Sunday, December 8, 2024
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अध्याय – 56 – भारत के प्रमुख वैज्ञानिक – डॉ. (सर) जगदीश चन्द्र बसु

डॉ. (सर) जगदीश चन्द्र बसु भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे जिन्हें भौतिकी, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान तथा पुरातत्व का गहरा ज्ञान था। वे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर कार्य किया। वनस्पति विज्ञान में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण खोजें कीं। वे भारत के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने एक अमरीकन पेटेंट प्राप्त किया।

उन्हें रेडियो विज्ञान का पिता माना जाता है। वे विज्ञान कथाएँ भी लिखते थे और उन्हें बंगाली विज्ञान कथा-साहित्य का पिता माना जाता है। उन्होंने बेतार के संकेत भेजने में असाधारण प्रगति की और सबसे पहले रेडियो संदेशों को पकड़ने के लिए अर्धचालकों का प्रयोग करना शुरु किया किंतु अपनी खोजों से व्यावसायिक लाभ उठाने की बजाय उन्होंने इन्हें सार्वजनिक रूप से प्रकाशित कर दिया ताकि अन्य शोधकत्र्ता इन पर आगे काम कर सकें।

इसके बाद उन्होंने वनस्पति एवं जीव विज्ञान में अनेक खोजें कीं। उन्होंने क्रेस्कोग्राफ़ नामक यन्त्र का आविष्कार किया और इससे विभिन्न उत्तेजकों के प्रति पौधों की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। इस तरह उन्होंने सिद्ध किया कि वनस्पतियों और पशुओं के ऊतकों में काफी समानता है। मित्रों के कहने पर उन्होंने केवल एक पेटेंट के लिए आवेदन किया और उसे प्राप्त किया।

प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा

बसु का जन्म 30 नवम्बर 1858 को ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रान्त के ढाका जिले में फरीदपुर के मेमनसिंह (अब बांग्लादेश) में हुआ था। उनके पिता भगवान चन्द्र बसु ब्रह्म समाज में सक्रिय थे और फरीदपुर, बर्धमान एवं अन्य स्थानों पर उप-मजिस्ट्रेट एवं सहायक कमिश्नर आदि पदों पर रहे।

उनका परिवार रारीखाल गांव, बिक्रमपुर से आया था, जो आजकल बांग्लादेश के मुन्शीगंज जिले में है। ग्यारह वर्ष की आयु तक उन्होंने गांव के ही बांग्ला विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की। उनके पिता मानते थे कि अंग्रेजी सीखने से पहले अपनी मातृभाषा अच्छी तरह सीखनी चाहिए।

ई.1915 में विक्रमपुर में आयोजित एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए बसु ने कहा- ‘उस समय बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजना हैसियत की निशानी माना जाता था। मैं जिस बांग्ला स्कूल में भेजा गया वहाँ पर मेरे दायीं तरफ मेरे पिता के मुस्लिम परिचारक का बेटा बैठा करता था और मेरी बाईं ओर एक मछुआरे का बेटा। ये ही मेरे खेल के साथी भी थे। उनकी पक्षियों, जानवरों और जलजीवों की कहानियों को मैं कान लगा कर सुनता था। शायद इन्हीं कहानियों ने मेरे मस्तिष्क में प्रकृति की संरचना पर अनुसंधान करने की गहरी रुचि जगाई।’

विद्यालयी शिक्षा के बाद वे कलकत्ता आ गये और सेंट जेवियर स्कूल में प्रवेश लिया। जगदीश चंद्र की जीव विज्ञान में बहुत रुचि थी। स्नातक की उपाधि प्राप्त करने बाद 22 वर्ष की आयु में वे चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने के लिए लंदन चले गए किंतु स्वास्थ खराब हो जाने के कारण वे डॉक्टर बनने का विचार त्यागकर कैम्ब्रिज के क्राइस्ट महाविद्यालय चले गये। भौतिकी के विख्यात प्रोफेसर फादर लाफोण्ट ने बोस को भौतिकशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया।

ई.1885 में वे स्वदेश लौटे तथा ई.1915 तक भौतिकी के सहायक प्राध्यापक के रूप में प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ाते रहे। उस समय भारतीय शिक्षकों को अंग्रेज शिक्षकों की तुलना में एक तिहाई वेतन दिया जाता था। जगदीश चंद्र बोस ने इस भेदभाव का विरोध किया और तीन वर्षों तक बिना वेतन के काम करते रहे, जिसकी वजह से उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो गई और उन पर काफी कर्जा हो गया।

इस कर्ज को चुकाने के लिये उन्हें अपनी पैतृक-भूमि बेचनी पड़ी। चैथे वर्ष जगदीश चंद्र बोस की जीत हुई और उन्हें पूरा वेतन दिया गया। उनका विवाह कलकता के विख्यात एडवोकेट एवं ब्रह्मसमाजी दुर्गामोहन दास की पुत्री अबाला से हुआ। अबाला देशबन्धु चितरंजन दास की चचेरी बहिन थी।

अबाला अपने पति के लिए सदैव पे्ररणा स्रोत रही। बोस एक अच्छे शिक्षक थे, जो कक्षा में पढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक प्रदर्शनों का उपयोग करते थे। बोस के छात्र सतेन्द्र नाथ बोस आगे चलकर प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री बने।

रेडियो की खोज

ब्रिटिश सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने गणितीय रूप से विविध तरंग दैध्र्य की विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व की भविष्यवाणी की थी, पर उनकी भविष्यवाणी के सत्यापन से पहले ई.1879 में उनका निधन हो गया। ब्रिटिश भौतिकविद ओलिवर लॉज मैक्सवेल ने ई.1887-88 में तरंगों के अस्तित्व का प्रदर्शन कर उन्हें तारों को प्रेषित किया।

जर्मन भौतिकशास्त्री हेनरिक हट्र्ज ने ई.1888 में मुक्त अंतरिक्ष में विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व को प्रयोग करके दिखाया। इसके बाद लॉज ने हट्र्ज का काम जारी रखा और जून 1894 में एक स्मरणीय व्याख्यान दिया। हट्र्ज की मृत्यु के बाद उसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया। लॉज के काम ने जगदीश चंद्र बोस सहित विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों का ध्यान खींचा।

बोस के माइक्रोवेव अनुसंधान का उल्लेखनीय पहलू यह था कि उन्होंने तरंग-दैध्र्य को लगभग 5 मिलीमीटर तरंग दैध्र्य स्तर पर ला दिया। वे प्रकाश के गुणों के अध्ययन के लिए लंबी तरंग दैध्र्य की प्रकाश तरंगों के नुकसान को समझ गए थे।

ई.1895 में जगदीश चंद्र बोस ने कलकत्ता के टाउन हॉल में बंगाल के गवर्नर विलियम मैकेंजी की उपस्थिति में अपने आविष्कार का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। उनके रेडिएटर से निकली तंरगें 75 फुट की दूरी पर तीन दीवारों को पार करके रिसीवर तक जा पहुंचीं जिससे पिस्तौल दागी गई और घण्टी बज उठी। अपने रेडिएटर से यह प्रयोग करने के लिए बोस ने आधुनिक वायरलैस टैलीग्राफी के एण्टीना की रूपरेखा तैयार कर दी।

यह 20 फुट लम्बे खम्भे के ऊपर एक गोलाकार धातु की तश्तरी थी जिसको रेडिएटर के साथ जोड़ा गया और इसी प्रकार की एक तश्तरी रिसीवर से जोड़ी गयी थी। अब वे अधिक दूरी तक संदेश भेजने का प्रयास करने लगे। इस अनुसन्धान से गवर्नर विलियम मैकेन्जी बहुत प्रभावित हुआ और उसने बोस को अपने शोध को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया।

उनके शोध-निबन्ध विज्ञान की अग्रणी शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे जिन्होंने समस्त वैज्ञानिक संसार को आश्चर्यचकित कर दिया।

बोस ने एक बंगाली निबंध, ‘अदृश्य आलोक’ में लिखा- ‘अदृश्य प्रकाश आसानी से ईंट की दीवारों, भवनों आदि को पार कर सकता है, इसलिए तार के बिना भी प्रकाश के माध्यम से संदेश संचारित हो सकता है।’ रूस में पोपोव ने ऐसा ही एक प्रयोग किया।

बोस का ‘डबल अपवर्तक क्रिस्टल द्वारा बिजली की किरणों के ध्रुवीकरण’ पर पहला वैज्ञानिक लेख, लॉज के लेख के एक साल के भीतर मई 1895 में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी को भेजा गया। उनका दूसरा लेख अक्टूबर 1895 में लंदन की रॉयल सोसाइटी को लार्ड रेले द्वारा भेजा गया। दिसम्बर 1895 में लंदन पत्रिका इलेक्ट्रीशियन ने अपने छत्तीसवें अंक में जगदीश चंद्र बोस का लेख ‘नए इलेक्ट्रो-पोलेरीस्कोप’ पर प्रकाशित किया।

उस समय लॉज द्वारा गढ़े गए शब्द ‘कोहिरर’ का प्रयोग हट्र्ज़ के तरंग रिसीवर या डिटेक्टर के लिए किया जाता था। इलेक्ट्रीशियन ने तत्काल बोस के ‘कोहिरर’ पर टिप्पणी की- ‘यदि प्रोफेसर बोस अपने कोहिरर को बेहतरीन बनाने में और पेटेंट पाने में सफल होते हैं तो हम शीघ्र ही एक बंगाली वैज्ञानिक के प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रयोगशाला में अकेले शोध के कारण नौ-परिवहन की तट प्रकाश व्यवस्था में नई क्रांति देखेंगे।’

बोस ने अपने कोहिरर को बेहतर करने की योजना बनाई लेकिन उसे पेटेंट कराने के बारे में कभी नहीं सोचा।

रेडियो डेवलपमेंट में स्थान

जगदीश चंद्र बोस ने अपने प्रयोग उस समय किये थे जब रेडियो एक संपर्क माध्यम के तौर पर विकसित हो रहा था। रेडियो माइक्रोवेव ऑप्टिक्स पर बोस ने जो काम किया था वह रेडियो कम्युनिकेशन से जुड़ा हुआ नहीं था, लेकिन उनके द्वारा किये हुए सुधार एवं उनके द्वारा इस विषय में लिखे हुए तथ्यों ने दूसरे रेडियो आविष्कारकों को प्रभावित किया।

ई.1894 के अंत में गुगलिएल्मो मारकोनी एक रेडियो सिस्टम पर काम कर रहे थे जो वायरलेस टेलीग्राफी के लिए विशिष्ठ रूप में डिज़ाइन किया जा रहा था। ई.1896 के आरंभ तक यह प्रणाली फिजिक्स द्वारा बताये गए रेंज से अधिक दूरी में रेडियो संकेत प्रसारित कर रही थी।

जगदीशचन्द्र बोस पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो तरंगें पहचानने के लिए सेमीकंडक्टर जंक्शन का प्रयोग किया और इस पद्धति में कई माइक्रोवेव अवयवों की खोज की। इसके बाद अगले 50 साल तक मिलीमीटर लम्बाई की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों पर कोई शोध कार्य नहीं हुआ। ई.1897 में जगदीश चंद्र बोस ने लंदन के रॉयल इंस्टीट्यूशन में मिलीमीटर तरंगो पर किए हुए शोध का प्रदर्शन किया।

उन्होंने अपने शोध में वेवगाइड्स, हॉर्न ऐन्टेना, डाई-इलेक्ट्रिक लेंस, विभिन्न पोलराइज़र और 60 गीगा हट्र्ज तक के सेमीकंडक्टर का इस्तेमाल किया। ये समस्त उपकरण आज भी कोलकाता के बोस इंस्टिट्यूट में रखे हैं। एक 1.3 एमएम मल्टीबीम रिसीवर जो की एरिज़ोना के छत्।व् 12 मीटर टेलिस्कोप में हैं, आचार्य बोस द्वारा 1897 में लिखे हुए शोध पत्र के सिद्धांतों पर बनाया गया है।

सर नेविल्ले मोट्ट को ई.1977 में सॉलिड स्टेट इलेक्ट्रोनिक्स में किए गए शोधकार्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला। उन्होंने आचार्य जगदीश चन्द्र बोस पर टिप्पणी करते कहा था कि बोस अपने समय से 60 साल आगे थे। बोस ने ही  च्  टाइप और छ टाइप सेमीकंडक्टर के अस्तित्व का पूर्वानुमान किया था।

वनस्पति पर अनुसंधान

जगदीशचन्द्र बोस ने सिद्ध किया कि पौधों में उत्तेजना का संचार वैद्युतिक (इलेक्ट्रिकल) माध्यम से होता है न कि केमिकल माध्यम से। उन्होंने सबसे पहले माइक्रोवेव के वनस्पति के उतकों पर होने वाले प्रभाव का अध्ययन किया। उन्होंने पौधों पर बदलते हुए मौसम से होने वाले असर का भी अध्ययन किया।

उन्होंने ‘कैमिकल इन्हिबिटर्स’ का पौधों पर असर और बदलते हुए तापमान से पौधों पर असर का भी अध्ययन किया था। अलग-अलग परिस्थितियों में सेल मेम्ब्रेन पोटेंशियल के बदलाव का विश्लेषण करके वे इस नतीजे पर पहुँचे कि पौधे संवेदनशील होते हैं वे ‘दर्द एवं स्नेह’ अनुभव कर सकते हैं।

मेटल फटीग और कोशिकाओं की प्रतिक्रिया का अध्ययन

बोस ने अलग-अलग धातु और पौधों के उतकों पर फटीग रिस्पांस का तुलनात्मक अध्ययन किया। उन्होंने अलग-अलग धातुओं को इलेक्ट्रिकल, मैकेनिकल, रासायनिक और थर्मल तरीकों के मिश्रण से उत्तेजित किया और कोशिकाओं तथा धातुओं की प्रतिक्रिया की समानताओं को चिह्ति किया। बोस के प्रयोगों ने नकली कोशिकाओं और धातु में चक्रीय (ब्लबसपबंस) फटीग प्रतिक्रिया दिखाई।

इसके साथ ही उन्होंने जीवित कोशिकाओं और धातुओं में अलग अलग तरह के उत्तेजनाओं के लिए विशेष चक्रीय फटीग और रिकवरी रिस्पांस का भी अध्ययन किया। आचार्य बोस ने बदलते हुए इलेक्ट्रिकल स्टिमुली के साथ पौधों की बदलते हुई इलेक्ट्रिकल प्रतिक्रिया का एक ग्राफ बनाया और यह भी दिखाया कि जब पौधों को ज़हर या एनेस्थेटिक (बेहोशी की दवा) दी जाती है तब उनकी प्रतिक्रिया कम होने लगती है और आगे चलकर शून्य हो जाती है किंतु जब जिंक धातु को ऑक्जिलिक एसिड के साथ उपचारित किया गया तब यह प्रतिक्रिया दिखाई नहीं दी।

नाइट की उपाधि

ई.1917 में जगदीश चंद्र बोस को ‘नाइट’ (ज्ञदपहीज) की उपाधि प्रदान की गई तथा वे भौतिक एवं जीव विज्ञान के लिए रॉयल सोसायटी लंदन के फैलो चुने गए। बोस ने अपना पूरा शोधकार्य साधारण उपकरणों और साधारण प्रयोगशाला में किया था। इसलिए वे भारत में अच्छी प्रयोगशाला बनाना चाहते थे। उनके विचार को मूर्तरूप देते हुए उनके नाम से ‘बोस इंस्टीट्यूट’ स्थापित की गई जो वर्तमान समय में वैज्ञानिक शोधकार्य के लिए राष्ट्र का एक प्रसिद्ध केन्द्र है।

ई.1902 में निर्मित जगदीश चन्द्र बसु का घर (आचार्य भवन) अब संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। जगदीश चंद्र बोस सेवानिवृत्ति के बाद अपनी निजी प्रयोगशाला में प्रयोग एवं अनुसंघान करते रहे। कठोर परिश्रम के कारण उनका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिरता गया। ई.1933 में वे गम्भीर रूप से बीमार हो गए। डॉक्टरों की सलाह पर वे जलवायु परिवर्तन के लिए बिहार के गिरीडीह चले गए किंतु उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ और 23 नवम्बर 1937 को उनका देहान्त हो गया।

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