Tuesday, November 11, 2025
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शिवाजी का राज्याभिषेक (13)

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शिवाजी का राज्याभिषेक - bharatkaitihas.com
शिवाजी का राज्याभिषेक

शिवाजी का राज्याभिषेक एक युगांतरकारी घटना थी। औरंगजेब के जीवित रहते यह संभव नहीं था किंतु शिवाजी ने औरंगजेब सहित तीन मुसलमान बादशाहों और सुल्तानों से लड़कर अपने राज्य का निर्माण किया तथा स्वयं को स्वतंत्र राजा घोषित किया। उस समय उत्तर भारत में केवल महाराणा राजसिंह तथा दक्षिण भारत में छत्रपति शिवाजी ही ऐसे राजा थे जिनकी मुगलों से किसी तरह की अधीनता, मित्रता या संधि नहीं थी।

शिवाजी का राज्य अब काफी बड़ा हो गया था। शिवाजी की तलवार के घाव खा-खाकर मुगल सेनाएं दक्षिण भारत में पूरी तरह जर्जर हो चुकी थीं। बीजापुर तथा गोलकुण्डा के पुराने सुल्तान मर चुके थे और नए सुल्तानों में प्रतिरोध की शक्ति शेष नहीं बची थी। इसलिए शिवाजी अब अपने राज्य का प्रभुत्व-सम्पन्न स्वामी था।

जीजाबाई की इच्छा

जन सामान्य भी शिवाजी को मराठों का राजा मानता था किंतु शिवाजी का राज्याभिषेक नहीं हुआ था। इसलिए माता जीजाबाई ने शिवाजी से राज्याभिषेक करवाने के लिए कहा। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार एक राजा ही प्रजा पर कर लगा सकता है और अपनी प्रजा को न्याय तथा दण्ड दे सकता है।

राजा को ही भूमि दान करने का अधिकार प्राप्त है। शिवाजी ने भी राजनीतिक दृष्टि से ऐसा करना उचित समझा ताकि वे अन्य राजाओं के समक्ष स्वतंत्र राजा का सम्मान और अधिकार पा सकें। ई.1674 में शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि धारण करने का निर्णय किया।

भौंसले परिवारों का विरोध

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कुछ भौंसले परिवार जो कभी शिवाजी के ही समकक्ष अथवा उससे अच्छी स्थिति में थे, शिवाजी की सफलता के कारण ईर्ष्या करते थे तथा शिवाजी को लुटेरा कहते थे जिसने बलपूर्वक बीजापुर तथा मुगल राज्य के इलाके छीन लिए थे। बीजापुर राज्य शिवाजी को एक जागीरदार के विद्रोही पुत्र से अधिक नहीं समझता था।

ब्राह्मणों की मान्यता थी कि शिवाजी किसान का पुत्र है इसलिए उसका राज्याभिषेक नहीं हो सकता। इसलिए शिवाजी ने अपने मंत्री बालाजी अम्बाजी तथा अन्य सलाहकारों को काशी भेजा ताकि इस समस्या का समाधान किया जा सके।

गागा भट्ट

बालाजी तथा अम्बाजी ने काशी के पण्डित विश्वेश्वर से सम्पर्क किया तथा जिसे गागा भट्ट भी कहा जाता था। वह राजपूताने के कई राजाओं के राज्याभिषेक करवा चुका था। शिवाजी के मंत्रियों ने गागा को शिवाजी की वंशावली दिखाई। गागा ने शिवाजी की वंशावली देखने से मना कर दिया।

शिवाजी के मंत्री कई दिनों तक उसके समक्ष प्रार्थना करते रहे। एक दिन गागा, शिवाजी की वंशावली देखने को तैयार हुआ। उसने पाया कि शिवाजी का कुल मेवाड़ के सिसोदिया वंश से निकला है तथा विशुद्ध क्षत्रिय है।

उसने शिवाजी के राज्याभिषेक की अनुमति प्रदान कर दी। इसके बाद यह प्रतिनिधि मण्डल राजपूताने के आमेर तथा जोधपुर आदि राज्यों में गया तथा वहाँ जाकर राज्याभिषेक के अवसर पर होने वाली प्रथाओं तथा रीति-रिवाजों की जानकारी ली। 

गागा भट्ट की अनुमति मिलते ही पूना में राज्याभिषेक की तैयारियां होने लगीं। बड़ी संख्या में सुंदर एवं विशाल अतिथि-गृह एवं विश्राम-भवन बनवाने आरम्भ किए गए ताकि देश भर से आने वाले सम्माननीय अतिथि उनमें ठहर सकें। नए सरोवर, मार्ग, उद्यान आदि भी बनाए गए ताकि शिवाजी की राजधानी सुंदर दिखे।

गागा से प्रार्थना की गई कि वह स्वयं पूना आकर राज्याभिषेक सम्पन्न कराए। गागा ने इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। काशी से महाराष्ट्र तक की यात्रा में गागा का महाराजाओं जैसा सत्कार किया गया। उसकी अगवानी के लिए शिवाजी अपने मंत्रियों सहित सतारा से कई मील आगे चलकर आया तथा उसका भव्य स्वागत किया।

राजधानी में तैयारियाँ

भारत भर से विद्वानों एवं ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया। 11 हजार ब्राह्मण शिवाजी की राजधानी में आए। स्त्री तथा बच्चों सहित उनकी संख्या 50 हजार हो गई। लाखों नर-नारी इस आयोजन को देखने राजधानी पहुंचे। सेनाओं के सरदार, राज्य भर के सेठ, रईस, दूसरे राज्यों के प्रतिनिधि, विदेशी व्यापारी भी राजधानी पहुंचने लगे। चार माह तक राजा की ओर से अतिथियों को फल, पकवान एवं मिठाइयां खिलाई गईं तथा उन लोगों के राजधानी में ठहरने का प्रबन्ध किया गया।

ब्रिटिश राजदूत आक्सिनडन ने लिखा है कि प्रतिदिन के धार्मिक संस्कारों और ब्राह्मणों से परामर्श के कारण शिवाजी राजे को अन्य कार्यों की देखभाल के लिए समय नहीं मिल पाता था।

जीजाबाई की प्रसन्नता

जीजाबाई इस समय 80 वर्ष की हो चुकी थी। शिवाजी के राज्याभिषेक से वही सबसे अधिक प्रसन्न थी। उसका पुत्र शिवा आज धर्म का रक्षक, युद्धों का अजेय विजेता तथा प्रजा पालक था।

जिस दिन राज्याभिषेक के समारोह आरम्भ हुए, उस दिन शिवाजी ने अपने गुरु रामदास तथा माता जीजाबाई की चरण वंदना की तथा चिपलूण के परशुराम मंदिर के दर्शनों के लिए रवाना हो गया।

ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा

वहाँ शिवाजी ने अपनी कुल देवी तुलजा भवानी की प्रतिमा को सवा मन सोने का छत्र भेंट किया जिसका मूल्य उस समय लगभग 56 हजार रुपए था। वापस लौटकर शिवाजी ने अपने कुल पुरोहित के निर्देशन में महादेव, भवानी तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा की। 28 मई को शिवाजी से उपवास एवं प्रायश्चित करवाया गया क्योंकि इतनी आयु हो जाने पर भी उसका जनेऊ संस्कार नहीं हुआ था।

इसके बाद शिवाजी की दोनों जीवित पत्नियों से शिवाजी का फिर से विवाह करके उन्हें शुद्ध किया गया ताकि वे राज्याभिषेक में सम्मिलित होने की अधिकारिणी हो सकें। ब्राह्मणों तथा निर्धनों को विपुल दान दक्षिणा दी गई। मुख्य पुरोहित गागा भट्ट को 7000 होन तथा अन्य ब्राह्मणों को 1700-1700 होन दिए गए।

शिवाजी द्वारा जाने-अनजाने में किए गए पापों एवं अपराधों के प्रायश्चित के लिए उसके हाथों से सोना, चांदी, तांबा, पीतल, शीशा आदि समस्त धातुओं, अनाजों, फलों, मसालों आदि से तुलादान करवाया गया। इस तुलादान में शिवाजी ने एक लाख होन भी मिलाए ताकि ब्राह्मणों में वितरित किए जा सकें।

धन के लोभी कुछ ब्राह्मण इससे भी संतुष्ट नहीं हुए उन्होंने शिवाजी पर 8 हजार होन का अतिरिक्त जुर्माना लगाया क्योंकि शिवाजी ने अनेक नगर जलाए थे तथा लोगों को लूटा था। शिवाजी के लिए यह राशि बहुत छोटी थी इसलिए उन्होंने ब्राह्मणों की यह बात मान ली।

इस प्रकार भारी मात्रा में स्वर्ण दान लेकर ब्राह्मणों ने शिवाजी को पाप-मुक्त, दोष-मुक्त एवं पवित्र घोषित कर दिया। अब शिवाजी का राज्याभिषेक हो सकता था। 5 जून का दिन शिवाजी ने आत्म-संयम और इंद्रिय-दमन में व्यतीत किया। उसने गंगाजल से स्नान करके, गागा भट्ट को 5000 होन दान दिए तथा अन्य प्रसिद्ध ब्राह्मणों को सोने की 2-2 मोहरें दान में दीं और दिन भर उपवास किया।

राज्याभिषेक

6 जून 1674 को शिवाजी का राज्याभिषेक कार्यक्रम आयोजित किया गया। शिवाजी ने मुंह अंधेरे उठकर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ गंगाजल से स्नान किया। कुल देवताओं की पूजा की तथा अपने कुलपुरोहित बालम भट्ट, राज्याभिषेक के मुख्य पुरोहित गागा भट्ट तथा अन्य प्रसिद्ध ब्राह्मणों के पैर छूकर उन्हें दान दिए तथा उनके आशीर्वाद लिए।

फिर श्वेत वस्त्र धारण करके फूलों की माला पहनी तथा इत्र लगाकर एक ऊंची चौकी पर बैठा। उसके बाईं ओर राजमहिषी सोयरा बाई ने आसन ग्रहण किया। उसकी साड़ी का एक छोर राजा के दुपट्टे से बांधा गया। युवराज सम्भाजी इन दोनों के पीछे बैठा।

शिवाजी के अष्ट प्रधान अर्थात् आठ मंत्रियों ने देश की प्रसिद्ध नदियों के जल से भरे हुए कलश लेकर राजपरिवार का जलाभिषेक किया। इस पूरे समय वैदिक मंत्रोच्चार होता रहा तथा मंगल वाद्य बजते रहे। इसके बाद छः सधवा ब्राह्मणियों ने स्वच्छ वस्त्र धारण करके, स्वर्ण थालों में पांच-पांच दिए रखकर राजपरिवार की आरती उतारी।

जलाभिषेक के बाद शिवाजी ने लाल रंग के जरीदार वस्त्र पहने, रत्नाभूषण एवं स्वर्णाभूषण धारण किए, गले में हार एवं फूलों की माला पहनी और एक राजमुकुट पहना जिसमें मोती जड़े हुए थे तथा मोती की लड़ियां लटक रही थीं। शिवाजी ने अपनी तलवार, तीर कमान तथा ढाल की पूजा की और पुनः ब्राह्मणों एवं वयोवृद्ध लोगों के समक्ष सिर झुकाकर उनका आशीर्वाद लिया।

ज्योतिषियों द्वारा सुझाए गए शुभ-मुहूर्त पर शिवाजी ने राजसिंहासन के कक्ष में प्रवेश किया। यह कक्ष 32 शुभ चिह्नों तथा विभिन्न प्रकार के शुभदायी पौधों से सजा हुआ था। मोतियों की वंदनवार से युक्त इस कक्ष की सजावट बहुत ही भव्य विधि से की गई थी जिसके केन्द्र में एक भव्य राजसिंहासन रखा था।

हेनरी आक्सिनडन ने लिखा है कि सिंहासन बहुत मूल्यवान और शानदार था। उस पर सोने का पत्तर मंढा हुआ था तथा उसके आठ स्तम्भों पर बहुमूल्य रत्न तथा हीरे जड़े हुए थे। स्तम्भ के ऊपर मण्डल था जिसमें सोने की कारबोची का काम किया गया था तथा मोतियों की वंदनवारें लटक रही थीं।

सिंहासन पर व्याघ्रचर्म बिछाया गया था जिसके ऊपर मखमल पड़ा हुआ था। जैसे ही शिवाजी उस सिंहासन पर बैठे वहाँ उपस्थित प्रजा पर रत्नजड़ित कमल-पुष्प तथा सोने-चांदी के पुष्प बरसाए गए। सोलह सधवा स्त्रियों ने राजा की आरती उतारी। ब्राह्मणों ने उच्च स्वर से मंत्रोच्चार किए तथा राजा को आशीर्वाद दिया।

प्रजा ने शिवाजी की जय-जयकार की। मंगल वाद्य बजने लगे, गवैये गाने लगे। ठीक इसी समय राज्य के प्रत्येक किले से एक-एक तोप दागी गई। मुख्य पुरोहित गागा भट्ट ने आगे बढ़कर शिवाजी के ऊपर सोने के काम और मोतियों की झालर वाला छत्र ताना तथा ‘शिवा छत्रपति’ कहकर उसका आह्वान किया।

ब्राह्मणों ने शिवाजी राजे को आर्शीवाद दिया। राजा ने ब्राह्मणों को, गरीबों को तथा भिखारियों को दान, सम्मान एवं उपहार दिए। सोलह प्रकार के महादान भी दिए। इसके पश्चात् मंत्रियों ने सिंहासन के समक्ष उपस्थित होकर राजा का अभिवादन किया। शिवाजी ने उन्हें भी हाथी, घोड़े, रत्न, परिधान, हथियार आदि उपहार में दिए।

शिवाजी ने आदेश दिया कि भविष्य में मंत्रियों की पदवी के लिए फारसी शब्दों का प्रयोग न करके संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया जाए। युवराज सम्भाजी, मुख्य पुरोहित गागा भट्ट तथा प्रधानमंत्री पिंघले को भी उच्च आसानों पर विराजमान करवाया गया जो राजा के सिंहासन से थोड़े नीचे थे।

अन्य मंत्री राजा के दायीं तथा बाईं ओर दो-दो पंक्तियों में खड़े हुए। अन्य सब दरबारी तथा आगंतुक अपनी-अपनी सामाजिक स्थिति के अनुसार आसनों पर बैठे। 

अंग्रेजों द्वारा अभ्यर्थना

प्रातः 8 बजे नीराजी पंत ने अंग्रेजों के दूत हेनरी आक्सिनडन को शिवाजी के सम्मुख प्रस्तुत किया। उसने पर्याप्त दूरी से राजा का अभिवान किया तथा दुभाषिए की सहायता से अंग्रेजों की तरफ से हीरे की एक अंगूठी भेंट की। दरबार में कई और विदेशी भी उपस्थित थे, उन्हें भी राजा ने अपने निकट बुलाया तथा उनका यथोचित सम्मान किया और परिधान भेंट किए।

इसके साथ ही दरबार की कार्यवाही पूरी हो गई तथा छत्रपति शिवाजी सिंहासन से उतर कर एक शानदार एवं सुसज्जित अश्व पर सवार हुआ और जगदीश्वर के मंदिर में भगवान के दर्शनों के लिए गया। वहाँ से आकर उसने वस्त्र बदले और एक उत्तम हाथी पर सवार होकर जुलूस के साथ राजमार्ग पर निकलने वाली शोभायात्रा में सम्मिलित हुआ।

राजमार्ग से निकलकर वह राजधानी की गलियों में होता हुआ प्रजा के बीच से निकला। स्थान-स्थान पर गृहस्वामिनियों ने शिवाजी की आरती उतारी तथा उस पर धान की खील, फल, कुश आदि न्यौछावर किए। इस यात्रा में वह राजगढ़ की पहाड़ी पर स्थित मंदिरों के दर्शन करने भी गया और वहाँ भेंट आदि अपर्ति करके पुनः अपने महलों को लौट आया।

अगले दिन अर्थात् 7 जून को वह पुनः दरबार में उपस्थित हुआ तथा वहाँ बधाई देने आए देशी-विदेशी अतिथियों एवं भिखारियों को दान देता रहा। दरबार में आने वाले प्रत्येक साधारण जन को 3 रुपए से 5 रुपए तथा स्त्रियों एवं बच्चों को 1 से 2 रुपए दिए गए। पूरे बारह दिन तक दान-पुण्य का यह क्रम चलता रहा।

जीजाबाई का निधन

8 जून को राजा ने बिना कोई अतिरिक्त धूमधाम किए अपना चौथा विवाह किया। 18 जून को अचानक जीजाबाई का निधन हो गया। इस कारण राज्य दरबार में शोक रखा गया। अतः शिवाजी छः दिन बाद, 24 जून को पुनः अपने दरबार में उपस्थित हुआ। इसके कुछ दिन बाद, शिवाजी की एक पत्नी का निधन हो गया।

विधि-विधान से राज्याभिषेक

इस प्रकार राज्याभिषेक के कुछ दिनों में ही राजपरिवार के दो महत्वपूर्ण सदस्यों का निधन हो गया। इसलिए तांत्रिकों को पण्डितों की चुगली करने का अवसर मिल गया। निश्चल पुरी नामक एक तांत्रिक ने शिवाजी से कहा कि गागा भट्ट ने अभिषेक के विधि-विधान में कई कमियां छोड़ दी हैं, इसीलिए राजमाता का निधन हुआ है तथा इस दौरान होने वाली छोटी-मोटी अशुभ घटनाएं घटित हुई हैं।

उसने शिवाजी को सुझाव दिया कि इन कमियों की पूर्ति के लिए एक बार पुनः तांत्रिक विधि-विधान से राज्याभिषेक होना चाहिए। शिवाजी ने इसकी अनुमति दे दी। 24 सितम्बर 1674 को पुनः एक लघु राज्याभिषेक का आयोजन किया गया जिसमें ब्राह्मणों के साथ-साथ तांत्रिकों को भी दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न किया गया।

दूसरे राज्याभिषेक के ठीक एक वर्ष पश्चात् प्रतापगढ़ के मंदिर पर बिजली गिरी। इस कारण कई मूल्यवान हाथी और घोड़े मर गए तथा अन्य हानि भी हुई। 

यह एक शानदार राज्याभिषेक था। तब तक इस तरह के भव्य आयोजन भारत में कम ही हुए थे। शिवाजी के राज्याभिषेक समारोह पर 1 करोड़ 42 लाख रुपए व्यय हुए थे। जिनकी तुलना आज की किसी भी धन राशि से करना कठिन है। इस व्यय में वे पक्के भवन, मार्ग, सरोवर, उद्यान आदि भी सम्मिलित हैं जो राज्याभिषेक के लिए ही विशेष रूप से करवाए गए थे। 

मुद्रा एवं संवत का प्रचलन

अपने राज्याभिषेक के पश्चात् शिवाजी ने अपने नाम से सिक्के ढलवाए तथा नए संवत का भी प्रचलन किया। भारतीय आर्य राजाओं में यह परम्परा थी कि जब कोई राजा अपने को स्वतंत्र सम्राट या चक्रवर्ती सम्राट घोषित करता था तो उसके प्रतीक के रूप में नवीन मुद्रा तथा संवत् का प्रचलन करता था। शक संवत, गुप्त संवत तथा विक्रम संवत इसी प्रकार की घटनाओं के प्रतीक हैं।

-डॉ. मोहन लाल गुप्ता

शिवाजी की शासन व्यवस्था (14)

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शिवाजी की शासन व्यवस्था

शिवाजी की शासन व्यवस्था प्राचीन क्षत्रिय राज्यों के अनुसार की गई। राज्य कार्य संचालन के लिए अष्ट-प्रधान की नियुक्ति की गई। राज्य का समस्त कार्य इन आठ प्रधानों में बांट दिया गया

(1.) पेशवा: राज्य का प्रधान व्यवस्थापक पेशवा कहलाता था। शिवाजी ने इस पद पर मोरोपंत पिंघले को नियुक्त किया।

(2.) मजीमदार: इस मंत्री पर राज्य की अर्थव्यवस्था तथा आय-व्यय की जांच आदि का दायित्व था। इस पर पर आवाजी सोनदेव को नियुक्त किया गया।

(3.) सुरनीस: इस मंत्री पर राजकीय पत्र व्यवहार एवं संधिपत्रों का प्रबन्ध करने का दायित्व था। इस पर पर अन्नाजी दत्तो को नियुक्त किया गया।

(4.) वाकनिस: इस मंत्री पर राज्य के लेखों, अभिलेखों आदि की सुरक्षा करने का दायित्व था।

(5.) सरनावत: राज्य में पैदल सेना तथा घुड़सवार सेना के लिए एक-एक अलग सरनावत नियुक्त किए गया था। यशजी कंक को पैदल सेना का सरनावत एवं प्रतापराव गूजर को घुड़सवार सेना का सरनावत नियुक्त किया गया।

(6.) दर्बार या विदेश मंत्री: इस मंत्री पर अन्य राज्यों के राजाओं, मंत्रियों एवं अधिकारियों आदि से मित्रता तथा व्यवहार आदि का दायित्व था। सोमनाथ पंत को यह दायित्व दिया गया।

(7.) न्यायाधीश: इस मंत्री पर राज्य की जनता के झगड़ों एवं विवादों को सुलझाने का दायित्व था। इस पर पर नीराजी राव तथा गोमाजी नायक को नियुक्त किया गया।

(8.) न्यायशास्त्री: इस अधिकारी पर राज्य की न्याय व्यवस्था की जिम्मेदारी थी। इस पद पर पहले सिम्भा को और बाद में रघुनाथ पंत को नियुक्त किया गया।

जिलों एवं विभागों का प्रबन्ध

शिवाजी की शासन व्यवस्था में प्रत्येक जिले एवं प्रत्येक विभाग के प्रशासन के लिए आठ पदाधिकारी नियुक्त किए गए-

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(1.) कारवारी दीवान या मुत्तालिक

(2.) मजिमदार (लेखाकार)

(3.) फर्नीस या फरनवीस (सहायक लेखाधिकारी)

(4.) सवनीस (क्लर्क)

(5.) कारकानिस (अन्न भण्डार का निरीक्षक)

(6.) चिटनिस (पत्र लेखक)

(7.) जमादार ( भुगतान करने वाला खजांची)

(8.) पोतनीज (नगदी जमा करने वाला खजांची)

शिवाजी ने चमारगुंडा के पुंडे परिवार के सदस्य को अपना खजांची नियुक्त किया। इसके पितामह मालोजी ने शिवाजी के पिता शाहजी के विवाह के पूर्व, शाहजी की ईश्वर प्रदत्त सम्पत्ति जमा कर रखी थी।

किलों की व्यवस्था

शिवाजी की शासन व्यवस्था में अपराधियों को उनके अपराध के अनुसार दण्डित करने की व्यवस्था की गई। मंदिरों, निर्धनों, विधवाओं एवं बेसहारा लोगों के लिए राज्य की ओर से अनुदान की व्यवस्था की गई। शासन व्यवस्था में अनुशासन पर अत्यधिक बल दिया गया था। प्रत्येक अधीनस्थ कर्मचारी के लिए, अपने उच्चस्थ अधिकारी की आज्ञा का पालन करना अनिवार्य था।

प्रत्येक दुर्ग में एक किलेदार, एक मुंशी, एक भण्डार पालक, निरीक्षक एवं सेवक नियुक्त रहते थे। प्रधान मुंशी के पद पर प्रायः ब्राह्मणों को नियुक्त किया जाता था।

भू-राजस्व अर्थात् लगान

शिवाजी ने अपने राज्य में कृषि की उन्नति के लिए कई कदम उठाए तथा ग्राम पंचायतों के लिए निश्चित नियम बनाए। किसानों तथा राजा के बीच कोई जागीरदार नहीं होता था। वे सीधे ही राजकीय कारिंदों को लगान देते थे। शिवाजी की शासन व्यवस्था में लगान व्यवस्था दादा कोणदेव के समय निर्धारित की गई थी।

सरकारी लगान कुल उपज का 40 प्रतिशत था। कृषकों की सुरक्षा के लिए देशमुख, देशपाण्डे, पटेल, खोट और कुलकर्णी नियुक्त किए गए थे। शिवाजी स्वयं इन अधिकारियों पर कड़ी दृष्टि रखते थे ताकि ये किसानों को तंग न करें।

राज्य की गुप्तचर व्यवस्था

शिवाजी की सैन्य सफलताओं में गुप्तचरों का बहुत बड़ा योगादान था। इसलिए शिवाजी ने राज्य की गुप्तचर व्यवस्था पर पूरा घ्यान दिया। शिवाजी का व्यक्तिगत गुप्तचर बीहरजी, गुप्त सूचनाएं एकत्रित करने में प्रवीण था। सेना के अधिकारियों के पास भी गुप्तचर रहते थे जो सैनिक अभियान को सफल बनाने के लिए गुप्त सूचनाएं एकत्रित करते थे।

शिवाजी की सेना

शिवाजी की सेना में दो तरह के सिपाही थे- पैदल तथा घुड़सवार। अधिकांश पैदल सैनिक घाटमाथा क्षेत्र से तथा कोंकण क्षेत्र से आते थे। घाटमाथा के सैनिकों को मावली तथा कोंकण के सैनिकों को हथकुरी कहा जाता था। ये सैनिक अपने साथ तलवार, ढाल तथा तीर कमान लाते थे। इन्हें गोला, बारूद तथा बंदूक राज्य की ओर से दी जाती थी।

प्रत्येक 10 सैनिकों पर एक नायक होता था। प्रत्येक 5 नायकों के ऊपर एक हवालदार होता था। प्रत्येक 2 हवालदार पर एक जुमलदार होता था। प्रत्येक 10 जुमलदारों को हजारी कहा जाता था। सेनापति को छोड़कर कोई भी अधिकारी पांच-हजारी से ऊपर नहीं होता था।

शिवाजी की सेना में दो सेनापति होते थे- एक घुड़सवार सेना के लिए और दूसर पैदल सेना के लिए। सेनापति के नीचे पांच हजारी से लेकर नीचे तक का सिपाही होता था।

जुमला अर्थात् 100 सिपाहियों की टोली के अधिकारी से लेकर सेनापति और सूबेदार तक के पास एक समाचार लेखक, एक भेदिया और एक गुप्त सूचना देने वाला अनिवार्य रूप से होता था। सैनिक चुस्त पायजामा, कच्छा, पगड़ी और कमर में एक कपड़ा धारण करते थे। ये कपड़े चुस्त हुआ करते थे तथा सूती छींट के बने होते थे।

सेना तथा सैनिकों के लिए नियम

शिवाजी की सेना द्वारा किए जाने वाले युद्ध अभियानों में लूट के दौरान औरतों, गायों, किसानों, बच्चों तथा निर्धन मुसलमानों को लूटने एवं सताने पर पूर्ण पाबंदी थी। लूट की सामग्री राजकीय कोष में जमा करवाने का नियम था। यदि कोई सैनिक, लूट का सामान अपने पास रख लेता था तो उसके विरुद्ध कड़ी कार्यवाही होती थी।

शिवाजी ने सेना को समय पर वेतन देने की व्यवस्था लागू की तथा पदोन्नति एवं पुरस्कार के नियम बनाए। राज्य में दशहरे का त्यौहार उत्साह एवं धूम-धाम से आयोजित किया जाने लगा। इस अवसर पर सेना तथा घोड़ों का निरीक्षण किया जाता था। अच्छे सैनिकों को बिना कर की कृषि भूमि दी जाती थी।

सैनिकों को वेतन

शिवाजी ने सेना के लिए वेतन सम्बन्धी नियम बनाए। मावली सैनिक केवल भोजन प्राप्ति के लिए ही सेना में भर्ती हो जाते थे परंतु साधारणतः पैदल सैनिक को 1 से 3 पगौड़ा, वारगीर सैनिकों को 2 से 5 पगौड़ा तथा सेलेदार सैनिकों को 6 से 12 पगौड़ा वेतन मिलता था। पगौड़ा का मूल्य एक रुपए के बराबर होता था।

पैदल सेना के जुमलदार से 7 पगौड़ा तथा घुड़सवार सेना के जुमलदार को लगभग 20 पगौड़ा, सवार सेना के सूबेदार को 50 पगौड़ा तथा पंच हजारी को 200 पगौड़ा, एक पालकी और खिदमतदार दिया जाता था। 

समुद्री बेड़े की स्थापना

शिवाजी ने कोंकण में अपने बंदरगाहों की सुरक्षा के लिए एक मजबूत समुद्री जहाजी बेड़ा बनाया तथा शक्तिशाली नौ सेना का गठन किया। उसने पांच सौ समुद्री जहाजों को शस्त्रों तथा सैनिकों से सुसज्जित किया तथा दयासागर एवं मायानाक भण्डारी नामक दो नौ-सेनाध्यक्षों को नियुक्त किया।

शिवाजी ने अपनी जलसेना को कुलबा नामक बंदरगाह में रखा। सुवर्ण दुर्ग तथा विजय दुर्ग में भी कुछ जहाज रखे। इस सेना से शिवाजी को कई मोर्चों पर लाभ हुआ। इसी सेना के बल पर वह फ्रांसीसियों, अंग्रेजों, पुर्तगालियों तथा अबीसीनियाई लोगों की नौ-सेनाओं पर अंकुश रखता था।

इस काल में मुगलों के पास भी इतनी बड़ी नौ-सेना नहीं थी, जितनी शिवाजी के पास थी। शिवाजी के अधिकार वाले बंदरगाहों से मसाले, अनाज, कपास, चंदन आदि बहुमूल्य सामग्री का व्यापार दूरस्थ देशों को होता था जिससे शिवाजी को अच्छी आय होती थी।

पुर्तगालियों ने शिवाजी से संधि कर ली जिसके अनुसार शिवाजी को कभी भी पुर्तगालियों के क्षेत्र में लूट नहीं करना थी। इसके बदले में पुर्तगालियों ने शिवाजी की नौसेना को तोपें एवं बारूद उपलब्ध कराए।

-डॉ. मोहन लाल गुप्ता

मुगलों पर पुनः आक्रमण (15)

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मुगलों पर पुनः आक्रमण
मुगलों पर पुनः आक्रमण

राज्याभिषेक के कार्यक्रमों तथा राजमाता एवं राजमहिषी की मृत्यु के लोकाचार के कार्यक्रमों से निवृत्त होने के पश्चात् शिवाजी का ध्यान मुगल सूबेदार बहादुर खाँ की ओर गया जो इन दिनों भीमा नदी के पास पेंदगांव में डेरा डाले हुए था। शिवाजी ने मुगलों पर पुनः आक्रमण करने का निश्चय किया।

ओरंगजेब ने दिलेर खाँ को पुनः दिल्ली बुलवा लिया था। इस कारण सूबेदार बहादुर खाँ ही दक्षिण में मुगल सत्ता का अकेला प्रतिनिधि था। शिवाजी के राज्याभिषेक के कार्यक्रम के तुरंत बाद, राज्य में भारी वर्षा हुई थी किंतु शिवाजी ने वर्षा की परवाह किए बिना ही अपने 2,000 घुड़सवार सैनिकों को मुगलों पर आक्रमण करने के लिए भेजा।

योजना यह थी कि मराठे, मुगलों को ललकारते हुए शिविर से काफी दूर ले जाएंगे तथा पीछे से शिवाजी 7,000 घुड़सवारों के साथ मुगल शिविर पर आक्रमण करके उसे बर्बाद करेगा। यह योजना सफल रही। शिवाजी ने मुगलों के शिविर में आग लगा दी तथा वहाँ से 2 करोड़ रुपए का कोष, 200 घोड़े और बहुमूल्य सामान लूट लिया।

यह कीमती सामग्री एवं घोड़े बादशाह को भेंट देने के लिए एकत्रित किए गए थे। अक्टूबर के मध्य में शिवाजी की एक सेना ने फिर से बहादुर खाँ के शिविर को घेर लिया। शिवाजी की एक सेना ने औरंगाबाद के पास के कई नगरों को लूटा तथा वहीं से बगलाना और खानदेश में प्रवेश करके लगभग एक माह तक मुगलों के प्रदेश को लूटती रही।

एक तरफ से शिवाजी बहादुर खाँ के विरुद्ध कार्यवाहियाँ करता रहा और दूसरी ओर उसने बहादुर खाँ के माध्यम से ही औरंगजेब के पास संधि का प्रस्ताव भिजवाया। इसमें शिवाजी ने अपनी ओर से लिखा कि उसके पुत्र सम्भाजी को औरंगजेब सात हजारी मनसब पर नियुक्त करे। इसके बदले में शिवाजी अपने 17 दुर्ग समर्पित करेगा।

बहादुर खाँ ने इस प्रस्ताव को अपनी संतुस्ति के साथ औरंगजेब को भेज दिया। औरंगजेब ने इस संधि को स्वीकार कर लिया किंतु जैसे ही बादशाह की स्वीकृति प्राप्त हुई शिवाजी ने इसकी तरफ से मुंह मोड़ लिया। औरंगजेब ने खीझकर बहादुर खाँ को बहुत बुरा-भला लिखकर भेजा।

इस पर बहादुर खाँ ने योजना बनाई कि मुगल बादशाह को बीजापुर तथा गोलकुण्डा के साथ संधि करके तीनों शक्तियों को एक साथ शिवाजी पर आक्रमण करना चाहिए। औरंगजेब ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकृत कर दिया। औरंगजेब किसी भी प्रकार से शिवाजी से छुटकारा चाहता था क्योंकि शिवाजी के राज्याभिषेक के किस्से पूरे भारत में बढ़ा-चढ़ा कर कहे जा रहे थे और ऐसा लगता था मानो भारत में हिन्दू राज्य की स्थापना होने ही वाली है।

वेदनूर अभियान

उन्हीं दिनों शिवाजी ने कनारा की तरफ अभियान किया। वेदनूर की रानी तिमन्ना ने शिवाजी को संदेश भेजा कि वे वेदनूर की रानी की सहायता करें क्योंकि वेदनूर का सेनापति रानी तिमन्ना का अनादर कर रहा है। शिवाजी ने रानी की सहायता करने का वचन दिया तथा इसके बदले में वेदनूर पर चौथ आरोपित करने का प्रस्ताव रखा। रानी तिमन्ना ने शिवाजी का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। शिवाजी ने सेनापति पर अंकुश लगाकर, रानी तिमनना की सहायता की तथा वेदनूर राज्य से चौथ वसूल की।

शिवाजी की बीमारी

सम्भाजी लम्बे समय तक औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम के सम्पर्क में रहकर दूषित विचारों का हो गया था। इस कारण उसे युद्ध एवं प्रजापालन से बहुत कम सरोकार रह गया था। वह हर समय मदिरा पान करके स्त्रियों की संगत में रहता था। मराठों के भावी राजा का यह चरित्र देखकर शिवाजी बहुत चिंतित रहा करते थे।

इसी चिंता में घुलते रहने के कारण ई.1675 के अंत में शिवाजी गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। उसकी बीमारी की सूचना हवा की तरह दूर-दूर तक फैलने लगी और शीघ्र ही अफवाह उड़ गई कि शिवाजी का निधन हो गया है किंतु वैद्यों के उपचार से शिवाजी धीरे-धीरे ठीक हो गया और फिर से हिन्दू साम्राज्य की स्थापना के काम में जुट गया।

मुहम्मद कुली खाँ को दक्षिण की कमान

किसी समय शिवाजी का दायां हाथ कहे जाने वाले और द्वितीय शिवाजी के नाम से विख्यात नेताजी पाल्कर को औरंगजेब ने जयसिंह के माध्यम से मुगल सेवा में भरती करके मुसलमान बना लिया था और आठ सालों से अफगानिस्तान के मोर्चे पर नियुक्त कर रखा था। उसे अब मुहम्मद कुली खाँ के नाम से जाना जाता था।

जब शिवाजी का मुगलों पर पुनः आक्रमण हुआ तो औरंगजेब ने मुहम्मद कुली खाँ को शिवाजी के विरुद्ध झौंकने का निर्णय लिया। मुहम्मद कुली खाँ को शिवाजी के राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों की पूरी जानकारी थी। औंरगजेब ने दिलेर खाँ को भी मुहम्मद कुली खाँ के साथ दक्षिण भेजने का निर्णय लिया। दिलेर खाँ भी बरसों तक दक्षिण में सेवाएं दे चुका था तथा उसे शिवाजी से लड़ने का लम्बा अनुभव था।

इन दोनों मुगल सेनापतियों ने शिवाजी की राजधानी सतारा के निकट अपना डेरा जमाया। एक दिन मुहम्मद कुली खाँ अचानक मुगल डेरे से भाग निकला और सीधा शिवाजी की शरण में पहुँचा। उसने शिवाजी से अनुरोध किया कि मेरी शुद्धि करवाकर मुझे फिर से हिन्दू बनाया जाए। शिवाजी ने अपने पुराने साथी को फिर से हिन्दू धर्म में लेने की व्यवस्थाएं कीं।

19 जून 1676 को नेताजी पाल्कर फिर से हिन्दू धर्म में प्रविष्ट हो गया। इसके बाद वह आजीवन शिवाजी की सेवा करता रहा। जब शिवाजी का निधन हुआ तब भी नेताजी पाल्कर, सम्भाजी के प्रति निष्ठावान बना रहा। इस प्रकार औरंगजेब का यह वार भी खाली चला गया।

शिवाजी का कर्नाटक अभियान (16)

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शिवाजी का कर्नाटक अभियान
शिवाजी का कर्नाटक अभियान

शिवाजी का कर्नाटक अभियान इसलिए किया गया था ताकि सेनाओं का व्यय निकल सके। कर्नाटक अत्यंत प्राचीन काल से ही एक समृद्ध प्रदेश था जिसे मुसलमान लूट रहे थे।

जब शिवाजी दक्षिण भारत में मुगलों के क्षेत्र को कई बार लूट चुका तो उसका ध्यान कर्नाटक की ओर गया। कर्नाटक में चार शताब्दियों से मुसलमानों के आक्रमण नहीं होने से कृषि और विविध प्रकार के उद्योग धंधे भली-भांति पनप गए थे। इस कारण वहाँ की प्रजा अत्यंत समृद्ध तथा शांत थी।

इस समय कुछ जमींदार और बड़े जागीरदार कर्नाटक पर शासन करते थे जिनमें किसी बड़ी सेना का सामना करने की क्षमता नहीं थी। जब 13वीं शताब्दी के आरम्भ में अलाउद्दीन खिलजी ने कर्नाटक पर अभियान किया था, तब कर्नाटक प्रदेश में अंतिम लूट हुई थी। उसके बाद से किसी ने भी इस क्षेत्र को नहीं लूटा था।

अतः शिवाजी ने कर्नाटक पर अभियान करने का निश्चय किया ताकि उसकी सेनाओं का व्यय निकल सके। शिवाजी हैदराबाद, कृष्णा नदी के पठार, जिंजी तथा वैलोर होते हुए बंगाल की खाड़ी के तटीय क्षेत्र में स्थित मद्रास तक जाना चाहता था। इस अभियान में एक वर्ष का समय लगने का अनुमान था किंतु राज्य को छोड़कर लम्बी अवधि के लिए इतनी दूर जाने में कई खतरे थे।

बहादुर खाँ को रिश्वत

इस समय औरंगजेब पंजाब के विद्रोह को दबाने में व्यस्त था किंतु दक्षिण का मुगल सूबेदार बहादुर खाँ अब भी दक्षिण में था जो शिवाजी के इस अभियान में बाधा उत्पन्न कर सकता था। यद्यपि शिवाजी कई बार बहादुर खाँ को लूट चुके थे फिर भी इस बार शिवाजी ने बहादुर खाँ को मोटी रिश्वत देकर अपने पक्ष में करने का निर्णय लिया। बहादुर खाँ ने यह रिश्वत सहर्ष स्वीकार कर ली। उसने इसे शिवाजी पर अपनी जीत के रूप में देखा।

बीजापुर की अव्यवस्था

शिवाजी का कर्नाटक अभियान में बीजापुर से भी विध्न उत्पन्न किया जा सकता था। बीजापुर के शाह की मृत्यु हो जाने से उसके अल्पवयस्क पुत्र को सुल्तान बनाया गया था किंतु बीजापुर के मंत्री एक-दूसरे के विरुद्ध षड़यंत्रों में व्यस्त थे और इन्हीं षड़यंत्रों के कारण बीजापुर के प्रधानमंत्री खवास खाँ की हत्या हो गई थी।

इस कारण बीजापुर की तरफ से खतरा उत्पन्न होने की संभावना न के बराबर थी। कर्नाटक अभियान के लिए शिवाजी को जिस क्षेत्र से होकर निकलना था, उसका बहुत बड़ा हिस्सा शिवाजी के स्वर्गीय पिता शाहजी भौंसले की जागीर में स्थित था। यह जागीर इस समय बीजापुर राज्य के जागीरदार एवं शिवाजी के सौतेले भाई व्यंकोजी के अधिकार में थी। उसकी तरफ से खतरे की संभावना बहुत कम थी।

रघुनाथ नारायण का शिवाजी के पास आगमन

शाहजी भौंसले की मृत्यु के बाद, शिवाजी का सौतेला भाई व्यंकोजी कनार्टक की जागीर का स्वामी बना। शिवाजी को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी किंतु व्यंकोजी ने अपने मंत्री रघुनाथ नारायण हनुमंते को अपनी सेवा से पृथक कर दिया। रघुनाथ नारायण, शिवाजी के पास चला आया और शिवाजी को उकसाने लगा कि शिवाजी को अपने स्वर्गीय पिता की जागीर में से आधा हिस्सा मांगना चाहिए।

शिवाजी को यह सुझाव उचित लगा क्योंकि यदि शिवाजी को अपने पिता की आधी जागीर मिल जाती है तो उसे मद्रास तक पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं रह जाएगी क्योंकि तब तो वह क्षेत्र शिवाजी के राज्य में ही सम्मिलित हो जाएगा।

मदन्ना और अकन्ना ब्राह्मण

शिवाजी के मार्ग का थोड़ा सा भाग गोलकुण्डा के कुतुबशाह के राज्य के अंतर्गत स्थित था। शिवाजी चाहता था कि शिवाजी को कुतुबशाह के अधिकार वाले कर्नाटक में होकर निकलने की अनुमति मिल जाए। गोलकुण्डा में 21 अप्रेल 1672 से अब्दुल हसन कुतुबशाह गद्दी पर था तथा मदन्ना नामक एक ब्राह्मण, उसका प्रधानमंत्री था।

मदन्ना तथा उसका भाई अकन्ना इस समय गोलकुण्डा राज्य में सर्वेसर्वा बने हुए थे। शिवाजी ने नीराजी पंत को अपना दूत बनाकर प्रधानमंत्री मदन्ना के पास भेजा ताकि उसके माध्यम से कुतुबशाह से संधि हो सके एवं शिवाजी स्वयं कुतुबशाह से भेंट कर सकें। मदन्ना ने कुतुबशाह को शिवाजी से मिलने के लिए सहमत कर लिया।

कुतुबशाह की घबराहट

कुतुबशाह शिवाजी से मिलना तो चाहता था किंतु घबरा भी रहा था क्योंकि उसने शिवाजी के बारे में कई किस्से सुन रखे थे कि वह पलक झपकते ही कुछ भी करने में समर्थ है। शिवाजी के प्रतिनिधि नीराजी राव तथा मदन्ना के समझाने पर कुतुबशाह तैयार हो गया।

जनवरी 1677 में शिवाजी ने 50 हजार सैनिकों के साथ हैदराबाद के लिए प्रस्थान किया। उसने सैनिकों को कठोर आदेश दिए कि मार्ग में वे किसी भी गांव को न लूटें तथा प्रजा का उत्पीड़न नहीं करें अन्यथा उन्हें शिवाजी द्वारा मृत्यु दण्ड दिया जाएगा।

शिवाजी का हैदराबाद में स्वागत

हैदराबाद में कुतुबशाह ने तथा नगर-वासियों ने शिवाजी का भारी स्वागत किया। उसके लिए स्थान-स्थान पर स्वागत द्वार बनाए गए। जब शिवाजी अपनी सेना के साथ हैदराबाद की सड़कों से गुजरा तो उसे देखने के लिए सड़क के दोनों ओर तथा मकानों की छतों पर हजारों नर-नारियों की भीड़ जमा हो गई।

वे उस शिवाजी को अपनी आंख से देखना चाहते थे जिसने पलक झपकते ही शक्तिशाली अफजल खाँ को मार डाला था तथा शाइस्ता खाँ को बुरी तरह घायल कर दिया था। एक ऐसा चमत्कारी राजा उनकी आंखों के सामने सड़क से गुजर रहा था जिसने आदिलशाह तथा औरंगजेब को मुजरा करने से मना कर दिया था और औरंगजेब की कैद से रहस्यमय ढंग से गायब हो गया था।

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शिवाजी को हैदराबाद में मित्र के रूप में देखा गया और जनता द्वारा शिवाजी अमर रहें के नारे लगाए गए। हिन्दू स्त्रियों ने स्थान-स्थान पर उसकी आरती उतारी और उस पर पुष्पों की वर्षा की। शिवाजी ने भी हैदराबाद की जनता पर विपुल धन की वर्षा की। हैदराबाद के महल में कुतुबशाह ने स्वयं आगे आकर शिवाजी का स्वागत किया तथा उसे अपने महल में ले जाकर उसका पान एवं इत्र से सत्कार किया। कुतुबशाह के सारे मंत्री इस अवसर पर उपस्थित रहे।

अगले दिन गोलकुण्डा के प्रधानमंत्री मदन्ना की माता ने अपने हाथों से शिवाजी के लिए भोजन तैयार किया तथा स्वयं ही परोसकर शिवाजी को खिलाया। इस अवसर पर मदन्ना तथा उसका भाई अकन्ना, वहाँ उपस्थित रहे। कुतुबशाह तथा शिवाजी के बीच कई बैठकें हुईं तथा कुतुबशाह को शिवाजी पर भरोसा हो गया। उसने अपने मंत्रियों से कहा कि शिवाजी जो कुछ भी मांगे, दे दिया जाए।

कुतबशाह से संधि

प्रधानमंत्री मदन्ना के सहयोग से शिवाजी तथा कुतुबशाह में एक गुप्त समझौता भी हुआ जिसके अनुसार शिवाजी को कर्नाटक की लूट में मिलने वाले धन में से आधा हिस्सा कुतुबशाह को देना था। इसके बदले में कुतुबशाह ने शिवाजी को इस अभियान में आर्थिक एवं सैन्य सहायता प्रदान की। इस बीच शिवाजी के सिपाही हैदराबाद नगर में साहसिक करतब दिखाकर प्रजा का मन जीतने में लगे रहे।

चक्रतीर्थ में स्नान एवं दान-पुण्य

लगभग एक माह के आतिथ्य सत्कार एवं सैन्य तैयारियों के पश्चात् शिवाजी ने कर्नाटक विजय के लिए प्रस्थान किया। उसने कृष्णा नदी से पहले कर्नूल नगर से 5000 होन का चंदा वसूल किया तथा सेना को अनंतपुर में शिविर लगाने का निर्देश दिया। शिवाजी अपने कुछ सिपाहियों को साथ लेकर कृष्णा एवं भवनाशी नदियों के संगम में स्नान करने के लिए गया। उसने चक्रतीर्थ भंवर में स्नान करके दान-पुण्य किया तथा धार्मिक अनुष्ठन सम्पन्न किए। संगम से शिवाजी शैल तीर्थ के लिए गया।

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की सेवा में दस दिन

कृष्णा नदी समुद्र में विलीन होने से पहले पूर्व की ओर मुड़ती है तथा कर्नूल से लगभग 100 किलोमीटर दूर एक चौड़े और खड़े कगारों वाले लगभग 300 मीटर गहरे खड्ड में बहते हुए उत्तर की ओर एक तीव्र चाप बनाती है।

यहाँ विषम पहाड़ियों और सुनसान ज्वरग्रस्त भूमि की पेटी से घिरे निर्जन नल्ला-माला जंगल के मध्य में नदी के ऊपर की ओर लगभग 525 मीटर ऊंचा पठार है जहाँ दक्षिण भारत का सर्वाधिक प्राचीन एवं विख्यात श्री शैल शिवमंदिर है जिसमें मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिंग स्थित है। यह भारत के सुप्रसिद्ध द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है।

उन दिनों इस पठार पर कैलास नामक एक भव्य द्वार हुआ करता था, इस द्वार से प्रवेश करते ही मंदिर का परकोटा दिखाई देता था। इस परकोटे की दीवारें 20 से 25 फुट ऊंची तथा काफी मोटी थीं। इस परकोटे के भीतर 660 फुट लम्बा तथा 510 फुट चौड़ा आयताकार स्थान था जिसमें मल्लिकार्जुन का मंदिर स्थित था।

विजय नगर के महाराजा कृष्णदेव ने इस मंदिर पर सोने का पानी चढ़े पीतल के पतरे लगवाए थे। इस मंदिर की दीवारों पर पुराणों एवं महाकाव्यों के प्रसंगों के दृश्य उत्कीर्ण थे। यहाँ पार्वती का एक मंदिर है। कृष्णदेव की रानी ने इस मंदिर से लेकर कृष्णा नदी के घेरे तक पत्थर की सीढ़ियां बनवाई थीं, इस घेरे को पाताल गंगा कहते हैं।

यही सीढ़ियां आगे नीलगढ़ नामक पांझ तक जाती हैं। यह भी बहुत पवित्र माना जाता है। शिवाजी ने दस दिन इसी पठार पर व्यतीत किए। उसने यहाँ भगवान गणेश को समर्पित एक घाट, एक मठ और एक धर्मशाला के निर्माण हेतु अधिकारी नियुक्त करके उन्हें पर्याप्त धन प्रदान किया। शिवाजी ने इस तीर्थ में एक लाख ब्राह्मणों को भोजन करवाया और उन्हें बहुत सा धन दान में दिया।

जिंजी दुर्ग पर अधिकार

कृष्णा के पठार से उतरकर शिवाजी पुनः अनंतपुर पहुंचा और वहाँ से अपनी सेना के साथ कड़प्पा, तिरुपति और कलहस्ती होते हुए मद्रास के निकट स्थित जिंजी दुर्ग तक पहुंचा। जिंजी बीजापुर के अधिकार में था। जब उसके दुर्गपति ने शिवाजी का नाम सुना तो उसने दुर्ग बिना लड़े ही शिवाजी को समर्पित कर दिया।

उन दिनों मद्रास एक बहुत छोटा नगर हुआ करता था। उसे मछुआरों की बस्ती कहना ही उचित होगा। मद्रास के निकट अंग्रेजों ने सेंट जॉर्ज फोर्ट नामक दुर्ग बना रखा था। शिवाजी अंग्रेजों से युद्ध में नहीं उलझना चाहता था इसलिए उसने सेंट जॉर्ज फोर्ट की बजाय वेल्लोर पर घेरा डालने का निर्णय लिया जहाँ एक मुस्लिम जागीरदार का अधिकार था। 

वेल्लोर पर घेरा

जिंजी दुर्ग की सुरक्षा का समुचित प्रबन्ध करके शिवाजी ने वेल्लोर दुर्ग पर घेरा डाला। यह दुर्ग अत्यंत दुर्गम था और इस पर अधिकार करने में काफी समय लगना अनुमानित था। इसलिए शिवाजी ने अपनी सेना के एक भाग को दुर्ग पर घेरा डालकर बैठे रहने के निर्देश दिए तथा दूसरे भाग को लेकर शेर खाँ लोढ़ी से लड़ने चला गया।

शेर खाँ किसी समय बीजापुर का सामंत था किंतु बीजापुर राज्य की कमजोरी का लाभ उठाकर स्वतंत्र हो गया था। शेर खाँ विशाल सेना लेकर शिवाजी से लड़ने के लिए आया। तिरूवड़ी नामक स्थान पर दोनों पक्षों में युद्ध हुआ। कई दिन तक छोटी-छोटी लड़ाइयाँ करके शिवाजी ने शेर खाँ के हौंसले तोड़ दिए।

अंत में शेर खाँ युद्ध की क्षति पूर्ति के लिए 20 हजार होन देने के लिए सहमत हो गया। शिवाजी ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया किंतु शेर खाँ के पास पर्याप्त होन नहीं थे। इसलिए उसने अपने पुत्र को शिवाजी के पास बंधक रख दिया। वर्ष 1678 में शेर खाँ ने शिवाजी को पूरा धन देकर अपने पुत्र को मुक्त करवाया।

तुंगभद्रा से लेकर कावेरी तक के क्षेत्र पर विजय

कुछ ही समय में तुंगभद्रा से लेकर कावेरी तक का कर्नाटक प्रदेश, शिवाजी के प्रत्यक्ष अधीन हो गया। शिवाजी ने महाराष्ट्र से हजारों योग्य व्यक्तियों को बुलाकर उन्हें कनार्टक का राजस्व एवं सैनिक प्रशासन सौंप दिया। आज साढ़े तीन सौ साल बीत जाने पर भी इस पूरे क्षेत्र में मराठी परिवार निवास करते हुए दिखाई देते हैं, ये परिवार उन्हीं महाराष्ट्रियनों के वंशज हैं।

व्यंकोजी से भेंट

शेर खाँ से निबटकर शिवाजी ने व्यंकोजी से मिलकर पैतृक सम्पत्ति का बंटवारा करवाने का कार्यक्रम बनाया। वह अपनी सेना लेकर तंजौर की तरफ बढ़ा तथा कोलेरून नदी के पास डेरा डाला। व्यंकोजी को इसकी सूचना भेजी गई। वह कई सप्ताह के बाद शिवाजी के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए आया।

उसके साथ उसके अनुचरों तथा अंगरक्षकों की टुकड़ी भी थी। शिवाजी ने उसके समक्ष प्रस्ताव रखा कि पैतृक सम्पत्ति का बंटवारा करके परिवार में सौहार्द बनाए। व्यंकोजी बंटवारे के लिए तैयार नहीं हुआ। कई दिनों तक उसे समझाने का प्रयास किया गया किंतु वह मना करता रहा और अंत में एक दिन अवसर पाकर नदी की तरफ भाग गया और वहाँ लट्ठों की सहायता से एक नाव बनाकर, नदी पार करके अपनी राजधानी पहुंचने में सफल हो गया।

शिवाजी ने उसके अनुचरों को बंदी बना लिया किंतु उन्हें अपने पिता और भाई का सेवक जानकर, उन्हें ससम्मान नई पोषाकें दीं और मुक्त कर दिया। शिवाजी ने एक पत्र व्यंकोजी को भिजवाया कि पैतृक सम्पत्ति का बंटवारा हर तरह से न्याय संगत है किंतु व्यंकोजी ने इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया।

अभियान की समाप्ति

शिवाजी चाहता तो व्यंकोजी पर भी आक्रमण कर सकता था किंतु वह इसे अनुचित मानता था। शिवाजी को अपनी राजधानी छोड़े हुए दस माह से अधिक हो गए थे। कर्नाटक अभियान लगभग पूरा हो चुका था। इसलिए शिवाजी ने वापस लौट जाने का निर्णय लिया। मार्ग में उसने अपने पिता की जागीर के कुछ हिस्से अपने अधिकार में लेकर अपने थाने बैठा दिए।

जब शिवाजी और आगे चला गया तो व्यंकोजी ने उन थानों पर हमला किया किंतु व्यंकोजी उन क्षेत्रों को अपने अधिकार में नहीं ले सका। शिवाजी ने कड़ा पत्र लिखकर व्यंकोजी को चेतावनी दी कि पैतृक सम्पत्ति का बंटावारा करने के स्थान पर, तुमने मुसलमानों के साथ मिलकर अपने ही भाई को नीचा दिखाने का प्रयास किया है।

तुम्हारा प्रयास कभी सफल नहीं होगा क्योंकि ईश्वर की कृपा से ही मैंने अब तक अपने शत्रुओं को नीचा दिखाया है और मैं हिन्दू राज्य की स्थापना के काम में लगा हुआ हूँ। तुम्हें मेरे इस काम में सहयोग देना चाहिए। 

दीपाबाई द्वारा शिवाजी से समझौता

व्यंकोजी की रानी दीपाबाई एक समझदार स्त्री थी। उसने व्यंकोजी को भाई से विग्रह करने के लिए फटकारा तथा उसे परामर्श दिया कि अपने मंत्री रघुनाथ पण्डित के माध्यम से शिवाजी से संधि करो। साथ ही अपने राज्य से मुसलमान परामर्शदाताओं को निकाल दो जो तुम्हें अपने ही भाई के विरुद्ध उकसाते हैं।

व्यंकोजी ने अपनी रानी का परामर्श स्वीकार कर लिया तथा रघुनाथ पण्डित को शिवाजी के पास भेजकर शिवाजी से संधि कर ली। इससे दोनों भाइयों के बीच का कलह समाप्त हो गया। शिवाजी ने दीपाबाई के इस कृत्य के लिए उसे कर्नाटक में एक बड़ी जागीर पुरस्कार में दी तथा उस विदुषी महिला की बहुत प्रशंसा की।

दिलेर खाँ का हैदराबाद पर आक्रमण

जब शिवाजी हैदराबाद से चलकर कर्नाटक पहुंच गया तब मुगल सूबेदार दिलेर खाँ ने कुतुब खाँ को दण्डित करने के लिए हैदराबाद पर आक्रमण किया। शिवाजी से भेंट करने के बाद प्रधानमंत्री मदन्ना उत्साह से भरा हुआ था। उसे विश्वास हो गया था कि हिन्दू तेज के समक्ष मुसलमानों की शक्ति कुछ भी नहीं है। इसलिए उसने दिलेर खाँ में कसकर मार लगाई। मुगल सूबेदार को अपनी हार पर दुःख से अधिक, आश्चर्य हुआ। वह हैदराबाद से भाग खड़ा हुआ।

शिवाजी की सेना द्वारा औरंगाबाद क्षेत्र में लूट

शिवाजी अभी कर्नाटक में था कि उसे दिलेर खाँ के हैदराबाद पर आक्रमण करने की सूचना मिली। शिवाजी ने अपने संदेश वाहकों के माध्यम से अपने सामंतों और जागीरदारों को आदेश भिजवाए कि दिलेर खाँ की प्रगति को रोकने के लिए गोदावरी से लेकर औरंगाबाद तक के मुगल क्षेत्रों पर धावे मारें और पूरी तरह उजाड़ दें। शिवाजी के सामंतों ने ऐसा ही किया। इससे दिलेर खाँ बुरी तरह मुसीबत में फंस गया। एक तरफ तो मदन्ना उसे मार रहा था और दूसरी तरफ मराठों ने धावे मारने शुरु कर दिए थे। उसके लिए शिवाजी को समझ पाना संभव नहीं था।

औरंगजेब की चिंता और मुअज्जम का आगमन

मुगलों के लिए दक्षिण एक बड़ी चुनौती बन गया था। वह बार-बार सूबेदारों को बदल रहा था किंतु कुछ भी परिणाम सामने नहीं आ रहा था। उसने एक बार फिर से शहजादे मुअज्जम को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। फरवरी 1679 में मुअज्जम औरंगाबाद पहुंच गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

सम्भाजी का दुराचरण (17)

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सम्भाजी का दुराचरण
सम्भाजी का दुराचरण

शिवाजी का पुत्र सम्भाजी, लम्बे समय तक शहजादे मुअज्जम के सम्पर्क में रहने के कारण कुव्यसनों का शिकार हो गया था। एक बार एक सुंदर ब्राह्मण स्त्री किसी धार्मिक आयोजन में भाग लेने के लिए शिवाजी के राजमहल में आई। सम्भाजी ने बलपूर्वक उसका शील भंग किया। सम्भाजी का दुराचरण किसी भी प्रकार सह्य नहीं था।

जब शिवाजी को सम्भाजी का दुराचरण ज्ञात हुआ तो उसने सम्भाजी को बंदी बनाकर पन्हाला दुर्ग में पटक दिया। शिवाजी बहुत दिनों से अपने राज्य का बंटावारा करने की सोच रहा था। वह चाहता था कि कनार्टक का हिस्सा सम्भाजी को तथा महाराष्ट्र का हिस्सा अवयस्क राजाराम को दिया जाए किंतु इसी बीच सम्भाजी ने यह कुकृत्य कर दिया।

इसलिए शिवाजी ने यह योजना स्थगित कर दी। जब दिलेर खाँ को ज्ञात हुआ कि शिवाजी ने सम्भाजी को पन्हाला दुर्ग में बंदी बनाकर रखा है तो दिलेर खाँ ने पत्रों के माध्यम से सम्भाजी से सम्पर्क किया। 13 दिसम्बर 1678 को रात के समय सम्भाजी ने अपनी पत्नी येसुबाई को पुरुषों के वस्त्र धारण करवाए तथा दोनों व्यक्ति अंधेरे का लाभ उठाकर दुर्ग से भाग निकले।

जब दिलेर खाँ को इसकी सूचना मिली तो वह सम्भाजी की अगवानी करके अपने शिविर में ले गया। उसने औरंगजेब को पूरी घटना की जानकारी लिख भेजी तथा अनुशंसा की कि सम्भाजी को 7000 के मनसब पर मुगलों की सेवा में रखा जाए। बादशाह, दिलेरखाँ की इस सफलता से बहुत प्रसन्न हुआ किंतु उसे यह शंका भी हुई कि कहीं यह शिवाजी की कोई चाल न हो!

जब शिवाजी को सम्भाजी के पलायन की जानकारी मिली तो उन्होंने अपने आदमी सम्भाजी को ढूंढने भेजे किंतु दिलेर खाँ ने सम्भाजी के आगमन की सूचना इतनी गुप्त रखी कि शिवाजी के आदमी सम्भाजी का कोई समाचार प्राप्त नहीं कर सके। सम्भाजी को ढूंढने के लिए गुप्तचरों को काम पर लगाया गया।

कुछ ही दिनों में शिवाजी को सम्भाजी के दिलेर खाँ के शिविर में होने की सूचना मिल गई। शिवाजी ने सम्भाजी को प्राप्त करने के लिए अपनी दो सैनिक टुकड़ियों के साथ मुगल शिविर पर आक्रमण किया। इन दोनों टुकड़ियों ने, दिलेर खाँ की सेना के पृष्ठ भाग को बिखरने के लिए दो तरफ से एक साथ आक्रमण किया।

इनमें से एक सेना का नेतृत्व शिवाजी स्वयं कर रहा था तथा दूसरा दल आनंदजी मकाजी कर रहा था। इस अभियान में शिवाजी को सफलता नहीं मिली।

कुछ समय पश्चात् दिलेर खाँ ने बीजापुर पर अभियान किया। सम्भाजी भी इस अभियान में दिलेर खाँ के साथ रहा। मार्ग में भूपालगढ़ का दुर्ग आया जहाँ शिवाजी ने अपना बहुत सा कोष संचित कर रखा था। शिवाजी द्वारा नियुक्त फिरंगोजी नरसाल नामक दुर्गपति इस दुर्ग की रक्षा करता था।

सम्भाजी ने दिलेर खाँ को बता दिया कि इस दुर्ग में शिवाजी का बहुत बड़ा खजाना रखा हुआ है। दिलेर खाँ ने दुर्ग पर धावा बोल दिया। फिरंगोजी नरसाल चिंता में पड़ गया। क्योंकि यदि वह दुर्ग पर घेरा डालकर बैठी मुगल सेना पर तोपों से गोले छोड़ता तो सम्भाजी के भी मारे जाने का खतरा था।

इसलिए फिरंगोजी नरसाल दुर्ग छोड़कर अलग हो गया और 23 अप्रेल 1679 को दिलेर खाँ ने सरलता से भूपालगढ़ पर अधिकार कर लिया। दिलेर खाँ ने दुर्ग में स्थित समस्त लोगों की हत्या करवाई तथा राज्यकोष को लूट लिया।

जब शिवाजी को भूपालगढ़ के समाचार मिले तो उसने फिरंगोजी नरसाल में कसकर फटकार लगाई कि उसने सम्भाजी जैसे पापी को गोली क्यों नहीं मार दी! जीत के मद से भरा हुआ दिलेर खाँ अब सिद्दी मसूद के इलाके में पहुंचा। सिद्दी मसूद को ज्ञात था कि वह दिलेर खाँ की शक्ति के आगे तिनके जैसी बिसात भी नहीं रखता।

इसलिए उसने शिवाजी को भावुक पत्र लिखकर अपनी रक्षा की गुहार लगाई। शिवाजी ने पत्र के मिलते ही अपने दो सैन्य-दल दिलेर खाँ से लड़ने के लिए रवाना किए। शिवाजी के सैनिकों ने दिलेर खाँ में कसकर मार लगाई जिससे तिलमिला कर दिलेर खाँ वहाँ से घेरा उठाकर वापस लौट लिया।

मार्ग में उसने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार करने की योजना बनाई। दिलेर खाँ की सेना जिस गांव से गुजरती उसे लूटती तथा पूरी तरह बर्बाद कर देती। बहुत से साहूकार अपने धन तथा परिवारों को लेकर तिकोटा में जा छिपे किंतु दिलेर खाँ ने उन्हें ढूंढ लिया और पकड़ कर भयानक यातनाएं दीं।

बहुत से स्त्री-पुरुषों ने इन यातनाओं से बचने के लिए कुओं तथा बावड़ियों में छलांग लगा दी। दिलेर खाँ की सेना ने कई हजार स्त्री-पुरुष बंदी बना लिए तथा उनसे मुक्ति धन की मांग की।

सम्भाजी, दिलेर खाँ की सेना को यह सब करते हुए देखता था तो उसकी आत्मा चीत्कार करने लगती थी। यह उसके पिता की प्रजा थी जो सम्भाजी की आंखों के सामने लुट-पिट और मर रही थी। दिलेर खाँ को सूचना मिली कि अठनी गांव में काफी धन मिलने की संभावना है।

इसलिए दिलेर खाँ ने अपनी सेना को अठनी गांव पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। इस गांव में दिलेर खाँ की सेना ने हिन्दू प्रजा पर अमानुषिक अत्याचार किए जिन्हें देखकर सम्भाजी पूरी तरह टूट गया।

अठनी गांव के हिन्दुओं ने सम्भाजी के पैरों में गिरकर उससे प्रार्थना की कि वह हिन्दुओं को दिलेर खाँ के क्रूर अत्याचारों से बचाए। सम्भाजी ने दिलेर खाँ से अनुरोध किया वह प्रजा पर अत्याचार नहीं करे किंतु दिलेर खाँ ने सम्भाजी का अनुरोध ठुकरा दिया।

जब शिवाजी ने देखा कि दिलेर खाँ हिन्दू प्रजा पर अत्याचार कर रहा है तो शिवाजी ने भी औरंगाबाद के निकट जलनापुर पर भीषण आक्रमण किया। यह नगर मुगलों के अधिकार में था तथा यहाँ बहुत से धनी व्यापारी रहा करते थे। शिवाजी ने नियम बना रखा था कि वे जनता पर अत्याचार नहीं करते थे तथा सामान्य जन को नहीं लूटते थे किंतु इस बार शिवाजी ने इस नियम को तोड़ा ताकि दिलेर खाँ को हिन्दू प्रजा पर अत्याचार करने से रोका जा सके।

कुछ मुस्लिम व्यापारी बहुत सारा धन लेकर एक दरगाह में घुस गए। उन्हें ज्ञात था कि शिवाजी धार्मिक स्थानों पर आक्रमण नहीं करता किंतु इस बार शिवाजी के सैनिक भी दरगाह में घुस गए और उन्होंने उन मुसलमान व्यापारियों को पकड़ लिया।

वहाँ सैयद जान मुहम्मद नामक मौलवी रहता था, उसने शिवाजी से मना किया कि वह धार्मिक स्थल में ऐसा नहीं करे किंतु शिवाजी के सैनिकों ने मौलवी का भी अपमान किया।

जलनापुर से शिवाजी को बहुत सा सोना-चांदी हीरे-जवाहरात, आभूषण आदि मिले। बड़ी संख्या में हाथी, घोड़े, ऊंट भी शिवाजी की सेना के हाथ लगे जिन्हें लेकर यह सेना लौटने लगी किंतु एक मुगल सेनापति रनमस्त खाँ ने एक विशाल सेना लेकर शिवाजी की सेना पर पीछे से आक्रमण किया।

उसने औरंगाबाद में पड़ी विशाल मुगल सेना को भी बुलावा भेजा। उसकी योजना शिवाजी की सेना पर चारों ओर से घेरा डालने की थी। ताकि इस मैदानी लड़ाई में शिवाजी को घेरकर मारा जा सके। मुगलों की सेना में कार्यरत केशरीसिंह नामक एक हिन्दू सैनिक ने शिवाजी को गुप्त संदेश भेजा कि वे यहीं पर घेर लिए जाने वाले हैं। अतः यहाँ रुकें नहीं, जितनी जल्दी हो सकें निकल जाएं, औरंगाबाद से और मुगल सेना आ रही है।

विशाल मुगल सेना से मैदानी युद्ध में पार पाना, शिवाजी के लिए संभव नहीं था। इस शिवाजी के साथ बहुत कम सैनिक थे। इसलिए शिवाजी ने निम्बालकर को आदेश दिया कि वह 5 हजार सैनिकों के साथ मुगलों का रास्ता रोके, मैं शेष सेना के साथ आगे बढ़ता हूँ। निम्बालकर मोर्चा बांधकर बैठ गया और शिवाजी स्थानीय लोगों की सहायता से एक गुप्त पहाड़ी मार्ग से शेष सेना को लेकर रातों रात वहाँ से निकल गया। वह तीन दिन तथा तीन रात तक लगातार चलता रहा। लूट का सारा सामान भी मार्ग में छोड़ देना पड़ा।

शिवाजी, सम्भाजी को दिलेर खाँ के चंगुल से निकालने के लिए लगातार प्रयासरत था। उसने औरंगजेब को सूचित किया कि दिलेर खाँ तथा सम्भाजी बीजापुर से हारकर भाग गए हैं। औरंगजेब यह सूचना पाते ही आग-बबूला हो गया और उसने दिलेर खाँ को संदेश भेजा कि सम्भाजी को बंदी बनाकर दिल्ली भेज दिया जाए।

उसने दिलेर खाँ को भी दक्षिण से हटा दिया तथा उसके स्थान पर पुनः बहादुर खाँ को नियुक्त कर दिया। औरंगजेब के आदेशों को सुनते ही सम्भाजी भारी संकट में पड़ गया। उसने महादजी निम्बालकर नामक एक मराठा सरदार से बात की। महादजी सम्भाजी का रिश्तेदार था तथा इस समय दिलेर खाँ के यहाँ नौकरी कर रहा था।

उसने सम्भाजी को चेताया कि औरंगजेब हर हाल में सम्भाजी की हत्या करवाएगा। सम्भाजी का दुराचरण इतना गंभीर था कि स्वयं संभाजी को लगता था कि शिवाजी उसकी हत्या करवा सकते हैं। एक रात को सम्भाजी ने अपनी पत्नी को पुरुषों के कपड़े धारण करने के लिए कहा और दोनों अवसर पाकर अठनी गांव के मुगल शिविर से भाग निकले।

सम्भाजी तथा उसकी पत्नी येसुबाई, छत्रपति शिवाजी के पास न जाकर शिवाजी के मित्र सिद्दी मसूद के पास गए तथा उससे सहायता करने हेतु प्रार्थना की। सिद्दी मसूद ने सम्भाजी तथा उसकी स्त्री को शरण दी तथा शिवाजी को सूचना भिजवाई। जब दिलेर खाँ को यह सूचना मिली तो उसने सिद्दी मसूद को एक मोटी रिश्वत का लालच दिया तथा उसके बदले में सम्भाजी तथा उसकी स्त्री को सौंपने के लिए कहा।

सम्भाजी को इस बात का पता चल गया। अब यहाँ भी उसके प्राण संकट में थे। इसलिए 20 नवम्बर 1679 की अर्द्धरात्रि में सम्भाजी अपनी पत्नी के साथ एक बार पुनः भाग लिया। मार्ग में इस दम्पत्ति की भेंट शिवाजी के एक सैन्य दल से हुई। यह दल सम्भाजी को ही ढूंढता फिर रहा था।

सम्भाजी ने इन सैनिकों के समक्ष समर्पण कर दिया तथा यह दल 14 दिसम्बर को सम्भाजी तथा उसकी पत्नी को लेकर पन्हाला दुर्ग पहुंचा। शिवाजी के आदेशानुसार सम्भाजी को पुनः बंदी अवस्था में रखा गया।

पन्हाला दुर्ग से निकलने के बाद सम्भाजी लगभग एक वर्ष तक मुगल शिविर में रहा था किंतु भाग्य की ठोकरें खाता हुआ वह पुनः इसी दुर्ग में बंदी बना लिया गया था। इस बार शिवाजी ने पन्हाला दुर्ग की सुरक्षा के विशेष प्रबन्ध किए ताकि दिलेर खाँ, सम्भाजी को लेकर न भाग जाए। सम्भाजी का दुराचरण उसे अपने पिता की नजरों में इतना अधिक गिरा चुका था कि संभाजी अपने पिता से क्षमायाचना करने के योग्य भी नहीं रह गया था।

इसी बीच शिवाजी को रघुनाथ पण्डित के माध्यम से सूचना मिली कि व्यंकोजी राजकाज से उदासीन हो गया है, वह एकांत में बैठकर समय व्यतीत करता है तथा उसकी इच्छा सन्यास धारण करने की है। भाई की ऐसी स्थिति जानकर शिवाजी को दुःख हुआ।

उसने व्यंकोजी को कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर होने के लिए मार्मिक पत्र लिखा और समझाया कि हमारे पिता का आदर्श, कर्म करते रहने का था। तुम्हें एकांत में बैठकर दिन नहीं निकालना चाहिए अपितु विपत्तियों का सामना करते हुए कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर होना चाहिए।

क्या तुम यह देखना चाहोगे कि शत्रु तुम्हारी सेनाओं को पछाड़ दें, तुम्हारी सम्पत्ति छीन लें और तुम्हारे शरीर को भी क्षति पहुंचाए! मैं तुमसे बड़ा हूँ, मैं हर तरह से तुम्हारी रक्षा करूंगा। तुम्हें मुझसे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। रघुनाथ पण्डित योग्य व्यक्ति है, उसके परामर्श करके निर्णय लो।

यदि तुम्हें यश और कीर्ति मिली तो मुझे बहुुत प्रसन्नता होगी। स्वयं को संभालो। यह शिवाजी की तरफ से व्यंकोजी को अंतिम पत्र सिद्ध हुआ क्योंकि शिवाजी को फिर कभी व्यंकोजी के समाचार जानने और सलाह देने का अवसर नहीं मिला।

जजिया का विरोध (18)

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जजिया का विरोध
जजिया का विरोध

3 अप्रेल 1679 को औरंगजेब ने हिन्दू प्रजा पर फिर से जजिया लगा दिया। इससे हिन्दू प्रजा में असंतोष फैल गया। अब तक शिवाजी की नीति यह रही थी कि वह औरंगजेब को जब-तब संधि के पत्र भिजवाता रहता था किंतु कार्यरूप में वह औरंगजेब को नुक्सान पहुंचाता रहता था किंतु इस बार शिवाजी द्वारा जजिया का विरोध करने के लिए औरंगजेब को पत्र लिखा गया। इस पत्र को नीला प्रभु से फारसी भाष में रूपांतरित करवाया गया।

शिवाजी ने लिखा-

”सम्राट आलमगीर की सेवा में, यह सदा मंगल कामना करने वाला शिवाजी ईश्वर के अनुग्रह तथा सम्राट की अनुकम्पा का धन्यवाद करने के बाद जो सूर्य से भी अधिक स्पष्ट है, जहांपनाह को सूचित करता है कि यद्यपि यह शुभेच्छु अपने दुर्भाग्य के कारण बिना आपकी आज्ञा लिए ही आपकी खिदमत से चला आया तथापि वह सेवक के रूप में पूरा कर्त्तव्य यथासम्भव उचित रूप में निभाने के लिए तैयार है।

हाल ही में मेरे कानों में यह बात पड़ी है कि मेरे साथ युद्ध में आपका धन समाप्त हो जाने तथा कोष खाली हो जाने के कारण आपने आदेश दिया है कि जजिया के रूप में हिन्दुओं से धन एकत्र किया जाए और उससे शाही आवश्यकताएं पूरी की जाएं। श्रीमान्, साम्राज्य के निर्माता बादशाह अकबर ने सर्व-प्रभुता से पूरे 52 (चन्द्र) वर्ष तक राज्य किया। उन्होंने समस्त सम्प्रदायों जैसे ईसाई, यहूदी, मुसलमान, दादूपंथी, आकाश पूजक, फलकिया, अंसरिया (अनात्मवादी) दहरिया (नास्तिक), ब्राह्मण और जैन साधुओं के प्रति सार्वजनिक सामंजस्य की प्रशंसनीय नीति अपनाई थी।

उनके उदार हृदय का ध्येय सभी लोगों की भलाई और रक्षा करना था, इसलिए उन्होंने जगतगुरु की उपाधि पाई। तत्पश्चात् बादशाह जहांगीर ने 22 वर्ष तक विश्व के लोगों पर अपनी उदार छत्रछाया फैलाई। मित्रों को अपना हृदय दिया तथा काम में हाथ बंटाया और अपनी इच्छाओं की प्राप्ति की। बादशाह शाहजहाँ ने 32 (चन्द्र) वर्ष तक अपनी ममतामयी छत्रछाया पृथ्वी के लोगों पर डाली। परिणाम स्वरूप अनन्त जीवन फल प्राप्त किया।

वह जो अपना नाम करता है,

चिरस्थाई धन प्राप्त करता है।

क्योंकि मृत्यु पर्यंत उसके सुकर्मों के आख्यान,

उसके नाम को जीवित रखते हैं।

किन्तु श्रीमान् के राज्य में अनेक किले और प्रदेश श्रीमान् के कब्जे से बाहर निकल गए हैं ओर शेष भी निकल जाएंगे। क्योंकि मैं उन्हें नष्ट और ध्वंस करने में कोई ढील नहीं डालूंगा। आपके किसान दयनीय दशा में हैं, हर गांव की उपज कम हो गई है। एक लाख की जगह केवल एक हजार और हजार की जगह केवल दस रुपए एकत्रित किए जाते हैं, और वह भी बड़ी कठिनाई से।

जबकि बादशाह तथा शहजादों के महलों में गरीबी और भीख ने घर कर लिया है तो सामंतों और अमीरों की दशा की कल्पना आसानी से की जा सकती है। यह ऐसा राज्य है यहाँ सेना में उत्तेजना है, व्यापारी वर्ग को शिकायतें हैं, मुसलमान रोते हैं, हिन्दुओं को भूना जाता है। अधिकतर लोगों को रात का भोजन नहीं मिलता और दिन में वे अपने गालों को वेदना में पीट-पीटकर सुजा लेते हैं।

ऐसी शोचनीय स्थिति में आपका शाही स्वभाव किस तरह आपको जजिया लादने की इजाजत देता है। यह बदनामी बहुत जल्दी पश्चिम से पूरब तक फैल जाएगी तथा इतिहास की किताबों में दर्ज हो जाएगी कि हिन्दुस्तान का बादशाह भिक्षा पात्र लेकर ब्राह्मणों, जैन साधुओं, योगियों, सन्यासियों, वैरागियों, दरिद्रों, भिखारियों, दीन-दुखियों तथा अकालग्रस्तों से वसूल करता है। अपना पराक्रम भिक्षुओं के झोलों पर आक्रमण करके दिखाता है। उसने तैमूर वंश का नाम मिट्टी में मिला दिया है।

न्याय की दृष्टि से जजिया बिल्कुल गैर कानूनी है। राजनीतिक दृष्टि से यह तभी अनुमोदित किया जा सकता है जबकि एक सुन्दर स्त्री सोने के आभूषण पहने हुए बिना किसी डर के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जा सकती हो किंतु आजकल शहर लूटे जा रहे हैं, खुले हुए देहातों की तो बात ही क्या? जजिया लगाना न्याय संगत नहीं है, यह केवल भारत में ही की गई सर्जना है और अनुचित है।

यदि आप हिन्दुओं को धमकाने और सताने को ही धर्मनिष्ठा समझते हैं तो सर्वप्रथम जजिया आपको राणा राजसिंह पर लगाना चाहिए जो हिन्दुओं के प्रधान हैं। तब मुझसे वसूल करना इतना कठिन नहीं होगा क्योंकि, मैं आपका अनुचर हूँ, किंतु चींटियों और मक्खियों को सताना शूरवीरता नहीं है।

मुझे आपके अधिकारियों की स्वामिभक्ति पर आश्चर्य होता है, क्योंकि वे वास्तविकता को आपसे छिपाते हैं और प्रज्वलित अग्नि को फूस से ढंकते हैं। मेरी कामना है कि जहांपनाह का राजत्व महानता के क्षितिज के ऊपर चमके।”

शिवाजी के इस पत्र के माध्यम से किया गया जजिया का विरोध औरंगजेब पर कोई प्रभाव नहीं डाल सका। वह समस्त प्रार्थनाओं, अनुनय, विनय और अपीलों को अनसुनी करता गया जिसके परिणाम स्वरूप हिन्दुओं में औरंगजेब के प्रति नफरत की आग तेजी से फैल गई।

इस पत्र को लिखने के बाद शिवाजी ने सूरत से आगे बढ़कर भड़ौंच तक धावे मारकर मुगलों की सम्पत्ति लूटी। शिवाजी द्वारा जजिया का विरोध जीवन भर जारी रहा।

शिवाजी का निधन (19)

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शिवाजी का निधन
शिवाजी का निधन

शिवाजी का निधन भारतवासियों के लिए एक अपूर्णनीय क्षति थी। भारत माता को ऐसे वीर पुत्रों की कमी नहीं थी किंतु शिवाजी उनमें सबसे अलग था।

शिवाजी को सम्भाजी से मिले एक वर्ष से अधिक हो गए थे। वे उसे समझाने और उसमें आए परिवर्तनों को देखने के लिए पन्हाला पहुंचे। सम्भाजी के नेत्रों में आंसू भरकर पिता के चरणों में गिर पड़ा और अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करने लगा। शिवाजी ने उसे उठकार बैठाया तथा दुनियादारी की अच्छी बातें बताईं।

अच्छे और बुरे में भेद समझाने का प्रयास किया। शिवाजी ने सम्भाजी को दायित्व बोध कराने के लिए राज्य के समस्त दुर्गों तथा धन-आभूषण आदि की सूची दिखाई और यह बताने का प्रयास किया कि उसके कंधों पर कितने विशाल राज्य का भार आने वाला है।

शिवाजी, सम्भाजी को समर्थ गुरु रामदास के संरक्षण में रखने का विचार लेकर आया था किंतु शिवाजी ने अनुभव किया कि सम्भाजी के हृदय में किसी तरह का पश्चाताप नहीं है, क्षमा याचना केवल औपचारिक रस्म भर है। अतः शिवाजी ने सम्भाजी को फिर से पन्हाला दुर्ग में कठोर नियंत्रण में रख दिया तथा भारी मन से सम्भाजी से विदा ली।

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शिवाजी अच्छी तरह समझ चुका था कि सम्भाजी के हाथों में मराठा राज्य कभी सुरक्षित नहीं रह सकता जबकि छोटा पुत्र राजाराम अभी केवल 10 वर्ष का था।

शिवाजी के आठ विवाह हुए थे। इन आठ विवाहों से उसे दो पुत्र तथा छः पुत्रियां प्राप्त हुई थीं। शिवाजी की अब केवल तीन पत्नियां ही जीवित बची थीं। शिवाजी को अपने परिवार की स्थितियों को देखकर अत्यंत क्लेश होता था। जीवन भर पथ प्रदर्शक रही माता जीजाबाई स्वर्ग को जा चुकी थी। शिवाजी के पिता शाहजी भौंसले का भी निधन हो चुका था।

शिवाजी की बड़ी रानी सईबाई सुशील और समझदार थी किंतु उसका भी निधन हो चुका था। सम्भाजी इसी सईबाई का पुत्र था किंतु वह संस्कारहीन और चरित्रहीन होकर अपने पिता के राज्य को क्षति पहुंचा रहा था। दूसरे अल्पवय पुत्र राजाराम की माता सोयराबाई बहुत कर्कश स्वभाव की स्त्री थी तथा अपने पुत्र को राज्य दिलाने के लिए दिन-रात षड़यंत्र रचा करती थी।

राज्य के अष्ट-प्रधान मंत्रियों पर नियंत्रण रखने के लिए एक अत्यंत प्रतिभासम्पन्न राजा की आवश्यकता थी जिसका शिवाजी के परिवार में नितांत अभाव था। इसी चिंता में घुलकर शिवाजी पहले भी गम्भीर रूप से बीमार पड़ चुका था। सम्भाजी की तरफ से एक बार पुनः निराश होने के बाद शिवाजी फिर से बीमार हो गया। 13 दिसम्बर 1679 से शिवाजी ने राज्यकार्य छोड़ दिया तथा समर्थ गुरु रामदास के चरणों में बैठकर भगवत् भजन करने लगा।

4 फरवरी 1680 को शिवाजी पूना से रायगढ़ के लिए रवाना हुआ। 7 मार्च को उसने राजाराम का यज्ञोपवीत संस्कार करवाया तथा 15 मार्च को उसका विवाह अपने स्वर्गीय सेनापति प्रतापराव की कन्या द्रोपती बाई से कर दिया। 23 मार्च को शिवाजी को ताप हो गया तथा खूनी दस्त आने लगे।

जब 12 दिन तक शिवाजी की यही दशा रही तथा किसी भी दवा से कोई लाभ नहीं हुआ तो शिवाजी विधि के विधान को समझ गया। 3 अप्रेल को उसने अपने मंत्रियों, सामंतों, अष्ट प्रधानों तथा सेनापतियों को बुलाकर राज्य सम्बन्धी आवश्यक निर्देश दिए तथा कुछ धार्मिक अनुष्ठान भी करवाए। शिवाजी ने प्रजा को बुलाकर शरीर के नश्वर होने तथा आत्मा के अमर होने का उपदेश दिया।

उसी दिन शिवाजी संज्ञा शून्य हो गया और नेत्र मूंद लिए। दक्षिण भारत में विशाल हिन्दू राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी राजे ने 3 अप्रेल 1680 को भारत की पुण्य धरा पर अंतिम श्वांस ली। भारत के इतिहास में लाखों पृष्ठ, इस अद्भुत राजा की प्रशंसा में भरे पड़े हैं। जिस समय उसके प्राण पंखेरू अनंत गगन की ओर उड़ चले, उस समय उसके महल के भीतर और बाहर असंख्य प्रजाजन खड़े विलाप कर रहे थे।

कुछ इतिहासकारों का मत है कि राजाराम की माता सोयरा बाई ने शिवाजी को विष दे दिया ताकि राजाराम को राज्य मिल सके। शिवाजी को खूनी दस्त लगने से इस मत को बल मिलता है। शिवाजी के निधन के बाद मंत्रियों ने शिवाजी के बड़े पुत्र सम्भाजी को मराठों का राजा बनाया।

सम्भाजी ने अपने पिता की हत्यारी मानी जाने वाली सोयराबाई की हत्या करवा दी। शिवाजी की एक अन्य जीवित पत्नी पुतली बाई, शिवाजी की देह के साथ सती हो गई। शिवाजी की तीसरी जीवित पत्नी सकवर बाई को कुछ दिनों बाद औरंगजेब की सेना ने पकड़कर कैद कर लिया।

सम्भाजी की पत्नी येशुबाई तथा येशूबाई का पुत्र साहूजी भी सकवर बाई के साथ औंरगजेब के साथ बंदी बना लिए गए थे। शिवाजी के परिवार के सदस्य बहुत लम्बे समय तक औरंगजेब की कैद में रहे।

सम्भाजी भी कुछ समय बाद औरंगजेब द्वारा तड़पा-तड़पा कर मारा गया। उसकी आखें निकाल ली गईं, जीभ खींच ली गई, चमड़ी उतार ली गई एक-एग अंग काटकर कुत्तों को खिलाया गया। 15 दिन तक दी गई भयानक याताअनों से तड़पने के बाद 11 मार्च 1689 को सम्भाजी के प्राण निकल गए।

इस प्रकार मुगलों को देश से बाहर निकालकर हिन्दू पदपादशाही की स्थापना का स्वप्न देखने वाले छत्रपति शिवाजी के परिवार को मुगलों के हाथों बहुत भयानक यातनाएं झेलनी पड़ीं।

शिवाजी का भारत पर प्रभाव

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शिवाजी का भारत पर प्रभाव
शिवाजी का भारत पर प्रभाव

शिवाजी का भारत पर प्रभाव शताब्दियों के अंतराल में भी देखा जा सकता है।

शिवाजी राजे की भीषण टक्करों से दक्षिण भारत में स्थित बीजापुर का आदिलशाही राज्य पूरी तरह कमजोर हो गया। इसी शिया मुस्लिम राज्य में से शिवाजी ने अपने हिन्दू राज्य का निर्माण किया। गोलकुण्डा का कुतुबशाही राज्य अपनी शक्ति खोकर शिवाजी के चरणों में आ गिरा।

शिवाजी द्वारा संरक्षण दिए जाने के कारण मुगल, शिवाजी के जीवित रहने तक इन दोनों राज्यों पर विजय प्राप्त नहीं कर सके। शिवाजी की मृत्यु के बाद भी मराठों ने इन दोनों राज्यों को संरक्षण देना जारी रखा। इस कारण मुगल इन राज्यों पर दो साल की घेराबंदियों के उपरांत भी विजय प्राप्त नहीं कर सके। अंत में स्वयं औरंगजेब को सेना लेकर दक्षिण के अभियान पर आना पड़ा और उसने पूरी शक्ति झौंककर किसी तरह बीजापुर एवं गोलकुण्डा पर विजय प्राप्त की। 

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 शिवाजी राजे द्वारा मुगल साम्राज्य को दी गई भीषण टक्करों के भी गंभीर परिणाम निकले। इन टक्करों के फलस्वरूप औरंगजेब का साम्राज्य तिनकों की तरह बिखरने लगा। शिवाजी की प्रेरणा से बुंदेलखण्ड के बुंदेलों ने स्वतंत्र हिन्दू राज्य की घोषणा कर दी।

अन्य हिन्दू सरदार भी सिर उठाने लगे तथा कई मुसलमान अमीर, बागी होकर मुगलिया सल्तनत पर प्रहार करने लगे। यद्यपि शिवाजी का पुत्र सम्भाजी अयोग्य सिद्ध हुआ तथापि मराठों ने अपनी राजनीतिक शक्ति को न केवल बनाए रखा अपितु उसे और अधिक बढ़ा लिया।

इसका परिणाम यह हुआ कि औरंगजेब को अपने जीवन के अंतिम 25 वर्ष मराठों से लड़ते हुए दक्षिण के मोर्चे पर ही गुजारने पड़े। इस कारण उत्तर भारत में अव्यवस्था फैल गई। 82 वर्ष की आयु में बूढ़ा और जर्जर औरंगजेब, मराठों के विरुद्ध चलाए जा रहे अभियान में दक्षिण के मोर्चे पर ही इस दुनिया से विदा हुआ।

जीवन के अंतिम वर्षों में उसकी गर्दन हिलती थी और कमर 90 डिग्री के कोण पर झुक गई थी। वह लाठी का सहारा लेकर मुश्किल से चल पाता था किंतु मराठों को परास्त करने का हठ नहीं छोड़ सका। उसके जीवन काल में ही मुगलिया सल्तनत का दीपक, बुझने के लिए फड़फड़ाने लगा।

औरंगजेब के उत्तराधिकारियों में फर्रूखशीयर को अंतिम प्रभावशाली बादशाह कहा जा सकता है जिसका ई.1719 में सैयद बंधुओं तथा जोधपुर नरेश अजीतसिंह ने क्रूरता से वध किया था। उसके बाद किसी मुगल शासक में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह साम्राज्य पर नियंत्रण रख पाए।

ई.1737 में फारस के शाह नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया, तब मुगलों की कमजोरी पूरे हिन्दुस्तान ने अपनी आंखों से देखी। ई.1739 की गर्मियों में नादिरशाह ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसके सिपाहियों ने दिल्ली के लाल किले में रहने वाली बेगमों, शहजादियों और बड़े-बड़े अमीरों की स्त्रियों को नंगी करके लाल किले में दौड़ाया तथा उनका शील हरण किया।

मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने नादिरशाह को 70 करोड़ रुपये देकर जनता का कत्लेआम रुकवाया। नादिरशाह, मुगलों के कोष से 70 करोड़ रुपये नगद, 50 करोड़ रुपये का माल, 100 हाथी, 7 हजार घोड़े, 10 हजार ऊँट, कोहिनूर हीरा, हजारों स्त्री-पुरुष (गुलाम बनाने के लिए) तथा मुगलों के रत्न जटित तख्त ताऊस को लेकर फारस चला गया।

इसके बाद मराठे नर्मदा को पार करके दिल्ली के लाल किले तक धावे मारने लगे। मराठों ने लाल किले की छतों पर लगे हीरे-जवाहर तथा दीवारों और किवाड़ों पर लगे सोने-चांदी के पतरे उतार लिए।

मराठों की मार से मुगल शासन की इतनी दुर्गति हो गई कि ई.1748 में जब अहमदशाह, बादशाह बना तो बादशाह के कारिंदों द्वारा किसानों और प्रजा से राजस्व वसूली की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। एक बार बादशाह के महल के नौकरों को एक वर्ष तक वेतन नहीं मिला।

इस पर उन्होंने बादशाह के महल के दरवाजे पर एक गधा और एक कुतिया बांध दी। जब अमीर लोग महल में आते थे तो उनसे कहा जाता था कि पहले इन्हें सलाम कीजिये। यह नवाब बहादुर (बादशाह की माता का प्रेमी) हैं तथा ये हजरत ऊधमबाई (बादशाह की माँ) हैं। जब लाल किले के सैनिकों को तीन साल तक वेतन नहीं मिला तो भूखे सिपाही दिल्ली के बाजारों में ऊधम मचाने लगे।

इस पर दिल्ली के लोगों ने लाल किले के दरवाजे बारह से बंद कर दिए ताकि किले के भीतर के लोग शहर में न आ सकें। जब अमीर खाँ फौजबख्शी का निधन हो गया तब सिपाहियों ने उसका घर घेर लिया तथा तब तक लाश नहीं उठने दी जब तक कि उनका बकाया वेतन नहीं चुका दिया गया।

इस वेतन को जुटाने के लिए बख्शी के महल के गलीचे, हथियार, रसोई के बर्तन, कपड़े, पुस्तकंे तथा बाजे तक बेचे गए। कुछ सिपाहियों को इस पर भी वेतन नहीं मिला तो वे बख्शी के घर का बचा-खुचा सामान लेकर भाग गए। ई.1765 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मुगल बादशाह शाहआलम (द्वितीय) को पेंशन देकर शासन के कार्य से अलग कर दिया।

लगभग 7 साल बाद वारेन हेस्टिंग्स द्वारा इस पेंशन को बंद कर दिया गया और ई.1857 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अंतिम मुगल बादशाह मुहम्मद शाह जफर को पकड़कर रंगून भेज दिया। मुगलों के इस सर्वनाश में देश की अन्य शक्तियों का तो हाथ था ही किंतु शिवाजी के नेतृत्व में हुए मराठों के अभ्युदय का बहुत बड़ा योगदान था।

भारतीय राजनीति में शिवाजी के नाम की गूंज आजादी की लड़ाई में भी दिखाई दी। हजारों देश-वासियों ने स्वतंत्रता अभियान के लिए मेवाड़ के महाराणाओं तथा छत्रपति शिवाजी के जीवन चरित्र से प्रेरणा ली।

जन साधारण को संगठित करने एवं उनमें राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने के लिए बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र में जन साधारण के स्तर पर गणेश पूजन तथा शिवाजी उत्सव मनाने की परम्परा आरम्भ की तथा इन धार्मिक एवं सामाजिक समारोहों को व्यापक रूप देकर उन्हें राष्ट्रीय एकता, धार्मिक चेतना और सामाजिक एकता उत्पन्न करने का प्रभावी माध्यम बनाया।

ई.1897 में पूना के गणेशखण्ड नामक स्थान पर शिवाजी उत्सव का आयोजन किया गया। इस उत्सव के कुछ दिन बाद ठीक उसी स्थान पर पूना के कमिश्नर रैण्ड ने विक्टोरिया की 60वी वर्षगांठ का उत्सव मनाया। यह बात भारतीय युवकों को अच्छी नहीं लगी।

इसलिए 22 जून 1897 को दामोदर चापेकर ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड तथा उसके सहायक आयर्स्ट को गोली मार दी। चापेकर बन्धुओं को फांसी हो गई। जिन लोगों ने मुखबिरी करके सरकार को चापेकर बंधुओं को जानकारी दी थी उन्हें चापेकर के दो अन्य भाइयों एवं नाटु-बंधुओं ने मिलकर मार डाला।

ये समस्त घटनाएं भारत के क्रांतिकारी आन्दोलन के आरम्भिक चरण का अंग थीं। इस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान शिवाजी के नाम को हिन्दू स्वातंत्र्य एवं भारत माता के गौरव के प्रतीक के रूप में उपयोग किया गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् छत्रपति शिवाजी पर कई फीचर फिल्म बनीं। भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किए। शिवाजी के बड़े-बड़े चित्र एवं प्रतिमाएं सम्पूर्ण भारत में यत्र-तत्र देखी जा सकती हैं। सैंकड़ों गीतों में शिवाजी के पराक्रम का वर्णन हुआ। यह शिवाजी का भारत पर प्रभाव नहीं तो और क्या है!

आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने शिवाजी की जीवनी को आधार बनाकर चट्टान नामक उपन्यास की रचना की। मराठी लेखक शिवाजी सावंत ने शिवाजी के पुत्र सम्भाजी की जीवनी को आधार बनाकर ‘छावा’ शीर्षक से वृहद् उपन्यास की रचना की।

आज शिवाजी की मृत्यु को लगभग साढ़े तीन शताब्दियां बीत चुकी हैं किंतु शिवाजी का नाम सुनकर हिन्दू जाति की रगों में उत्साह और आनंद हिलोरें मारने लगता है। इतिहास कभी रुकता नहीं, चलता रहता है।

शताब्दियां आएंगी और जाएंगी किंतु बहुत कम अवधि के लिए, बहुत थोड़ी सी धरती पर राज्य स्थापित करने वाले इस राजा की गाथाएं, आने वाली पीढ़ियां इसी गौरव के साथ गाती रहेंगी। और शिवाजी का भारत पर प्रभाव इसी प्रकार बना रहेगा।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

महाकवि भूषण की कविता में शिवाजी (21)

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महाकवि भूषण - bharatkaitihas.com
महाकवि भूषण

शिवाजी के समकालीन महाकवि भूषण (ई.1613-1715) की भारत भर में प्रसिद्धि थी। उन्होंने महाराजा छत्रसाल को नायक बनाकर छत्रसाल दशक तथा छत्रपति शिवाजी को नायक बनाकर ‘शिवा भूषण’ तथा ‘शिवा बावनी’ नामक दो खण्ड काव्य लिखे।

भारत के अनेक राजा महाकवि भूषण को अपने दरबार में देखना चाहते थे किंतु उन्होंने शिवाजी के दरबार में रहना पसंद किया। महाराजा छत्रसाल ने कवि भूषण की पालकी में स्वयं कंधा लगाया था। शिवाजी ने भी भूषण को दान-मान-सम्मान से संतुष्ट रखा। शिवाजी के प्रताप का वर्णन करते हुए भूषण ने लिखा है-

शिवाजी प्रताप

(1)

साहि तनै सरजा तव द्वार प्रतिच्छन दान की दुंदुभि बाजै।

भूषन भिच्छुक भीरन को अति, भोजहु ते बढ़ि मौजनि साजै

राजन को गन राजन! को गनै? साहिन मैं न इती छबि छाजै।

आजु गरीब नेवाज मही पर तोसो तुही सिवराज बिराजै।

(2)

तेरो तेज सरजा! समत्थ दिनकर सो है,

दिनकर सोहै तेरे तेज के निकर सो

भौसिला भुआल! तेरो जस हिमकर सो है,

हिमकर सोहै तेरे जस के अकर सो।।

भूषन भनत तेरो हियो रतनाकर सो,

रतनाकर सोहै तेरे हिये सुख कर सो।

साहि के सपूत सिव साहि दानि! तेरो कर

सुरतरु सो है, सुर तरु तेरे कर सो।

(3)

इन्द्र जिमि जंभ पर, बाडब सुअंभ पर,

रावन सदंभ पर, रघुकुल राज है।

पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर,

ज्यौं सहस्रबाह पर राम द्विजराज है।

दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर,

भूषण वितुंड पर, जैसे मृगराज हैं।

तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,

त्यौं मलिच्छ बंस पर, सेर सिवराज हैं।।

(4)

गरुड़ को दावा सदा नाग के समूह पर,

दावा नागजूह पर सिंह सिरताज को।

दावा पुरहूत को पहरारन के कुल पर,

पच्छिन के गोल पर दावा सदा बाज को।

भूषन अखण्ड नवखंड-महिमंडल मैं

तम पर दावा रविकिरन समाज को।

पूरब पछाँह देस दच्छिन तें उत्तर लौं।

जहाँ पादसाही तहाँ दावा सिवराज को।।

(5)

साजि चतुरंग वीर रंग मैं तुरंग चढ़ि,

सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है।

भूषन भनत नाद बिहद नगारन के

नदी-नद मद गैबरन के रलत हैं।

ऐल-फैल खैल-भैल, खलक में गैल-गैल

गजन की ठेल-पेल, सेल उसलत है

तारा सो तरनि धूरि धारा मैं लगत, जिमि

थारा पर पारा, पारावार यों हलत है।

(6)

चकित चकत्ता चौंकि-चौंकि उठै बार-बार

दिल्ली दहसति चित चाह खरकति है।

बिलखि बदन बिलखात बिजैपुर-पति

फिरत फिरंगिन की नारी फरकति है।।

थर-थर काँपत कुतुबसाहि गोलकुंडा,

हहरि हबस भूप भीर भरकति है।

राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि,

केते पातसाहन की छाती दरकति है।।

(7)

बाने फहराने घहराने घण्टा गजन के

नाहीं ठहराने राव-राने देस-देस के।

लग भहराने ग्राम नगर पराने सुनि

बाजत निसाने सिवराज जू नरेश के।

हाथिन के हौदा उकसाने, कुंभ कुंजर के

भौन के भजाने अलि छूटे लट केस के

दल के दरारे हिते कमठ करारे फूटे

केरा कैसे पात बिहराने फन सेस के।।

(8)

ऊंचे घोर मंदिर के अंदर रहन वारी,

ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।

कंद मूल भोग करैं, कंद मूल भोग करैं,

तीन बेर खातीं ते वे तीन बेर खाती हैं।

भूषन शिथिल अंग, भूषन शिथिल अंग,

बिजन डुलातीं ते वे बिजन डुलाती हैं।

भूषन भन सिवराज बीर तेरे त्रास,

नगन जड़ातीं ते वे नगर जड़ाती हैं।

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(9)

इंद्र हेरत फिरत गज-इंद्र अरु,

इंद्र को अनुज हेरै दुगधनदीस को

भूषन भनत सुरसरिता को हसं हेरै

बिधि हेरै हंस को चकोर रजनीस को।।

साहि-तनै सिवराज, करनी करी है तैं जु,

होत है अचंभो देव कोटियौ तैंतीस को।

पावत न हेरे तेरे जस मैं हिराने निज

गिरि को गिरीस हेरैं, गिरजा गिरीस को।।

करवाल यश वर्णन

(10)

राखी हिंदुआनी हिंदुआन को तिलक राख्यो,

अस्मृति पुरान राखे वेद बिधि सुनी मैं।

राखी रजपूती, राजधानी राखी राजन की,

धरा मैं धरम राख्यो, राख्यो गुन-गुनी मैं।।

भूषन सुकवि जीति हद्द मरहट्टन की,

देस-देस कीरति बखानी तब सुनी मैं।

साहि के सपृत सिवराज समसेर तेरी,

दिल्ली दल दाबि कै दिवाल राखी दुनी मैं।।

(11)

कामिनी कंत सौं जामिनी चंद सों दामिनी पावस मेघ घटासों।

कीरति दान सों, सूरति ज्ञान सों, प्रीति बड़ी सनमान महा सों।।

‘भूषन’ भूषन सों तरुनी, नलिनी नव पूषन देव प्रभा सों।

जाहिर चारिहु ओर जहान, लसै हिन्दुवान खुमान सिवा सों।।

युद्ध वर्णन

(12)

बद्दल न होहिं, दल दच्छिन घमण्ड माहिं,

घटाहू न होहिं, दल सिवाजी हंकारी के।

दामिनी दमक नाहिं, खुल खग्ग बीरन के,

बीर-सिर छाप लख तीजा असवारी के।।

देखि-देखि मुगलों की हरम भवन त्यागैं,

उझकि उझकि उठै बहत बयारी के।

दिल्ली मति भूली कहै बात घनघोर घोर,

बाजत नगारे जे सितारे गढ़धारी के।।

महाकवि भूषण की कविता आज भी भारतीयों के हृदय में रक्त का संचार तीव्र कर देती है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

शेरशाह के कार्यों का मूल्यांकन

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शेरशाह सूरी का मकबरा

शेरशाह के कार्यों का मूल्यांकन सम-सामयिक परिस्थितियों के अनुसार किया जाना चाहिए। उसके कार्य अपने समय से बहुत आगे थे। उसने विस्मयकारी उपलब्धियाँ अर्जित कीं।

शेरशाह के कार्यों का मूल्यांकन

(1.) साम्राज्य संस्थापक के रूप में

शेरशाह भारत के उन गिने-चुने शासकों में से है जिसने एक साधारण परिवार में जन्म लेकर विशाल साम्राज्य खड़ा किया। उसे भारत में द्वितीय अफगान साम्राज्य स्थापित करने का श्रेय है। उसने इस कार्य को उस समय सम्पन्न किया जब अफगानों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो चुकी थी तथा भारत में मुगलों की सत्ता पूर्ण रूप से स्थापित हो चुकी थी।

शेरशाह ने अपने पाँच वर्ष के अल्पकालीन शासन में जिस प्रशासकीय प्रतिभा का परिचय दिया वह न केवल भारत के इतिहास में वरन् विश्व के इतिहास में अद्वितीय है। उसने जिस साम्राज्य की स्थापना की उसे सुसंगठित तथा सुदृढ़ बनाने के उपाय किये। इस कारण शेरशाह की गणना मध्यकालीन भारत के सफल शासकों में होती है।

(2.) व्यक्ति के रूप में

शेरशाह एक साधारण जागीरदार का पुत्र था परन्तु उसने अपनी प्रतिभा के बल पर स्वयं को सदैव आगे बढ़ाने का प्रयास किया था। जौनपुर में अध्ययनरत रहकर उसने अपनी जीवन यात्रा की तैयारी की। उसका पिता भी उसकी प्रतिभा की उपेक्षा नहीं कर सका और उसे अपनी जागीर का प्रबन्ध सौंप दिया।

जिस कुशलता के साथ उसने पिता की जागीर का प्रबन्ध किया उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है। उसने जागीर में पूर्ण शांति स्थापित की और उसे सम्पन्न बना दिया। अपने पिता के मरने के बाद उसने भाइयों के कुचक्रों को निष्फल करके अपने पिता की जागीर पर अधिकार बनाये रखा। अनेक गुणों के होते हुए भी शेरशाह अत्यंत स्वार्थी था।

स्वार्थ पूर्ति के लिये वह बार-बार नीचे गिर सकता था। उसने हुमायूँ के साथ किये गये वादे को कई बार तोड़ा। रोहतास के राजा चिन्तामणि से छल करके उसका दुर्ग हड़प लिया। शेरशाह ने रायसेन के राजा पूरनमल से संधि करके उसके परिवार को मार डाला तथा उसकी लड़की को नर्तकी बनाकर नचाया। शेरशाह ने बिहार के बादशाह जलालखाँ का संरक्षक बनकर उसका राज्य हड़प लिया।

(3.) अधिकारी के रूप में

शेरशाह ने बिहार के सुल्तान बहादुरखाँ की सेवा करके उसका विश्वासपात्र बन गया। बादशाह ने उसे शाहजादे जलालखाँ का शिक्षक बना दिया। बहादुरखाँ की मृत्यु के उपरान्त उसकी बेगम दूदू ने भी शेरशाह को राजकार्य सँभालने बुलाया। दूदू ने शेरशाह को अपना नायब बनाकर शासन का सारा कार्य उसी को सौंप दिया। शेरशाह ने अपनी प्रशासकीय प्रतिभा के बल पर शासन के कोने-कोने में अपना प्रभाव प्रस्थापित कर लिया। इस कारण वह बिहार के अफगान अमीरों की दृष्टि में खटकने लगा। शेरशााह ने उनके समस्त कुचक्रों को निष्फल करके स्वयं बिहार का सुल्तान बन गया।

(4.) सैनिक और सेनापति के रूप में

सैनिक और सेनापति के रूप में शेरशाह को बंगाल के शासकों के विरुद्ध तथा हुमायूँ के विरुद्ध जो सफलताएं प्राप्त र्हुईं, उनसे उसकी  सैनिक प्रतिभा का परिचय मिल जाता है। जब बंगाल के शासकों ने बिहार पर आक्रमण किया तब शेरशाह ने न केवल उनके आक्रमण को निष्फल कर दिया अपतिु उसने स्वयं ने बंगाल पर आक्रमण करके राजधानी गौड़ पर अधिकार कर लिया और वहाँ के शासक से खिराज वसूल किया।

चौसा तथा कन्नौज के युद्धों में हुमायूँ के विरुद्ध उसे जो सफलता प्राप्त हुई, वे उसके कुशल सेनापतित्व का परिचायक हैं। युद्धों में लगातार मिली सफलताओं ने शेरशाह को हिन्दुस्तान का बादशाह बना दिया।

(5.) कूटनतिज्ञ के रूप में

जिस समय शेरशाह का हुमायूँ के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ हुआ उस समय हुमायूँ एक विशाल साम्राज्य का स्वामी था और शेरशाह एक साधारण जागीरदार। इसलिये शेरशाह ने कूटनीति से काम लिया। वह एक तरफ तो हुमायूँ से अनुनय-विनय करके उसके प्रति स्वामिभक्ति दिखाता रहा तथा दूसरी तरफ अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा रहा। उसने हुमायूँ से तब तक युद्ध नहीं किया जब तक उसे यह विश्वास न हो गया कि वह हुमायूँ से सफलतापूर्वक लड़ सकता है।

(6.) सुल्तान के रूप में

शेरशाह ने सुल्तान बनने के उपरान्त प्रशासकीय क्षेत्र में जो ख्याति अर्जित की, वह अन्य सुल्तानों को दुर्लभ है। अपने पाँच वर्ष के अल्पकालीन शासन में उसने जो सुधार किये, उतने सुधार अन्य सुल्तान दो दशाब्दियों में भी नहीं कर सके। प्रशासकीय क्षेत्र में शेरशाह ने जो नवीन व्यवस्थायें कीं, आगे चलकर अकबर ने उनका अनुकरण किया।

शेरशाह ने जिस उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति का सूत्रपात किया, वह मुस्लिम राजनीति में नई बात थी। शेरशाह के शासन-सम्बन्धी आदर्श अत्यंत उच्च थे जिनका मूल आधार लोक कल्याण था। इस कारण उसके द्वारा किये गये सुधार स्थायी तथा अनुकरणीय सिद्ध हुए।

(7.) इतिहासकारों की दृष्टि में

लगभग समस्त भारतीय एवं यूरोपीय इतिहासकारों की दृष्टि में शेरशाह अदभुत साम्राज्य निर्माता तथा प्रतिभावान शासक था।

स्मिथ ने लिखा है- ‘यदि शेरशाह और जीवित रहा होता तो महान् मुगल बादशाह इतिहास के मंच पर प्रकट नहीं हुए होते।’ कीन ने लिखा है- ‘किसी भी सरकार ने यहाँ तक कि ब्रिटिश सरकार ने भी ऐसी बुद्धिमता नहीं दिखाई है, जैसी कि इस पठान ने।’

डॉ. त्रिपाठी ने लिखा है-  ‘शेरशाह दिल्ली के महानतम शासकों में से था। वह भाग्य का राजकुमार था……भारतीय इतिहास में उसका व्यक्तित्व महान् था।’

प्रो. कानूनगो ने लिखा है- ‘शेरशाह सम्राट था परन्तु उसने साम्राटत्व नहीं दिखलाया। वह अपने तुच्छतम सैनिक की भाँति फावड़ा चलाने में संकोच नहीं करता था।’

डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी ने लिखा है- ‘यदि शेरशाह अधिक दिनों तक जीवित रहा होता तो वह अकबर के पाल से हवा निकाल दिये होता। वह निस्संदेह दिल्ली के महान् राजनीतिज्ञों में से था। उसने वास्तव में अकबर की अत्यन्त प्रबुद्धशील नीति के लिये मार्ग प्रशस्त कर दिया था और उसका सच्चा अग्रदूत था।’

एडवर्ड्स तथा गैरेट का कहना है- ‘जितना इस योग्य तथा कर्त्तव्यशील व्यक्ति ने पाँच वर्षो के अल्पकाल में कर दिया उतना बहुत कम लोग कर सकते हैं।’

इस प्रकार शेरशाह सूरी के कार्यों का मूल्यांकन करने पर हम पाते हैं कि उसने बहुत कम समय में बहुत बड़ी सफलताएं अर्जित कीं।

क्या शेरशाह राष्ट्र निर्माता था ?

क्या शेरशाह अफगानों का राष्ट्र निर्माता था ?

शेरशाह की गणना भारत के राष्ट्र निर्माताओं में की जाती है। इसमें सन्देह नहीं कि वह भारत में अफगानों के द्वितीय साम्राज्य का निर्माता था। जिस समय शेरशाह ने भारत में द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की, उस समय अफगानों की सत्ता नष्ट-भ्रष्ट हो चुकी थी। ऐसे समय में शेरशाह ने बलपूर्वक अफगानों का नेतृत्व ग्रहण किया। उनकी खोई हुई सत्ता को फिर से स्थापित किया और अन्त में अफगान साम्राज्य की पुनर्स्थापना कर दी। इस प्रकार वह अफगानों का राष्ट्र निर्माता बन गया जिसमें हिन्दू प्रजा के लिये भी पहले से कहीं अधिक आरामदायक स्थान था।

क्या शेरशाह हिन्दू राष्ट्र का भी निर्माता था ?

यह सही है कि शेरशाह अफगान राष्ट्र का निर्माता था किंतु क्या वह हिन्दुओं का भी राष्ट्र-निर्माता था? इतिहासकार इस तथ्य के पक्ष और विपक्ष में तर्क देते हैं।

(1.) शेरशाह हिन्दुओं का भी राष्ट्र निर्माता था

इस कथन के पक्ष में दिये जाने वाले तर्कांे के अनुसार शेरशाह पहला मध्य युगीन सुल्तान था जिसने उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। उसने हिन्दुओं पर वैसे अत्याचार नहीं किये जैसे अत्याचार फीरोजशाह तुगलक के समय में किये गये थे। न ही हिन्दुओं पर करों का इतना बोझ लादा, जितना उसके पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों ने लादा था।

उसने हिन्दुओं को भी न्याय देने का प्रयास किया। उसके सुधारों तथा उनके द्वारा बनवाई हुई सरायों से हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों को लाभ हुआ। हिन्दुओं को अपने धर्म का पालन करने की स्वतन्त्रता थी। उसके शासन काल में हिन्दी साहित्य का विकास हुआ और उसके द्वारा निर्मित इमारतों में हिन्दू-मुस्लिम कला का सम्मिश्रण किया गया।

कुतुबुद्दीन ऐबक के समय से हिन्दुओं के शोषण, अत्याचार, हिंसा, लूट और सम्पत्ति हरण का जो सिलसिला आरम्भ हुआ था, उस सिलसिले में शेरशाह सूरी के समय में अभूतपूर्व कमी आई। शेरशाह के समय में हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान नहीं बनाया गया। न ही हिन्दू कन्याओं को बलपूर्वक मुसलमानों से ब्याहा गया।

न ही हिन्दू बच्चों को गुलाम बनाया गया। न हिन्दुओं के मंदिर तोड़े गये, न देवमूर्तियां तोड़ी गईं। न उनके तीर्थ अपवित्र किये गये। हिन्दू जजिया चुका कर शांतिपूर्वक अपने धर्म एवं तीर्थों का सेवन कर सकते थे। इन तथ्यों के आलोक में शेरशाह की राष्ट्र निर्माण की नीति स्पष्ट हो जाती है।

(2.) शेरशाह हिन्दुओं का राष्ट्र निर्माता नहीं था

शेरशाह के विरोध में दिये जाने वाले मत के अनुसार शेरशाह को हिन्दुओं का राष्ट्र निर्माता स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि उसने हिन्दुओं पर जजिया पूर्ववत् जारी रखा। उसने हिन्दुओं के राज्यों का उन्मूल करने में साधारण नैतिकता का भी पालन नहीं किया। हिन्दुओं को शासन तथा सेना में उच्च पद नहीं दिये। हिन्दू अपने धर्म का पालन तभी कर सकते थे जब वे जजिया चुका दें। हिन्दुओं तथा मुसलमानों के मुकदमों का निर्णय करने के लिये अलग-अलग कानून बनाये गये। ऐसी स्थिति में शेरशाह को हिन्दुओं के राष्ट्र का निर्माता नहीं माना जा सकता।

निष्कर्ष

यह सही है कि शेरशाह ने मुसलमान प्रजा को हिन्दू प्रजा की अपेक्षा अधिक सुविधायें दीं तथा अफगानों को हिन्दुओं की अपेक्षा आर्थिक एवं राजनीतिक उन्नति के अधिक अवसर उपलब्ध करवाये किंतु शेरशाह ने राष्ट्र निर्माण की जिस नीति का सूत्रपात किया उससे हिन्दुओं को बहुत राहत पहुंची।

अकबर की उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति, राजपूतों के साथ सद्भावना रखने तथा उनका सहयोग प्राप्त करने की नीति और उसकी सुलह-कुल की नीति का बीजारोपण शेरशाह ने कर दिया था। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि शेरशाह मध्यकाल का राष्ट्र निर्माता था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

यह भी देखें-

द्वितीय अफगान साम्राज्य का संस्थापक – शेरशाह सूरी

शेरशाह सूरी का शासन

शेरशाह सूरी के कार्यों का मूल्यांकन

शेरशाह के उत्तराधिकारी

सूरी साम्राज्य का पतन

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