इस्लाम तो एक ही है किंतु समय-समय पर मुस्लिम शासकों ने इस्लाम की अलग-अलग व्याख्या करने के प्रयास किए हैं ताकि वे स्वयं को मजहबी नेता भी घोषित कर सकें। मुस्लिम शासकों की इन चेष्टाओं से मुल्ला, मौलवी, उलेमा आदि उनके विरोधी हो जाते थे। अकबर का इस्लाम भी अपने काल के मुल्ला-मौलवियों के इस्लाम से मेल नहीं खाता था। इस कारण अकबर की अपने ही दरबारी मुल्लों से ठन गई।
विभिन्न मजहबों, पंथों एवं धर्मों के मौलवियों, पादरियों,एवं आचार्यों से विचार-विमर्श करने के बाद अकबर ने विभिन्न मजहबों, पंथों एवं धर्मों की अच्छी बातों को अनुभव किया। इससे नाराज होकर बहुत से लोगों ने अकबर पर आरोप लगाया कि उसने इस्लाम छोड़ दिया है।
जबकि अकबर ने इस्लाम में आस्था नहीं छोड़ी थी अपितु उन मुल्लों पर से आस्था छोड़ी थी जिन्होंने इस्लाम की मनमानी व्याख्या करना तथा एक-दूसरे को नीचा दिखाकर स्वयं को सबसे ऊंचा सिद्ध करना, अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया था।
इन मुल्लों को नियंत्रण में लाने के लिए अकबर ने फैजी और अबुल फजल के पिता शेख मुबारक से कहा कि वह इस सम्बन्ध में अध्ययन करके बादशाह के समक्ष एक मजहर का मसविदा अर्थात् शाही परिपत्र का प्रारूप प्रस्तुत करे। सितंबर 1578 में शेख मुबारक ने बादशाह के समक्ष मजहर का एक मसौदा पेश किया। अकबर छः महीने तक इस मसौदे पर विचार करता रहा और उसमें सुधार करता रहा।
अकबर द्वारा तैयार करवाए गए इस मसविदे से भी यह आभास होता है कि अकबर का इस्लाम, मुल्लों के इस्लाम से अलग था।
बदायूनी ने लिखा है कि 22 जून 1579 को अकबर ने फतेहपुर सीकरी की प्रमुख मस्जिद के चबूतरे पर चढ़कर कवि फैजी द्वारा कविता में रचित खुतबा पढ़ा। संभवतः इस खुतबे में शेख मुबारक द्वारा प्रस्तुत मजहर के मसौदे का ही प्रयोग किया गया था। इस मजहर की तुलना आजकल के सरकारी परिपत्रों अथवा शासकीय आदेशों से की जा सकती है।
इस मजहर के द्वारा सल्तनत के प्रमुख मजहबी अधिकारियों ने अकबर को समस्त देश में इस्लाम सम्बन्धी विवादों में अंतिम पंच-फैसले का अधिकार दिया था। इस मजहर पर प्रमुख मुसलमान मजहबी नेताओं ने हस्ताक्षर किए जिनमें मखदूम-उल-मुल्क और अब्दुल नबी भी सम्मिलित थे।
इस परिपत्र का मसौदा इस प्रकार था- ‘चूंकि हिंदुस्तान अब शांति और सुरक्षा का केंद्र तथा न्याय-नीति का स्थान बन गया है जिससे उच्च और निम्न वर्ग के लोगों और मुख्यतः आध्यात्मिक विद्या विशारद, विद्वान और वे लोग जो ज्ञान-विज्ञान का विचार-विस्तार करते हैं तथा मुक्ति के मार्गदर्शक बने हुए हैं, अरब और फारस देशों से यहाँ आकर बस गए हैं।
अब प्रमुख उलेमागण जो केवल कानून के विभिन्न अंगों के ही विशेषज्ञ और ज्ञाता नहीं, तर्क और प्रमाण पर आधारित नियमों से परिचित ही नहीं, बल्कि अपनी सच्चाई और सदाशयता के लिए भी प्रसिद्ध हैं, प्रथमतः कुरान की आयत की, अल्लाह की, पैगंबर की और उनकी जिन्हें सत्ता प्राप्त है, आज्ञा पालन करो।
दूसरे जो आदमी कयामत के दिन खुदा का प्यारा होता है वही असली नेता होता है और जो अमीर की आज्ञा-पालन करता है, वह मेरी आज्ञा का पालन करता है, और जो इसके प्रति विद्रोह करता है वह मेरे प्रति विद्रोह करता है, के सिद्धांत और तीसरे तर्क और प्रमाणों पर आधारित अन्य अनेक सबूतों का अच्छी तरह से मर्म समझ लिया है और इस निश्चय पर पहुंचे हैं कि न्याय में न्याय-प्रिय बादशाह का स्थान, अल्लाह की दृष्टि में मुजतहिद (मजहबी नेता) से कहीं ऊंचा होता है।
आगे हम यह घोषित करते हैं कि इस्लाम को मानने वाला बादशाह, मानवता का आश्रय-स्थल, स्वामि-भक्तों का सेनापति, संसार में अल्लाह का स्वरूप, अबुल फतेह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर, बादशाहे गाजी, सबसे अधिक न्यायप्रिय और बुद्धिमान बादशाह है और उसे अल्लाह का ज्ञान प्राप्त है।
इसलिए यदि भविष्य में ऐसे मजहबी प्रश्न उठ खड़े हों जिन पर मुजतहिद की राय भिन्न-भिन्न हो तो बादशाह अपनी सूक्ष्म दृष्टि और बुद्धिमत्ता के अनुसार, सुव्यवस्था की दृष्टि से, देश की भलाई के लिए, इन विरोधी मतों में से किसी एक को स्वीकार करने की कृपा करेंगे और यह मत ही उसकी सारी प्रजा पर लागू समझा जाएगा।
यदि बादशाह कुरान के अनुसार, देश के हित में कोई नई आज्ञा जारी करना उचित समझेंगे तो सभी लोग उसे मानने के लिए बाध्य समझे जाएंगे और इसका विरोध करने पर उन्हें इस लोक में मजहबी अधिकार तथा धन संपदा से वंचित होना पड़ेगा तथा दूसरे लोक में कष्ट मिलेगा। यह मजहर अर्थात् शासकीय आदेश विशुद्ध भावनाओं के साथ तथा अल्लाह की कीर्ति और इस्लाम के प्रचार के लिए लिखा गया है। इस्लाम के प्रमुख उलेमाओं और प्रमुख मजहबी विद्वानों द्वारा रजब के महीने में इस मजहर पर हस्ताक्षर हुए हैं।’
मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूनी अकबर के इस कार्य से प्रसन्न नहीं था। चूंकि वह अकबर का दरबारी नौकर था इसलिए उसने सीधे शब्दों में अकबर की आलोचना नहीं की किंतु इस घटना का ऐसे शब्दों में वर्णन किया है जिनसे यह ज्ञात हो सके कि कुदरत भी नहीं चाहती थी कि अकबर अपनी रियाया पर इस कानून को लागू करे। मुल्ला लिखता है कि अकबर को किसी का अधीनस्थ होना नहीं सुहाता था। अकबर ने सुन रक्खा था कि पैगम्बर, उसके कानूनी वारिस और तिमूर साहिब किरान, मिर्जा उलूगबेग-ए-गुरगांव और अन्य अमीरों ने खुद ही खुतबा पढ़ा था। अकबर ने भी उनका अनुकरण करते हुए स्वयं ही अपना खुतबा पढ़ने का निश्चय किया।
वह मुजतहिद के रूप में रियाया के सामने आना चाहता था। इसलिए हिजरी 987 के जमादअल अव्वल महीने के पहले जुम्मे को अकबर ने फतहपुर की मुख्य मस्जिद में जो उसने अपने महल के पास बनवाई थी, खुत्बा पढ़ना शुरु किया किंतु वह एकाएक लड़खड़ाया और कांपा। यद्यपि दूसरों ने उसे सहारा दिया, वह मुश्किल से तीन पद पढ़ पाया और जल्दी से मंच से नीचे आ गया तथा आगे का खुतबा हाफिज मुहम्मद अमीर, दरबारी खतीब ने पूरा किया।
इस प्रकार कवि फैजी द्वारा कविता में रचित खुतबा ही अकबर के विचारों का वह प्रारूप था जिसे अकबर का इस्लाम कहकर मुल्लों ने उसका विरोध किया।
डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि उपर्युक्त पत्र द्वारा जिसे गलती से अचूक-आज्ञापत्र कहकर पुकारा गया है, अकबर को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह मुस्लिम धर्म-शास्त्रियों के विरोधी मतों में से किसी एक को स्वीकार करे तथा मतभेद विहीन मामलों पर किसी भी नीति को निर्धारित करे, बशर्ते कि वह कुरान विहित हो।
इस प्रकार अकबर ने स्वयं वे अधिकार प्राप्त कर लिए जो अब तक उलेमाओं और विशेष रूप से प्रमुख सदर के अधिकार माने जाते थे। अब से वह मुसलमान प्रजा के लिए मजहबी नेता भी बन गया। इसी परिपत्र के आधार पर आधुनिक इतिहासकारों स्मिथ और वूल्जले हेग ने लिखा है कि- ‘अकबर पोप भी बन गया और राजा भी!’ डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि स्मिथ और वूल्जले हेग का यह कथन उचित दिखाई नहीं देता कि अकबर पोप भी बन गया और राजा भी।
हैवल ने लिखा है- ‘वास्तव में अकबर द्वारा इस्लाम का नेतृत्व ग्रहण करने की समस्या पर विचार करते हुए केवल इस बात का ही ध्यान नहीं रखना है कि वह उलेमा लोगों की धृष्टता पर नियन्त्रण रखना चाहता था वरन् उसकी दूरदर्शी राजनीतिज्ञता पर भी ध्यान रखना है जिसने हिन्दुस्तान की शान्ति तथा मुगल राज्यवंश की सुरक्षा के लिये इस नीति के अनुसरण हेतु प्रेरित किया।’
इस परिपत्र के जारी करने के तीन वर्ष बाद ई.1582 में अकबर ने इबादतखाना की बैठकों को पूरी तरह बंद कर दिया। चूंकि मुल्लों ने अकबर की किसी भी मजहबी बात को स्वीकार नहीं किया इसलिए कहा जा सकता है कि अकबर का इस्लाम अस्तित्व में नहीं आ सका।