महर्षि चरक को प्राचीन भारत के आयुर्वेद के महान ज्ञाता के रूप में ख्याति प्राप्त है। कुछ विद्वानों का मत है कि चरक कनिष्क के राजवैद्य थे अर्थात् वे ईसा की प्रथम शताब्दी में हुए परन्तु कुछ लोग उन्हें बौद्ध-काल से भी पहले का मानते हैं अर्थात् वे ई.पू. 600 से भी पूर्व हुए।
त्रिपिटक के चीनी अनुवाद में कनिष्क के राजवैद्य के रूप में चरक का उल्लेख है। चूंकि कनिष्क और उसका कवि अश्वघोष, बौद्ध थे और चरक संहिता में बौद्ध-मत का प्रबल विरोध किया गया है, इसलिए चरक और कनिष्क का साथ होना असंभव जान पड़ता है।
चरक ने प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ ‘चरक संहिता’ की रचना की। इस ग्रन्थ में रोगनाशक एवं रोगनिरोधक औषधियों का उल्लेख है तथा सोना, चाँदी, लोहा, पारा आदि धातुओं के भस्म एवं उनके उपयोग का वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ के उपदेशक अत्रिपुत्र पुनर्वसु थे, इस ग्रन्थ के मूल ग्रंथकर्ता अग्निवेश थे और इस ग्रंथ के प्रति-संस्कारक चरक थे।
अर्थात् आचार्य चरक ने आचार्य अग्निवेश के ग्रंथ अग्निवेश-तन्त्र में संशोधन एवं परिवर्द्धन करके उसे नया रूप दिया जिसे आज चरक संहिता कहा जाता है। महर्षि चरक की गणना भारतीय औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में होती है। चरक की शिक्षा तक्षशिला में हुई।
चरक संहिता में व्याधियों के उपचार तो बताए ही गए हैं, साथ ही दर्शन और अर्थशास्त्र के विषयों का भी उल्लेख है। उन्होंने आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थों और उसके ज्ञान को इकट्ठा करके उसका संकलन किया। चरक ने बहुत से स्थानों का भ्रमण करके, उस काल के चिकित्सकों के साथ विचार-विमर्श किया तथा उनके विचार एकत्र करके और अपने अनुभव तथा शोधों के आधार पर आयुर्वेद के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।
प्राचीन वाङ्मय के परिशीलन से ज्ञात होता है कि उन दिनों ग्रंथ या तंत्र की रचना शाखा के नाम से होती थी, जैसे कठ शाखा में कठोपनिषद् बनी। शाखाएँ या चरण उन दिनों के विद्यापीठ थे, जहाँ अनेक विषयों का अध्ययन होता था। अतः संभव है कि चरक संहिता का प्रतिसंस्कार चरक शाखा में हुआ हो।
चरक संहिता में पालि-साहित्य के कुछ शब्द मिलते हैं, जैसे अवक्रांति, जेंताक (जंताक-विनय-पिटक), भंगोदन, खुड्डाक, भूतधात्री (निद्रा) आदि। इससे चरक संहिता का उपदेश काल उपनिषदों के बाद का और बुद्ध से पहले का निश्चित होता है। इसका प्रति-संस्कार कनिष्क के समय ई.78 के लगभग हुआ होगा। आठवीं शताब्दी ईस्वी में इस ग्रंथ का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ और यह ग्रन्थ पश्चिमी देशों तक जा पहुँचा। इस ग्रंथ को आज भी आयुर्वेद में बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है।