भारतीय राजनीति में जिन्ना का उदय देश को पाकिस्तान की ओर ले जाने वाले प्रमुख तत्त्वों में से एक था। मुहम्मद अली जिन्ना का जन्म ई.1876 में कराची के एक बड़े मुस्लिम व्यापारी के घर में हुआ था। भारत में यह बात प्रचलित है कि जिन्ना के पूर्वज गुजराती-हिन्दू थे, जबकि पाकिस्तानी यह मानते हैं कि उसके पूर्वज ईरान से आये थे। जिन्ना ने कभी भी स्वयं को इसपहानी नहीं कहा, जैसा कि उस समय के मुसलमान अपनी ईरानी वंशावली को प्रमाणित करने के लिये कहा करते थे।
पाकिस्तान में अन्य लोग मानते हैं कि उसकी वंशावली राजपूत जाति में है, जिसका अर्थ है कि उनके पूर्वज हिन्दू थे। कहा जाता है कि वह राजपूत जाति पंजाब में साहिवाल कहलाती थी। जिन्ना के किसी पूर्वज ने गुजरात के समृद्ध खोजा समुदाय की लड़की से विवाह किया। उस दम्पत्ति के वंशज खोजा मुसलमान माने गये। हिन्दू पति तथा मुस्लिम पत्नी की संतान होने के कारण यह परिवार सांप्रदायिकता की सोच से बिलकुल अलग रहता था। मोहम्मद अली जिन्ना अंग्रेजी माहौल में पला और बढ़ा। ई.1896 में मुहम्मद अली जिन्ना ने लंदन से बैरिस्टरी की परीक्षा पास की और उसी वर्ष बम्बई में वकालात आरम्भ की।
दादाभाई नौरोजी, जिन्ना को राजनीति में लेकर आये। ई.1904 में जिन्ना कांग्रेस के बीसवें बम्बई अधिवेशन में फिरोजशाह मेहता के साथ सम्मिलित हुआ। ई.1906 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में दादाभाई नौरोजी ने उसे अपने सचिव की हैसियत से कांग्रेस के मंच से बोलने दिया।
कांग्रेस में यह उसका पहला भाषण था। इस भाषण में उसने मुसलमानों के लिये अलग सुविधाओं की मांग का विरोध करते हुए कहा- ‘मुसलमानों के साथ वही व्यवहार होना चाहिये जो हिन्दुओं के साथ हो रहा है।’ इस प्रकार अपने राजनीतिक कैरियर के आरम्भ में जिन्ना राष्ट्रवादी था तथा भारत-विभाजन के पक्ष में नहीं था। ई.1906 में ढाका में जब मुस्लिम लीग की स्थापना हुई और लीग ने मुसलमानों के लिये पृथक् प्रतिनिधित्व की मांग की तो जिन्ना ने उसका विरोध किया और कहा कि इस तरह का प्रयास देश को विभाजित कर देगा।
ई.1913 में जिन्ना ने मुस्लिम लीग की सदस्यता ग्रहण की किंतु वह कांग्रेस का सदस्य भी बना रहा। उस समय मुस्लिम लीग तथा हिन्दू महासभा आदि विभिन्न राजनीतिक दलों के सदस्य भी कांग्रेस की सदस्यता रख सकते थे। ई.1916 में मुहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम लीग का अध्यक्ष चुना गया। वह हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रबल समर्थक था। इस विषय पर जोरदार भाषण देने का एक भी मौका वह हाथ से नहीं जाने देता था।
ई.1919 में पार्लियामेंट्री कमेटी में एक गवाही देते हुए जिन्ना ने कहा- ‘मैं भारतीय राष्ट्रवादी की हैसियत से बोल रहा हूँ।’ इस घटना के बाद भारत के राष्ट्रवादियों ने जिन्ना को ‘एकता का राजदूत’ कहना आरम्भ किया। अंग्रेजों ने जिन्ना को पहचानने में अधिक विलम्ब नहीं किया।
ई.1919 में बम्बई के गवर्नर जॉर्ज लॉयड ने वायसराय मांटेग्यू को लिखा था- ‘जिन्ना जुबान के सफेद किंतु दिल के काले हैं…. उनके साथ कोई समझौता नहीं हो सकता क्योंकि केवल वही हैं जो कहते एक बात हैं किंतु फौरन दूसरा काम करते नजर आते हैं।’
ई.1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में जिन्ना ने गांधीजी को ‘महात्मा’ कहने से मना कर दिया और उन्हें मंच से ‘मिस्टर घैण्ढी’ कहकर सम्बोधित किया। इस पर कांग्रेस के नेताओं ने जिन्ना का अपमान किया। अंग्रेजियत के रंग में पला-बढ़ा जिन्ना, हिन्दी शब्दों का ढंग से उच्चारण नहीं कर पाता था। इसलिये वह गांधीजी को मिस्टर घैण्ढी कहता था। इस घटना के बाद, जिन्ना एवं नेहरू के बीच दूरियां बढ़ने लगीं जबकि गांधीजी ने जिन्ना को और अधिक कसकर गले लगाना शुरू कर दिया। 30 सितम्बर 1921 को जिन्ना कांग्रेस से अलग हो गया फिर भी राष्ट्रवादी बना रहा।
मोसले ने लिखा है- ‘ई.1920 तक वह वैधानिक तरीकों से अपनी बात मनवाने के लिये प्रचार करता था। ई.1928 तक वह हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करता था किंतु सत्ता के लालच ने उसे पहले कांग्रेस छोड़ने और फिर देश का बंटवारा करने की मांग करने के लिये विवश कर दिया।’ ई.1933 में जब चौधरी रहमत अली ने पाकिस्तान नामक अलग देश की अवधारणा दी तो जिन्ना ने उसे दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया। मोसले ने लिखा है कि कुछ दिनों तक मुहम्मद अली जिन्ना का नाम भारतीय कवयित्री सरोजनी नायडू के साथ लिया जाता था। वह जिन्ना के प्रेम में पागल थी और उसे प्रेम की कवितायें लिखकर भेजती थी। माना जाता है कि सरोजनी नायडू से पीछा छुड़ाने के लिये ही मुहम्मद अली जिन्ना भारत छोड़कर लंदन चला गया और वहाँ उसने अपनी वकालात जमा ली। ई.1934 तक जिन्ना लंदन में बैरिस्ट्री करता रहा।