Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 54 – भारत के प्रमुख वैज्ञानिक – आर्यभट्ट

आर्यभट्ट (ई.476-550) प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभट्टीय नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। इस ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्म-स्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। आर्यभट्ट का जन्म-स्थल कुसुमपुर दक्षिण भारत में था।

एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का आदर तत्कालीन गुप्त सम्राट की राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने पाटलिपुत्र के समीप कुसुमपुर में रहकर अपनी रचनाएँ पूर्ण की। गुप्तकाल में मगध के नालन्दा विश्वविद्यालय में खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए अलग विभाग था। आर्यभट्ट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति थे।

आर्यभट्ट का भारत और विश्व के ज्योतिष विज्ञान पर बहुत प्रभाव पड़ा। केरल की ज्योतिष परम्परा पर आर्यभट्ट का विशेष प्रभाव रहा। वे भारतीय गणितज्ञों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उन्होंने आर्यभट्टीय नामक ग्रंथ में 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे सम्बन्धित गणित को सूत्ररूप में लिखा।

उन्होंने एक ओर तो गणित में ‘पाई’ के मान को अपने पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही निरूपित किया तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में पहली बार उदाहरण के साथ घोषित किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। आर्यभट्ट ने ज्योतिषशास्त्र के उन्नत साधनों के बिना महत्वपूर्ण खोजें कीं।

कोपरनिकस (ई.1473 से 1543) ने जिस सिद्धांत की खोज की थी उसकी खोज आर्यभट्ट एक हजार वर्ष पहले कर चुके थे। गोलपाद में आर्यभट्ट ने लिखा है नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं।

उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं। इस प्रकार आर्यभट्ट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है।

आर्यभट्ट ने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को एक-समान माना है। उनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है। आर्यभट्ट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात 62,832: 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।

आर्यभट्ट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने की अत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया। आर्यभट्ट द्वारा रचित चार ग्रंथों की जानकारी उपलब्ध होती है- (1.) दशगीतिका, (2.) आर्यभट्टीय, (3.) तंत्र तथा (4.) आर्यभट्ट सिद्धांत।

आर्यभट्टीय: आर्यभट्ट ने आर्यभट्टीय नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा जिसमें वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का उल्लेख है। उन्होंने आर्यभट्टीय नामक ग्रन्थ में कुल 3 पृष्ठों में समा सकने वाले 33 श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा 5 पृष्ठों में 75 श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया।

आर्यभट्ट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अनेक क्रान्तिकारी अवधारणाएँ प्रस्तुत कीं। आर्यभट्टीय, गणित और खगोल विज्ञान का ग्रंथ है जिसके सिद्धांतों को भारतीय गणित में बड़े स्तर पर उद्धृत किया गया है और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है। आर्यभट्टीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति सम्मिलित हैं।

इसमें सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वाड्रेटिक ईक्वेशंस), घात शृंखला के योग (सम्स ऑफ पावर सीरीज) और ज्याओं की एक तालिका (ज्ंइसम व िैपदमे) शामिल हैं।

आर्यभट्ट के शिष्य भास्कर (प्रथम) द्वारा अश्मकतंत्र या अश्माका में किए गए उल्लेख के अनुसार इस ग्रंथ को आर्यभट्टीय नाम बाद के टिप्पणीकारों द्वारा दिया गया है, आर्यभट्ट ने स्वयं इसे कोई नाम नहीं दिया। चूंकि इस ग्रंथ में 108 छंद हैं इसलिए इसे आर्य-शत-अष्ट (अर्थात् आर्यभट्ट के 108) भी कहा जाता है। यह ग्रंथ सूत्र साहित्य के समान बहुत ही संक्षिप्त शैली में लिखा गया है।

प्रत्येक पंक्ति एक जटिल प्रणाली को याद करने में सहायता करती है। ग्रंथ में 108 छंदों के साथ 13 परिचयात्मक श्लोक अलग से दिए गए हैं। सम्पूर्ण ग्रंथ को चार अध्यायों में विभाजित किया गया है-

(1.) गीतिकपाद (13 छंद): इसमें समय की बड़ी इकाइयाँ, यथा- कल्प, मन्वन्तर, युग, जो प्रारंभिक ग्रंथों से अलग, ब्रह्माण्ड-विज्ञान प्रस्तुत करते हैं, यथा- लगध का वेदांग ज्योतिष, (पहली सदी ईस्वी पूर्व, इसमें जीवाओं (साइन) की तालिका ज्या भी शामिल है जो एक एकल छंद में प्रस्तुत है। एक महायुग के दौरान, ग्रहों के परिभ्रमण के लिए 4.32 मिलियन वर्षों की संख्या दी गयी है।

(2.) गणितपाद (33 छंद): इसमें क्षेत्रमिति (क्षेत्र व्यवहार), गणित और ज्यामितिक प्रगति, शंकु छायाएँ, सरल, द्विघात, युगपत और अनिश्चित समीकरण (कुट्टक) का समावेश है।

(3.) कालक्रियापाद (25 छंद): इसमें समय की विभिन्न इकाइयाँ और किसी दिए गए दिन के लिए ग्रहों की स्थिति का निर्धारण करने की विधि दी गई है। अधिक मास की गणना के विषय में (अधिकमास), क्षय-तिथियां। सप्ताह के दिनों के नामों के साथ, सात दिन का सप्ताह प्रस्तुत करते हैं।

(4.) गोलपाद: (50 छंद): इसमें आकाशीय क्षेत्र के ज्यामितिक एवं त्रिकोणमितीय पहलू, क्रांतिवृत्त, आकाशीय भूमध्य रेखा, आसंथि, पृथ्वी के आकार, दिन और रात के कारण, क्षितिज पर राशि-चक्रीय संकेतों का बढ़ना आदि की विशेषताएं दी गई हैं। कुछ संस्करणों के अंत में कृति की प्रशंसा में कुछ पुष्पिकाएं भी जोड़ी गई हैं।

आर्यभट्टीय ने गणित और खगोल विज्ञान में पद्य रूप में कुछ नवीन प्रस्तुतियां दीं जो कई सदियों तक प्रभावशाली रहीं। ग्रंथ की संक्षिप्तता की चरम सीमा का वर्णन उनके शिष्य भास्कर (प्रथम) द्वारा किया गया है। ई.1465 में नीलकंठ सोमयाजी द्वारा आर्यभट्टीय भाष्य लिखा गया।

(5.) आर्य-सिद्धांत: आर्य-सिद्धांत, खगोलीय गणनाओं पर एक कार्य है जो अब लुप्त हो चुका है, इसकी जानकारी हमें आर्यभट्ट के समकालीन वराहमिहिर की रचनाओं एवं बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों- ब्रह्मगुप्त और भास्कर के ग्रंथों में मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह कार्य पुराने सूर्य सिद्धांत पर आधारित है और आर्यभट्टीय में सूर्योदय की अपेक्षा मध्यरात्रि-दिवस गणना का उपयोग किया गया है।

इस ग्रंथ में नोमोन (शंकु-यन्त्र), परछाई यन्त्र (छाया-यन्त्र), संभवतः कोण मापी उपकरण, अर्धवृत्ताकार और वृत्ताकार (धनुर-यन्त्र, चक्र-यन्त्र), एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, छत्र-यंत्र, धनुषाकार जल घड़ी और बेलनाकार जल घड़ी आदि अनेक खगोलीय उपकरणों का वर्णन किया गया है।

(6.) अल न्त्फ या अल नन्फ़: आर्यभट्ट का यह ग्रन्थ अरबी अनुवाद के रूप में मिलता है, इसे ‘अल न्त्फ़’ या ‘अल नन्फ़’ कहा गया है। इसका संस्कृत नाम अज्ञात है। 10-11वीं सदी के फारसी विद्वान अबू रेहान अल्बरूनी ने इसका उल्लेख किया गया है।

(7.) आर्यभट्ट सिद्धांत: 7वीं शताब्दी ईस्वी में यह ग्रंथ अत्यन्त लोकप्रिय था किंतु अब इस ग्रंथ के केवल 34 श्लोक उपलब्ध होते हैं।

गणित

स्थानीय मान प्रणाली और शून्य: स्थान-मूल्य अंक प्रणाली, जिसे सर्वप्रथम तीसरी सदी की बख्शाली पाण्डुलिपि में देखा गया, आर्यभट्ट के कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी। उन्होंने निश्चित रूप से प्रतीक का उपयोग नहीं किया परन्तु फ्रांसीसी गणितज्ञ जार्ज इफ्रह के मतानुसार- रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट्ट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था।

आर्यभट्ट ने ब्राह्मी अंकों का प्रयोग नहीं किया था; वैदिक-काल से चली आ रही संस्कृत परंपरा को निरंतर रखते हुए उन्होंने संख्या को निरूपित करने के लिए वर्णमाला के अक्षरों का उपयोग किया, यथा- मात्राओं (जैसे ज्याओं की तालिका) को स्मरक के रूप में व्यक्त करना।

अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में π

आर्यभट्ट ने पाई के सन्निकटन पर कार्य किया और संभवतः उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया था कि पाई इर्रेशनल है। आर्यभट्टीयम् (गणितपाद) के दूसरे भाग में वे लिखते हैं-

चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।

अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः।।

100 में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर 62000 जोड़ें। इस नियम से 20000 परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है-

 (100 + 4) X 8 + 62000/20000 = 3.1416

इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात 3.1416 है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकड़ों तक बिलकुल सटीक है।

आर्यभट्ट ने आसन्न (निकट पहुँचना), पिछले शब्द के ठीक पहले आने वाला, शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह न केवल एक सन्निकटन है, वरन यह कि मूल्य अतुलनीय (या इर्रेशनल) है। यूरोप में पाइ की तर्कहीनता का सिद्धांत लैम्बर्ट द्वारा केवल ई.1761 में सिद्ध हो पाया था। आर्यभट्टीय के अरबी में अनुवाद के पश्चात् ई.820 में बीजगणित पर मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख्वारिज्मी की पुस्तक में इस सन्निकटन का उल्लेख किया गया।

क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति: गणितपाद 6 में, आर्यभट्ट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है- त्रिभुजस्य फलशरीरं समदलकोटि भुजार्धसंवर्गः। अर्थात् किसी त्रिभुज का क्षेत्रफल, लम्ब के साथ भुजा के आधे के (गुणनफल के) परिणाम के बराबर होता है। आर्यभट्ट ने द्विज्या (साइन) के विषय में चर्चा की है और उसे अर्ध-ज्या कहा है। लोगों ने इसे ज्या कहना शुरू कर दिया।

जब अरबी लेखकों द्वारा आर्यभट्ट के काम का संस्कृत से अरबी में अनुवाद किया गया, तो उन्होंने इसको जिबा कहा और बाद में वे इसे ज्ब कहने लगे। बाद में लेखकों को समझ में आया कि ‘ज्ब’ जिबा का ही संक्षिप्त रूप है। जिबा का अर्थ है खोह या खाई।

बारहवीं सदी में, जब क्रीमोना के घेरार्दो ने इस ग्रंथ का अरबी से लैटिन भाषा में अनुवाद किया, तब उन्होंने अरबी जिबा की जगह उसे साइनस कहा जिसका लैटिन भाषा में अर्थ खोह या खाई ही है। यही साइनस अंग्रेजी में साइन बन गया।

अनिश्चित समीकरण: प्राचीन कल से भारतीय गणितज्ञों की रुचि उन समीकरणों के पूर्णांक हल ज्ञात करने में रही है जो ax + b = cy  के स्वरूप में होती है। इस विषय को वर्तमान समय में डायोफैंटाइन समीकरण कहा जाता है। आर्यभट्टीय पर भास्कर द्वारा की गई व्याख्या में एक उदाहरण इस प्रकार दिया गया है-

वह संख्या ज्ञात करो जिसे 8 से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में 5 बचता है, 9 से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में 4 बचता है, 7 से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में 1 बचता है। अर्थात, बताएं N = 8x+ 5 = 9y +4 = 7z +1. इससे N के लिए सबसे छोटा मान 85 निकलता है। सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे।

इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्व सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग ई.पू.800 तक पुराने हो सकते हैं। ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट्ट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है। कुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ना और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था।

आज यह कलनविधि, ई.621 में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे प्रायः आर्यभट्ट एल्गोरिद्म कहा जाता है। डायोफैंटाइन समीकरणों का उपयोग क्रिप्टोलौजी में होता है। आरएसए सम्मलेन-2006 ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पर केन्द्रित किया।

बीजगणित

आर्यभट्टीय में वर्गों और घनों की श्रेणी के रोचक परिणाम दिए हैं।

खगोल विज्ञान

आर्यभट्ट की खगोल विज्ञान प्रणाली औदायक प्रणाली कहलाती थी, श्रीलंका, भूमध्य रेखा पर स्थित है, वहाँ भोर होने से दिन की शुरुआत होती थी। खगोल विज्ञान पर आर्यभट्ट के कुछ लेख, जो द्वितीय मॉडल (अर्ध-रात्रिका, मध्यरात्रि), प्रस्तावित करते हैं, खो गए हैं, परन्तु इन्हें आंशिक रूप से ब्रह्मगुप्त के खण्डखाद्यक में हुई चर्चाओं से पुनः निर्मित किया जा सकता है। कुछ ग्रंथों में वे पृथ्वी के घूर्णन को आकाश की आभासी गति का कारण बताते हैं।

सौर प्रणाली की गतियाँ

आर्यभट्ट मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है। यह श्रीलंका को सन्दर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है-

अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत्।

अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लंकायाम्।। (आर्यभट्टीय गोलपाद 9)

अर्थात्- जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है।

अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है-

उदय-अस्तमय-निमित्तम् नित्यम् प्रवहेण वायुना क्षिप्तस्।

लंका-सम-पश्चिम-गस् भ-पंजरस् स-ग्रहस् भ्रमति।।  (आर्यभट्टीय गोलपाद 10)

उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित गृह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं। लंका का नाम भूमध्य रेखा पर एक सन्दर्भ बिन्दु के रूप में लिया गया है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था।

आर्यभट्ट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है जिसमें सूर्य और चन्द्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो पृथ्वी की परिक्रमा करता है। इस मॉडल में पितामह-सिद्धान्त पाया जाता है। इसमें प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रहचक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंद (धीमा) ग्रहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) ग्रहचक्र।

पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है- चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूरज, मंगल, बृहस्पति, शनि और नक्षत्र। ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, जो बुध और शुक्र के मामले में, जो पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं और मंगल, बृहस्पति और शनि के मामले में, जो राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं।

खगोल विज्ञान के अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार यह द्वि-ग्रहचक्र वाला मॉडल टॉलेमी के पहले के ग्रीक खगोल विज्ञान के तत्वों को प्रदर्शित करता है। आर्यभट्ट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका, सूर्य के सम्बन्ध में बुनियादी ग्रहों की अवधि, को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है।

ग्रहण

आर्यभट्ट ने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। तत्कालीन मान्यताओं से अलग, जिसमें ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया।

इस प्रकार चंद्र-ग्रहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला 37) और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला 38-48) और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना की।

बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट्ट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था। यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने, पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान पाया कि भारतीयों की गणना के अनुसार 30 अगस्त 1765 के चंद्रग्रहण की अवधि 41 सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट द्वारा (टोबिअस मेयर, ई.1752) 68 सेकंड अधिक दर्शाते थे।

आर्यभट्ट के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान 40,075.0167 किलोमीटर से केवल 0.2 प्रतिशत कम है। आर्यभट्ट द्वारा प्रस्तुत यह सन्निकटन ई.200 के यूनानी गणितज्ञ एराटोसथेंनस की संगणना में उल्लेखनीय सुधार था।

नक्षत्रों के आवर्तकाल

समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट्ट की गणना के अनुसार पृथ्वी का आवर्तकाल (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि) 23 घंटे 56 मिनट और 4.1 सैकंड थी; आधुनिक समय 23 : 56 : 4.091 है। इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि 365 दिन 6 घंटे 12 मिनट 30 सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें 3 मिनट 20 सेकंड की त्रुटि है। नक्षत्र समय की धारणा उस समय की अधिकतर खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, परन्तु संभवतः यह संगणना उस समय के हिसाब से सर्वाधिक शुद्ध थी।

सूर्य केंद्रीयता

आर्यभट्ट का कहना था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी ग्रहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं। इस प्रकार ऐसा सुझाव दिया जाता है कि आर्यभट्ट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमें ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते हैं। एक समीक्षा में इस सूर्य केन्द्रित व्याख्या का विस्तृत खंडन है।

यह समीक्षा बी. एल. वान डर वार्डेन की एक किताब का वर्णन इस प्रकार करती है- ‘यह किताब भारतीय गृह सिद्धांत के विषय में अज्ञात है और यह आर्यभट्ट के प्रत्येक शब्द का सीधे तौर पर विरोध करता है।’

हालाँकि कुछ लोग यह स्वीकार करते हैं कि आर्यभट्ट की प्रणाली पूर्व के एक सूर्य केन्द्रित मॉडल से उपजी थी जिसका ज्ञान उनको नहीं था। यह भी दावा किया गया है कि वे ग्रहों के मार्ग को अंडाकार मानते थे, हालाँकि इसके लिए कोई भी प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है।

हालाँकि सामोस के एरिस्तार्चुस (तीसरी शताब्दी ई.पू.) और कभी कभार पोन्टस के हेराक्लिड्स (चैथी शताब्दी ई.पू.) को सूर्य केन्द्रित सिद्धांत की जानकारी होने का श्रेय दिया जाता है, प्राचीन भारत में ज्ञात ग्रीक खगोल शास्त्र (पौलिसा सिद्धांत- संभवतः अलेक्जेण्ड्रिया वासी) सूर्य केन्द्रित सिद्धांत के विषय में कोई चर्चा नहीं करता है।

विश्व-विज्ञान पर आर्यभट्ट का प्रभाव

भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट्ट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और इनके अनुवादों ने विश्व की कई संस्कृतियों के ज्ञान को प्रभावित किया। ई.820 के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था। उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है और 10वीं सदी के अरबी विद्वान अल्बरूनी द्वारा उनका संदर्भ दिया गया है।

उसने लिखा है कि आर्यभट्ट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। साइन (ज्या), कोसाइन (कोज्या) के साथ ही, वरसाइन (उक्रमाज्या) की उनकी परिभाषा, और विलोम साइन (उत्क्रम ज्या), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया। वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने साइन और वरसाइन (कोसएक्स) तालिकाओं को, 0 डिग्री से 90 डिग्री तक 3.75 डिग्री अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक तैयार किया।

आर्यभट्ट की खगोलीय-गणन विधियाँ बहुत प्रभावशाली थीं। त्रिकोणमितिक तालिकाओं के साथ, वे अरब देशों में प्रचलित खगोलीय तालिकाओं (जिज) की गणना के लिए प्रयुक्त की जाती थीं । विशेष रूप से, अरबी स्पेन वैज्ञानिक अल-झर्काली (11वीं सदी) के कार्यों में पाई जाने वाली खगोलीय तालिकाओं का लैटिन में तोलेडो की तालिकाओं (12वीं सदी) के रूप में अनुवाद किया गया और ये यूरोप में सदियों तक सर्वाधिक सूक्ष्म पंचांग के रूप में इस्तेमाल में रही।

आर्यभट्ट और उनके शिष्यों द्वारा की गयी तिथिगणना पंचांग के रूप में भारत में निरंतर व्यवहार में रही है। मुसलमान विद्वानों ने इससे जलाली तिथिपत्र तैयार किया जिसे ई.1073 में उमर खय्याम सहित कुछ खगोलविदों ने प्रस्तुत किया। इसे ई.1925 में संशोधित किया गया जो वर्तमान में ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रचलित है।

जलाली तिथिपत्र अपनी तिथियों का आकलन वास्तविक सौर पारगमन के आधार पर करता है, जैसा आर्यभट्ट ने किया है और उससे पहले के सिद्धांत कैलेंडर में भी प्रयुक्त होता था। इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है। यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थीं।

भारत द्वारा कृतज्ञता प्रदर्शन

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब भारत ने अपना पहला उपग्रह अंतरिक्ष में भेजा तब महान खगोलज्ञ एवं गणितज्ञ आर्यभट्ट के सम्मान में उसका नाम भी आर्यभट्ट रखा गया। खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान (एआरआईएस) रखा गया है।

आर्यभट्ट के नाम पर अंतर्विद्यालयीय आर्यभट्ट गणित प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा ई.2009 में खोजी गयी बैक्टीरिया एक प्रजाति का नाम बैसीलस आर्यभट्ट रखा गया है। स्वतंत्र भारत में आर्यभट्ट के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया।

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