजनीतिक व्यवस्था की जानकारी मिलती है। ऋग्वैदिक समाज एवं धर्म एक सुव्यवस्थित राजनीतिक व्यवस्था को जन्म देने में सफल रहे थे।

दस्युओं अथवा आर्य-पूर्वों से संघर्ष

ऋग्वेद में वर्णित इंद्र यद्यपि देवताओं का राजा है तथापि इन्द्र ने आर्यों के शत्रुओं को अनेक बार हराया। ऋग्वेद में इंद्र को पुरंदर कहा गया है जिसका अर्थ होता है दुर्गों को तोड़ने वाला परन्तु आर्य-पूर्वों के इन दुर्गों को पहचान पाना सम्भव नहीं है। आर्यों के शत्रुओं के अस्त्र-शस्त्रों के बारे में भी बहुत कम जानकारी मिलती है।

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इनमें से कुछ हड़प्पा संस्कृति के लोगों की बस्तियां हो सकती हैं परन्तु आर्यों की सफलता के बारे में संदेह नहीं है। इस सफलता का मुख्य कारण वे रथ थे जिनमें घोड़े जोते जाते थे। आर्यों के साथ ही पश्चिमी एशिया और भारत में घोड़ों का आगमन हुआ। आर्य सैनिक सम्भवतः कवच (वर्म) पहनते थे और उनके हथियार श्रेष्ठ थे। ऋग्वेद से जानकारी मिलती है कि ‘दिवोदास’ ने, जो भरत कुल का आर्य राजा था, ‘शंबर’ को हराया था। शंबर एक दस्यु राजा था जिसने आकाश में नब्बे, निन्यानवे अथवा सौ दुर्गों का निर्माण किया था। आकाश में दुर्ग निर्माण के उल्लेख से अनुमान होता है कि शंबर कोई पर्वतीय अनार्य राजा था जिसने पर्वतों पर बड़ी संख्या में दुर्गों का निर्माण किया था। ऋग्वेद के दस्यु सम्भवतः इसी पर्वतीय देश के मूल निवासी थे, और इन्हें हराने वाला योद्धा, एक आर्य-मुखिया था। यहाँ दिवोदास के नाम के साथ दास शब्द जुड़ा हुआ है जिससे अनुमान होता है कि यह आर्य-मुखिया, दासों से तो सहानुभुति रखता था, किन्तु दस्युओं का कट्टर शत्रु था। ऋग्वेद में दस्युहंता शब्द का बार-बार उल्लेख आया है दस्यु सम्भवतः लिंग-पूजक थे और दूध-दही, घी आदि के लिए गाय, भैंस नहीं पालते थे।

पंच-जनों का युद्ध

प्राचीन आर्यों का कोई संगठित राज्य नहीं था। आर्य छोटे-छोटे राज्यों (जन) में विभक्त थे जिनमें परस्पर वैमनस्य था। फलतः आर्यों को न केवल अनार्यों से युद्ध करना पड़ा वरन् उनमें आपस में भी युद्ध होता था। इस प्रकार आर्य दोहरे संघर्ष में फंसे हुए थे। आर्यों के भीतर के संघर्ष के कारण उनके जीवन में लंबे समय तक उथल-पुथल मची रही।

पांच प्रमुख कबीलों अथवा पंचजनों की आपस में लड़ाइयां हुईं और इसके लिए उन्होंने आर्येतर लोगों की भी सहायता ली। ‘भरत’ और ‘तृत्सु’ आर्य जन थे तथा ‘वसिष्ठ’ नामक ऋषि उनके पक्षधर थे। भरत नाम का उल्लेख पहली बार ऋग्वेद में आया है। इसी नाम के आधार पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।

दाशराज्ञ अथवा दस राजाओं का युद्ध

ऋग्वैदिक उल्लेख के अनुसार सरस्वती नदी के किनारे भारत नामक जन (राज्य) था, जिस पर सुदास नामक राजा शासन करता था। विश्वामित्र, राजा सुदास के पुरोहित थे। राजा तथा पुरोहित में अनबन हो जाने के कारण राजा सुदास ने विश्वामित्र के स्थान पर वसिष्ठ को अपना पुरोहित बना लिया। इससे विश्वामित्र बड़े अप्रसन्न हुए। उन्होंने दस राजाओं को संगठित करके, राजा सुदास के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया।

दस राजाओं के इस समूह में पांच आर्य-राजा थे और पांच अनार्य-राजा थे। भरतों और दस राजाओं का जो युद्ध हुआ उसे ‘दाशराज्ञ युद्ध’ कहते हैं। यह युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के तट पर हुआ। इसमें भरत कुल के राजा सुदास की विजय हुई और भरतों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। जिन कबीलों की हार हुई उनमें पुरुओं का कबीला सबसे महत्त्वपूर्ण था।

कुरुओं का उदय

कालांतर में ‘भरतों’ और ‘पुरुओं’ का मेल हुआ और परिणामतः ‘कुरुओं’ का एक नया शासक कबीला अस्तित्त्व में आया। कुरु बाद में ‘पांचालों’ के साथ मिल गए और उन्होंने उत्तरी गंगा की द्रोणी में अपना शासन स्थापित किया। उत्तर-वैदिक-काल में उन्होंने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आर्यों में परस्पर अन्य युद्ध भी हुए।

ऋग्वेद कालीन राजनीतिक संस्थाएं

(1.) गोप अथवा राजन्य

ऋग्वैदिक-काल की राजनीतिक व्यवस्था का मूलाधार कुटुम्ब था जो पैतृक होता था। कुटुम्ब को आधुनिक इतिहासकारों ने कबीला कहकर पुकारा है। कुटुम्ब का प्रधान, पिता अथवा अन्य कोई बड़ा-बूढ़ा पुरुष होता था जो कुटुम्ब के अन्य सदस्यों पर नियन्त्रण रखता था। कई कुटुम्बों को मिला कर एक ग्राम बनता था। ग्राम का प्रधान ‘ग्रामणी’ कहलाता था। कई ग्रामों को मिला कर ‘विस’ बनता था। विस का प्रधान ‘विसपति’ कहलाता था। कई विसों को मिला कर ‘जन’ बनता था। जन का रक्षक ‘गोप’ अथवा ‘राजन्य’ कहलाता था।

(2.) उत्तराधिकार की परम्परा

ऋग्वैदिक-काल का राजनीतिक संगठन राजतंत्रात्मक था। ऋग्वेद में अनेक राजन्यों का उल्लेख मिलता है। राजन्य का पद आनुवंशिक था और वह उसे उत्तराधिकार के नियम से प्राप्त होता था। अर्थात् राजन्य के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र सिंहासन पर बैठता था। राजन्य का पद यद्यपि वंशानुगत होता था, तथापि समिति अथवा सभा द्वारा किए जाने वाले चुनावों के बारे में भी सूचना मिलती है।

राज्य में राजन्य का स्थान सर्वोच्च था। वह सुन्दर वस्त्र धारण करता था और भव्य राज-भवन में निवास करता था जिसमें राज्य के बड़े-बड़े पदाधिकारी, पण्डित, गायक तथा नौकर-चाकर उपस्थित रहते थे। चूँकि उन दिनों गमनागमन के साधनों का अभाव था इसलिए राज्य बहुत छोटे हुआ करते थे।

(3.) राजन्य के कर्त्तव्य

राजन्य को कबीले का संरक्षक (गोप्ता जनस्य) कहा गया है। वह गोधन की रक्षा करता था, युद्ध का नेतृत्व करता था और कबीले की ओर से देवताओं की आराधना करता था। प्रजा की रक्षा करना, शत्रुओं से युद्ध करना, राज्य में शान्ति स्थापित करना और शान्ति के समय यज्ञादि कर्मों का अनुष्ठान करना, राजन्य के मुख्य कर्त्तव्य होते थे।

राजन्य अपनी प्रजा की न केवल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का अपितु आध्यात्मिक उन्नति का भी ध्यान रखता था। राजन्य अपनी प्रजा के आचरण की देखभाल के लिए गुप्तचर रखता था जो प्रजा के आचरण के सम्बन्ध में राजन्य को सूचना देते थे। राजन्य, आचरण-भ्रष्ट प्रजा को दण्डित करता था।

(4.) राज्य के प्रमुख पदाधिकारी

राजन्य की सहायता के लिए बहुत से पदाधिकारी होते थे जिनमें पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी आदि प्रमुख थे।

पुरोहित

समस्त पदाधिकारियों में पुरोहित का स्थान सबसे ऊँचा था। उसका पद प्रायः वंशानुगत होता था परन्तु कभी-कभी वह किसी अन्य कुटुम्ब से भी चुन लिया जाता था। पुरोहित को बहुत से कर्त्तव्य करने होते थे। वह राजन्य का धर्मगुरु तथा परामर्शदाता होता था।

इसलिए राज्य में उसका बड़ा प्रभाव रहता था। वह रण-क्षेत्र में भी राजन्य के साथ जाता था और अपनी प्रार्थनाओं तथा मन्त्रों द्वारा राजन्य की विजय का प्रयत्न करता था। ऋग्वैदिक-काल में वसिष्ठ और विश्वामित्र नामक दो प्रमुख पुरोहित हुए। उन्होंने राजाओं का पथ-प्रदर्शन किया और बदले में गायों और दासियों के रूप में भरपूर दक्षिणाएं प्राप्त कीं।

सेनानी

राज्य का दूसरा प्रमुख अधिकारी सेनानी होता था। वह भाला, कुल्हाड़ी, कृपाण आदि का उपयोग करना जानता था। वह सेना का संचालन करता था। उसकी नियुक्ति सम्भवतः राजन्य स्वयं करता था। जिन युद्धों में राजन्य की उपस्थिति आवश्यक नहीं समझी जाती थी, उनमें सेनानी ही सेना का प्रधान होता था जो रण-क्षेत्र में उपस्थित रहकर सेना का संचालन करता था।

ग्रामणी

ग्रामणी तीसरा प्रधान पदाधिकारी था। वह गाँव के प्रबन्ध के लिए उत्तरदायी होता था। आरम्भ में ग्रामणी योद्धाओं के एक छोटे समूह का नेता होता था परन्तु जब गांव स्थायी रूप से बस गए तो ग्रामणी गांव का मुखिया हो गया और कालांतर में उसका पद व्राजपति के समकक्ष हो गया।

कुलप

परिवार अथवा कुल का मुखिया कुलप कहलाता था।

व्राजपति

गोचर-भूमि के अधिकारी को व्राजपति कहा गया है। वह युद्ध में कुलपों और ग्रामणियांे का नेतृत्व करता था।

(5.) युद्ध-विधि

भारत में ऋग्वैदिक आर्यों की सफलता के दो प्रमुख कारण थे- घोड़ों से चलने वाले रथ और लोहे से बनने वाले हथियार। युद्ध में समस्त सक्षम-पुरुषों को भाग लेना पड़ता था। साधारण लोग पैदल युद्ध करते थे परन्तु राजन्य तथा क्षत्रिय लोग रथों पर चढ़कर युद्ध करते थे। युद्ध में आत्म-रक्षा के लिए कवच आदि का प्रयोग किया जाता था।

आक्रमण करने का प्रधान शस्त्र धनुष-बाण था परन्तु आवश्यकतानुसार भालों, फरसों तथा तलवारों का भी प्रयोग किया जाता था। ध्वजा, पताका, दुन्दुभि आदि का भी प्रयोग किया जाता था। युद्ध प्रायः नदियों के तट पर हुआ करते थे।

(6.) समिति तथा सभा

यद्यपि राजन्य राज्य का प्रधान होता था परन्तु वह स्वेच्छाचारी तथा निंरकुश नहीं होता था। उसे परामर्श देने के लिए कुछ संस्थायें विद्यमान थीं। ऋग्वेद में सभा, समिति, विदथ और गण-जैसी अनेक संस्थाओं के उल्लेख मिलते हैं। इन परिषदों में जनता के हितों, सैनिक अभियानों और धार्मिक अनुष्ठानों के बारे में विचार-विमर्श होता था। ऋग्वैदिक-काल में स्त्रियाँ भी सभा और विदथ में भाग लेती थीं।

राजतंत्र की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व की परिषदें सम्भवतः सभा और समिति थीं। समिति में जन की समस्त प्रजा, सदस्य होती थी परन्तु सभा में केवल उच्च-वंश के वयोवृद्धों को सदस्यता मिलती थी। ये दोनों परिषदें इतने महत्त्व की थीं कि राजन्य भी इनका सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न करता था।

(7.) न्याय व्यवस्था

राजन्य अपने सहायकों की सहायता से विवादों एवं झगड़ों का निर्णय करता था। न्यायिक कार्य में उसे पुरोहित से बड़ी सहायता मिलती थी। जिन अपराधों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है, वे चोरी, डकैती, सेंध लगाना आदि हैं। पशुओं की बड़ी चोरी हुआ करती थी। अपराधियों को उस व्यक्ति की इच्छानुसार दण्ड मिलता था जिसे क्षति पहुँचती थी। जल तथा अग्नि-परीक्षा का भी इस युग में प्रचार था।

(8.) गुप्तचर व्यवस्था

उस काल में चोरियां भी होती थीं, विशेषतः गायों की। आपराधिक गतिविधियों पर दृष्टि रखने के लिए गुप्तचर रखे जाते थे। कर वसूल करने वाले किसी अधिकारी के बारे में हमें जानकारी नहीं मिलती। सम्भवतः ये कर राजाओं को भेंट के रूप में, स्वेच्छा से दिए जाते थे। इस भेंट को बलि कहते थे।

(9.) अन्य पदाधिकारी

राजन्य कोई नियमित सेना नहीं खड़ी करता था किंतु युद्ध के अवसर पर जो सेना एकत्र की जाती थी उसमें व्रात, गण, ग्राम और शर्ध नामक विभिन्न सैनिक समूह सम्मिलित होते थे। कुल मिलाकर यह एक कौटुम्बिक अथवा कबीलाई व्यवस्था वाला शासन था जिसमें सैनिक भावना का प्राधान्य था। नागरिक व्यवस्था अथवा प्रादेशिक व्यवस्था का अस्तित्त्व नहीं था। लोग अपने स्थान बदलते हुए निरन्तर फैलते जा रहे थे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋग्वैदिक समाज एवं धर्म एक सुव्यवस्थित विचारधारा से प्रेरित थे और उस काल के मानव को सुख एवं संतोष के साथ जीने का अवसर प्रदान करते थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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