आरक्षण का लाभ केवल गरीब परिवारों को देकर गरीबी दूर की जा सकती है!
1947 के विभाजन के बाद भारत में 34 करोड़ 50 लाख लोग रह गए थे। उस समय देश में 80 प्रतिशत लोग अर्थात् 27 करोड़ 60 लाख लोग गरीब थे।
संविधान निर्माताओं ने गरीबी का कारण सामाजिक पिछड़ेपन को माना और जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था दी ताकि पिछड़े लोगों की गरीबी को दूर किया जा सके।
वर्ष 1950 से देश में अनूसूचित जातियों एवं जनजातियों को शिक्षण संस्थाओं, नौकरियों एवं राजनीतिक पदों पर आरक्षण दिया गया।
वर्ष 1990 में भारत में मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई जिससे अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था लागू हुई।
यह बात सही है कि सामाजिक पिछड़ेपन से देश में न केवल गरीबी आती है अपितु धन का असमान वितरण भी होता है।
लगभग 75 वर्षों से चली आ रही आरक्षण व्यवस्था के कारण देश के पिछड़े लोगों को भी शिक्षा, नौकरी एवं राजनीतिक पद पाने का अवसर मिला।
आज जबकि देश अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, बताया जा रहा है कि देश में केवल 16.4 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे हैं। अर्थात् विगत पिचहत्तर सालों में देश में गरीबी का प्रतिशत 80 से घटकर केवल 16.4 प्रतिशत रह गया।
यह कमाल की उपलब्धि है।
प्रश्न यह है कि यह कमाल की उपलब्धि क्या आरक्षण का लाभ के अंतर्गत दी गई सरकारी नौकरियों के बल पर प्राप्त की गई?
निश्चित रूप से नहीं।
इस समय भारत में केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों में कुल 1 करोड़ 40 लाख लोग नौकरियां कर रहे हैं। इस हिसाब से भारत में प्रत्येक 100 में से 1 आदमी ही सरकारी नौकरी में है।
इनमें से आरक्षित वर्ग के कर्मचारी लगभग 70 लाख के आसपास हैं या इससे भी कम हैं।
इन 70 लाख लोगों के परिवारों के सदस्यों की संख्या साढ़े तीन करोड़ के आसपास है।
स्पष्ट है कि आरक्षित वर्ग के 70 लाख परिवारों को सरकारी नौकरी देने से केवल साढ़े तीन करोड़ लोगों की गरीबी दूर हुई है। न कि देश की।
कहा जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में देश में 25 करोड़ लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकाला गया है। निश्चित रूप से यह उपलब्धि केवल सरकारी नौकरियों के बल पर हासिल नहीं की गई है।
देश की गरीबी कम करने में सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्र में दी जा रही पेंशनों, निशुल्क चिकित्सा, निशुल्क शिक्षा, निशुल्क आवास तथा अन्य लाभकारी योजनाओं का बहुत बड़ा योगदान है।
भारत में निजी क्षेत्र में अर्थात् गैर-सरकारी कम्पनियों, कारखानों, दुकानों आदि में लगभग 14 करोड़ लोग काम करते हैं।
अर्थात् देश की लगभग 10 प्रतिशत जनसंख्या प्राइवेट सेक्टर में काम करती है। इस प्रकार देश से गरीबी कम करने में निजी क्षेत्र का योगदान बहुत बड़ा है।
वर्तमान समय में देश में 140 करोड़ लोग रहते हैं जिनमें से 16.4 प्रतिशत अर्थात् लगभग 23 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे हैं।
ऐसा क्या किया जाए कि देश के 23 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से ऊपर खींच लिए जाएं?
23 करोड़ लोगों का अर्थ है लगभग 5 करोड़ परिवार। यदि प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी दी जाए तो 5 करोड़ सरकारी नौकरियों का सृजन करना होगा, जो कि संभव नहीं है। सरकारें प्रतिवर्ष केवल 1 दो लाख युवाओं को नौकरियां दे सकती हैं।
फिर भी यदि आरक्षित वर्ग की समस्त नौकरियां उन्हीं जातियों के गरीब परिवारों के लिए आरक्षित कर दी जाएं तो गरीब परिवारों को से गरीबी से बाहर निकलने का मौका अवश्य मिलेगा।
आरक्षित जातियों के वे लोग जो गरीबी की रेखा से ऊपर जीवन यापन कर रहे हैं, वे सामान्य वर्ग की नौकरियों के लिए प्रयास कर सकते हैं।
यदि भारत की राजनीतिक पार्टियां अपने निजी स्वार्थों को छोड़कर, सत्ता में बने रहने अथवा सत्ता छीनने की गंदी राजनीति छोड़कर गरीब जनता की उन्नति के लिए ठोस काम करना चाहती हैं तो उन्हें ऐसा कानून बनाना चाहिए जिससे वर्तमान में उपलब्ध 49.5 प्रतिशत आरक्षण देश के 16.4 प्रतिशत गरीब लोगों को मिल जाए।
आरक्षित जातियों के जो परिवार गरीबी की रेखा से ऊपर उठ गए हैं, उन्हें आरक्षण का लाभ छोड़ देना चाहिए जिससे वे अपनी ही जाति के गरीब परिवारों की उन्नति में योगदान कर सकें।
यह तय है कि इस व्यवस्था से समस्त गरीब परिवारों के युवा सदस्यों को सरकारी नौकरियां नहीं मिलेंगी किंतु यह भी तय है कि इस उपाय से देश में जातिवाद का ताण्डव कम होगा, राजनीतिक पार्टियों द्वारा देश के वोटरों को जाति के आधार पर लामबंद करने पर रोक लगेगी तथा निर्धन परिवार अधिक तेजी से अर्थव्यवस्था की मूल धारा में आ सकेंगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता