सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलनों के परिणाम
19वीं शताब्दी के सुधार आन्दोलनों के परिणाम स्वरूप भारत पश्चिम के आधुनिक ज्ञान-विज्ञान एवं विचारों के सम्पर्क में आया जिससे भारतीयों के दृष्टिकोण में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस सम्पर्क के प्रति भारतीयों की बहुमुखी प्रतिक्रिया हुई जिनके दूरगामी परिणाम हुए। इन आन्दोलनों ने भारत के धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों को प्रभावित किया और जीवन के समस्त अंगों में नवीन चेतना का संचार किया।
सुधार आन्दोलनों के सामाजिक परिणाम
समाज सुधार आन्दोलनों से जन-सामान्य में देशहित के कार्य करने की चेतना जागृत हुई। विलियम बैंटिक द्वारा 1829 ई. में सती-प्रथा को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया। पं. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवा-विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए आन्दोलन चलाया। इसके परिणाम स्वरूप 1856 ई. में एक कानून स्वीकृत करके विधवा विवाह को वैध घोषित किया गया। ऐसी स्त्रियों से उत्पन्न सन्तान को भी वैध घोषित किया गया। शिक्षण संस्थाओं, अस्पतालों तथा अन्य संस्थाओं में शिक्षित विधवाओं को नौकरियाँ देकर उनके वैधव्य जीवन की कठिनाइयों को कम किया गया। शिक्षित वर्ग ने भी विधवा स्त्रियों के विवाह करवाने में योगदान दिया। केशवचन्द्र सेन के प्रयत्नों से नेटिव मेरिज एक्ट स्वीकृत हुआ जिसके अन्तर्गत बहुविवाह को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया, बाल-विवाह का निषेध कर दिया तथा अन्तर्जातीय विवाह को स्वीकृति दी गई। पारसी समाज सुधारक बी. एस. मलाबारी ने बाल-विवाह के विरोध में 1884 ई. से सक्रिय आन्दोलन आरम्भ किया। इसके परिणाम स्वरूप 1891 ई. में ऐज ऑफ कन्सेण्ट कानून स्वीकृत हुआ। इसके अन्तर्गत लड़कियों के लिए विवाह योग्य आयु 12 वर्ष निर्धारित की गई। 1901 ई. में बड़ौदा की रियासती सरकार ने इनफेंट मेरिज प्रिवेन्शन एक्ट लागू किया जिसके अंतर्गत विवाह की आयु लड़की के लिये 12 वर्ष और लड़के के लिये 16 वर्ष की गई।
समाज सुधार आन्दोलनों के परिणाम स्वरूप भारत में स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा मिला। स्त्री शिक्षा के लिये अनेक विद्यालय और महाविद्यालय स्थापित हुए। दक्षिण शिक्षा प्रगति समिति तथा पूना में श्रीमती रानाडे द्वारा स्थापित पूना सेवा सदन ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया। ज्यों-ज्यों स्त्री-शिक्षा का प्रसार हुआ, स्त्रियों में राजनीतिक जागृति उत्पन्न हुई और स्त्रियाँ अनेक कौंसिलों, कारपोरेशनों और नगर पालिकाओं में सदस्य होने लगीं। स्त्री शिक्षा के फलस्वरूप पर्दा-प्रथा का उन्मूलन हुआ। शिक्षित हिन्दू महिलाओं ने पर्दा-प्रथा का बहिष्कार किया। 19वीं शताब्दी के समाज सुधार आन्दोलनों से जाति प्रथा के बन्धनों में शिथिलता आई तथा दलित जातियों में नवीन चेतना का संचार हुआ। ईसाई धर्म-प्रचारकों ने अस्पृश्य कही जानी वाली जाति के अनेक लोगों को ईसाई बना लिया था किन्तु आर्य समाज ने शुद्धि आन्दोलन द्वारा उन्हें पुनः हिन्दू समाज में सम्मिलित करने का अभियान चलाया। इससे हिन्दू समाज में जातीय वैमनस्य एवं भेदभाव में उल्लेखनीय कमी आई।
सुधार आन्दोलनों के धार्मिक परिणाम
धार्मिक क्षेत्र के सुधार आन्दोलनों ने हिन्दू समाज में नवीन दृष्टि एवं चेतना विकसित की। स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द तथा श्रीमती एनीबीसेण्ट आदि धर्म सुधारकों ने हिन्दुओं को हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता का आभास कराया जिससे वे ईसाई धर्म के व्यामोह से मुक्त होकर अपने ही धर्म की उन्नति के बारे में सोचने लगे। भारतीयों को अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति गौरव का अनुभव हुआ। इन आन्दोलनों से मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, कर्मकाण्ड, अन्धविश्वासों तथा हिन्दू सम्प्रदायों की परस्पर कट्टरता में कमी आई। धार्मिक आडम्बरों की आलोचना होने लगी तथा हिन्दुओं की मनोवृत्ति पहले से भी अधिक उदार हो गई। स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के सन्देश को अमेरिका तथा यूरोप तक पहुँचाया जिससे यूरोपवासियों को भी हिन्दू धर्म की महानता का ज्ञान हुआ।
सुधार आन्दोलनों के साहित्यिक क्षेत्र में परिणाम
धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलनों से साहित्य के क्षेत्र में भी व्यापक क्रान्ति उत्पन्न हुई। संस्कृत साहित्य का बड़ी मात्रा में अँग्रेजी भाषा में अनुवाद हुआ जिससे संसार को भारत के श्रेष्ठ साहित्य के बारे में ज्ञान हुआ। पाश्चात्य साहित्य के अध्ययन से देशी भाषाओं के साहित्य में आधुनिकता का समावेश होने लगा। अँग्रेजी शिक्षा के प्रसार से भारत में बौद्धिक विकास का नया युग आरम्भ हुआ। छापाखानों के लगने से विभिन्न भाषाओं की पुस्तकों की संख्या और प्रसार बढ़ा तथा आम आदमी के ज्ञान में वृद्धि हुई। हिन्दी साहित्य में भी राष्ट्रीय चिंताएं उसी प्रकार प्रकट होने लगीं जिस प्रकार संस्कृत भाषा के साहित्य में होती आई थीं। धर्म-प्रचारकों एवं समाज-सुधारकों ने लोक-भाषाओं को उन्नत करने में योगदान दिया। हिन्दी, उर्दू, बंगला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं एवं साहित्य का अभूतपूर्व समन्वय हुआ। इस प्रकार सुधार आंदोलनों से भारत की श्रेष्ठ प्राचीन साहित्यिक परम्पराओं का पुनरुद्धार हुआ तथा पूर्व एवं पश्चिम की उच्चतम साहित्यिक प्रवृत्तियों का सुन्दर समन्वय हुआ।
सुधार आन्दोलनों के राजनीतिक क्षेत्र में परिणाम
सुधार आन्दोलनों का सबसे बड़ा प्रभाव राजनीतिक क्षेत्र पर ही पड़ना था और ऐसा हुआ भी। भारतीयों में राष्ट्रीय गौरव जागृत होने से उन्हें अपनी हीन अवस्था का बोध हुआ। उन्हें यह भी बोध हुआ कि इस दुरावस्था से बाहर निकला जा सकता है। किया। वेलेन्टाइन शिरोल ने भारत के सामाजिक-धार्मिक आन्दोलनों में राष्ट्रीयता की उत्पत्ति के बीज देखे। स्वामी दयानन्द प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने स्वराज शब्द का प्रयोग किया। वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना सिखाया। वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया। स्वामी दयानंद तथा विवेकानंद के उग्र विचारों के काण भारतीयों में उग्र राष्ट्रवाद का विकास हुआ। इन सन्यासियों ने सांस्कृतिक चेतना की जो धारा प्रवाहित की, उसी पर राष्ट्रीयता का भव्य भवन खड़ा हुआ। विवेकानंद ने भारत की जनता को ललकार कर कहा- ‘विचार और कर्म की स्वतंत्रता जीवन, विकास तथा कल्याण की अकेली शर्त है। जहाँ यह न हो, वहाँ मनुष्य, जाति तथा राष्ट्र सभी पतन के शिकार होते हैं।’
उन्होंने भारतीयों को विश्व पर सांस्कृतिक विजय करने की प्रेरणा दी और यह भी कहा कि जब तक भारत गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है, तब तक यह कार्य सम्भव नहीं है। इस प्रकार सुधार आंदोलनों तथा उनके नेतृत्वकर्त्ताओं ने भारतीयों को राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये प्रेरित किया।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि 19वीं शताब्दी में भारत में चले विभिन्न धार्मिक-सामाजिक सुधार आन्दोलनों ने देशवासियों को जीवन के हर क्षेत्र में जागृत किया। इसी जागृति ने भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया। इस काल में कुछ आंदोलन ऐसे भी चले जिनके कारण भारत में साम्प्रदायिक कट्टरता का विकास हुआ तथा देश में द्विराष्ट्रवाद की अवधारणा को बल मिला। इसका अंतिम परिणाम भारत विभाजन के रूप में सामने आया।