Sunday, December 8, 2024
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अध्याय – 30 : भारत में समाज सुधार एवं धर्म सुधार आन्दोलन-2

उग्र एवं कट्टर समाज सुधारक

उन्नीसवीं सदी के समाज सुधारकों में ब्रह्म समाज और प्रार्थना समाज जैसे उग्र सुधारवादी पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति को आधार मानकर भारतीय धर्म और समाज में क्रांतिकारी सुधार करना चाहते थे। इनके नेताओं ने जब हिन्दू धर्म एवं भारतीय समाज में अत्यधिक मौलिक परिवर्तन करने चाहे तो इनकी प्रतिक्रिया कट्टर हिन्दू सुधारवादी आन्दोलनों के रूप में प्रकट हुई। आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी और रामकृष्ण मिशन ऐसे कट्टर सुधारवादी प्रयास थे।

राजा राममोहन राय और उनका ब्रह्म समाज

भारत में धार्मिक और समाजिक आन्दोलनों के प्रवर्तक राजा राम मोहन राय का जन्म 1774 ई. में बंगाल के राधानगर नामक गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। वे आरम्भ से ही क्रांतिकारी विचारों के थे। 17 वर्ष की आयु में उन्होंने एक पुस्तिका प्रकाशित करवाई जिसमें उन्होंने मूर्तिपूजा का प्रबल विरोध किया। उनके परम्परावादी ब्राह्मण परिवार ने नाराज होकर उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। बहुत दिनों तक वे इधर-उधर भटकते रहे। इस काल में उन्होंने संस्कृत, फारसी, बंगला, अरबी तथा अँग्रेजी भाषाओं का अध्ययन किया और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन रंगपुर की कलेक्टरी में क्लर्क बन गये। अपनी प्रतिभा के बल पर वे शीघ्र ही जिले की दीवानगिरी के उच्च पद पर पहुँच गये। इसी बीच उन्होंने लेटिन, ग्रीक एवं हिब्रू भाषा सीखकर ईसाई धर्म का गहन अध्ययन किया। हिन्दू धर्म-शास्त्रों, वेद, उपनिषद तथा वेदान्त आदि का अध्ययन वे पहले ही कर चुके थे।

इसाई धर्म के आक्षेपों का जवाब

राजा राममोहन राय ईसाई धर्म की कई विशेषताओं के प्रशंसक थे किंतु उन्होंने ईसा के देवत्व को उसी प्रकार अस्वीकार किया जिस प्रकार वे हिन्दू अवतारवाद को अस्वीकार करते थे। 1813 ई. में जब ईसाई मिशनरियों ने हिन्दू धर्म पर प्रबल आक्षेप करने आरम्भ किये तो राजा राममोहन राय ने उन आक्षेपों का उत्तर देना आरम्भ किया। 1814 ई. में 40 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया और स्थायी रूप से कलकत्ता में बस गए। 1820 ई. में उन्होंने प्रीसेप्ट्स ऑफ जीसस नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें उन्होंने न्यू टेस्टामेंट्स के नैतिक और दार्शनिक संदेश को उसकी चमत्कारी कहानियों से अलग करने का प्रयास किया।

ब्रह्म समाज की स्थापना

20 अगस्त 1828 को राजा राम मोहन ने शुद्ध एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर आधारित ब्रह्म समाज की स्थापना की। इस प्रकार ब्रह्म समाज 19वीं शताब्दी का प्रथम धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन था तथा राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे जिन्होंने भारतीय धर्म और समाज की बुराईयों का दूर करने का प्रयत्न किया।

ब्रह्म समाज का विभाजन

1833 ई. में राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद देवेन्द्रनाथ टैगोर और केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्म समाज को अधिक प्रगतिशील बनाया। केशवचन्द्र सेन ईसाई धर्म से अधिक प्रभावित थे। वे ब्रह्म समाज को ईसाई धर्म के सिद्धान्त के अनुसार चलाना चाहते थे किन्तु देवेन्द्रनाथ टैगोर इससे सहमत नहीं थे। अतः ब्रह्म समाज दो भागों में विभक्त हो गया- (1.) देवेन्द्रनाथ का आदि ब्रह्म समाज और

(2.) केशवचन्द्र सेन का भारतीय ब्रह्म समाज। केशवचन्द्र ने अपने समाज के प्रचार हेतु देश का पर्यटन किया। इसके फलस्वरूप बम्बई में प्रार्थना समाज और मद्रास में वेद समाज की स्थापना हुई। 1881 ई. में भारतीय ब्रह्म समाज में पुनः मतभेद उत्पन्न हो गए। केशवचन्द्र सेन के विरोधियों ने साधारण ब्रह्म समाज स्थापित किया। केशवचन्द्र सेन ने नव विधान समाज की स्थापना की। नव विधान समाज में हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसाई, बौद्ध और मुस्लिम धार्मिक ग्रन्थों से भी अनेक बातें ली गई थीं। यद्यपि ब्रह्म समाज विभिन्न शाखाओं में विभक्त हो गया था, तथापि उसका मूल लक्ष्य एक ही था- हिन्दू समाज और धर्म का सुधार करना।

ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धान्त

राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज के रूप में किसी नवीन सम्प्रदाय को खड़ा नहीं किया अपितु हिन्दू धर्म की उच्च शिक्षाओं के तत्त्व से एक सामान्य पृष्ठभूमि तैयार की। ब्रह्म समाज मूलतः भारतीय था और इसका आधार उपनिषदों का अद्वैतवाद था। ब्रह्म समाज की साप्ताहिक बैठकों में वेदों का पाठ होता था तथा उपनिषदों के बंगला अनुवाद का वाचन होता था। ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार से थे-

(1.) ईश्वर एक है। वह संसार का सृष्टा, पालक और रक्षक है। उसकी शक्ति, प्रेम, न्याय तथा पवित्रता अपरिमित है।

(2.) आत्मा अमर है, उसमें उन्नति करने की असीम क्षमता है और वह अपने कार्यों के लिए भगवान के समक्ष उत्तरदायी है।

(3.) आध्यात्मिक उन्नति के लिए, प्रार्थना, भगवान् का आश्रय और उसके अस्तित्त्व की अनुभूति आवश्यक है।

(4.) किसी भी मानव निर्मित वस्तु को ईश्वर समझकर नहीं पूजना चाहिए और न किसी पुस्तक या पुरुष को मोक्ष का एकमात्र साधन मानना चाहिए।

(5.) मानव मात्र के प्रति बन्धुत्व की भावना रखनी चाहिये।

(6.) समस्त धर्मों के धार्मिक ग्रन्थों के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिये।

ब्रह्म-समाज के धार्मिक सुधार

ब्रह्म समाज ने वेदों और उपनिषदों को आधार मानकर बताया कि ईश्वर एक है, समस्त धर्मों में सत्यता है, मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड निरर्थक हैं तथा सामाजिक कुरीतियों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। सर्वप्रथम ब्रह्म समाज ने ही भारतीय समाज को तर्क के आधार पर धर्म की व्याख्या करने का विचार दिया। धर्म की व्याख्या करते हुए, ईसाई धर्म के कर्मकाण्डों तथा ईसा मसीह के ईश्वरीय अवतार होने के दावे पर प्रबल आक्रमण किया तथा ईसाई धर्म-प्रचारकों से शास्त्रार्थ किया। इस कारण जो हिन्दू, ईसाई धर्म ग्रहण कर रहे थे, वे धर्म-परिवर्तन करने से बच गए।

राजा राममोहन राय ने हिन्दू, ईसाई, इस्लाम, बौद्ध आदि समस्त धर्मों का गहन अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि समस्त धर्मों में सत्य है किन्तु समस्त धर्मों में कर्मकाण्ड सम्मिलित हो गये हैं जिनको दूर करने की आवश्यकता है। इस धारणा को लेकर उन्होंने मुख्यतः हिन्दू धर्म में सुधार करने का प्रयत्न किया। उन्होंने लोगों का ध्यान उस निराकार, निर्विकार ब्रह्म की ओर आकृष्ट किया जिसका निरूपण वेदान्त में हुआ है। ब्रह्म समाज की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह समस्त धर्मों के प्रति सहिष्णु था। राजा राममोहन राय विश्व-बन्धुत्व के हिमायती थे। जब राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज के लिए भवन का निर्माण कराया, तब उसके ट्रस्ट के दस्तावेज में स्पष्ट किया गया कि ‘समस्त लोग बिना किसी भेदभाव के, शाश्वत सत्ता की उपासना के लिए इस भवन का प्रयोग कर सकते हैं। इसमें किसी मूर्ति की स्थापना नहीं होगी, न इसमें कोई बलिदान होगा, न किसी धर्म की निन्दा की जायेगी। इसमें केवल ऐसे उपदेश दिये जायेंगे जिनसे समस्त धर्मों के बीच एकता तथा सद्भाव की वृद्धि हो।’

ब्रह्म समाज पर आरोप लगाया जाता है कि उस पर ईसाई धर्म और सभ्यता का प्रभाव था किन्तु यह सत्य नहीं है। उसकी प्रेरणा के मूल स्रोत प्राचीन भारतीय धर्म ग्रन्थ ही थे। राजा राममोहन राय ने पश्चिमी सभ्यता की तर्क, स्वतंत्रता और अनुसंधान की भावना अवश्य ग्रहण की। इसलिए उन्होंने तात्कालिक धर्म में प्रचलित सिद्धान्तों का खण्डन किया। इन सिद्धान्तों के खण्डन का आधार प्राचीन वेद और उपनिषद ही थे। ब्रह्म समाज ने भारत के अन्य धर्मों में सुधार का मार्ग भी प्रशस्त किया।

सामाजिक सुधार: राजा राममोहन राय उच्च कोटि के समाज सुधारक थे। उस समय हिन्दू समाज में अनेक बुराईयां व्याप्त थीं। राजा राममोहन राय ने उन्हें दूर करने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी विधवा भाभी को सती होते देखकर इस बर्बर तथा अमानुषिक प्रथा के विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन चलाया। इसके परिणाम स्वरूप लॉर्ड विलियम बैंटिक ने 1829 ई. में सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया। कुछ कट्टरपंथी हिन्दुओं ने इस कानून का विरोध करते हुए लंदन की प्रिवी कौंसिल में अपील की किन्तु राजा राममोहन राय तथा देवेन्द्रनाथ टैगौर ने इस कानून का समर्थन करते हुए प्रिवी कौंसिल को अनेक पत्र लिखे जिससे कट्टरपंथी हिन्दुओं का मनोबल गिर गया और अन्त में राजा राममोहन राय और उनके साथियों को विजय मिली। ब्रह्म समाज ने बाल विवाह, बहु विवाह, जाति प्रथा, छुआछूत, नशा आदि समस्त कुरीतियों का डटकर विरोध किया तथा स्त्री-शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह आदि का समर्थन किया। उस समय भारतीय हिन्दू समाज में कन्या एवं वर विक्रय और कन्या वध जैसी कुप्रथायें प्रचलित थीं। ब्रह्म समाज ने इन कुरीतियों के विरुद्ध प्रबल आन्दोलन चलाया। उन्होंने समता का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए लाखों हिन्दुओं को ईसाई धर्म स्वीकार करने से रोका। 1822 ई. और 1830 ई. में दो प्रकाशनों द्वारा राजा राममोहन राय ने स्त्रियों के सामाजिक, कानूनी और सम्पत्ति के अधिकारों पर प्रकाश डाला। उनके मत में, स्त्री और पुरुष दोनों ही समान थे।

इस प्रकार समाज सुधार के क्षेत्र में ब्रह्म समाज का योगदान अद्वितीय है। हिन्दू समाज में कोई भी ऐसी कुरीति नहीं थी, जिस पर ब्रह्म समाज ने प्रहार न किया हो। आधुनिक काल में जिन कुरीतियों का विरोध समस्त प्रबुद्ध भारतीयों ने किया है तथा जिन्हें आज भी भारत का शिक्षित वर्ग घृणा की दृष्टि से देखता है, उन कुरीतियों पर सर्वप्रथम ब्रह्म समाज ने ही प्रहार किया था। स्वतंत्र भारत के संविधान में जिन सामाजिक कुरीतियों को असंवैधानिक घाषित किया गया है, उनके विरुद्ध भी सर्वप्रथम ब्रह्म समाज ने ही संघर्ष किया था। 

साहित्यिक सुधार: ब्रह्म समाज ने साहित्यिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया। देवेन्द्रनाथ की तत्त्व बोधिनी सभा, केशवचंद्र सेन की संगत सभा और भारतीय समाज सुधार जैसी सभाएं ब्रह्म समाज के विचारों का प्रचार करने में सहायक सिद्ध हुईं। राजा राममोहन राय ने बंगला, उर्दू, फारसी, अरबी, संस्कृत और अँग्रेजी भाषा में पुस्तकों की रचना कर भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया। उन्होंने अनेक धार्मिक ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया जो भारतीय साहित्यिक जगत् के लिए स्थायी योगदान है। राजा राममोहन राय और केशवचन्द्र सेन के लेखों और वक्तव्यों ने भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया। राजा राममोहन राय के अपील टू द क्रिश्चियन पब्लिक तथा दी डेस्टिनी ऑफ ह्यूमन लाइफ जैसे लेखों ने भारतीयों में नव-जागरण उत्पन्न किया। राजा राममोहन राय ने संवाद कौमुदी नामक सर्वप्रथम बंगला साप्ताहिक पत्र निकाला। उन्होंने फारसी अखबार मिरातउल भी प्रकाशित किया। केशवचन्द्र सेन ने भारतीय ब्रह्म समाज द्वारा तत्त्व कौमुदी, ब्रह्म पब्लिक ओपीनियन, संजीवनी आदि पत्र प्रकाशित किये। इन पत्र-पत्रिकाओं ने साहित्य के विकास में भारी योगदान दिया।

शैक्षणिक सुधार: राजा राममोहन राय अँग्रेजी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने अँग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन किया। उन्होंने अँग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने के लिए पूर्ण प्रयत्न किया। उनकी मान्यता थी कि आधुनिक युग में प्रगति के लिए अँग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है। वे चाहते थे कि भारत में पाश्चात्य शिक्षा तथा ज्ञान की समस्त शाखाओं के शिक्षण की व्यवस्था हो। इसके लिए ब्रह्म समाज ने विभिन्न स्थानों पर स्कूल और कॉलेज खोले। स्वयं राजा राममोहन राय ने कलकत्ता में वेदान्त कॉलेज, इंगलिश स्कूल और हिन्दू कॉलेज की स्थापना की। केशवचन्द्र सेन के भारतीय ब्रह्म समाज ने ब्रह्म बालिका स्कूल तथा सिटी कॉलेज ऑफ कलकत्ता की नींव डाली। भारत के आधुनिकीकरण और समाज सुधार में इन शिक्षण संस्थाओं ने महान् योगदान दिया। हिन्दू कॉलेज ने भारतीय बौद्धिक जागरण में अग्रदूत का काम किया तथा युवा बंगाल आन्दोलन को जन्म दिया।

राष्ट्रीय सुधार: ब्रह्म समाज ने राष्ट्रीयता की भावना के निर्माण में विपुल योगदान दिया। उसने प्राचीन भारतीय गौरव, सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान कराया, भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न हुई। राजा राममोहन राय ने हिन्दू कानून में सुधार करने की वकालात की। स्त्रियों के सामाजिक कानून और सम्पत्ति के अधिकार पर बल दिया। भूमि-कर में कमी करने की मांग की और दमनकारी कृषि कानूनों के विरुद्ध एक प्रार्थना-पत्र इंग्लैण्ड भेजा। समाचार पत्रों पर लगे प्रतिबन्धों का विरोध किया और इसके लिए सुप्रीम कोर्ट तथा किंग-इन-कौंसिल को आवेदन-पत्र भेजे। राजा राममोहन राय ने सर्वप्रथम विचार-स्वतंत्रता का नारा बुलन्द किया। उन्होंने भारतीयों को शासन और सेवा में अधिक संख्या में भरती करने की मांग की। इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कामन्स की प्रवर समिति के समक्ष उन्होंने भारतीय शासन में सुधार हेतु सुझाव दिये। उन्होंने न्याय में जूरी प्रथा का समर्थन किया तथा न्यायपालिका को प्रशासन से अलग करने की मांग की। उन्होंने दीवानी तथा फौजदारी कानूनों का संग्रह तैयार करने की भी मांग की और फारसी के स्थान पर अँग्रेजी भाषा को न्यायालयों की भाषा बनाने पर बल दिया। उन्होंने किसानों से ली जाने वाली मालगुजारी निश्चित करने की मांग की। उनके आन्दोलन के फलस्वरूप 1835 ई. में समाचार पत्रों पर लगे प्रतिबन्धों को हटाया गया। राजा राममोहन राय ने भारत के राजनीतिक नवजागरण में महान् योगदान दिया।

नये युग के अग्रदूत

राजा राममोहन राय अन्तर्राष्ट्रीयता के समर्थक थे। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाने हेतु एक सुझाव प्रस्तुत किया जिसमें सम्बन्धित देशों की संसदों से एक-एक सदस्य लेकर अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस बनाने कर योजना थी। इस प्रकार राजा राममोहन राय राष्ट्रीयता एवं अन्तराष्ट्रीयता- दोनों के प्रबल समर्थक थे। एडम ने लिखा है- ‘स्वतंत्रता की लगन उनकी अन्तर्रात्मा की सबसे जोरदार लगन थी और यह प्रबल भावना उनके धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि समस्त कार्यों में फूट-फूटकर निकल पड़ती थी।’  इसीलिए उन्हें नये युग का अग्रदूत कहा गया है।

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