Tuesday, March 19, 2024
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गोस्वामी तुलसीदास का जीवनवृत्त

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गोस्वामी तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित विशाल साहित्य न केवल भारतीय सभ्यता की, अपितु सम्पूर्ण मानव सभ्यता की अमूल्य धरोहर है। यह हिन्दी भाषा में लिखा गया भक्तिकाव्य है जो भारतीय वेदांत के विभिन्न दर्शनों पर आधारित है तथा मनुष्य को भक्तियोग, कर्मयोग एवं ज्ञानयोग का सम्यक अनुशीलन करने का मार्ग दिखाता है।

सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में जिस समय गोस्वामी तुलसीदास ने जन्म लिया, उस समय भारत भूमि पर मुसलमानों को शासन करते हुए लगभग चार शताब्दियां होने जा रही थीं और हिन्दुआ तेज अत्यंत निर्बल हो चुका था। तुलसी के साहित्य ने हिन्दुओं के गौरवमयी सूर्य को फिर से निराशा के कुहासे से बाहर निकाला और उसे पूरे तेज के साथ विश्व सभ्यता के माथे पर भूषित कर दिया।

हिन्दुओं का उत्थान किसी जाति, पंथ या देश का उत्थान नहीं है। हिन्दुओं का उत्थान वस्तुतः सम्पूर्ण मानव जाति का उत्थान है।

हिन्दुओं के उत्थान का अर्थ है सम्पूर्ण जीव-जगत को हिंसा के खड्ड से बाहर निकालकर अभय प्रदान करना। हिन्दू संस्कृति के उत्थान का अर्थ है सम्पूर्ण जगत में शांति, सद्भावना और प्रेम की स्थापना करना।

हिन्दू जाति को फिर से तेज प्रदान करके गोस्वामी तुलसीदास ने प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों प्रकार से सम्पूर्ण मानव जाति पर उपकार किया है।

इस लेख में हिन्दू परम्परा के अनुसार विक्रम संवत् की तिथियां प्रयुक्त की गई हैं तथा कहीं-कहीं विक्रम संवत् के साथ शक संवत् (शकारि संवत) भी दिया गया है। विक्रम संवत् में से प्रायः 57 घटाने पर ईस्वी सन् प्राप्त हो जाता है। कुछ मामलों में यह अंतर 57 के स्थान पर 56 होता है।

भ्रांतियाँ, भ्रांतियाँ और भ्रांतियाँ

भारत राष्ट्र ही नहीं, सम्पूर्ण मानव सभ्यता के इतने महत्वपूर्ण कवि एवं दार्शनिक होने पर भी गोस्वामी तुलसीदास के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्तियां प्रचलित हैं, यथा-

1. उनकी जन्म एवं मृत्यु की तिथि श्रावण शुक्ला सप्तमी है या श्रावण कृष्णा तीज शनि है?

2. गोस्वामी तुलसीदास का जन्म विक्रम संवत् 1554, 1560, 1568, 1583, 1587 और 1600 में से कौन-सा है?

3. उनकी जन्मभूमि सोरों है या राजापुर?

4. वे सनाढ्य थे या कान्यकुब्ज अथवा सरयूपारीय?

5. उनका आस्पद दुबे था, शुक्ल था या मिश्र?

6. उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे था, मुरारी मिश्र था या अनूप शर्मा?

7. गोस्वामी तुलसीदास के बचपन का नाम रामबोला था, या तुलाराम?

8. उनके गुरु के रूप में पांच व्यक्तियों के नाम सामने आते है- राघवानंद, जगन्नाथ दास, शेष सनातन, नरसिंह और नरहरिदास, सही नाम कौनसा है?

9. तुलसीदासजी का एक विवाह हुआ था या तीन विवाह हुए थे?

और भी न जाने कितने विवाद और कितनी भ्रान्तियां उनके साथ जोड़ दिए गए हैं!

भ्रांतियों का निवारण

अनेक देशी-विदेशी विद्वानों ने तुलसीदासजी के जीवनवृत्त से सम्बन्धित भ्रान्तियों का निवारण करने के प्रयास किए हैं। उनमें हनुमान प्रसाद पोद्दार एवं आचार्य वेदव्रत शास्त्री प्रमुख हैं।

पोद्दारजी द्वारा तैयार किया गया तुलसीदासजी का जीवन वृत्त गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित रामचरित मानस के विभिन्न संस्करणों में मिलता है। यह जीवनवृत्त विभिन्न ग्रंथों एवं लोककिंवदन्तियों के आधार पर तैयार किया गया है।

आचार्य वेदव्रत शास्त्री ने तुलसीदासजी के जीवनवृत्त को भ्रांतियों के कुहासे से बाहर निकालने के लिए 60 वर्ष तक निरंतर शोध किया। इस दौरान उन्होंने वसीयतनामों, रत्नावली चरित, अष्टसखामृत, तुलसी प्रकाश, दोहा रत्नावली, शूकरक्षेत्र माहात्म्य, ब्रिटिश गजेटियर्स एवं विभिन्न अभिलेखों आदि का अध्ययन किया।

वेदव्रत शास्त्री ने इस शोधकार्य को अपने ग्रंथ ‘तुलसी जीवनवृत्त-तर्क और तथ्य’ में प्रस्तुत किया है। उनके द्वारा दिए गए प्रमाण एवं तर्क अत्यंत प्रभावशाली जान पड़ते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास की जन्मतिथि

जॉर्ज ग्रियर्सन, डॉ. माताप्रसाद गुप्त, डॉ. चन्द्रबली पाण्डेय आदि अनेक विद्वानों ने गोस्वामीजी का जन्म संवत् 1589 में होना बताया है। वेणीमाधव दास और मानस मयंककार ने तुलसी का जन्मवर्ष संवत् 1554 माना है।

जगमोहन वर्मा ने तुलसी का जन्मवर्ष संवत् 1560 और शिवसिंह सेंगर ने तुलसीदासजी का जन्मवर्ष संवत् 1583 माना है। डॉ. विल्सन, गौतम चन्द्रा और चौधरी छुन्नी सिंह ने तुलसी का जन्मवर्ष संवत् 1600 माना है।

पं. वेदव्रत शास्त्री ने इन समस्त जन्मवर्षों को भ्रामक बताया है तथा तुलसीदासजी का जन्म शक संवत् 1433, तदनुसार श्रावण शुक्ला सप्तमी, शुक्रवार, संवत् 1568 विक्रम (ई.1511) को विशाखा नक्षत्र के द्वितीय चरण में होना स्वीकार किया है।

पं. वेदव्रत शास्त्री अपनी मान्यता के समर्थन में दो प्रमाण देते हैं-

(1) संवत् 1667 में अविनाश राय लिखित ग्रंथ ‘तुलसी प्रकाश’ में तुलसी का जन्म संवत् 1568 श्रावण शुक्ला सप्तमी, शुक्रवार विशाखा नक्षत्र (शक संवत् 1433) बताया गया है, जो ज्योतिष की गणना के अनुसार सर्वथा शुद्ध है।

अविनाश राय तुलसीदासजी के समकालीन थे और उनके अच्छे मित्र थे। ग्रंथ के अन्त में स्वयं कवि ने लिखा है कि वे तुलसी से कई बार मिले थे।

(2) माताप्रसाद गुप्त जो कि तुलसीदासजी की जन्मतिथि दूसरी मानते हैं, अविनाश राय के ग्रंथ को प्रामाणिक मानते हैं। वेदव्रत शास्त्री लिखते हैं कि किसी प्रामाणिक ग्रंथ की एक बात प्रामाणिक और दूसरी बात अप्रामाणिक कैसे हो सकती है?

गोस्वामी तुलसीदास का जन्मस्थान

एच. एच. विल्सन और गासा द तासी ने चित्रकूट के निकट हाजीपुर को तुलसी का जन्मस्थान माना है। एफ. एस. गाउज ने हस्तिनापुर को तुलसी की जन्मस्थली बताया। सर जॉर्ज आर्थर ग्रियर्सन तथा सीताराम शरण सोरों क्षेत्रवर्ती तारी गांव को तुलसीदास का जन्मस्थान मानते हैं।

रजनीकान्त शास्त्री ने काशी को गोस्वामी तुलसीदास की जन्मस्थली सिद्ध किया है। डॉ. चन्द्रबली पाण्डेय ने अयोध्या को तुलसी की जन्मभूमि कहा है और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, मिश्रबन्धु तथा शिवसिंह सेंगर ने राजापुर को मान्यता दी है।

पं. वेदव्रत शास्त्री ने तुलसी का जन्मस्थान गंगा के तटवर्ती शूकर क्षेत्र (सोरों) के जिला एटा स्थित रामपुर गांव के जोगमार्ग मोहल्ले में होना स्वीकार किया है। उन्होंने अनेक मतों, तथ्यों, तर्कों एवं प्रमाणों से सोरों को गोस्वामी तुलसीदास की जन्मभूमि सिद्ध किया है।

बहुत से विद्वान सोरों तथा शूकर क्षेत्र को भी अलग-अलग मानते हैं। पं. वेदव्रत ने रामचरित मानस, वाराह पुराण, नारदीय महापुराण, पृथ्वीराज रासो, आइने अकबरी आदि ग्रंथों एवं कुछ शिलालेखों के प्रमाण देकर शूकर क्षेत्र को ही सोरों बताया है।

वेदव्रत शास्त्री ने लिखा है कि ई.1923 से ही गोस्वामी तुलसीदास का जन्मस्थान राजापुर पूरी तरह से मान्य हो गया था किन्तु किसी भी विद्वान ने इस बात पर विचार नहीं किया कि गोस्वामी तुलसीदास का जन्म यदि राजापुर में हुआ तो वे बचपन में ही सोरों कैसे पहुँच गए।

यदि वे विद्याध्ययन के लिए सोरों गए, तो राजापुर की अपेक्षा काशी और अयोध्या समीप थे और कई रामभक्त विद्वान आचार्य एवं सन्त-महात्मा वहाँ शिक्षा देने के लिए उपलब्ध थे?

गोस्वामी तुलसीदास के माता-पिता

बहुत से विद्वान तुलसीदासजी के माता-पिता के बारे में भी अलग-अलग मत रखते हैं किंतु पं. वेदव्रत शास्त्री ने शूकर क्षेत्र (सोरों) के जिला एटा स्थित रामपुर गांव के जोगमार्ग मोहल्ले में रहने वाले सनाढ्य ब्राह्मण पं. आत्माराम शुक्ल को तुलसीदासजी का पिता तथा आत्माराम शुक्ल की भार्या हुलसी को तुलसी की माता माना है।

कुछ विद्वानों के अनुसार तुलसीदासजी के पिता का नाम आत्माराम दुबे थो जो कि सरयूपायी ब्राह्मण थे। तुलसीदासजी ने कवितावली में अपने कुल को मंगन कुल लिखा है जो उनके ब्राह्मण कुल में जन्मने की पुष्टि करता है-

जायो कुल मंगन बधावनों बजायो सुनि

भयो परिताप पाप जननी जनक को।

विनय पत्रिका में उन्होंने अपने कुल को सुकुल अर्थात् अच्छा कुल लिखा है जिसका आशय भी ब्राह्मण कुल से है-

दियो सुकुल जन्म शरीर सुंदर हेतु जो फल चारि को।

जो पाई पण्डित परम पद पावत पुरारि मुरारि को।

गोस्वामी तुलसीदास का बाल्यकाल

गोस्वामीजी का बाल्यकाल अत्यंत कठिन था। माँ उन्हें जन्म देने के कुछ समय बाद ही मृत्यु को प्राप्त हुई और पिता की छाया भी जल्दी ही छिन गई। इस पीड़ा को तुलसीदासजी ने इस प्रकार व्यक्त किया है-

मातु पिता जग जाय तज्यो, बिधिहू न लिखी कछु भाल भलाई।

नीच, निरादर-भाजन, कादर, कूकर टूकन लागि ललाई।।

बाल्यकाल में पेट भरने के लिए गुर्सांजी को भीख तक मांगनी पड़ी। अपने जीवन काल की इस व्यथा को गोस्वामीजी ने इस प्रकार व्यक्त किया है-

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टूकनि को घर घर डोलत कंगाल बोलि

बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है।

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बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो

राम नाम लेत मांगि खात टूक टाक हों।

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असन बसन हीन विषम विषाद लीन

देखि दीन दूबरो करै न हाय-हाय को।

गोस्वामी तुलसीदास के गुरु

जब बालक तुलसीदास केवल आठ वर्ष के थे, तब उनकी भेंट संत नरहरि से हुई। गोस्वामीजी ने अपने गुरु को अपने शिष्य पर कृपा करके उसके अज्ञान रूपी दैत्य का वध करने वाला नरहरि (नृसिंह) बताया है। नरहरि श्रीसम्प्रदाय के संस्थापक श्रीरामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा के आचार्य रामानंद के शिष्य थे।

रामानंद के शिष्यों में नरहरि के साथ पीपा, रैदास, कबीर तथा धन्ना जैसे उस युग के अनेक विख्यात विष्णुभक्त संत थे। गुरु नरहरि ने आषाढ़ शुक्ल 15 बुधवार संवत् 1576 विक्रम से तुलसीदासजी का विद्याध्ययन प्रारंभ किया।

गोस्वामी तुलसीदास का विवाह

संवत् 1587 में बदरिया निवासी दीनबन्धु पाठक की कन्या रत्नावली से तुलसीदासजी का विवाह हुआ। चार वर्ष बाद गौना हुआ। गौने के दो वर्ष बाद कार्तिक शुक्ल 10 बुधवार को एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम तारक (तारापति) रखा गया, जो 3 वर्ष 2 माह बाद दिवंगत हो गया।

दाम्पत्य जीवन का त्याग

लोकमान्यता है कि तुलसीदासजी अपनी पत्नी पर अत्यंत अनुरक्त थे। एक बार तुलसीदासजी घर से बाहर गए हुए थे, तब उनकी अनुपस्थिति में रत्नावली अपने भाई शंभुनाथ के साथ अपने मायके (बदरिया) चली गईं जहाँ 11 दिन के लिए भगवत्-कथा का आयोजन था।

पत्नी के विरह में विह्वल तुलसीदास बरसाती नदी पार करके उसी रात ससुराल पहुंच गए। इस घटना के साथ अनेक किम्वदन्तियाँ भी जुड़ गई हैं। ऐसी ही एक किम्वदंति का उल्लेख करते हुए रानी कमलकुंवरी देव ने ‘गोस्वामी तुलसीदासजी का काव्य और जीवन चरित’ में लिखा है-

बनिता से अति प्रेम लगायो। नैहर गई सोच उर छायो।।

सुरसरि पार गए घबराई। एक मुर्दा की नाव बनाई।।

अपने पति को ऐसी स्थिति में, इतनी व्यग्रता के साथ, भीषण वर्षा एवं रात्रिकाल में आया देखकर रत्नावली को बड़ी ग्लानि हुई। उन्होंने रूखे स्वर में तुलसीदासजी को फटकार लगाते हुए स्त्री से प्रेम करने के स्थान पर भगवान से प्रेम करने की बात कही। श्री भक्तमाल सटीक एवं भक्ति सुधास्वाद तिलक में लिखा है-

काम वाम की प्रीति जग, नित नित होत पुरान।

राम प्रीति नित ही नई, वेद पुरान प्रमान।।

लाज न लागत आपको, दौरे आयहु साथ।

धिक् धिक् ऐसे प्रीति को, कहा कहौं मैं नाथ।।

अस्थि चर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीति।

तैसी जौ श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति।।

पत्नी की इस फटकार का तुलसी के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे मानो गहरी नींद से जागे और उनकी मनोदशा पलट गयी। वे मन ही मन आजीवन प्रभु-भक्ति का व्रत लेकर उलटे पाँव अपने घर लौट आए। वे वैरागी हो गए और उन्होंने दाम्पत्य जीवन तथा घर-गृहस्थी का त्याग करके वैराग्य धारण कर लिया। वेणी माधवदास ने ‘मूल गुसाई चरित’ में और रघुबरदास ने ‘तुलसी चरित’ में इस वृत्तांत का उल्लेख किया है।

तुलसीदासजी के वैरागी होने की घटना संवत् 1604 की बताई जाती है। उस समय रत्नावली की उम्र 27 वर्ष थी। रत्नावली ने तुलसीदासजी को मनाने एवं उनका रोष शांत करने के बहुत प्रयास किए किंतु तुलसी अब रामप्रेम के पथ पर पैर धर चुके थे तथा पीछे नहीं मुड़ना चाहते थे। उन्होंने घर लौटने से मना कर दिया।

वैरागी होने के सम्बन्ध में संभवतः उन्होंने अपने गुरु से मार्गदर्शन भी प्राप्त किया। तुलसी बाबा रामचरित मानस में लिखते हैं-

एहि विधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पंकज धूरी।

रामभक्ति

गोस्वामी तुलसीदास ने दास्यभाव की भक्ति की। उन्होंने भगवान राम को अपना स्वामी तथा स्वयं को उनका सेवक माना-

तुलसी सरनाम गुलामु है राम को।

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राम सों बड़ो है कौन, मो सों कौन छोटो

राम सों खरो है कौन, मो सों कौन खोटो।

सूरदासजी से भेंट

नन्ददास तुलसी के छोटे चचेरे भाई थे, जो अष्टसखा में परिगणित हुए। उनके माध्यम से तुलसीदासजी की मथुरा के निकट पारसौली ग्राम में सूरदासजी से भेंट हुई। यहीं गोस्वामीजी ने ‘कृष्ण गीतावली’ लिखी।

तीर्थयात्रा

तुलसीदासजी ने अनेक तीर्थों की यात्रा की तथा अनेक संतों से भेंट की। मान्यता है कि राजवी अहीर जो बाद में राजा साधु के नाम से विख्यात हुआ, की प्रेरणा से तुलसीदासजी ने राजापुर गांव बसाया।

रामचरित मानस की रचना

संवत् 1620 में तुलसीदासजी ने काशी में जाकर निवास किया। यहाँ वे संवत् 1628 तक रामकथा से सम्बन्धित छन्दों की रचना करते रहे। चैत्र शुक्ला नवमी संवत् 1631 मंगलवार को उन्होंने रामकथा को ‘रामचरितमानस’ के रूप में क्रमबद्ध लिखना आरम्भ किया। रामचरित मानस में गोस्वामीजी ने लिखा है-

संवत सोरह सै एकतीसा। करउं कथा हरि पद धरि सीसा।।

नौमी भौम बार मुधमासा। अवध पुरी यह चरित प्रकासा।।

मान्यता है कि उसी वर्ष ज्येष्ठ कृष्णा 6 को यह ग्रंथ पूर्ण हुआ। रामचरित मानस जैसे विशाल ग्रंथ के लेखन के लिए ढाई-तीन माह की अवधि बहुत कम लगती है, अवश्य ही इस कार्य में अधिक समय लगा होगा।

उस समय समाज में यह धारणा फैली हुई थी कि उत्तम धार्मिक ग्रन्थों की रचना देववाणी अर्थात संस्कृत में ही की जानी चाहिए। तुलसीदासजी ने धारणा को स्वीकार नहीं किया। उनके अनुसार लोकभाषा में लिखी गई रचना ही जन-जन तक पहुंच सकती है, अन्यथा वह शिक्षित वर्ग तक ही सीमित रह जाती है। इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है-

का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच।

काम जु आवै कामरी, का लै करीअ कुमाच।

विनय पत्रिका एवं पार्वती मंगल आदि की रचना

तुलसीदासजी ने अयोध्या, काशी एवं प्रयाग में रहते हुए विनय पत्रिका और पार्वती मंगल आदि ग्रंथों की रचना की।

हनुमान बाहुक की रचना

काशीवास के दिनों में तुलसीदासजी की बांह में बालतोड़ की भयंकर पीड़ा हुई। बाहुपीड़ा की शान्ति के लिए उन्होंने हनुमान बाहुक लिखा। यह घटना संवत् 1664 की है।

रामचरित मानस पर विवाद

रामचरित मानस की लोकप्रियता के कारण परम्परावादी आचार्यों और पण्डितों के मन में तुलसी के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न हुआ। वे दल बाँधकर रामचरित मानस की निन्दा करने लगे तथा उसे नष्ट करने का प्रयास करने लगे। अपने कुचक्रों को तुलसी पर सफल न होते देखकर पण्डितों ने सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री मधुसूदन सरस्वती से कहा कि तुलसी के रामचरितमानस को पढ़कर उस पर अपनी सम्मति दें।

मधुसूदन सरस्वती ने उस पर अपने हाथों से लिखा-

आनन्दकानने कश्चिज्जंमस्तुलसी तरुः।

कविता मंजरी भाति रामभ्रमर भूषिता।।

अर्थात- रामचरितमानस रूपी आनन्दवन में तुलसी रूपी एक चलने-फिरने वाला पौधा है जिसकी कविता रूपी मंजरी राम रूपी भँवरे से सुशोभित है।

काशिराज महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायाणसिंह ने इस श्लोक का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार किया है-

तुलसी जंगम तरु लसै, आनंद कानन खेत।

कविता जाकी मंजरी, राम भ्रमर रस लेत।।

आज भी बहुत से क्षुद्र बुद्धि लोग रामचरित मानस के मूल भावों को न समझकर बौद्धिक वितण्डा खड़ा करते हैं तथा अनावश्यक आलोचना करने से नहीं चूकते।

उपेक्षा एवं उपहास

बहुत से समाजकंटक तुलसीदासजी की प्रतिभा एवं प्रसिद्धि को देखकर ईर्ष्या करते थे। इस कारण वे तुलसीदासजी को उपेक्षित और अपमानित करते तथा उनका उपहास करते। गोस्वामीजी उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करते थे। इस सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-

कासों कीजे रोषु, दोषु दीजे काहि, पाहि राम।

जो लोग तुलसीदासजी का उपहास करते थे, उन्हें उत्तर देते हुए वे कवितावली में कहते हैं-

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।

काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।

तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचौ सो कहै कछु ओऊ।

मांगिके खइबो, मसीत को सोइबो। लैबे को एक न दैबे को दोऊ।।

तुलसीदास ने बाल्यकाल में माता-पिता से अलग होकर कष्ट पाया, किशोरावस्था में गुरुकृपा से शिक्षा पाई तथा युवावस्था में गृहस्थी छोड़कर राम गुण गाया। वे अपने जीवन से तथा रामभक्ति के मार्ग से अत्यंत संतुष्ट थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है-

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु,

जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु।

गोस्वामी तुलसीदास का निधन

संवत् 1680 (ई.1623) में श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन काशी के असी घाट पर तुलसीदासजी की देह छूटी। यदि उनका जन्मवर्ष संवत् 1568 विक्रम (ई.1511) में स्वीकार किया जाए तो उनकी आयु 112 वर्ष बैठती है किंतु उनकी आयु के सम्बन्ध में यह कहावत भी कही जाती है- ‘पांच बीस अरु बीस।’ अर्थात् गोस्वामीजी ने 120 वर्ष की दीर्घायु प्राप्त की।

केवल कवि नहीं, लोकनायक भी

भारतीय भाषाओं के सुप्रसिद्ध विद्वान जॉर्ज ग्रियर्सन ने तुलसीदास को केवल कवि न मानकर ‘लोकनायक’ माना है। उनकी दृष्टि में तुलसी दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीति और कूटनीति में पूर्ण निष्णात थे। लोकनायक की भूमिका में गोस्वामीजी के योगदान को समझने के लिये उनके युग और तत्कालीन परिस्थितियों पर विचार करना आवश्यक है।

जब किसी काव्य-कृति में कालजयी रचना होने के तत्व दिखाई देते हैं तो लोग कहते हैं ईश्वर करे, इस रचना को रामकथा की उम्र प्राप्त हो। इस कहावत से समझा जा सकता है कि तुलसी का काव्य कालजयी है। समय के सोपान तुलसी की कीर्ति में अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकेंगे।

 तुलसी एवं उनके काव्य का मूल्यांकन करते हुए बेनी कवि ने लिखा है-

भारी भवसागर उतारतो कवन पार

जो पै यह रामायन तुलसी न गावतो।

रत्नावली की पीड़ा

तुलसीदासजी की पत्नी रत्नावली ने कभी नहीं चाहा होगा कि उनके जीवन में ऐसी घटना घटे कि उन्हें अपने पति से अलग होकर जीवन व्यतीत करना पड़े किंतु उन्हीं के मुख से निकले शब्दों से आहत होकर तुलसीदासजी ने गृहत्याग किया था।

तुलसीदासजी की तरह रत्नावली ने भी अपनी शेष आयु ईश्वरोपासना, काव्य रचना, स्त्री-शिक्षा आदि कामों में व्यतीत की। अपने शब्दों की तीव्रता के लिए रत्नावली को आजीवन दुःख रहा।

संवत् 1651 में 74 वर्ष की आयु पाकर रत्नावली ने साकेत धाम के लिए प्रयाण किया। रत्नावली ने अपने लिखे एक पद में अपने मन की पीड़ा को इस प्रकार व्यक्त किया है-

प्रियतम नाथ बेगि घर आओ।

तव वियोग दावानल तापित मम उर आय सिरावौ ।।

तनक होत दुख कबहुं मोर तन, तुम अति होत दुखारी।

करत विविध उपचार हरत दुख रहे सदा सहचारी।।

केतिक रैनि दिवस अब बीते, हों दुख पावति भारी।

अस कस निठुर भये निरमोही, तुम निज बानि बिसारी।।

छमहु दोष अज्ञात ज्ञात सब, मोहि आपनी जानी।

तजहु रोष उर द्रवहु दया करि, निज पद दासी मानी।।

जीवनधन तुम सरबस मेरे, जग इक आस तिहारी।

मो रत्नावली उभय लोक गति, पति तुम ही दुख हारी।।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

प्रथम सिद्ध सरहपाद

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प्रथम सिद्ध सरहपाद - bharatkaitihas.com
प्रथम सिद्ध सरहपाद

चौरासी सिद्धों की परम्परा में हुए प्रथम सिद्ध सरहपाद ने भारत के साहित्य, दर्शन एवं अध्यात्म को गहराई तक प्रभावित किया किंतु दुर्भाग्य से देश पर विदेशियों के शासन काल में उनका साहित्य कई शताब्दियों के लिए गुमनामी के अंधेरे में चला गया। इस कारण भारत के लोग सरहपाद के बारे में भूल गए।

हीनयान-महायान

छठी शताब्दी ईस्वी में जब कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य और मण्डन मिश्र आदि वेदांतियों ने बौद्धधर्म में फैली कुरीतियों पर आघात किया तो बौद्धधर्म दो भागों में बंट गया जिन्हें ‘हीनयान’ और ‘महायान’ कहा जाता है। हीनयान बौद्धधर्म का चिन्तन पक्ष या सैद्धान्तिक पक्ष था और महायान व्यावहारिक पक्ष। महायान का और भी आगे विभाजन हुआ तथा उसमें व्रजयान एवं सहजयान आदि मत उत्पन्न हो गए।

सिद्धों का उद्भव

महायान में बौद्ध दर्शन एवं उसके साधना पक्ष को लेकर नवीन धारणाएं अपनाने की छूट थी। कुछ बौद्ध भिक्षुओं ने करुणा पर अडिग रहते हुए, मठ का जीवन त्यागकर, सरल साधना का मार्ग अपनाया और यहीं से वे तंत्र और अभिचार की ओर मुड़े। कुछ बौद्ध भिक्षुओं ने सिद्धि प्राप्त करने के लिए साधाना में नए-नए प्रयोग किए। इन्हीं में से कुछ साधक सिद्ध कहलाए। सिद्धों की इस परम्परा में कुल चौरासी सिद्ध हुए।

 प्रथम सिद्ध सरहपाद  

राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों में से दस को सर्वाधिक प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण माना है जिनमें सरहपाद सर्वप्रथम हैं। उनका समय आठवीं शताब्दी ईस्वी माना जाता है। सरहपाद के आविर्भाव के समय बौद्धधर्म में तंत्र-मंत्र आदि कुरीतियों का बोलबाला था। इन कुरीतियों और दार्शनिक अन्तर्द्वन्द्व की पृठभूमि में सिद्धों का पदार्पण हुआ। सरहपाद के दर्शन ने कई शताब्दियों तक न केवल बौद्धधर्म को अपितु हिन्दू धर्म को भी प्रभावित किया।

सरहपाद का जीवन काल

डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य ने सरहपा का समय संवत् 690 (ई.633) निर्धारित किया है। राहुल सांकृत्यायन ने उनका जन्म सं. 750 (ई.693) में होना माना है। इस आधार पर डॉ. रामप्रसाद सिंह ने सरहपा का निधन ई.780 के आसपास होना माना है। कुछ विद्वान सरहपा की आयु सौ साल मानकर उनका जन्म ई.680 में और मृत्यु 780 में अनुमानित करते हैं। मगधराज धर्मपाल (शासनकाल ई.770-810) सरहपा का समकालीन था जिसने बड़ी संख्या में बौद्ध मठ एवं विहार बनवाए थे तथा विक्रमशिला का विश्वप्रसिद्ध बौद्ध विश्वविद्यालय बनवाया था। 

 प्रथम सिद्ध सरहपाद का वास्तविक नाम

सरहपाद के बचपन का नाम सरोज था। जब उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्धधर्म स्वीकार किया तब उनका नाम राहुलभद्र रखा गया। जब उन्होंने बौद्धधर्म के अंतर्गत वज्रयान की दीक्षा ली तो उन्हें सरोजवज्र नाम दिया गया। जब सरहपाद ने बौद्धधर्म एवं वज्रयान छोड़कर गृहस्थ जीवन अपना लिया और गृहस्थी पालने के लिए सरकण्डे के सरह (बाण) बनाने का काम आरम्भ तब उन्होंने अपना नाम सरह रख लिया।

उनके शिष्यों ने सरह के साथ आदर-सूचक शब्द ‘पाद’ जोड़ दिया जिससे वे सरहपाद हो गए। यही नाम आगे चलकर सरहपा हो गया। अपने जीवन काल के अंतिम भाग में वे इसी नाम से जाने जाते थे।

पारिवारिक पृष्ठभूमि

 प्रथम सिद्ध सरहपाद सरहपा का जन्म बिहार राज्य के भागलपुर अनुमंडल के राज्ञी कस्बे के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे शैशव अवस्था से ही तीव्र बुद्धि के थे। उन्होंने प्रबुद्ध ब्राह्मण परिवार और ब्राह्मणी व्यवस्था में रहकर घर में ही वेद, पुराण, उपनिषद्, गीता, रामायण, महाभारत, व्याकरण एवं विविध संस्कृत साहित्य अध्ययन किया।

विवाह

जब सरोज वयस्क हुए तो उनका मन ब्राह्मण धर्म की रूढ़ियों और परम्पराओं से विचलित होने लगा। यह देखकर उनके माता-पिता ने एक ब्राह्मण कन्या से उनका विवाह कर दिया परन्तु सरोज का मन परिवार में नहीं रम सका।

गृहत्याग

एक दिन सरोज नदी के किनारे भ्रमण कर रहे थे। वहाँ उनका ध्यान सहज रूप से विकसित होती हुई प्रकृति की ओर गया। उन्होंने देखा कि मनुष्य को छोड़कर प्रकृति की किसी भी रचना पर किसी भी बाह्य व्यवस्था का अथवा कृत्रिमता का नियंत्रण नहीं है। प्रकृति की प्रत्येक रचना सहज रूप में विकसित होती है। इस चिंतन के कारण सरोज ने सहज जीवन की खोज करने का निश्चय किया तथा गृहस्थी से विरक्ति अनुभव की। उन्होंने गृहत्याग कर दिया और वे जीवन के सहज स्वरूप की खोज में इधर-उधर भटकने लगे।

बौद्ध गुरु की शरण में

कुछ दिनों तक इधर-उधर घूमने के बाद सरोज नालंदा पहुँचे जहाँ उन्होंने बुद्ध की करुणा सम्बन्धी शिक्षा से प्रभावित होकर बौद्धधर्म के शास्त्र पढ़ने को लिए नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने का निश्चय किया। नालंदा विश्वविद्यालय में उनकी द्वार-परीक्षा हुई जिसमें वे उत्तीर्ण हो गए।

सरोज ने अपना परम्परागत गृहस्थ-वेश त्यागकर चीवर धारण कर लिया। यहाँ उन्हें भिक्खु राहुलभद्र कहा गया। वे बौद्ध भिक्षु हरिभद्र के शिष्य बन गए। हरिभद्र प्रसिद्ध बौद्ध-आचार्य शांतरक्षित के शिष्य थे। राहुलभद्र अपने आचार्य हरिभद्र से अत्यधिक प्रभावित हुए।

नालंदा में अध्यापन

राहुलभद्र अपनी पारिवारिक शिक्षण परम्परा के कारण वेदों, पुराणों एवं उपनिषदों के ज्ञाता थे। बौद्ध गुरुओं की शिक्षा से राहुलभद्र बौद्धधर्म के विद्वान बन गए और अध्ययन पूर्ण होने पर नालंदा विश्वविद्यालय में ही शिक्षक नियुक्त हो गए। नालंदा में उनका सम्पर्क नागार्जुन, शान्तरक्षित और दिङ्नाग जैसे उद्भट बौद्ध विद्वानों से हुआ।

काव्य रचना

अध्यापनकाल में राहुलभद्र ने कविताएं लिखना आरम्भ किया। उन्होंने संस्कृत भाषा के साथ-साथ अपभ्रंश एवं मागधी (मगही) में भी कविताएं लिखीं। उन्होंने बौद्धधर्म का प्रचार करने के लिए मागधी भाषा को चुना। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उन्हें पुरानी हिन्दी का पहला कवि माना जाता है।

नालंदा का त्याग

कुछ समय बाद राहुलभद्र को बौद्ध दर्शन की अनिवार्यताएं खलने लगीं। उन्हें लगा कि बौद्धधर्म की भिक्षु जीवन शैली, स्त्री सम्पर्क से निषेध, मठ अथवा विहार में निवास एवं चीवर धारण करने जैसी अनिवार्यताएं मानव के सहज जीवन के विकास में अवरोधक है। इस कारण राहुलभद्र ने नालंदा विश्वविद्यालय छोड़ दिया और फिर से भटकने लगे।

सरहकन्या से विवाह

राहुलभद्र कई दिनों तक इधर-उधर विचरण करते हुए राजगृह नामक नगर में ऐसे स्थान पर पहुँचे, जहाँ कुछ लोग सरकंडों से बाण बनाते थे। राहुलभद्र ने देखा कि ये लोग प्रकृति के सुन्दरतम स्थान में रहकर सहज रूप से अपने-अपने कर्म में लगे हैं।

उन्होंने सरहकन्या नामक एक सुन्दर किशोरी को भी देखा जो तरुणाई में ही योगिनी के रूप में अपना जीवन सहज रूप से व्यतीत कर रही थी। राहुलभद्र सरहकन्या पर मोहित हो गए और उससे विवाह करके उसके साथ रहने लगे। राहुलभद्र ने गृहस्थी चलाने के लिए सरह (बाण) बनाने का काम आरंभ कर दिया। उन्होंने अपने बौद्ध नाम का त्याग कर दिया तथा अपना नाम ‘सरह’ रख लिया।

सहज जीवन जीने के उपदेश

राजगृह में रहकर सरह लोगों को अपना सहज कर्म करने तथा सहज जीवन जीने की शिक्षा देने लगे। धीरे-धीरे बड़ी संख्या में लोग उनके शिष्य बन गए। उनके शिष्यों ने सरह को श्रद्धा एवं विनय से सरहपाद कहना आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे वे सहरपा कहलाने लगे।

सहजयान का उदय

सरहपा इस काल तक बहुज्ञ और बहुश्रुत हो गए थे। वे बौद्धधर्म की वज्रयान शाखा में दीक्षित हुए थे किंतु उनके सिद्धांत न तो बौद्ध मत से मेल खाते थे और न व्रजयान से। इसलिए उनके द्वारा दिए जा रहे उपदेशों को सहजयान कहा जाने लगा।

भारत भ्रमण

सरहपा किसी एक स्थान पर नहीं टिक सकते थे। इसलिए कुछ समय बाद उन्होंने राजगृह का त्याग कर दिया और अपनी पत्नी सरहकन्या के साथ देश का भ्रमण करने लगे। वे तपोवन होते हुए बोधगया पहुँचे। वहाँ कुछ दिन ठहर कर दक्षिण की तरफ यात्रा करते हुए विदिशा पहुँचे। श्रीपर्वत पर उनकी भेंट बौद्ध विद्वान नागार्जुन से हुई।

जब सरहपा जनसाधारण को सहजयान का उपदेश देते हुए भारत भ्रमण करने लगे तो उनके शिष्यों की संख्या में तेजी से वृद्धि होने लगी। तदन्तर वे विंध्याचल पहुँचे। यहाँ उन्होंने बड़ी संख्या में पशुबलि होते हुए देखी। सरहपा ने  पशुबलि का प्रबल विरोध किया। पहले तो लोग उनसे सहमत नहीं हुए किंतु धीरे-धीरे उनकी बात मान गए।

इसके बाद सरहपा फिर से उत्तर भारत लौट आए तथा प्रयाग पहुँचे। जब वे प्रयाग में जनसाधारण के बीच घूम-घूम कर सहजयान के उपदेश देने लगे तो अन्य धर्मावलम्बियों ने उनका विरोध किया। कई बार मारपीट की स्थिति उत्पन्न हो गई। फिर भी सरहपा ने उनके प्रति करुण भाव रखकर उन्हें सहज मार्ग पर चलने का उपदेश दिया।

विभिन्न धर्मों के मठाधीश भले ही सहरपा का विरोध कर रहे थे किंतु जनसाधारण को उनकी बातें समझ में आ रही थीं। इसलिए प्रयाग में भी लोग बड़ी संख्या में उनके शिष्य हो गए। इसके बाद सरहपा ने काशी में ब्राह्मण धर्मावलम्बियों के आडम्बरों का घोर विरोध किया और गंगाजी के किनारे निर्जन स्थान पर बैठकर चौदह दिनों तक साधना की। यहाँ से वे रामधाम साकेत गये और सरयू नदी के किनारे पर रहने वाले कुछ साधु-संतों को नैरात्म-करुणा का रहस्य बताया।

सरहपा ने वृन्दावन पहुंचकर नैरात्मक करुणा के उपदेश दिए। इसके पश्चात् वे हिमालय की तराई में पहुंचकर कुछ दिन रुके। अंत में उन्होंने अपनी यात्रा को विराम देने का निश्चय किया। वे पुनः राजगृह पहुंचे और वहीं पर उन्होंने अपना स्थाई निवास बना लिया।

सरहपाद का साहित्य

डॉ. रामकुमार वर्मा ने  प्रथम सिद्ध सरहपाद को हिन्दी का प्रथम कवि माना है। इनकी रचनाओं का प्रभाव उस काल के हिन्दी साहित्य की परम्परा पर पड़ा है। राहुल सांकृत्यायन ने 32 ग्रंथों की चर्चा की है जो सरहपाद के नाम से मिलते हैं।

सरहपाद ने एक दार्शनिक एवं चिंतक के रूप में देश, धर्म एवं समाज के समक्ष नवीन आदर्श प्रस्तुत किया तथा भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में नई क्रांति को जन्म दिया। उनमें उपनिषदों की करुणा तथा बुद्ध की मध्यम जीवन पद्धति का मिश्रण था। उन्हीं का अनुकरण करके नाथों एवं कबीरपंथियों ने अपना काव्य रचा।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

सरहपा का साहित्य

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सरहपा का साहित्य

सरहपा का साहित्य सातवीं-आठवीं शताब्दी ईस्वी के भारत में भाषा, साहित्य एवं दर्शन की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। उन्हें हिन्दी सहित अनेक भाषाओं के प्रथम कवि के रूप में सम्मान दिया जाता है। उन्होंने लम्बी आयु पाई तथा भारत भ्रमण करते हुए भी विपुल साहित्य की रचना की।

सरहपा को सरहपाद भी कहा जाता है। उनके साहित्य के बारे में जानने से पहले हमें हिन्दी भाषा एवं साहित्य के उद्भव पर किंचित् दृष्टिपात करना चाहिए।

हिन्दी भाषा का जन्म

हिन्दी भाषा का विकास क्रम संस्कृत भाषा से आरम्भ होता है। इस भाषा में उपलब्ध प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद है जिसकी रचना ई.पू.4000 के लगभग अर्थात् आज से लगभग 6000 साल पहले हुई। कुछ लोग ऋग्वेद को और भी पुराना मानते हैं।

संस्कृत के उद्भव के कई हजार साल बाद ई.पू. 500 के आसपास मगध क्षेत्र में रहने वाले आर्यों में जनभाषा के रूप में पालि भाषा विकसित हुई। इसके बाद पूरे पांच सौ साल तक शिक्षित वर्ग में संस्कृत भाषा तथा जनसाधारण में पालि भाषा का प्रचलन रहा।

ईसा की प्रथम शताब्दी में जनसाधारण वर्ग में प्राकृत भाषा प्रचलन में आई। इसके बाद अगले लगभग एक हजार साल तक शिक्षित वर्ग में संस्कृत तथा जनसाधारण में पालि एवं प्राकृत भाषाओं का प्रचलन रहा। इस काल में ग्रंथों की रचना संस्कृत, प्राकृत एवं पालि तीनों भाषाओं में हुई। ब्राह्मणों ने संस्कृत को, बौद्धों ने पालि को एवं जैनों ने प्राकृत भाषा को अपनाया।

प्राकृत भाषा को लोक में अधिक ख्याति मिली। प्राकृत से ‘अपभ्रंश’ भाषा विकसित हुई। धीरे-धीरे अपभ्रंश के कई रूप बनने लगे जिनमें से एक रूप को ‘अवहट्ट’ कहा जाता था। ‘अवहट्ट’ को अपभ्रंश की अंतिम अवस्था कहा जाता है। इसी अवहट्ट से हिन्दी भाषा एवं अनेक देशी भाषाओं का विकास हुआ। डॉ. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने अवहट्ट को ‘पुरानी हिन्दी’ कहकर सम्मान दिया है।

ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दियों में प्राकृत की अपभ्रंश अवस्था ‘अवहट्ट’ एवं संस्कृत भाषा के मिश्रण से हिन्दी भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ। डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिन्दी साहित्य के इस काल को ‘संधि काल’ कहा है।

इस काल में संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में लिखे गए साहित्य और लोक में प्रचलित ‘अवहट्ट’ का मिश्रण हुआ। इस काल में सिद्धों ने अपभ्रंश की रूढ़ साहित्यि शैली में जनभाषा ‘अवहट्ट’ का मिश्रण करके काव्य रचना की।

सिद्ध कवियों का उद्भव

सिद्ध कवियों का उद्भव बौद्ध-धर्म की एक नवीन शाखा के रूप में सातवीं-आठवीं शताब्दी ईस्वी में हुआ। सिद्धों की कुल संख्या चौरासी है। राहुल सांकृत्यायन ने इनमें से दस सिद्धों को सर्वाधिक प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण माना है जिनमें सरहपाद सर्वप्रथम हैं।

सिद्ध साहित्य का काल

सिद्ध साहित्य का काल वि.सं. 750 (ई.693) से आरम्भ होना माना जाता है। सिद्धों की कुल संख्या चौरासी है। इनमें से अनेक सिद्ध काव्य-रचना करने में समर्थ हुए। सिद्धों के आविर्भाव के समय बौद्ध धर्म में तंत्र-मंत्र आदि कुरीतियों का बोलबाला था।

चूंकि इन कुरीतियों और दार्शनिक अन्तर्द्वन्द्व की पृठभूमि में सिद्धों का पदार्पण हुआ था इसलिए सिद्धों ने ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म एवं पाशुपत धर्म में प्रचलित आडम्बरों एवं कुरीतियों का विरोध करके भारत के लोगों को सहज जीवन जीने का उपदेश दिया। सिद्धों के दर्शन ने कई शताब्दियों तक मागधी (मगही) वाङ्मय एवं हिन्दी वाङ्मय को प्रभावित किया।

सिद्ध साहित्य का विलोपन

बारहवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक भारत पर विदेशियों का शासन रहा। इस कारण भारत के प्राचीन ग्रंथ विलुप्त हो गए। इसी काल में सिद्धों की परम्परा भी विलुप्त हो गई और लोग उनके तथा उनकी रचनाओं के बारे में बिल्कुल भूल गए।

सरहपा का साहित्य भी भुला दिया गया। भारत में भले ही वे भुला दिए गए किंतु नेपाल, भूटान और तिब्बत में वे महात्मा बुद्ध की ही तरह श्रद्धा से याद रखे गए।

सिद्ध साहित्य की खोज

सिद्धों के साहित्य को सर्वप्रथम उजागर करने का श्रेय महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री को है। ई.1907 में उन्हें नेपाल दरबार पुस्तकालय से सिद्धों के पचास पदों का एक संग्रह मिला जिसे उन्होंने बंगीय साहित्य परिषद् कलकत्ता द्वारा ‘बोध गान ओ दोहा’ शीर्षक से प्रकाशित कराया।

इनके बाद प्रबोधचन्द बागची ने कलकत्ता संस्कृत सीरीज के ‘दोहा- कोश’ में कुछ सिद्धों की रचनाएँ प्रकाशित कराईं। शशिभूषण दासगुप्ता ने ‘ऑब्सक्योर रिलीजियस कल्ट्स’ में सिद्धों का परिचय दिया।

सिद्धों को पूर्ण प्रकाश में लाने का कार्य राहुल सांकृत्यायन ने किया। वे भूटान और तिब्बत से सिद्ध साहित्य के ग्रंथ खच्चरों पर लादकर भारत लाये। इन्हीं ग्रंथों से धर्मवीर भारती ने ‘सिद्ध साहित्य’ और मंगलबिहारी शरण सिन्हा ने ‘सिद्धों की सांध्य भाषा’ पुस्तक लिखी। रामचन्द्र शुक्ल और डॉ. रामकुमार वर्मा ने भी सिद्धों की रचनाओं पर प्रकाश डाला।

सरहपाद (सरहपा)

मगही साहित्य के लेखक भारतेन्दु डॉ. रामप्रसाद सिंह ने अपने मगही भाषा के खण्ड काव्य ‘सरहपाद’ में सरहपा के जीवनवृत्त का सविस्तार वर्णन किया। तभी सरहपा का साहित्य प्रकाश में आ सका तथा यह ज्ञात हो सका कि सिद्ध कवियों में सबसे महत्वपूर्ण और प्रथम नाम सरहपा अथवा सरहपाद का है जिन्होंने अर्द्धमागधी अपभ्रंश भाषा में जन-रुचियों के आलोक में काव्य रचनाएँ लिखीं।

सरहपाद का जीवन काल

डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य ने सरहपा का समय संवत् 690 (ई.633) निर्धारित किया है। राहुल सांकृत्यायन ने उनका जन्म सं. 750 (ई.693) में होना माना है। इस आधार पर डॉ. रामप्रसाद सिंह ने सरहपा का निधन ई.780 के आसपा होना माना है। कुछ विद्वान सरहपा की आयु सौ साल मानकर उनका जन्म ई.680 में और मृत्यु 780 में अनुमानित करते हैं। यही समय सरहपा के समकालीन मगधराज धर्मपाल का भी है।

सरहपा मूलतः वैदिक धर्म का पालन करने वाले विद्वान ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुए थे। इस कारण उन्होंने वेदों, उपनिषदों सहित उस काल में विख्यात अनेक संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन किया था किंतु बाद में वे अपना परिवार एवं ब्राह्मण धर्म दोनों का त्याग करके बौद्ध हो गए तथा उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया।

इसलिए स्वाभाविक ही था कि उनके साहित्य पर ब्राह्मण धर्म एवं बौद्ध धर्म के दर्शन का प्रभाव होता। चूंकि सरहपा न तो ब्राह्मण धर्म से संतुष्ट थे और न बौद्ध धर्म के दर्शन से, इसलिए उन्होंने एक नवीन दर्शन का प्रतिपादन किया जिसे सहज दर्शन अथवा सहजयान कहा जाता है।

काव्य रचना

सरहपा का साहित्य मुख्यतः कविता के रूप में उपलब्ध है। माना जाता है कि जब सरहपा नालंदा में अध्यापन कर रहे थे, उसी काल में उन्होंने कविताएं लिखना आरम्भ किया। उन्होंने संस्कृत भाषा के साथ-साथ अपभ्रंश एवं मागधी (मगही) में भी कविताएं लिखीं।

उन्होंने अपने सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए मागधी भाषा को चुना। शिवसिंह सेंगर, राहुल सांकृत्यायन, गणपतिचंद्र गुप्त एवं नंददुलारे वाजपेयी आदि विद्वानों ने सरहपा को हिन्दी भाषा का प्रथम कवि माना है।

सरहपा का साहित्य

डॉ. रामकुमार वर्मा ने सरहपाद को हिन्दी का प्रथम कवि माना है। सरहपा का साहित्य देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका उद्देश्य कविता लिखना नहीं था, कविता तो केवल एक माध्यम भर था जिसमें वे प्रभावी ढंग से अपनी बात कह सकें।

फिर भी उनकी कविता इतनी प्रभावशाली थी कि उनकी रचनाओं का प्रभाव न केवल उस काल के हिन्दी साहित्य पर पड़ा, अपितु सरहपा के लगभग 700 साल बाद हुए कबीर की कविता पर भी उसका प्रभाव देखा जा कता है।

राहुल सांकृत्यायन ने 32 ग्रंथों की चर्चा की है जो सरहपाद के नाम से मिलते हैं। सरहपा ने अपने ग्रंथों की रचना संस्कृत, अपभ्रंश एवं मागधी भाषाओं में की थी। उनके कुछ ग्रंथ मूल हिन्दी, संस्कृत अथवा मागधी भाषाओं में नहीं मिल सके हैं अपितु तिब्बती भाषा में उपलब्ध हुए हैं। सरहपा का साहित्य कोश बहुत समृद्ध है।

सरहपा के नाम से मिलने वाले कुछ ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं-

1. कखस्यदोहानाम, 2. कखदोहाटिप्पण, 3. कायकोशामृतबज्रगीति, 4. कायवाकचित्तामनसिकारनाम, 5. चित्तकोषाजबज्रगीति 6. तत्त्वोपदेशशिखरदोहागीति, 7. दोहाकोशगीति, 8. दोहाकोशनामचर्यागीति, 9. दोहाकोशोपदेशगीतिनाम, 10. दोहाकोशनाममहामुद्रोपदेश, 11. द्बादशोपदेशगाथा, 12. भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीति, 13. बसन्ततिलकदोहा्कोषगीतिकानाम 14. भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीतिकानाम, 15. महामुद्रोपदेशवज्रगुह्यगीति, 16. वाक्कोसारुचिरस्वरबज्रगीति, 17. श्रीबुद्धकपालतन्त्रपंजिका, 18. श्रीबुद्धकपालमण्डलबिद्धिक्रम प्रद्योत्ननामा, 19. श्रीबुद्धकपालसाधनानाम, 20. स्वाधिष्ठानाक्रम, 21. सर्वभूतबलिबिद्धि, 22. त्रैलोकवशंकरलोकेश्वरसादन।

संत परम्परा का प्रथम ग्रंथ दोहागीतिकोष

सरहपा द्वारा रचित दोहागीतिकोष को हिन्दी सन्त साहित्य परम्परा का ‘आदि ग्रन्थ’ माना जा सकता है। इस ग्रंथ के कुछ दोहे इस प्रकार हैं-

जिवँ लोणु विलिज्जइ पाणियहिं तिवँ जइ चित्तु विलाइ।

अप्पा दीसइ परहिं सवुँ तत्थ समाहिए काइँ।।

अर्थात्- जिस प्रकार नमक पानी में विलीन होता है, वैसे चित्त आत्मा में विलीन हो जाता है। तब आत्मा, परमात्मा समान दिखती है, फिर समाधि क्यों करें?

जोवइ चित्तुण-याणइ बम्हहँ अवरु कों विज्जइ पुच्छइ अम्हहँ।

णावँहिं सण्ण-असण्ण-पआरा पुणु परमत्थें एक्काआरा।।

अर्थात्- चित्त ब्रह्म को देखता है पर उसे जानता नहीं है। चित्त हमसे पूछता है कि दूसरा कौन है? नाम देने से संज्ञा एवं जड़ पृथक हो जाते हैं, परंतु परमार्थ से वे एकाकार हैं।

खाअंत-पीअंतें सुरउ रमंतें अरिउल-बहलहो चक्कु फिरंतें ।

एवंहिं सिद्धु जाइ परलोअहो मत्थएं पाउ देवि भू-लोअहो ।।

अर्थात्- खाता-पीता, रति करता, शत्रुओं के बहुसंख्यों के बीच चक्र फिराता। ऐसे ही सिद्ध भूलोक के मस्तक पर पाँव रखकर परलोक जाता है।

सरहपाद अधिकतर नालंदा, राजगृह और विक्रमशिला में रहे। अतः उनके काव्य की भाषा उस काल में इन स्थानों में बोली जाने वाली अर्धमागधी (मगही) अपभ्रंश है जिसे ‘संधा’ भाषा भी कहा गया है।

सिद्धों ने जिस मगही भाषा का प्रयोग किया था, वह किंचित् परिवर्तन से आज भी वर्तमान है। डॉ. सम्पति अर्याणी ने सरहपाद के दोहे को वर्तमान मगही भाषा में रूपांतरित कर उनकी भाषा को मगही के निकट होना सिद्ध किया है-

सरहपाद का मूल दोहा-

नगर बाहिरे डोम्बि तोहोरि कुडिया, छाइ-छई जाड़सो ब्राह्मण नाडिया

अलो डोम्बि तोर संग करिव न संग निधि कान्ह कपालि जोई लांग।

मगही भाषा में इसे इस प्रकार लिखेंगे-

नगर बाहरे डोम्बी तोहार कुटिया छूइ-छूइ जाइ से बाभन लडिया।

अरे डोम्बी तोरे साथ करब न संग, निरधिन कान्ह कपाल जोगी लंग।

हिन्दी भाषा एवं साहित्य पर सरहपा का प्रभाव

सरहपाद ने जनभाषा मागधी में कविता लिखने की जो परम्परा प्रारम्भ की, उसका प्रभाव भक्तिकाल के हिन्दी साहित्य में रहा। नाथपंथियों से लेकर कबीर आदि की कविताओं में सामाजिक रूढ़ियों और आडम्बरों के विरोध में जो अक्खड़नपन मिलता है, वह सरहपाद की देन है।

योग साधना में भी इनका प्रभाव देखा जा सकता है। सामाजिक जीवन का जो चित्र इन्होंने उकेरा है, वह भक्तिकालीन काव्यों का प्रबल आधार बना। कृष्णभक्ति के मूल में जो प्रवृत्ति मार्ग है, उसकी झलक भी सरहपाद के साहित्य में दिखाई पड़ती है।

सरहपाद ने दार्शनिक एवं चिंतक के रूप में देश, धर्म एवं समाज के समक्ष नवीन आदर्श प्रस्तुत किया तथा भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में नई क्रांति को जन्म दिया। उनमें उपनिषदों की करुणा तथा बुद्ध की मध्यम मार्गीय जीवन पद्धति का मिश्रण था। उन्हीं का अनुकरण करके नाथों एवं कबीरपंथियों ने अपना काव्य रचा।

बहुत से विद्वानों ने करुणा एवं अहिंसा के विचार को बुद्ध का आविष्कार मान लिया है परंतु करुणा एवं अहिंसा का मूलमंत्र वेदों एवं उपनिषदों में बहुलता एवं प्रमुखता से उपलब्ध है जो बुद्ध से बहुत पहले के हैं।

उड़ीसा में सरहपाद को उड़िया का कवि माना जाता है। बंगाल में उन्हें बंगला का कवि माना जाता है। मिथिला क्षेत्र के लोग उन्हें मैथिली का कवि मानते हैं। मगध क्षेत्र में उन्हें मागधी का कवि माना जाता है। बहुत से विद्वान उन्हें अपभ्रंश का कवि मानते हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखक उन्हें पुरानी हिन्दी का कवि मानते हैं।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि सरहपा का साहित्य हिन्दी-साहित्य के संधि-काल का साहित्य है तथा सरहपा हिन्दी के आदिकवि हैं। उनके बाद ही अपभ्रंश अथवा अवहट्ट भाषा आधुनिक उड़िया, बंगला, मैथिली, हिन्दी आदि भाषाओं के वर्तमान स्वरूप में ढलनी आरम्भ हुईं।

सरहपा अपनी रचनाओं में अपभ्रंश की अनेक विशेषताएं समेटे हुए हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण सरहपा की भाषा को पुरानी हिन्दी कहा गया।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

सरहपाद बौद्ध या हिन्दू !

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सरहपाद बौद्ध या हिन्दू!

सरहपाद अथवा सरहपा द्वारा प्रतिपादित सहजयान सम्प्रदाय को बौद्धधर्म के अंतर्गत गिना जाता है किंतु दार्शनिक स्तर पर सरहपाद बौद्धदर्शन से काफी दूर है। इस आलेख में ‘ सरहपाद बौद्ध या हिन्दू ‘ विषय पर विचार किया गया है।

बौद्धधर्म

छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के संन्यासी सिद्धार्थ गौतम को ज्ञान प्राप्त होने पर गौतम बुद्ध अथवा बुद्ध कहा गया। बुद्ध के उपदेशों को उनके शिष्यों ने दार्शनिक स्वरूप प्रदान कर एक अलग मत का प्रतिपादन किया जिसे बौद्धधर्म कहा गया। बुद्ध ने अपने उपदेशों में आत्मा, परमात्मा, परलोक और मोक्ष आदि विषयों पर बात न करके लौकिक जीवन में जीवों पर करुणा करने का एवं कठोर साधना छोड़कर मध्यम मार्ग अपनाने का मार्ग बताया।

अगले एक हजार साल में बौद्धधर्म भारत एवं उससे लगते हुए पूर्वेशियाई एवं दक्षिण एशियाई देशों में फैलता चला गया। आज के भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन, तिब्बत, बर्मा, थाईलैण्ड, श्रीलंका, कोरिया, इण्डोनेशिया, वियतनाम आदि देशों में रहने वाले अधिकांश लोग बौद्धधर्म का पालन करते थे। इस अवधि में बौद्धधर्म में तंत्र-मंत्र एवं अभिचार आदि भी होने लगे।

हीनयान और महायान

छठी शताब्दी ईस्वी में जब कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य और मण्डन मिश्र आदि वेदांतियों ने बौद्धधर्म में फैली कुरीतियों पर आघात किया तब बौद्धधर्म दो भागों में बंट गया जिन्हें ‘हीनयान’ और ‘महायान’ कहा गया। हीनयान उसे कहते थे जो अपने परम्पागत सिद्धांतों में परिवर्तन की छूट नहीं देता था जबकि महायान उसे कहा गया जो बुद्धदर्शन में नए विचारों के प्रवेश की अनुमति देता था। बहुत से विद्वानों के अनुसार हीनयान बौद्धधर्म का चिन्तन पक्ष या सैद्धान्तिक पक्ष था और महायान व्यावहारिक पक्ष।

सिद्धों का उद्भव

सिद्धों का उद्भव बौद्धधर्म के भीतर एक अलग शाखा के रूप में हुआ। कहा जाता है कि महायान की वज्रयान शाखा के कुछ भिक्षुओं द्वारा सरल साधना से तंत्र और अभिचार का आश्रय लेकर सिद्धि प्राप्त करने की प्रक्रिया अपनाई गई। सिद्धि प्राप्त करने के लिए साधना करने वाले ये साधक ‘सिद्ध’ कहलाए।

बौद्धधर्म के सहजयान में सिद्धों की कुल संख्या चौरासी बताई गई है। राहुल सांकृत्यायन ने इनमें से दस सिद्धों को सर्वाधिक प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण माना है। सिद्धों में पहला नाम सरहपाद का है जिन्हें लोक में सरहपा के नाम से भी ख्याति प्राप्त है। सरहपा के बाद शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा तथा कुक्कुरिपा आदि सिद्ध हुए। सिद्धों का कार्यक्षेत्र बिहार, उड़ीसा, बंगाल एवं असम आदि प्रांतों में था।

अन्य दर्शनों में भी सिद्धों की परम्परा

बौद्धधर्म की महायान शाखा के अंतर्गत विकसित वज्रयान सम्प्रदाय के अतिरिक्त किसी भी अन्य बौद्ध सम्प्रदाय में सिद्धों की चर्चा नहीं की गई है किंतु सिद्ध केवल वज्रयान की परम्परा में ही नहीं हुए, जैनों की परम्परा में भी सिद्ध हुए हैं तथा शैवधर्म के नाथ सम्प्रदाय में भी सिद्ध हुए हैं।

इन तीनों परम्पराओं के सिद्धों की सूची अलग-अलग मिलती है किंतु 84 सिद्धों में से कुछ नाम अन्य सम्प्रदायों की सूची में भी मिलते हैं। यहाँ तक कि कुछ नाम तीनों ही सूचियों में मिलते हैं। सरहपा का नाम भी विभिन्न सूचियों में मिलता है। इस आलेख में सहजयानी सिद्धों की परम्परा में हुए सरहपा की चर्चा की गई है।

सिद्धों का काल

वज्रयान के सिद्धों की परम्परा में प्रथम सिद्ध सरहपा को माना गया है। सरहपा के ग्रंथों एवं उनमें उपलब्ध उल्लेखों के आधार पर उनका काल ई.720 से 820 के बीच अनुमानित किया गया है।

सहजयान के सिद्धों की कुल संख्या चौरासी है। सिद्धों की यह परम्परा कब तक चली, कहा नहीं जा सकता। इनमें से अनेक सिद्धों ने काव्य के रूप में दर्शन ग्रंथों की रचना की। सिद्धों के दर्शन ने कई शताब्दियों तक हिन्दू धर्म की विभिन्न शाखाओं को प्रभावित किया।

सिद्धों का दर्शन

सिद्धों के आविर्भाव के समय बौद्धधर्म में कई प्रकार की कठोर साधनाओं का बोलबाला था। तंत्र-मंत्र आधारित इन कठोर साधनाओं और बुद्ध के मूल उपदेशों के बीच दार्शनिक अन्तर्द्वन्द्वों की पृठभूमि में सिद्धों का पदार्पण हुआ। सिद्ध दार्शनिक धार्मिक, कर्मकाण्ड, बाह्याचार, तीर्थाटन आदि के विरोधी थे।

सिद्धों ने अपने ग्रंथों में नैरात्म्य भावना, कायायोग, सहज, शून्य तथा समाधि की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया है। पहले सिद्ध सरहपा ने ही सिद्धों के लिए सहजयान का प्रवर्तन किया था। उन्होंने सहज जीवन और सहज साधना पर जोर दिया।

प्रथम सिद्ध सरहपा

सरहपा के बचपन का नाम सरोज था। उनका जन्म आधुनिक बिहार प्रांत के भागलपुर मंडल के राज्ञी कस्बे के एक वेदपाठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने बाल्काल में वेद, पुराण, उपनिषद्, गीता, रामायण, महाभारत तथा संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया। वयस्क होने पर उनका विवाह एक ब्राह्मण कन्या से किया गया।

कुछ समय बाद वे ब्राह्मण धर्म की अनिवार्यताओं से असंतुष्ट होने के कारण अपना धर्म एवं परिवार छोड़कर नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्धभिक्षु हरिभद्र के शिष्य हो गए। उनका नाम राहुलभद्र रखा गया। शिक्षा पूर्ण होने पर वे नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हुए।

बौद्धधर्म के प्रति शंका

राहुलभद्र बौद्ध बन गए थे किंतु कुछ प्रश्न उन्हें यहाँ भी उद्वेलित करने लगे। वे सोचते थे कि भगवान बुद्ध की करुणा स्त्रियों के लिए क्यों नहीं है? क्या सचमुच ही स्त्रियों की छाया पाप है? क्या चीवर धारण करने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी? क्या बौद्धभिक्षु के लिए चीवर धारण करने तथा मठ में रहने की अनिवार्यता सहज जीवन की विरोधी नहीं है? ऐसी अनिवार्यताएं तो ब्राह्मण धर्म में भी हैं। दोनों में अंतर क्या है?

बौद्धधर्म के प्रति उठने वाली शंकाओं से उद्वेलित होकर राहुलभद्र ने नालंदा विश्वविद्यालय छोड़ दिया और फिर से भटकने लगे। इसी काल में उन्होंने राजगृह में सरहकन्या नामक एक युवती से विवाह किया तथा अपना नाम भी सरह रख लिया। इस काल तक सरहपा बहुज्ञ और बहुश्रुत हो गए थे। वे लोगों को सहज जीवन जीने तथा अपना कर्म करने का उपदेश देने लगे। शिष्यों के द्वारा उन्हें सरहपाद एवं सरहपा कहा गया।

सहजयान का उदय

सरहपा बौद्धधर्म की वज्रयान शाखा में दीक्षित हुए थे किंतु उनके सिद्धांत न तो बौद्धधर्म से मेल खाते थे और न व्रजयान से। इसलिए उनके द्वारा दिए जा रहे उपदेशों को सहजयान कहा जाने लगा। कुछ समय बाद उन्होंने भारत भ्रमण किया तथा लोगों को सहज जीवन जीने का उपदेश दिया।

सरहपा कालीन दर्शन

सरहपा के जन्म के समय तक गौतम बुद्ध का निर्वाण हुए कम से कम 12 शताब्दियां बीत चुकी थीं। इस बीच न केवल बौद्धदर्शन में अपितु वैदिक धर्म की विभिन्न शाखाओं के प्रचलित दर्शनों एवं स्वरूपों में पर्याप्त अंतर आ चुका था। कुछ दर्शन तो आपस में इतने गड्डमड्ड हो चुके थे कि सरहपा युगीन भारत में दर्शन की अनेक उलझी हुई गुत्थियाँ देखने को मिलती हैं। प्रत्येक दर्शन में जीव, जगत, माया, शरीर, तन्त्र-मन्त्र, आचार-विचार, मुक्ति, गुरु, समाधि, साधना आदि के बारे में भिन्न-भिन्न सिद्धांत एवं मत प्रचलित थे।

बहुत से लोग सिद्धों, नाथों और ज्ञानाश्रयी संतों को भी बौद्धों की परम्परा में मानते हैं जो कि किसी भी प्रकार से स्वीकार्य नहीं है। ये तीनों ही बौद्ध धर्म एवं बौद्ध दर्शन से काफी दूर हैं। यहाँ तक कि सिद्ध सैद्धांतिक रूप से बौद्ध होते हुए भी व्यावहारिक रूप से बौद्धों से पर्याप्त भिन्न हैं।

 सरहपाद का दर्शन

यद्यपि सरहपा ने बौद्धधर्म के सिद्धांतों से निराश होकर तथा वज्रयान के सिद्धांतों से विद्रोह करके सहजयान के सिद्धांत प्रतिपादित किए थे तथापि उनके मत को बौद्धधर्म की ही एक शाखा माना गया। वैचारिक नवीनता के कारण सरहपाद का सहजयान बौद्धधर्म की महायान शाखा के अंतर्गत माना गया जो वज्रयान से यंत्रयान के रूप में विकसित हुई थी।

सरहपाद के दर्शन का परिचय उनके ग्रंथों से मिलता है। उनके अब तक 32 ग्रंथ प्राप्त हुए हैं जिनमें से कुछ संस्कृत के तथा कुछ अपभ्रंश के हैं, उनके कुछ ग्रंथों के तिब्बती अनुवाद ही प्राप्त हो सके हैं। उनके कुछ ग्रंथ इस प्रकार हैं-

1. कखस्यदोहानाम, 2. कखदोहाटिप्पण, 3. कायकोशामृतबज्रगीति, 4. कायवाकचित्तामनसिकारनाम, 5. चित्तकोषाजबज्रगीति 6. तत्त्वोपदेशशिखरदोहागीति, 7. दोहाकोशगीति, 8. दोहाकोशनामचर्यागीति, 9. दोहाकोशोपदेशगीतिनाम, 10. दोहाकोशनाममहामुद्रोपदेश, 11. द्बादशोपदेशगाथा, 12. भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीति, 13. बसन्ततिलकदोहा्कोषगीतिकानाम 14. भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीतिकानाम, 15. महामुद्रोपदेशवज्रगुह्यगीति, 16. वाक्कोसारुचिरस्वरबज्रगीति, 17. श्रीबुद्धकपालतन्त्रपंजिका, 18. श्रीबुद्धकपालमण्डलबिद्धिक्रम प्रद्योत्ननामा, 19. श्रीबुद्धकपालसाधनानाम, 20. स्वाधिष्ठानाक्रम, 21. सर्वभूतबलिबिद्धि, 22. त्रैलोकवशंकरलोकेश्वरसादन।

बौद्धधर्म से साम्य

सरहपा के दर्शन का मूल बौद्धधर्म से लिया गया है जिसमें बुद्ध की करुणा एवं बौद्धदर्शन के शून्यवाद को ज्यों का त्यों ग्रहण किया गया है। करुणा एवं शून्य को जीवन का लक्ष्य बताते हुए सरहपा कहते हैं-

करुणा रहिअ जो सुण्णहिं लग्गा

णउ सो पावइ उत्तिम मग्गा।

अर्थात्- करुणा का भाव अपनाकर शून्य में स्थित रहने वाला व्यक्ति उत्तम मार्ग को प्राप्त करता है।

बौद्ध दर्शन स्वर्ग-नर्क को अस्वीकार करता है, सरहपा ने भी स्वर्ग के अस्तित्व को नकारा है। इस दृष्टि से भी सरहपा बौद्ध दर्शन के निकट हैं-

पाणि चलणि रअ गइ, जीव दरे ण सग्गु।

वेण्णवि पन्था कहिअ मइ, जहिं जाणसि तहिं लग्गु।।

अर्थात्- हाथ, पैर, शरीर ये सब धूल में समा जाते हैं। ये ही जीव की स्थिति है। स्वर्ग नहीं है। सरह कहते हैं कि मैंने (स्वर्ग तथा नर्क) दोनों मार्ग बता दिए हैं, जो अच्छा लगे, उस पर चल।

बुद्ध ने आत्मा की बात नहीं की। इस तथ्य को बौद्ध दर्शन में नैरात्म के सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया। इसी से ‘शून्य’ दर्शन उत्पन्न हुआ। नैरात्म और शून्य का अर्थ है कि देह में आत्मा नामक कोई वस्तु नहीं है।

सिद्धों ने भी बुद्ध के नैरात्म और करुणा के विचार को स्वीकार किया तथा शून्य में स्थिर होकर सुख और शांति की अनुभूति करने का विचार अपनाया। सहजयान के अनुसार जिस मनुष्य के मन में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है, समरसता है, वही सिद्ध है।

बौद्धदर्शन से वैषम्य

बौद्धदर्शन के नैरात्म और शून्यता के सिद्धांत से सहमति व्यक्त करते हुए भी सरहपा का सहजयानी दर्शन बौद्ध दर्शन से काफी अलग है-

1. बौद्धधर्म करुणा से उपजे सत्य, अहिंसा एवं सदाचरण पर बल देता है और संघ शक्ति को स्वीकार करता है जबकि सरहपाद के सहजयान में, सहज कर्म करते हुए सहज जीवन निर्वाह करने की प्रेरणा और नैरात्म (शून्यता) एवं करुणा पर बल दिया गया है।

2. बौद्धधर्म मनुष्य के लिए भिक्षु बनकर मठ में निवास करने का मार्ग बताता है जबकि सहजयान में संन्यास के स्थान पर गृहस्थी को मान्यता दी गई है।

3. बुद्ध ने कभी भी आत्मा अथवा परमात्मा की बात नहीं की। न उन्हें स्वीकार किया, न नकारा किंतु सहरपा ने चित्त, आत्मा एवं परमात्मा की निरंतर चर्चा की है।

4. बौद्धधर्म के वज्रयान में हठयोग एवं ध्यानयोग के माध्यम से कुण्डलिनी जागरण की बड़ी कठिन प्रक्रिया अपनाई गई है जबकि सरहपाद ने शक्ति जागृति के लिए सहजानुभूति एवं आडम्बरहीन स्वच्छ-सात्विक वृत्ति पर बल दिया जिससे सांसारिक द्वंद मिट जाते हैं और साधक निर्द्वन्द्व होकर आनंदलोक में विचरने लगता है। साधना की सहजानुभूति से उत्पन्न अद्वैत भाव कुंडलिनी शक्ति के द्वारा सहस्रार (मानव मस्तिष्क में स्थित हजार पंखुड़ियों वाला चक्र) में अमृतपान के आनंद के समान है।

5. बौद्ध दर्शन में निर्वाण को स्वीकार किया गया है किंतु सरहपाद ने निर्वाण को भी अस्वीकार करके परम महासुख अर्थात् सहज आनंद की स्थिति प्राप्त करने का सिद्धांत दिया है-

जहि मण पवण ण संचरइ, रविससि णाहिं पवेस

तहि बढ चित्त विसाम करु, सरहें कहिअ उएस

एक्क करु मा वेण्णि करुख मा करु विण्णि विसेस।

एक्कें रंगे रंजआ, तिहुअण सअलासेस

आइ ण अंत ण मज्झ तहिंख णउ भव णउ णिव्वाण।

एहु सो परममहासुह, णउ पर णउ अप्पाण

अर्थात्- जहाँ मन और पवन की गति नहीं है और जहाँ रवि और शशि की भी पहुँच नहीं है, हे मूर्ख मन! तू वहीं स्थिर हो। परम तत्व न एक है और न दो है तथा न ही विशेष दो है। यानी न अद्वैत है, न द्वैत है और न विशिष्टाद्वैत है। तीनों लोक संपूर्ण रूप से उसी परम तत्व के रंग में रंगे हुए हैं। इस परमपद का न आदि है, न अंत और न मध्य है। न ही उत्पन्न होता है और न ही यह निर्वाण की अवस्था है। यह न तो दूसरों का है और न ही अपना कहा जा सकता है। यह तो परम महासुख की अवस्था है।

उपनिषदों से साम्य

सैद्धांतिक रूप से सरहपा का सहजयान नैरात्म के सिद्धांत पर खड़ा है किंतु व्यावहारिक रूप से उनकी कविताओं में आत्मा का उल्लेख मिलता है। जब वे चित्त की बात करते हैं तो कहते हैं कि चित्त आत्मा में निवास करता है।

इस कारण सरहपा के ग्रंथों में उपलब्ध दर्शन बौद्धदर्शन से अथवा वज्रयान के दर्शन से मेल नहीं खाता। उनका साम्य उपनिषदों के दर्शन से है। उनके द्वारा रचित दोहागीतिकोष हिन्दी सन्त साहित्य परम्परा का ‘आदि ग्रन्थ’ माना जाता है। दोहागीतिकोष में उन्होंने लिखा है-

जिवँ लोणु विलिज्जइ पाणियहिं तिवँ जइ चित्तु विलाइ

अप्पा दीसइ परहिं सवुँ तत्थ समाहिए काइँ।।

अर्थात्- जिस प्रकार नमक पानी में विलीन होता है, वैसे चित्त आत्मा में विलीन हो जाता है। तब आत्मा, परमात्मा के समान दिखती है, फिर समाधि क्यों करें?

बृहदारण्यक उपनिषद के ब्रह्मज्ञानी याज्ञवलक्य ऋषि द्वारा जनक की राजसभा में विदुषी गार्गी से किए गए शास्त्रार्थ में आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए यही उद्धरण दिया गया है-

एक अन्य दोहे में सरहपा लिखते हैं-

जोवइ चित्तुण-याणइ बम्हहँ अवरु कों विज्जइ पुच्छइ अम्हहँ।

णावँहिं सण्ण-असण्ण-पआरा पुणु परमत्थें एक्काआरा ।।

अर्थात्- चित्त ब्रह्म को देखता है पर उसे जानता नहीं है। चित्त हमसे पूछता है कि दूसरा कौन है? नाम देने से संज्ञा एवं जड़ पृथक हो जाते हैं, परंतु परमार्थ से वे एकाकार हैं।

इस दोहे में दिया गया दर्शन पूर्णतः उपनिषदों पर आधारित है। बुद्धधर्म तो ब्रह्म की बात तक नहीं करता। इस प्रकार यह दोहा उपनिषदों का ही दर्शन प्रस्तुत करता है।

एक अन्य दोहे में सरहपा कहते हैं-

खाअंत-पीअंतें सुरउ रमंतें अरिउल-बहलहो चक्कु फिरंतें ।

एवंहिं सिद्धु जाइ परलोअहो मत्थएं पाउ देवि भू-लोअहो ।।

अर्थात्- खाता-पीता, रति करता, शत्रुओं के बहुसंख्यों के बीच चक्र फिराता। ऐसे ही सिद्ध भूलोक के मस्तक पर पाँव रखकर परलोक जाता है।

इस दोहे में परलोक की बात कही गई है। बुद्ध ने कभी भी परलोक की बात नहीं की। परलोक की चर्चा विशुद्ध रूप से उपनिषदों का दर्शन है।

नाथों से साम्य

सरहपा के साहित्य में जो दर्शन दिखाई पड़ता है, उसके मुख्य आधार सहज संयम, पाखंड-विनाश, गुरु सेवा, सहज मार्ग और महासुख की प्राप्ति है। शैव मत के नाथ सम्प्रदाय का भी यही दर्शन है। वज्रयान के परवर्ती सिद्धों की बानी में जो स्वच्छन्द आचार दिखाई देता है, वह सरहपा की बानी (वाणी) में लगभग नहीं के बराबर है।

भागवत धर्म से साम्य

सरहपा ने लिखा है-

देक्खउ सुणउ पईसउ साद्दउ। जिघ्घउ भ्रमउ बईसउ उट्ठउ।।

आलमाल बहवारें बोल्लउ। मण च्छडु एका ओर म्म चलउ।।

अर्थात्- संसार में आए हो तो सब कुछ देखो, सुनो, सुनो, सूंघो, घूमो, फिरो, उठो, बैठो, खाओ, पिओ। कोई आलमाल मिले तो प्रेम-प्यार से बोलचाल सब करो। उसके बाद योग करो। माना कि संसार में दुःख बहुत है किंतु सुख भी यहीं है।

सरहपा की इस कविता की बहुत सी बातें भागवत् धर्म के सिद्धांतों से मेल खाती हैं। भगवान कृष्ण कहते हैं-

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।

अर्थात्- जो मनुष्य यथायोग्य आहार और विहार करने वाला है, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाला है, यथायोग्य सोने और जागने वाला है, उसी मनुष्य का योग दुःखों का नाश करने वाला होता है।

इस श्लोक में भगवान कृष्ण ने यही संदेश दिया है कि न कम खाओ, न अधिक खाओ, न कम काम करो, न अधिक काम करो, न कम सोओ न अधिक सोओ, न कम जागो, न अधिक जागो, ऐसा करने से ही योग सफल होता है तथा मनुष्य के दुःखों का नाश होता है।

सरहपा द्वारा मत-मतांतरों की आलोचना

सरहपा ने ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म एवं पाशुपत धर्म आदि समस्त धर्मों के मतावलम्बियों की आलोचना की है। इस मामले में वे ठीक वैसे ही हैं, जैसे कबीर। यतियों की आलोचना करते हुए वे कहते हैं-

दीर्घानखी यति मलिने भेसे। नंगे होई उपाडे केसे।।

अर्थात्- यदि नंगे रहने से मोक्ष मिलने की सम्भावना हो तो कुत्ते और सियारों को तो मिल ही जाएगा।

सरहपा ने वेदों की आलोचना नहीं की। अपितु बहुत ही शांत स्वर में केवल इतना कहा कि ब्राह्मण चारों वेद पढ़ते हैं किंतु वे वेदों का मर्म नहीं जानते!

मानव के सहज धर्म का सिद्ध सरहपा

सरहपा का सहजयान मानव का सहज धर्म है जो गृहस्थों को करुणा और नैरात्म की अनिवार्यता की शिक्षा देता है। करुणा, दुःखानुभूति, सहानुभूति और परोपकार एवं सहअस्तित्व के बिना मनुष्य क्षण भर भी कैसे रह सकता है? सरहपा का सहज स्वाभाविक मानव धर्म समस्त कृत्रिम आडम्बरों को छोड़कर मानव के सहज गुणों को विकसित करने का संदेश देता है।

एक दोहे में वे कहते हैं-

एवं लहै परमपद् क्या बहु बोहिए एहिं।

हौं पुनि जानउ येन मन, छाड़ै चिन्ता तत्व।।

इस तरह परमपद को प्राप्त करना चाहिए। इसका क्या बहुत वर्णन करूं, मैं तो इतना जानता हूँ कि चिंता को छोड़कर मनुष्य परमपद पाता है। अर्थात् सरहपा की मान्यता है कि मनुष्य से अपना मन तो चिंता से मुक्त किया नहीं जाता, परमपद क्या खाक प्राप्त करेंगे?

विभिन्न दर्शनों की छाया

सरहपा के सम्पूर्ण साहित्य को पढ़ने से ज्ञात होता है कि उनके दर्शन पर विभिन्न दर्शनों की छाया है। उनका दर्शन एंद्रिक सुखों से दूर रहने के सिद्धांत पर टिका है। वे आत्मा को स्वीकार करते हैं किंतु स्वर्ग एवं मोक्ष को नकार कर शून्य में आनंद करने का उपदेश देते हैं, उनके इस दर्शन को इन दोहों से स्पष्ट किया जा सकता है-

जइ जग पूरिया सहजणन्दे, णच्चहु गावहु विलसहु चंगे।

विसअ रमन्तण विषअहि लिप्पइ, उ अअ हरंतण पाणी च्छुप्पइ।

णउ घरे णउ वणे बोहि ठउ, एहु परिआणउ भेङ।

णिमल चित्त सहावता, करहु अविकल सेहु।

बिस आसत्ति म बन्ध करू, अरे बढ़ सरहे बुत्त,

मौन पअङ्गम करि भमर पेव ख्रह हरिणह जुत्त।

नाद न विंदु न रवि न शशि मंडल, चिअराअ सहबे मूकल।

सरहपाद बौद्ध या हिन्दू!

उपरोक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि सहजयान बौद्धधर्म के सिद्धांतों की अपेक्षा उपनिषदों के दर्शन से अधिक मेल रखता है। इसलिए सरहपा के सहजयानी सिद्धांतों को हिन्दू धर्म की सम्पदा समझना चाहिए।

यदि यह पूछा जाए कि सरहपाद बौद्ध या हिन्दू! तो उसका एक ही उत्तर हो सकता है कि सरहपा उपनिषद के ज्ञान को लेकर चलने वाला सहज मार्ग का पथिक है और इस नाते से वह हिन्दू सिद्ध है न कि बौद्धभिक्षु!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

श्रीराम जन्मभूमि मंदिर किसने तोड़ा?

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श्रीराम जन्मभूमि मंदिर

हिन्दू मानते हैं कि अयोध्या स्थित श्रीराम जन्मभूमि मंदिर ई.1528 में बाबर के सेनापति मीर बाकी ने तोड़ा था। इस कथन में कितनी सच्चाई है ? या फिर यह सच तो है किंतु यह पूरा सच नहीं है, सच कुछ और भी है!

हिन्दू पुराणों के अनुसार भगवान राम का जन्म त्रेतायुग में हुआ। पुराणों ने त्रेता युग की अवधि आज से 12 लाख 96 हजार वर्ष पूर्व से लेकर 8 लाख 69 हजार वर्ष पहले तक बताई है।

ऐतिहासिक, साहित्यिक, पुरातात्विक एवं वैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध किया है कि भगवान राम का जन्म आज से लगभग 7 हजार साल पहले हुआ। पूरी दुनिया में उनके हजारों मंदिर हैं जो विगत सात हजार साल की अवधि में बने हैं।

अयोध्या में श्री राम के जीवन से जुड़े स्थलों पर तीन मंदिर बनाए गए। पहला श्रीराम जन्मभूमि मंदिर था जिसे ‘जन्मस्थानम्’ कहा जाता था।

दूसरा मंदिर ‘त्रेता के ठाकुर’ कहलाता था जहाँ भगवान श्रीराम ने अपनी लीलाएं पूरी करके लौकिक देह का त्याग किया।

तीसरा मंदिर ‘स्वर्गद्वारम्’ कहलाता था जहाँ भगवान की लौकिक देह पंच-तत्वों में विलीन हुई थी।

इन तीनों स्थानों पर अयोध्यावासियों ने एक-एक मंदिर बनवाया। प्रथम शताब्दी ईस्वी में उज्जैन के राजा शाकारि विक्रमादित्य ने अयोध्या में जन्मभूमि पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। निश्चित रूप से यह मंदिर पहले के किसी पुराने मंदिर या महल के अवशेषों पर बनाया गया होगा।

पांचवी शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में चीनी यात्री फाह्यान अयोध्या आया। उसने अयोध्या में बौद्धों और हिन्दुओं के वैमनस्य तथा अयोध्या के निकट श्रावस्ती में कुछ बड़े बौद्ध विहरों का उल्लेख किया है। उसने अयोध्या के किसी हिन्दू मंदिर का उल्लेख नहीं किया है। वह बौद्ध था इसलिए संभव है कि फाह्यान की दृष्टि में राम जन्मभूमि मंदिर उल्लेखनीय नहीं था।

गुप्तसम्राट स्कंदगुप्त ई.455 में अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से अयोध्या ले आया। ई.484 में हूणों ने पहली बार हिन्दूकुश पर्वत को पार करने में सफलता प्राप्त की किंतु उनके नेता तोरमाण के निशाने पर गुप्त-साम्राज्य का पश्चिमी भाग अर्थात् गांधार, पंजाब, कश्मीर एवं मालवा क्षेत्र रहा, उसने अयोध्या पर अभियान नहीं किया।

हूणों का अगला नेता मिहिरकुल हुआ किंतु वह भगवान शिव का भक्त बन गया था इसलिए उसने हिन्दू मंदिरों को छुआ तक नहीं। उसने केवल बौद्ध विहारों और चैत्यों को जलाया।

तोरमाण, मिहिरकुल अथवा किसी अन्य हूण आक्रांता द्वारा अयोध्या पर किसी अभियान का उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता है।

सातवीं शताब्दी ईस्वी में चीनी यात्री ह्वेनसांग अयोध्या आया। उसने अयोध्या के निकट तीन टीले देखे जिन्हें मणि पर्वत, कुबेर पर्वत तथा सग्रीव पर्वत कहा जाता था। उसने अयोध्या को यौगिक शिक्षा का गृहस्थान बताया है।

यह एक आश्चर्य की ही बात है कि पांचवीं शताब्दी ईस्वी में फाह्यान अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का उल्लेख नहीं करता, केवल बौद्ध विहार का उल्लेख करता है। जबकि सातवीं शताब्दी ईस्वी में ह्वेनसांग अयोध्या में बौद्ध विहार का उल्लेख नहीं करता, मणि पर्वत, कुबेर पर्वत तथा सग्रीव पर्वत का उल्लेख करता है।

स्पष्ट है कि इन दोनों चीना यात्रियों को जो कि वस्तुतः बौद्ध भिक्षु थे, के लिए बौद्ध धर्म महत्वपूर्ण था, हिन्दू मंदिर नहीं।

ईस्वी 712 में भारत भूमि पर इस्लाम का पहला आक्रमण हुआ किंतु यह आक्रमण सिंध तक सीमित था। इसलिए इस आक्रमण का अयोध्या से कोई सम्बन्ध नहीं है।

ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में महमूद गजनवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किए किंतु उसने अयोध्या पर एक भी अभियान नहीं किया। उसके निशाने पर नगरकोट एवं सोमनाथ जैसे समृद्ध मंदिर ही रहे।

महमूद गजनवी का उद्देश्य मंदिरों की सम्पदा को लूटना था। इसलिए उसने मथुरा, सोमनाथ तथा नगरकोट जैसे समृद्ध मंदिरों को लूटा एवं तोड़ा। उसकी दृष्टि में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर इसलिए महत्वहीन था क्योंकि वहाँ सम्पदा मिलने की आशा नहीं थी।

इस्लाम को भारत में प्रवेश करने से लेकर दिल्ली पर शासन स्थापित करने तक पूरे 500 साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। ईस्वी 1206 में मुहम्मद गौरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की नींव रखी।

यह राज्य ईस्वी 1526 तक अर्थात् पूरे सवा तीन सौ साल तक चला। इस सल्तनत पर धर्मांध तुर्कों के गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैयद वंश और लोदी वंश नामक तुर्की कबीलों ने शासन किया।

तुर्क सुल्तानों ने सम्पूर्ण भारत में मंदिरों को तोड़ने एवं मस्जिदों को बनाने का एक लम्बा सिलसिला चलाया। निश्चित रूप से अयोध्या उनसे बची नहीं रह सकती थी।

ईस्वी 1210 से 1236 के बीच गुलाम वंश के ताकतवर सुल्तान इल्तुतमिश ने दिल्ली एवं उत्तर भारत के मैदानों पर शासन किया। उसने अपने बड़े पुत्र नासिरुद्दीन को अयोध्या का सूबेदार बनाया।

नासिरुद्दीन ने अपने अधिकार वाले सम्पूर्ण क्षेत्र में हिन्दुओं के विरुद्ध जेहाद करके अपने पिता की प्रशंसा प्राप्त की। इस जेहाद के दौरान अयोध्या क्षेत्र में बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मारा गया तथा उनके मंदिर तोड़े गए।

अतः यही वह अवधि अनुमानित की जानी चाहिए जिस समय अयोध्या का मंदिर पहली बार तोड़ा गया होगा।

स्वाभाविक है कि जब अयोध्या का मुस्लिम शासक जेहाद करेगा तो उसके हाथों से रामजन्मभूमि जैसा महत्वपूर्ण मंदिर साबत नहीं बचा रहा होगा।

जब दिल्ली सल्तनत कमजोर पड़ गई, तब हिन्दुओं ने अवसर पाकर रामजन्मभूमि मंदिर का फिर से निर्माण कर लिया।

यद्यपि इस सम्बन्ध में कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता, तथापि इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि खुरासान से आए मंगोल बादशाह बाबर के सेनापति मीरबाकी ने जब ईस्वी 1528 में अयोघ्या पर अभियान किया तब यहाँ श्रीराम जन्मभूमि मंदिर मौजूद था।

जिस समय बाबर का शिया सेनापति मीर बाकी अयोध्या की तरफ बढ़ा, उस समय भाटी नरेश महताब सिंह तथा हँसवर नरेश रणविजय सिंह ने अयोध्या में मीर बाकी का मार्ग रोका। उनका नेतृत्व हँसवर के राजगुरु देवीनाथ पांडे ने किया।

सर्वप्रथम देवीनाथ पांडे ने ही अपनी सेना के साथ मीर बाकी पर आक्रमण किया। वह स्वयं भी तलवार हाथ में लेकर मीर बाकी के सैनिकों पर टूट पड़ा। हिन्दू सैनिक तलवार लेकर लड़ रहे थे जबकि मीर बाकी ने तोपों एवं बंदूकों का सहारा लिया। मीर बाकी ने छिपकर राजगुरु को गोली मारी।

लखनऊ गजट के लेखक कनिंघम के अनुसार इस युद्ध में 1,74,000 हिन्दू सैनिकों ने प्राणों की आहुति दी। इस युद्ध में मीर बाकी विजयी हुआ। उसने रामजन्मभूमि पर एक मस्जिद का निर्माण करवाया।

इस प्रकार मीर बाकी के काल में रामजन्मभूमि मंदिर दूसरी बार तोड़ा गया। मीर बाकी ने यहाँ फिर से एक मस्जिद बनवाई तथा इसके फाटक पर तीन पंक्तियों का एक लेख लिखवाया। पहली पंक्ति में लिखा था-

बनामे आँ कि दाना हस्त अकबर

कि खालिक जुमला आलम लामकानी।

हरूदे मुस्तफ़ा बाहज़ सतायश

कि सरवर अम्बियाए दोजहानी।

फिसाना दर जहां बाबर कलंदर

कि शुद दर दौरे गेती कामरानी।

अर्थात्- उस परमात्मा के नाम से जो महान और बुद्धिमान है, जो सम्पूर्ण जगत का सृष्टिकर्ता और स्वयं निवास रहित है।

परमात्मा के बाद मुस्तफ़ा की कथा प्रसिद्ध है जो दोनों जहान और पैगम्बरों के सरदार हैं।

संसार में बाबर और कलंदर की कथा प्रसिद्ध है जिससे उसे संसार चक्र में सफलता मिलती है।

मीर बाकी ने मस्जिद के भीतर भी तीन पंक्तियों का एक लेख लिखवाया-

बकरमूद ऐ शाह बाबर कि अहलश

बनाईस्त ता काखे गरहूं मुलाकी।

बिना कर्द महबते कुहसियां अमीरे स आहत निशां मीर बाकी।

बुअह खैर बाकी यूं साले बिनायश।

अर्थात् बादशाह बाबर की आज्ञा से जिसके न्याय की ध्वजा आकाश तक पहुंची है।

नेकदिल मीर बाकी ने फरिश्तों के उतरने के लिए यह स्थान बनवाया है।

उसकी कृपा सदा बनी रहे।

इस लेख से लगता है कि इसमें वर्णित फरिश्तों के उतरने के स्थान का आशय रामजन्मभूमि से है किंतु यहाँ जिन फरिश्तों के उतरने का स्थान बताया गया है वह मस्जिद है न कि मंदिर। अतः यह उल्लेख इस्लाम में वर्णित उन फरिश्तों का है जो धरती पर अल्लाह का संदेश लेकर आते हैं।

इस लेख को बाद के वर्षों में हिन्दुओं द्वारा तोड़कर यहीं पटक दिया गया किंतु इसके टुकड़ों से इस इमारत के बनाने का वर्ष 935 हिजरी (ईस्वी 1528) भी ज्ञात हो जाता है।

चूंकि इस शिलालेख में बाबर के आदेश का उल्लेख हुआ है इसलिए इस इमारत को बाबरी मस्जिद कहा जाने लगा। वर्ष 1992 में मीर बाकी द्वारा बनाई गई इसी इमारत को तोड़ा गया।

इस इमारत के स्थापत्य पर विचार किया जाना चाहिए। इसकी दो विशेषताएं हैं-

(1) इसके निर्माण में प्राचीन रामजन्मभूमि मंदिर के भग्नावशेषों को काम में लिया गया था जिसमें काले रंग के कसौटी पत्थर के चौदह स्तम्भ भी सम्मिलित थे जिन पर हिन्दुओं के धार्मिक चिह्न उत्कीर्ण थे।

(2) इस इमारत का बाहरी स्वरूप दिल्ली सल्तनत के तुर्क शासकों के स्थापत्य से मेल खाता था न कि मुगलों के स्थापत्य से।

इसका कारण यह है कि मीर बाकी बहुत कम समय तक अयोध्या में रुका। उसने जल्दबाजी में जो मस्जिद बनवाई, उसमें मंदिर के ही पुराने अवशेष काम में लिए। उस समय तक देश में तुर्कों को शासन करते हुए लगभग तीन सौ साल बीत चुके थे, इसलिए मीर बाकी ने जिन कारीगरों से यह मस्जिद बनवाई, उन्होंने तुर्की स्थापत्य शैली की मस्जिद बनवाई, वे मुगल स्थापत्य शैली से परिचित नहीं थे।

बाबरी मस्जिद के बन जाने पर भी हिन्दू रामजन्मभूमि मंदिर पूरी तरह विध्वंस नहीं हुआ। मंदिर का भवन भले ही टूट चुका था किंतु पास के ही चबूतरे पर रामलला की पूजा होती रही। यही कारण है कि पूरू मुगल काल में यहाँ की मस्जिद को मस्जिद जन्मस्थानम् कहा जाता रहा।

मुगल कालीन राजस्व अभिलेखों के आधार पर कुछ इतिहासकारों ने सिद्ध करने की चेष्टा की है कि रामजन्मभूमि मंदिर औरंगजेब के काल तक मौजूद था। यहाँ पर औरंगजेब के समय में एक मस्जिद बनी जिसे बाबरी मस्जिद कहा गया।

इस मत को स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि औरंगजेब के समकालीन इतिहासकारों ने अयोध्या का राम जन्मभूमि मंदिर तोड़े जाने और उसके स्थान पर मस्जिद बनवाए जाने का उल्लेख नहीं किया है। यदि ऐसा हुआ होता तो मुस्लिम इतिहासकारों ने उसका उल्लेख गर्व के साथ किया होता।

17वीं शताब्दी ईस्वी में औरंगजेब ने अयोध्या में श्रीराम के जीवन प्रसंगों से जुड़े शेष दो मंदिरों- ‘स्वर्गद्वारम्’ तथा ‘त्रेता के ठाकुर’ को तोड़कर मस्जिदें बनवाईं।

औरंगजेब ने अयोध्या में कन्नौज के राजा जयचंद्र द्वारा ई.1191 में निर्मित विष्णु मंदिर को भी तोड़ डाला। उसका भग्न शिलालेख आज भी अयोध्या संग्रहालय (पुराना नाम फैजाबाद संग्रहालय) में रखा है।

औरंगजेब के जीवन काल में सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी में ऑस्ट्रिया के एक पादरी, फादर टाइफैन्थेलर ने अयोध्या की यात्रा की तथा लगभग 50 पृष्ठों में अयोध्या यात्रा का वर्णन किया। इस वर्णन का फ्रैंच अनुवाद ई.1786 में बर्लिन से प्रकाशित हुआ।

उसने लिखा- ‘अयोध्या के रामकोट मौहल्ले में तीन गुम्बदों वाला ढांचा है जिसमें काले रंग की कसौटी के 14 स्तम्भ लगे हुए हैं। इसी स्थान पर भगवान श्रीराम ने अपने तीन भाइयों सहित जन्म लिया। जन्मभूमि पर बने मंदिर को बाबर ने तुड़वाया। आज भी हिन्दू इस स्थान की परिक्रमा करते हैं और साष्टांग दण्डवत करते हैं।’

ई.1889-91 में अलोइज अंटोन नामक इंग्लिश पुरातत्वविद् की देख-रेख में अयोध्या का पुरातात्विक सर्वेक्षण किया गया जिसमें उसने अयोध्या के निकट तीन टीले देखे जिन्हें मणि पर्वत, कुबेर पर्वत तथा सग्रीव पर्वत कहा जाता था।

ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता कनिंघम ने माना है कि इन टीलों के नीचे उन्हीं बड़े बौद्ध मठों के अवशेष हैं जिनका उल्लेख ह्वेसांग ने किया था। यह केवल मान्यता है, इनकी खुदाई आज तक नहीं की गई है।

भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् अयोध्या नगर में हुई खुदाइयों में अयोध्या में मानव सभ्यता को ईसा से 1,700 वर्ष अर्थात् आज से 3,700 वर्ष पूर्व पुरानी माना गया। जबकि रामजी का जन्म अन्य विविध स्रोतों एवं रामेश्वर सेतु आदि से 7000 वर्ष पुराना ठहरता है।

इसलिए कहा जा सकता है कि उस अवधि की सभ्यता नष्ट हो गई होगी। या फिर वह खुदाई किए गए स्थल से भी अधिक नीचे दबी हुई है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

सती सावित्री सीता क्या कमजोर नारियाँ हैं?

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सती सावित्री सीता

सती सावित्री सीता एवं अनुसुइया जैसे नारी चरित्र जो हजारों वर्षों से भारतीय समाज के समक्ष आदर्श बने रहे हैं, क्या ये पौराणिक युग के नारी चरित्र भारतीय नारियों की कमजोरी के प्रतीक हैं ?

एक विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की एक थीसीस को परीक्षक ने इस टिप्पणी के साथ अस्वीकार कर दिया कि वह थीसिस एक विशेष राजनीतिक दल के अभिमत का पोषण करती है; क्या ऐसा किया जाना उचित है ?

उस थीसिस में लोकगीतों के ऐसे उद्धरण दिए गए थे जिनमें सती, सावित्री एवं सीता आदि पौराणिक नारी पात्रों का उल्लेख हुआ था और यह उल्लेख परीक्षक को स्वीकार्य नहीं था क्योंकि परीक्षक की दृष्टि में ये नारी चरित्र भारतीय नारी की कमजोरी को प्रकट करते हैं।

प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सती, सावित्री, सीता एवं अनुसुइया जैसे नारी चरित्र जो हजारों वर्षों से भारतीय समाज के समक्ष आदर्श बने रहे हैं, क्या धर्म-निरपेक्षता के इस युग में आकर नकार दिए जाने चाहिए ? क्या ये पौराणिक युग के नारी चरित्र भारतीय नारियों की कमजोरी के प्रतीक हैं ?

क्या वह समस्त लोक साहित्य, पौराणिक साहित्य एवं महाकाव्य आदि विपुल भारतीय एवं वैश्विक साहित्य नकार दिया जाना चाहिए जिसे हम हजारों साल से अपनी आत्मा में रचाते-बसाते आए हैं। आगे बढ़ने से पहले हमें इन नारी चरित्रों के सम्बन्ध में एक-एक करके कुछ बात करनी चाहिए।

वस्तुतः यह वामपंथी चिंतन है जो हिन्दू संस्कृति के हर गौरवमयी प्रतीक की गलत व्याख्या करके उसे नकार रहा है। देश की युवा पीढ़ी इन गौरवमयी प्रतीकों के वास्तविक अर्थों को न समझ कर दिग्भ्रमित हो रहा है।

सती, शिव पुराण का नारी पात्र है जो प्रजापति दक्ष की पुत्री एवं भगवान शिव की अर्द्धांगिनी है। शिव पुराण के रचना काल का सही निर्धारण नहीं हो सकता किंतु यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय पुराणों का रचना काल ईसा की तीसरी शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी के मध्य माना है जबकि भारतीय इतिहासकारों एवं साहित्यकारों के अनुसार पुराणों की रचना ईसा से 800 से 1000 वर्ष पूर्व की अवधि में हुई।

शिव पुराण के अनुसार सती के पिता दक्ष, सती के पति शिव का सार्वजनिक रूप से अपमान करते हैं तथा शिव को यज्ञ में से भाग देने से मना कर देते हैं। सती अपने पिता के इस कृत्य का सार्वजनिक रूप से विरोध करती है किंतु वह अपने पिता की मर्यादा का भी ध्यान रखती है।

वह अपने पिता के प्रति कटु वचनों का प्रयोग नहीं करती अपितु पिता को उसकी गलती का अनुभव कराने के लिए यज्ञकुण्ड में कूद पड़ती है। जब शिव को इस घटना की जानकारी होती है तो वे अपने गणों को भेजकर यज्ञ का विंध्वस करवाते हैं।

इसके बाद शिव अपनी पत्नी के दुःख से विगलित होकर उसकी पार्थिव देह को अपने कंधों पर रखकर हजारों वर्षों तक हिमालय क्षेत्र में घूमते रहते हैं, जब तक कि सती के शरीर का एक-एक हिस्सा गलकर पहाड़ों पर गिर नहीं जाता। शिव यहाँ तक ही नहीं रुकते, वे कामदेव को ही भस्म कर देते हैं।

पति-पत्नी के प्रेम की ऐसी अनूठी कहानी संसार में और कहाँ देखने को मिलेगी! पत्नी द्वारा अपने पति के सम्मान की रक्षा करने तथा अपने पिता द्वारा उठाए गए गलत कदम का प्रतिकार करने के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाली नारी किस दृष्टि से कमजोर है ?

आधुनकि युग में इस घटना को देखें तो यह लगभग वैसा ही है जैसा कि कोई व्यक्ति आमरण अनशन पर बैठ जाए और अपने प्राण गंवा दे।

‘सावित्री’ महाभारत में आए एक उपाख्यान की महिला-चरित्र है। महाभारत का युद्ध ईसा से 3137 वर्ष (अर्थात् आज से 5154 वर्ष) पहले हुआ। माना जाता है कि वर्तमान में उपलब्ध ‘महाभारत’ ग्रंथ की रचना नौवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व (अर्थात् आज से लगभग 2900 वर्ष पहले) हुई।

जबकि भारतीय मान्यता के अनुसार इस ग्रंथ की रचना महाभारत युद्ध के काल में ही हुई। महाभारत के वनपर्व में मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को सत्यवान एवं सावित्री का आख्यान सुनाते हैं।

इस आख्यान के अनुसार मद्रदेश की राजकुमारी सावित्री अपने पिता अश्वपति के आदेश पर देशाटन करके, सदैव सत्य बोलने वाले ‘सत्यवान’ नामक राजर्षि-पुत्र को अपने पति के रूप में चुनती है जो जंगल से लकड़ी काटकर अपने तथा अपने माता-पिता के उदर की पूर्ति करता है तथा जिसकी आयु केवल एक साल शेष बची है।

जब यमराज, सत्यवान की जीवात्मा को ले जाते हैं तो सावित्री भी उनके साथ चल देती है। वह अपने विवेक, बुद्धि एवं मृदुसम्भाषण से यमराज को प्रसन्न करती है और यमराज उसके पति को फिर से जीवनदान देते हैं।

जो स्त्री अपने पति का चयन स्वयं करती है, जो स्त्री यह जानने पर भी कि उसकी आयु केवल एक वर्ष शेष बची है, उसी से विवाह करने का निर्णय लेती है, जो स्त्री यमराज से अपने पति को पुनः प्राप्त कर लेती है, वह आधुनिक युग के तथाकथित विद्वानों को किस दृष्टि से कमजोर दिखाई देती है?

क्या सावित्री की मजबूती तब दिखाई देती जब वह स्वयं द्वारा चयनित पति को इसलिए त्याग देती कि उसकी आयु केवल एक वर्ष ही शेष है! या फिर वह अपने पति को यमराज के मुंह से छीनने के लिए कोई प्रयास नहीं करती और नियति के समक्ष हार मानकर बैठ जाती! क्या किसी भी दृष्टि से यह सिद्ध होता है कि सावित्री, भारतीय संस्कृति या वांग्मय का कमजोर नारी पात्र है !

रामकथा का पहला उपलब्ध आख्यान वाल्मीकि रामायण को माना जाता है। यद्यपि रामकथा का सर्व-स्वीकार्य काल निर्धारण नहीं किया जा सका है तथापि माना जाता है कि राम-सीता का विवाह 7307 ईस्वी-पूर्व (अर्थात् आज से 9324 वर्ष पूर्व) हुआ।

यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार वाल्मीकि रामायण की रचना का काल ईसा से 5वीं शताब्दी पूर्व से लेकर ईसा से पहली शताब्दी तक माना जाता है (अर्थात् वर्तमान समय से 2500 वर्ष पूर्व से लेकर 2100 वर्ष पूर्व के बीच)।

भारतीयों की मान्यता के अनुसार इस ग्रंथ के रचयिता वाल्मीकि, रामकथा के काल में जीवित थे तथा उसी समय उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की।

आधुनिक आलोचकों द्वारा देवी सीता पर कमजोर होने का आरोप इसलिए लगाया जाता है क्योंकि उन्होंने पति के आदेश पर अग्नि परीक्षा दी तथा पति द्वारा अपने महल से निकाल दिए जाने के उपरांत भी वह मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र को ही पति के रूप में स्वीकार करती रहीं।

यदि सामान्य बुद्धि विवेक से सोचा जाए तो भी यह समझ में आ सकता है कि कोई भी स्त्री अग्नि में प्रवेश करके जीवित वापस नहीं लौट सकती! यह केवल आख्यान है जिसे चमत्कारिक बनाने का प्रयास किया गया है।

सीताजी की अग्नि परीक्षा इस संदर्भ में है कि वे स्वयं साक्षात् जगज्जननी लक्ष्मी हैं तथा श्री हरि की लौकिक लीलाओं का हिस्सा हैं। अतः इस अलौकिक कथा को उसी रूप में लेने की आवश्यकता है। इसके आधार पर राम और सीता के लौकिक सम्बन्धों का निर्धारण नहीं किया जा सकता।

यदि सीता नामक साधारण स्त्री ने अग्नि परीक्षा दी होती तो वह जीवित नहीं बची होती और यदि अलौकिक देवी ने अग्नि परीक्षा दी तो उसका कोई लौकिक अर्थ कैसे निकाला जा सकता है !

सीता और राम का लौकिक सम्बन्ध ही देखा जाए तो वह इतना भर बैठता है कि जब निर्वासित राजकुमार रामचंद्र की पत्नी सीता का अपहरण हो जाता है तो वह उसे वन-वन ढूंढता फिरता है और उसकी स्मृति में रोता है।

वह वनवासियों को मित्र बनाता है तथा उनकी सेना प्राप्त करता है। वह समुद्र के बीच बसी हुई लंका के अत्यंत शक्तिशाली राजा रावण को मारकर अपनी पत्नी को पुनः प्राप्त करता है और उसे अपने साथ लेकर राजधानी अयोध्या को लौट जाता है।

अयोध्या के एक अत्यंत सामान्य नागरिक जो कि धोबी है, द्वारा सार्वजनिक एवं अभद्र टिप्पणी किए जाने के कारण रामचंद्र, अपनी पत्नी को वन में जाकर रहने को कहते हैं ताकि प्रजा पर राजा का अनुशासन बना रहे एवं समाज में मर्यादा बनी रहे।

सीता, पति के प्रति अनुराग रखते हुए वाल्मीकि के आश्रम में निवास करती है और रामचंद्र उसकी स्मृतियों को सहेजे हुए अपनी राजधानी में रहते हैं। जब राजसूय और अश्वमेध जैसे यज्ञ होते हैं तो रामचंद्र दूसरा विवाह नहीं करते, अपितु वनवासिनी रानी सीता की स्वर्ण मूर्ति का निर्माण करवाकर उसके साथ यज्ञ करने बैठते हैं।

रामकथा की सुंदरता यह है कि यह लौकिक और अलौकिक दोनों ही कथाओं का सुंदर मिश्रण है किंतु भारतीय संस्कृति में दोष ढूंढने वाले लोग इस कथा के अलौकिक भाग को लौकिक बताकर आक्षेपों की झड़ी लगा देते हैं और राम को अत्याचारी और सीता को पीड़िता सिद्ध करके परम सुख को प्राप्त करते हैं।

इन लोगों से पूछा जाए कि रावण की लंका में निर्भय होकर रावण का सामना करने वाली और उसकी समस्त दुराभिसंधियों को विफल करने वाली सीता कमजोर कैसे है, जंगल में ऋषि आश्रम में अपने पुत्रों को पालकर बड़ा करने वाली तथा अपने पुत्रों को अयोध्या की सेना से भिड़ जाने में समर्थ बनाने वाली सीता कमजोर कैसे है, तो इन मिथ्यावादियों के पास कोई जवाब नहीं बन पड़ता।

सार रूप में यह कहा जा सकता है कि सती, सावित्री एवं सीता भारतीय संस्कृति की कमजोर नारियों की प्रतीक नहीं हैं, उनकी कथाएं नारी मुक्ति के आंदोलन में कहीं भी बाधा उत्पन्न नहीं करतीं। वे तो अपने बुद्धि-विवेक एवं तप-बल से अपने निर्णय स्वयं लेती हैं और गलत बात के विरोध में खड़े होकर संसार के नियमों को बदलने का साहस रखती हैं।

सती, सावित्री, सीता और अनुसुइया भारतीय नारियों का गौरव हैं, जिनसे प्रेरणा लेकर भारतीय नारियां हजारों वर्षों से एक सहज-सुलभ जीवन-पथ का अनुसरण करती आई हैं, इन पौराणिक नारी चरित्रों पर आघात करके देश की नारियों को दिग्भ्रमित करने का कुत्सित प्रयास भारतीय नारियों को स्वीकार्य नहीं है।

वे दाम्पत्य प्रेम की ऐसी दिव्य प्रतिमाएं हैं जिनसे प्रेरणा लेकर कोटि-कोटि भारतीय नारियां अपना पथ स्वयं प्रदर्शित करती आई हैं। किसी पुरुष ने भारतीय नारियों पर यह दबाव नहीं डाला है कि वे इन्हीं नारियों को अपना जीवन आदर्श मानें! यह समस्त स्वीकार्यता स्वैच्छिक है, आनंददायी है तथा जीवन को सुंदर बनाने का सिद्ध मंत्र है।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

श्रीराम जन्मभूमि पर वामपंथी इतिहासकारों का मकड़जाल

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श्रीराम जन्मभूमि - bharatkaitihas.com
श्रीराम जन्मभूमि

वर्ष 2024 के आरम्भ में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का उद्घाटन होने के साथ ही यद्यपि रामजन्मभूमि संघर्ष का पटाक्षेप हो चुका है तथापि इस विषय पर वामपंथी इतिहासकारों का मकड़जाल अपने पीछे कई प्रश्न छोड़ गया है।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का धरती पर कब अवतरण हुआ, उनका प्राकट्य किस स्थान पर हुआ, उनकी लीलाएं कहाँ-कहाँ हुईं, आदि विषयों पर इतिहास और पुरातत्व के साथ-साथ हिन्दुओं की धार्मिक मान्यताएं एवं जनभावनाएं भी महत्व रखती हैं किंतु वामपंथी इतिहासकारों ने इन समस्त दृष्टिकोणों की उपेक्षा करके अपनी वही घिसी-पिटी राजनीति का निर्वहन किया जो वे देश की आजादी के बाद से ही करते आए हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक के. के. मुहम्मद ने वामपंथी इतिहासकारों का मकड़जाल खुल कर देश के सामने रखा है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक के. के. मुहम्मद ने मलयालम में लिखी अपनी आत्मकथा- ‘न्यांन एन्ना भारतियन’ यानी ‘मैं एक भारतीय’ में पुरातात्विक महत्व के कुछ साक्ष्यों की चर्चा की है। जनवरी 2016 में प्रकाशित इस पुस्तक के लेखक मुहम्मद ई.1976-77 में अयोध्या में हुए उत्खनन और अध्ययन से जुड़े रहे थे।

वे प्रोफेसर बी. बी. लाल के नेतृत्व में गठित उस पुरातत्व दल के सदस्य थे जिसने दो महीने अयोध्या में रहकर उत्खनन किया था। इस दल को वहाँ एक प्राचीन मंदिर के अवशेष दिखे और उनसे यह स्पष्ट हुआ कि बाबरी मस्जिद का निर्माण मंदिर की अवशेष सामग्री से ही हुआ था।

के. के. मुहम्मद ने लिखा है कि बाबरी मस्जिद की दीवारों पर मंदिर के स्तंभ थे। ये स्तंभ काले पत्थरों से बने थे। स्तंभों के निचले भाग पर पूर्ण कलशम जैसी आकृतियां मिलीं, जो 11वीं और 12वीं सदी के मंदिरों में दिखाई देती हैं। वहाँ ऐसे एक-दो नहीं, अपितु 1992 में मस्जिद विध्वंस के पहले तक 14 स्तंभ मौजूद थे।

के. के. मुहम्मद ने लिखा है कि मस्जिद के पीछे और किनारे वाले हिस्सों में एक चबूतरा भी मिला जो काले बेसाल्ट पत्थरों से निर्मित है। इन साक्ष्यों के आधार पर दिसंबर 1990 में उन्होंने कहा कि वहाँ एक मंदिर ही था।

मुहम्मद के अनुसार तब तक यह ज्वलंत मुद्दा बन गया था, फिर भी बहुत से उदारवादी मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद को हिंदुओं को सौंपने पर सहमति व्यक्त की किंतु उनमें सार्वजनिक रूप से ऐसा कहने की हिम्मत नहीं थी।

मुहम्मद ने लिखा है कि यदि तब बात आगे बढ़ती तो अयोध्या विवाद का पटाक्षेप हो सकता था। कठिनाई यह हुई कि इस विवाद में वामपंथी इतिहासकार कूद पड़े और उन्होंने उन मुसलमानों के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किए जो मंदिर स्थल को हिंदुओं को सौंपने के पक्ष में नहीं थे।

के. के. मुहम्मद ने एस गोपाल, रोमिला थापर और बिपिन चंद्रा जैसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के इतिहासकारों का विशेष रूप से उल्लेख किया जिन्होंने रामायण की ऐतिहासिकता पर प्रश्न उठाने के साथ ही कहा कि 19वीं शताब्दी से पहले मंदिर विध्वंस के कोई साक्ष्य नहीं हैं।

इन वामपंथी इतिहासकारों ने यहाँ तक कहा कि अयोध्या तो बौद्ध और जैन धर्म का केंद्र था। प्रोफेसर आर. एस0 शर्मा, अख्तर अली, डी. एन. झा, सूरज भान और इरफान हबीब भी उनके साथ हो गए। इस खेमे में सिर्फ सूरजभान ही पुरातत्व विशेषज्ञ थे। उन्होंने इसी रूप में अनेक सरकारी बैठकों में भाग लिया था।

इनमें से अधिकांश बैठकें इरफान हबीब के नेतत्व में हुई थीं जो उस समय भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष भी थे। तत्कालीन सदस्य सचिव एम. जी. एस. नारायणन ने परिषद परिसर में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की बैठक का विरोध भी किया था, किंतु इस आपत्ति का उन पर कोई असर नहीं हुआ।

उन्होंने मीडिया में अपने संबंधों का प्रयोग करके अयोध्या मामले में तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया। वामपंथी इतिहासकारों की बातों ने उन उदार मुसलमानों का रुख भी बदल दिया जो पहले हिन्दुओं से समझौते के पक्ष में थे।

मुहम्मद इसके लिए प्रमुख मीडिया समूहों को भी दोषी मानते हैं जो लगातार इन वामपंथी इतिहासकारों को प्राथमिकता देते रहे। वामपंथी इतिहासकारों ने समझौते की संभावना सदैव के लिए समाप्त कर दी। यदि उसी समय समझौता हो गया होता तो देश में हिंदू-मुस्लिम सम्बन्ध में इतनी कटुता न आई होती और इसके साथ ही कई अन्य मामले भी सुलझ जाते।

वामपंथी इतिहासकारों की कुचेष्टाओं और इलेक्ट्रोनिक मीडिया की नासमझी की देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी। भारतीय नागरिक सेवा के एक अधिकारी एरावतम महादेवन ने लिखा है कि ‘यदि इतिहासकारों और पुरातत्वविदों में मतभेद हैं तो उस स्थान की दोबारा खुदाई से इसे हल किया जा सकता है किंतु किसी ऐतिहासिक गलती को सुलझाने के लिए किसी ऐतिहासिक दस्तावेज को ध्वस्त करना गलत है।’

बाबरी विध्वंस के बाद मिले अवशेषों में मुहम्मद ने ‘विष्णुहरि’ दीवार सबसे महत्वपूर्ण बताई। इस पर 11वीं-12वीं शताब्दी में नागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में एक शिलालेख खुदा मिला है कि यह मंदिर विष्णु (भगवान श्रीराम विष्णु के ही अवतार हैं) को समर्पित है जिन्होंने बाली और दस सिरों वाले रावण का वध किया था।

वर्ष 2003 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के निर्देशानुसार हुई खुदाई में भी 50 से भी अधिक मंदिर स्तंभ मिले। इनमें मंदिर के शीर्ष पर पाई जाने वाली अमालका और मगरप्रणाली अति महत्वपूर्ण हैं। यहाँ से कुल मिलाकर 263 प्रमाण प्राप्त हुए।

उनके आधार पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने निष्कर्ष निकाला कि बाबरी मस्जिद के नीचे मंदिर था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने भी इसे स्वीकार किया।

मुहम्मद यह भी लिखते हैं कि खुदाई के दौरान बहुत सतर्कता बरती गई ताकि पक्षपात के आरोप न लगें। खुदाई दल में सम्मिलित 131 कर्मचारियों में 52 मुसलमान थे। इस खुदाई समिति में बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी की ओर से इतिहासकार सूरज भान, सुप्रिया वर्मा, जया मेनन और इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त एक मजिस्ट्रेट भी थे।

के. के. मुहम्मद के अनुसार इलहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद भी वामपंथी इतिहासकार अपने दुष्प्रचार में लगे रहे।

कविता नायर-फोंडेकर को दिए गए साक्षात्कार में मुहम्मद ने कहा, ‘मुझे लगता है कि मुसलमान बाबरी मामले का हल चाहते थे किंतु वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें बरगलाया। इन इतिहासकारों को पुरातात्विक साक्ष्यों की जरा भी जानकारी नहीं थी। उन्होंने मुस्लिम समुदाय के सामने गलत जानकारी रखी।

मार्क्सवादी इतिहासकारों और कुछ अन्य बुद्धिजीवियों की जुगलबंदी मुसलमानों को ऐसी अंधेरी सुरंग में ले गई जहाँ से वापसी संभव नहीं थी। वह ऐतिहासिक भूल थी।’

के. के. मुहम्मद ने यह भी लिखा है, ‘हिंदुओं के लिए अयोध्या उतना ही महत्वपूर्ण है जितना मुसलमानों के लिए मक्का-मदीना। मुसलमान इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि मक्का-मदीना गैर-मुसलमानों के नियंत्रण में चले जाएं।’

वे लिखते हैं- ‘हिंदू बहुल देश होने के बावजूद अयोध्या में ऐतिहासिक मंदिर गैर-हिंदुओं के कब्जे में चला गया जो किसी भी सामान्य हिंदू को बहुत पीड़ा देता होगा। मुसलमानों को हिंदुओं की भावनाएं समझनी चाहिए। यदि हिंदू यह मानते हैं कि बाबरी मस्जिद राम का जन्म-स्थान है तो मुस्लिम दृष्टिकोण से भी उस जगह से मोहम्मद नबी का ताल्लुक नहीं हो सकता।’

मुहम्मद ने अपनी आत्मकथा में कई स्पष्टीकरण किए हैं और कहा है कि ‘वामपंथी इतिहासकारों ने तथ्यों को विरुपित किया। वे आज भी इस रुख पर अडिग हैं कि बाबरी मस्जिद ढांचे के नीचे राम मंदिर मौजूद था और इसे साबित करने के लिए उनके पास तथ्यों की भी कमी नहीं है। ‘

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी इन्हीं वामपंथी इतिहासकारों द्वारा लिखा गया भारत का इतिहास देश के समस्त विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है, उस इतिहास की फिर से समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है ताकि देश के गौरवशाली अतीत को देश के नागरिकों के समक्ष पूरी सच्चाई के साथ रखा जा सके।

हमारी युवा पीढ़ी श्रीराम जन्मभूमि के इतिहास को पढ़कर ही भौतिकवाद की चमक से दूर रह सकती है तथा अपने देश से वैसा ही प्रेम कर सकती है जैसा वीर सावरकर, लाला लाजपतराय, सुभाष चंद्र बोस और भगतसिंह जैसे लाखों नौजवानों ने आजादी की लड़ाई के समय किया था।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मैं भी जाट हूँ

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मैं भी जाट हूँ!

एक बार ब्रिटिश संसद के अध्यक्ष बर्नाड वैदरहिल डॉ. बलराम जाखड़ से कहा था कि मैं भी जाट हूँ । यह किस्सा सुनाने से पहले हम राजस्थान के एक गांव में रहने वाली सुनहरी बालों वाली लड़की का किस्सा जानते हैं।

उन्नीस सौ नब्बे के दशक के अंतिम वर्षों में, मैं नागौर में जिला सूचना एवं जनसम्पर्क अधिकारी के पद पर पदस्थापित था। जब कारगिल का युद्ध हुआ तो नागौर जिले में भारतीय थल सेना की एक पूरी डिवीजन तैनात की गई।

नागौर राजस्थान के लगभग केन्द्र में स्थित है। इसलिये यहाँ से राजस्थान के पाकिस्तान से लगते हुए पूरे बॉर्डर पर अर्थात् श्रीगंगानगर जिले के हिन्दूमलकोट से लेकर बाड़मेर जिले के शाहगढ़ तक भारतीय सैनिक टुकड़ियों को एक ही समय में पहुंचाया जा सकता था।

उस बटालियन के कुछ उच्च सैन्य अधिकारी नियमित रूप से मेरे कार्यालय में आते थे और मुझसे नागौर जिले की भौगोलिक, सामाजिक, राजनैतिक संरचना के बारे में पूछताछ करते रहते थे। उनमें से कुछ अधिकारी थोड़े खुल गये तो आवश्यकता होने पर अवकाश के दिन मेरे निवास पर भी आने लगे।

एक दिन कर्नल मलिक (पूरा नाम अब याद नहीं) ने मुझसे कहा कि मैं हरियाणा का जाट हूँ। नागौर जिले में भी बहुत बड़ी संख्या में जाट रहते हैं, उनकी कुछ विशेषताएं बताइये।

मैंने कर्नल मलिक से कहा कि इस प्रश्न का जवाब मैं बाद में दूंगा, मेरे साथ चलिये आज मैं आपको स्पार्टा की राजकुमारी दिखाकर लाता हूँ। कर्नल उत्सुकतावश मेरे साथ चल दिया। मैं कर्नल और उसके साथी अधिकारियों को निकटवर्ती गांव की एक प्राइमरी स्कूल में ले गया।

वहाँ उसे मैंने सात-आठ साल की एक ऐसी लड़की दिखाई जो देहयष्टि से सचमुच यूनानी दिखती थी। उसकी पतली लम्बी गर्दन, सुनहरी बाल, गोरा रंग और भूरापन लिये हुए सुन्दर शरबती सी आंखें। कर्नल हैरान रह गया।

बोला, क्या यह सचमुच स्पार्टा से आई है? मैंने हंसकर जवाब दिया। यह तो इसी गांव की बच्ची है किंतु ऐसा लगता है कि सैंकड़ों साल पहले इसके पूर्वज अवश्य यूनान से आये होंगे। इसी कारण यह ऐसी दिखाई देती है।

मैंने कर्नल को बताया कि यह अकेली ऐसी लड़की नहीं है, यहाँ बहुत से बच्चे ऐसे मिल जायेंगे जिनके बाल बचपन में सुनहरी रंग के होते हैं और जब वे बड़े होते हैं तो उनके बाल काले हो जाते हैं।

कर्नल ने मुझसे पूछा, तो क्या जाटों के पूर्वज यूनान से भारत आये थे? मैं इस प्रश्न का कोई समुचित जवाब तो नहीं दे सका किंतु मैंने उसे कुछ वर्ष पहले घटित हुआ एक किस्सा सुनाया जो भारत की लोकसभा के अध्यक्ष डॉ. बलराम जाखड़ के साथ घटित हुआ था।

एक बार संसद अध्यक्षों का एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ जिसमें डॉ. बालराम जाखड़ भी गये। वहाँ उनकी भेंट ब्रिटिश संसद के अध्यक्ष बर्नाड वैदरहिल से हुई। बातों-बातों में जाखड़ ने उन्हें बताया कि ‘मैं भारत के पंजाब राज्य का रहने वाला हूँ और जाट कम्यूनिटी से हूँ।’

इस पर वैदरहिल ने भी जाखड़ को अपना परिचय देते हुए कहा, मैं भी जाट हूँ ।

कर्नल मलिक इस घटना को सुनकर हैरान रह गया।

मैंने कर्नल को यह भी बताया कि मैंने सुना है कि डेनमार्क देश में एक जिला जुटलैण्ड नाम से जाना जाता है और यह माना जाता है कि जाट मूलतः जुटलैण्ड के निवासी हैं। कर्नल मेरी इस बात से सोच में पड़ गया और मुझसे विदा लेकर चला गया।

 बाद में एक दिन उसने मुझे बताया कि वह कई स्कूलों और गांवों में जाकर जाट जाति के बच्चों को देखकर आया है, आपकी बात सही है। ऐसे कई बच्चे हैं जिन्हें यदि यूरोपियन्स की तरह कपड़े पहना दिये जायें तो कोई कह ही नहीं सकता कि ये भारतीय हैं।

इस प्रकार सामान्य रूप से आरम्भ हुआ वार्तालाप न केवल उस कर्नल के लिये अपितु मेरे लिये भी इतिहास की पहेली बन गया।

जब कुछ साल बाद मैंने नागौर जिले का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास लिखा तो इस प्रश्न पर भी कुछ तथ्य जुटाने की चेष्टा की और अपनी तरफ से निष्कर्ष प्रस्तुत किया, जिसे उस समय बेहद सराहा गया। इन तथ्यों की चर्चा लगभग पूरे राजस्थान में हुई।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

जाट कौन हैं – कहाँ से आए हैं!

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जाट कौन हैं

जाट कौन हैं – कहाँ से आए हैं! इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना आसान नहीं है। यह एक प्राचीन भारतीय जाति है। भारत की अन्य बहुत सी जातियों की तरह इस जाति का इतिहास भी उलझा हुआ है।

आज सम्पूर्ण उत्तर भारत में जाट जाति बड़ी संख्या में निवास करती है। उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में जाट जाति का सघन अधिवास दृष्टिगोचर होता है।

जाटों की देहयष्टि उत्तर भारत में निवास करने वाली कतिपय आर्य जातियों यथा ब्राह्मणों, राजपूतों, महेश्वरियों, अग्रवालों, मालियों, मीणों, गूजरों आदि से कुछ निश्चित भिन्नताएं लिये हुए है।

देहयष्टि के आधार पर कतिपय इतिहासकारों ने जाटों को विदेशी मूल के आर्य तो कुछ इतिहासकारों ने भारतीय आर्य ठहराने की चेष्टा की है।

अनके विदेशी इतिहासकारों ने गुर्जरों और अनेक क्षत्रिय कुलों की भांति जाटों को विदेशी मूल का माना है। उन्होंने गुर्जरों को खिजरों की, राजपूतों को हूणों की तथा जाटों को सीथियनों की संतान माना है।

निःसंदेह जाट कृषक और पशुपालक जाति है किंतु निरी कृषक और पशुपालक जाति नहीं है। आवश्यकता होने पर जाट जाति ने हथियार उठाने में संकोच नहीं किया।

सत्रहवीं शताब्दी में मुगल बादशाह औरंगजेब के जीवनकाल का अधिकांश समय उत्तर भारत में जाट शक्ति का दमन करने में और दक्षिण भारत में मराठा शक्ति का दमन करने में लगा।

जब अठारहवीं शताब्दी में मुगल बादशाह कमजोर हो गये और मराठों ने उत्तर भारत की राजपूत रियासतों को रौंदकर रख दिया तब भरतपुर के जाट हथियार उठाकर मराठों का सामना करने के लिये आगे आये।

जब ई.1757 में अहमदशाह अब्दाली के भय से मुगल बादशाह आलमगीर (द्वितीय) लाल किले में बंद होकर बैठ गया और मराठे नर्बदा को पार करके दक्खिन को भाग गये तब भरतपुर के जाट मथुरा की रक्षा के लिये 10 हजार जाट सैनिकों के सिर कटवाने को तत्पर हुए।

अंग्रेजों के शासन काल में भी और वर्तमान प्रजातान्त्रिक सरकारों के काल में भी जाट जाति के युवक प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में सेना में भरती होते हैं तथा भारतीय सेना में गोरखा, राजपूत एवं मराठा रेजीमेंट की तरह जाट रेजीमेंट भी अस्तित्व में है।

केन्द्र सरकार एवं अनेक राज्य सरकारों के शिक्षा विभाग, पुलिस विभाग एवं राजस्व आदि विभागों में भी जाट जाति के व्यक्ति बहुत बड़ी संख्या में नौकरी करते हैं।

भारत में जाटों के अतिरिक्त ऐसी कोई अन्य जाति नहीं है जो कृषि, पशुपालन, व्यापार तथा युद्ध आदि अलग-अलग प्रवृत्तियों के कार्यों में समान रूप से प्रतिभा सम्पन्न हो।

जाट एक ऐसी जाति है जिसमें काले रंग का व्यक्ति शायद ही कभी देखने को मिलता है। इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाये तो जाट गोरे, पतले, लम्बे और परिश्रमी देहयष्टि वाले ही हैं।

इसलिये इतिहास की दृष्टि से यह जानना रोचक तथा महत्त्वपूर्ण होगा कि जाट कौन हैं – कहाँ से आए हैं! ये भारतीय मूल के हैं अथवा विदेशों से आकर भारत में बसे हैं।

जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न मत

इतिहासकारों द्वारा जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जितने मत स्थापित किये गये, उतने अधिक मत किसी अन्य जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्थापित नहीं किये गये। इनमें से कुछ प्रमुख मत तथा उनकी व्याख्याएं इस प्रकार से हैं-

मत-1. जाट ईसा की प्रारम्भिक सदी में सीथियनों के भारत आक्रमण के समय उनके साथ बाहर से आये थे। सम्भवतः जाट सीथियनों से ही उत्पन्न हुए थे।

व्याख्या- यह मत हेरोडोटस के मत के आधार पर ईस्वी 1820 के आसपास कर्नल टॉड ने स्थापित किया था।

निष्कर्ष- यह मत सही नहीं माना जा सकता क्योंकि सीथियनों के भारत पर आक्रमण से पूर्व भी जाट सिंध में रहते थे।

मत-2. जाट, जाठर क्षत्रिय हैं तथा ब्राह्मणों से उत्पन्न हुए हैं।

व्याख्या- यह मत ईस्वी 1869 में अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश) के विद्वान अंगद शास्त्री द्वारा प्रतिपादित किया गया था। उन्होंने पुराणों में से यह श्लोक उद्धृत किया-

क्षत्र शून्ये पुरा लोके मार्गवेन यदा लोके।

विलोक्या क्षत्रियां धरणी कन्यास्तेषां सहस्रशः 

ब्राह्मणान् जगृहुस्मिन् पुत्रोत्पादन लिप्सया।

जठरे धारितं गर्भ संरक्ष्य विधिवत् पुरा।।

पुत्रान् सुषुविरे कन्या जाठरान् क्षात्रवंशजान्ं।

अर्थात् जब परशुराम ने भारतखण्ड को क्षत्रियों से रहित कर दिया तो क्षत्रिय कन्याओं ने भारत खण्ड को क्षत्रिय रहित जानकर ब्राह्मणों से गर्भाधान स्वीकार किया और अपने जठर में धारित गर्भ की रक्षा करके जाठर नाम के क्षत्रवंशीय पुत्रांे को उत्पन्न किया जो आगे चलकर जाट कहलाये।

निष्कर्ष- यह मत अपने समर्थन में पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता है। अतः यह अधिक विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।

पुराणों के अनुसार परशुराम द्वारा क्षत्रियों का संहार कर देने के बाद समाज की रक्षा करने के लिये महर्षि वसिष्ठ द्वारा आबू पर्वत पर यज्ञोत्सव आयोजित करके समाज के जिन चार वीरों को क्षेत्रिय धर्म अपनाने का आदेश दिया गया था वे प्रतिहार, परमार, चौलुक्य तथा चाहमान नामों से प्रसिद्ध हुए न कि जाठर। जाट मूलतः वैश्य वर्ण के अंतर्गत आने वाला कृषक वर्ग है। जाटों ने मुगलों के भारत में आने के बाद छोटे-छोटे राज्य स्थापित अवश्य किये किंतु इनका कोई प्राचीन साम्राज्य या राजवंश नहीं था।

मत-3. वेदों में जिन्हें ‘ज्येष्ठ कहा गया है, वही आगे चलकर जाट कहलाये।

व्याख्या- यह मत यजुर्वेद के इस मंत्र के आधार पर स्थिर किया गया है- ‘इमम् देवाऽसपत्नं सुवध्वं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठाय महते जान राज्यायेन्द्र स्येन्द्रियाय……।

निष्कर्ष- पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में इसे स्वीकार नहीं किया जा सका। ज्येष्ठ से ‘जेठ’ बनता है, न कि जाट।

मत- 4. महाभारत में राजसूय यज्ञ के अवसर पर भगवान कृष्ण को ज्येष्ठ की उपाधि दी गई थी। श्रीकृष्ण के वंशज यदु तथा जाट नाम से प्रसिद्ध हुए।

व्याख्या-इस मत के समर्थन में कहा जाता है कि जाटों के गोत्र यदुवंशियों से मेल खाते हैं।

निष्कर्ष- जिस प्रकार जाटों के गोत्र यदुवंशियों से मेल खाते हैं उसी प्रकार चन्द्रवंशियों एवं सूर्यवंशियों से भी मेल खाते हैं, अतः इस तथ्य को प्रमाण नहीं माना जा सकता।

मत-5. जाटों की उत्पत्ति शिव की जटाओं से हुई।

व्याख्या- इस मान्यता के अनुसार जब सृष्टि की रचना हुई तब महादेव ने अपनी जटा में से कुछ भस्म निकालकर देवी पार्वती को दी। पार्वती ने उस भस्म का पुतला बनाकर महादेव से उसमें प्राण डालने की प्रार्थना की।

महादेव ने पुतले में प्राण फूंक दिये। पार्वती ने उसका नाम ‘हरतीतरवाल’ रखा। हरतीतरवाल के दो बेटे गोदारा और पूनिया हुए जिनमें से जाटों की दो खापें गोदारा और पूनिया बनी। पीछे से और भी कौमें जाटों में मिल गईं।

इसी प्रकार की एक कथा पुराण में अन्य स्थान पर भी मिलती है। इस कथा के अनुसार जब सती के पिता दक्ष ने यज्ञ किया और उसमें शिवजी को नहीं बुलाया तो सती बिना बुलाये ही अपने पिता के घर जा पहुंची।

वहाँ सती अपने पति भगवान शिव का यज्ञ भाग न देखकर अपने पति के अपमान के कारण योगानल से जलकर भस्म हो गई। शिवजी ने दक्ष को दण्ड देने के लिये अपनी जटा से वीरभद्र नामक गण उत्पन्न किया। इसी वीरभद्र के वंशज जाट कहलाये।

निष्कर्ष- जाटों का शिवजी की जटाओं से जो सम्बन्ध स्थापित किया गया है, वह एक ऐतिहासिक रूपक प्रतीत होता है जिसमें ऐतिहासिक सच्चाई छिपी हुई है। इस पर हम विस्तार से चर्चा आगे चलकर करेंगे।

मत-6. जाट बाल्हीक कबीले की जर्तिका शाखा से उत्पन्न हुए हैं।

व्याख्या- इस मत का प्रतिपादक जेम्स कैम्पबैल नामक विद्वान था। ग्रियर्सन ने भी इसी मत को स्वीकार किया है। वराह मिहिर की पुस्तक में जटासुराः तथा जटाधराः नामक जाति के लोगों को कावेरी के उत्तर-पूर्व और दक्षिण में निवास करना बताया गया है। जेम्स कैम्पबैल कहता है कि जर्तिका विदेशी थे तथा जिस समय कुषाणों ने भारत पर आक्रमण किया, उस समय जर्तिका भी भारत में आये। यही जर्तिका आगे चलकर जाट कहलाये।

ग्रियर्सन का कहना है कि महाभारत में मद्र देश के प्रसंग में मद्रक तथा जर्तिका कबीलों का वर्णन आया है। ये दोनों कबीले, बाल्हीक अथवा वाहीक कहे गये हैं। महाभारत में कहा गया है कि गंगा-यमुना, कुरुक्षेत्र और हिमालय से बाहर तथा रावी, चेनाव, झेलम, सतलुज, व्यास और सिंधु नदी के बीच में बाह्लीक देश है। वहां आपगा नदी के तट पर शाकल नामक नगर है, उसमें जर्तिका बाह्लीक जाति के नीच मनुष्य रहते हैं।

ग्रियर्सन कहता है कि हिमालय में वर्णित यह प्रदेश आज का पंजाब है। भारत और पाकिस्तान दोनों का संयुक्त पंजाब। पंजाब में आज भी बहुत बड़ी संख्या में जाट निवास करते हैं। अतः स्पष्ट है कि जर्तिका जाति ही आगे चलकर जाटों में बदल गई।

इस मत को के. आर. कानूनगो, ठाकुर देशराज तथा डॉ. रणजीत सिंह आदि ने गलत ठहराया है। उनके अनुसार महाभारत में जिस जर्तिका जाति का वर्णन आया है, वे आज के कश्मीरी हैं, न कि जाट। अपने समर्थन में ये विद्वान महाभारत के कर्ण पर्व में कर्ण द्वारा शल्य को कहे गये इस वक्तव्य का उल्लेख करते हैं-

‘वे (जर्तिका) धान और गुड़ की शराब बनाकर पीते हैं और लहसुन के साथ गोमांस खाते हैं। इनमें पिता, पुत्र, माता, श्वसुर और सास, चाचा, बहिन, मित्र, अतिथि, दास तथा दासियों के साथ मिलकर शराब पीने और गोमांस खाने की परम्परा है। इनकी स्त्रियां शराब में धुत्त होकर नंगी नाचती हैं। वे गोरे रंग तथा ऊँचे कद की हैं।

इस प्रदेश की ़िस्त्रयां बाहर दिखाई देने वाली मालाएं और चन्दन आदि सुगन्धि लगाकर, शराब पीकर, मस्त होकर, नंगी होकर, घर-द्वार और नगर के बाहर हँसती-गाती और नाचती हैं। वे ऊनी कम्बल लपेटती हैं, उन स्त्रियों का स्वर गधे और ऊँट के समान होता है। उनमें प्रत्येक प्रकार के शिष्टाचार की कमी है। वे खड़ी होकर पेशाब करती हैं।’

मद्रराज शल्य को नीच ठहराता हुआ कर्ण कहता है- ‘किसी समय बाह्लीक देश का एक व्यक्ति कुरुजांगल (आज का नागौर-बीकानेर क्षेत्र) में आया। एक दिन वह उदास मन से स्त्रियों के बारे में सोचने लगा कि ऊन के कम्बल की साड़ी पहनने वाली मेरी मोटी, गोरी स्त्री मेरा स्मरण करती होगी। इसलिये मैं शतद्रु तथा इरावती को पार करके अपने देश जाऊंगा तथा बड़ी-बड़ी चूड़ियांे को पहनने वाली उन सुन्दर स्त्रियों को देखूंगा। सुखद मार्गों वाले पीलू-कैर और शमी (खेजड़ी) वाले वन में, मैं कब जाऊंगा? ……. जो सूअर, मुर्गा, गाय, गधा, ऊँट और भेड़ का मांस नहीं खाते उनका जन्म निरर्थक है………….।’

कर्ण आगे कहता है – ‘हे शल्य! जहां पीलू और दाख का विशाल वन है उसी देश में सतलुज, रावी, व्यास, झेलम, चिनाव और सिंधु नदियां बहती हैं, उन देशों का नाम आरट्ट है। वहां के मनुष्य अधर्मी होते हैं। वे मिट्टी और काठ के बर्तनों में खाते हैं, उन्हीं बर्तनों को कुत्ते चाटते हैं, उन्हीं में ये लोग घृणा रहित होकर भोजन करते हैं। वे बकरी, गधी और ऊँटनी का दूध पीते हैं। उनकी सृष्टि प्रजापति से नहीं हुई। वे तो वाही और हीक नामक पिशाच दम्पत्ति की संतान हैं।’

निष्कर्ष- कानूनगो तथा उनके मत के अन्य विद्वानों का कहना है कि बाह्लीक देश कोई ठण्डा प्रदेश था तभी तो वहां की स्त्रियां ऊनी कम्बल की साड़ियां पहनती थीं। अतः बाह्लीक देश का जर्तिका कबीला कश्मीरियों का पूर्वज था, न कि जाटों का। जर्तिका जाति गौमांस खाती थी किंतु जाट तो गाय के पुजारी हैं, उसे माता मानते हैं। जर्तिका जाति को बाही तथा हीक पिशाच दम्पत्ति से उत्पन्न बताया गया है। इसका अर्थ है कि वे आर्यों से अलग थे जबकि जाट तो आर्य हैं। इस प्रकार ये विद्वान जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जर्तिका मत का खण्डन करते हैं।

मत-7. जाटों की उत्पत्ति श्रीकृष्ण द्वारा बनाये गये ‘ज्ञाति’ संघ से हुई है।

व्याख्या- इस मत के प्रतिपादक ठाकुर देशराज हैं। उनका मानना है कि यदुवंश की अन्धक तथा वृष्णि शाखाओं ने एक राजनैतिक संघ स्थापित किया। इस संघ के भीतर कंस को परास्त करने के उपरान्त श्रीकृष्ण ने यादवों के अनेक प्रजातन्त्रीय समूहों को एकत्रित करके जरासन्ध की दृष्टि से दूर एक ऐसी शासन प्रणाली की नींव डाली जो प्रजातन्त्रीय थी तथा उसमें कोई भी जाति सम्मिलित हो सकती थी।

यह संघ ‘ज्ञाति’ कहलाता था। इसमें सम्मिलित होने वाले व्यक्ति को अपने पूर्व वंश से पुकारे जाने के स्थान पर ‘ज्ञाति’ कहा जाता था। इस प्रकार विभिन्न जातियांे का समूह ‘ज्ञाति’ कहलाया और आगे चलकर जाट बन गया।

निष्कर्ष- यह मत स्वीकार नहीं किया जा सकता। जाट जाति एक स्वतंत्र तथा सबसे भिन्न जाति है। यह विभिन्न प्रकार की जातियों का समूह नहीं है, इस बात की पुष्टि जाटों की शारीरिक रचना को देखने मात्र से हो जाती है।

मत-8. जाट अजातीय हैं।

व्याख्या- यह मान्यता लोक प्रचलित है। इसके अनुसार जब महाभारत के युद्ध में क्षत्रिय पुरुष नष्ट हो गये तब श्रीकृष्ण ने क्षत्रिय नारियां विभिन्न वर्णों के पुरुषों को सौंप दी। इन क्षत्रिय स्त्रियों से उत्पन्न संतान की कोई एक जाति नहीं थी। अतः वे अजातीय कहलाये और आगे चलकर ‘जाट’ बन गये।

निष्कर्ष- यह मत भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। वस्तुतः ठाकुर देशराज ने श्रीकृष्ण द्वारा जिस ‘ज्ञाति’ संघ की स्थापना की कल्पना की है, वह कल्पना इसी मत का परिष्कृत रूप मात्र है।

मत- 9. जाट दसरेक जाति के वंशज हैं।

व्याख्या- राजशेखर रचित काव्यमीमांसा के पंचादेशों में दसरेक जनपद के एक दूत का वर्णन है। उसका मुख बकरे का सा, आंखें बंदर की सी भूरी तथा कन्धा भूरे बालों से युक्त बताया गया है। अपने गुह्य स्थानों को ढंकने के लिये उसने फटे-पुराने चिथड़े काम में लिये थे और वह मूली खाता आ रहा था जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि यह पिशाच है। उसकी भाषा भी प्राचीन राजस्थानी अपभ्रंश जैसी है। इस दूत के ‘दसरेक जनपद’ को आज का पश्चिमी राजस्थान तथा इस दूत को प्राचीन आभीर माना जाता है। आचार्य परमेश्वर सोलंकी ने इन आभीरों को जाटों का पूर्वज अनुमानित किया है।

निष्कर्ष- राजशेखर की काव्यमीमांसा में वर्णित दसरेक जनपद का व्यक्ति जाट है, यह किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होता। आभीरों की संतानें जाट हुईं, इस सम्बन्ध में भी कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता। अतः यह मत पूर्णतः गल्पमात्र है।

मत- 10. जाट नागवंशी हैं।

व्याख्या- जाटों में तक्षक, कालिय, कुठर तथा कुण्डु आदि गोत्र पाये जाते हैं। अतः इस मत को मानने वाले विद्वानों का कहना है कि जाट ‘जितनाग’ नामक जाति के वंशज हैं। पुराणों में नागों की इन शाखाओं का प्रमुखता से उल्लेख हुआ है- (1.) तक्षक, (2.) जितनाग, (3.) वसाति, (4.) कालपौनिया, (5.) कलकल।

जितनागों से जाटों की उत्पत्ति हुई तथा वसाति, जाटों के वैस वंश के नाम से विख्यात हुआ। वैस वंश की चार शाखाएं कादियान, सांगवान, सौराण तथा जाखड़ आज भी प्रचलित हैं। डॉ. योगेन्द्रपाल शास्त्री के अनुसार होशियारपुर (पंजाब) के समीप श्रीमालपुर वसाति जाटों की जन्म भूमि थी।

हेरोडोटस कहता है कि जित लोग एकेश्वरवादी थे। डिगायन के अनुसार ये बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। कर्नल टॉड ने अग्निवंश से उत्पन्न क्षत्रियों के छत्तीस कुलों में जित नामक राजकुल भी वर्णन किया है।

कर्नल टॉड को ईस्वी 1820 में कोटा से दक्षिण में कुछ दूरी पर स्थित कुनसूयां नामक गांव में एक प्राचीन शिलालेख प्राप्त हुआ था। इस शिलालेख के अनुसार जित वंश के किसी राजा ने यदुकुल की किसी स्त्री से विवाह किया था।

ज्वालाप्रसाद मिश्र ने भी एक प्राचीन शिलालेख का हवाला देते हुए लिखा है कि जित तक्षक वंशीय हैं। इस शिलालेख के अनुसार- ‘विख्यात जित् पार्वती के स्तनों से निकलने वाले अमृत का पान करता है, जिसके पूर्व पुरुष वीर तुरक्ष (तक्षक) महादेव के गले में हार की भांति विराजमान रहते हैं।’

कर्नल टॉड ने तक्षकों की गणना छत्तीस राजकुलों में की है। यह राजवंश महाभारत के समय भी अस्तित्व में था। कर्नल टॉड के अनुसार तक्षक शकद्वीप से भारत में आये थे और एक समय इन्होंने अपने पराक्रम से सारे भूमण्डल को कंपा दिया था।

निष्कर्ष- यह मत पूर्णतः सही नहीं जान पड़ता कि जाट नागों की जित अथवा तक्षक शाखा से हैं। नाग नगर व्यवस्था बनाकर रहने वाले थे। जबकि जाट ग्राम्य सभ्यता के निवासी हैं। इस मत में से इतना तथ्य स्वीकार किया जा सकता है कि जब जाट जाति पूरे उत्तर भारत में फैल गई थी, तब नागों के कुछ कबीले जाट जाति में सम्मिलित हो गये।

मत-11. जाट आर्य हैं।

व्याख्या- नेसफील्ड ने लिखा है- ‘यदि सूरत शक्ल, कुछ समझे जाने वाली चीज है तो जाट सिवाय आर्यों के कुछ नहीं हो सकते।’

हैवेल ने लम्बे कद, सुन्दर चेहरा, पतली-लम्बी नाक, चौड़े कन्धे, लम्बी भुजाएं, शेर की सी कमर और हिरण की सी पतली टांगों के कारण इन्हें आर्य ठहराया है।

चिन्तामणि वैद्य ने लिखा है कि जाट हूणों के सम्बन्धी नहीं अपितु शत्रु थे। जाटों ने हूणों का सामना किया और उन्हें परास्त किया। वे सुन्दर, लम्बी और बड़ी नाक वाले हैं।

इलियट इनकी बोली एवं शारीरिक गठन से इन्हें आर्यों का वंशज बताता है।

निष्कर्ष- इस मत के विरोध में कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता। आज भी हिमालय पर्वत पर जो परम्पारगत आर्य कबीले निवास करते हैं और जिनका बाह्य दुनिया से सम्पर्क कम रहा है, वे देहयष्टि में जाट जाति के काफी निकट प्रतीत होते हैं। अतः इस मत को मानने में कोई आपत्ति नहीं है।

मत-12. जाट विदेशी मूल के हैं।

व्याख्या- विभिन्न विदेशी विद्वानों तथा कतिपय भारतीय विद्वानों ने आर्यों के विदेशी जाति होने के सम्बन्ध में मुख्यतः तीन सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं- 1. यूरोपीय सिद्धांत, 2. मध्य एशिया का सिद्धांत, 3. आर्कटिक प्रदेश का सिद्धांत।

यदि उपरोक्त तीनों सिद्धांतों में से किसी भी एक मत को सही मान लिया जाता है तो जाट भी सम्पूर्ण आर्य जाति की तरह विदेशी मूल के ठहरते हैं।

निष्कर्ष- चूंकि आर्यों के भारत में बाहर से आने का सिद्धांत अधिकांश भारतीय इतिहासकारों द्वारा अमान्य घोषित कर दिया गया है, इसलिये जाटों के सम्बन्ध में भी यह धारणा अमान्य हो जाती है। क्योंकि जाट भी आर्य ही हैं।

मत-13. जाट जुटलैण्ड के निवासी हैं।

व्याख्या- इस सिद्धांत की स्थापना करने वालों का कहना है कि डेन्मार्क में जुटलैण्ड नामक एक जिला है। जाट मूलतः वहीं के रहने वाले हैं।

इस मत के समर्थन में ‘डेन्मार्क’ शब्द की संस्कृत शब्द के ‘धेनुमार्ग’ शब्द से समानता को भी देखा जा सकता है। धेनुमार्ग का अर्थ होता है- गायों का मार्ग, जहाँ बहुत बड़ी संख्या में गायें विचरण करती हैं।

आज भी डेन्मार्क पूरे विश्व में सर्वाधिक दुग्धोत्पादन के लिये प्रसिद्ध है।

निष्कर्ष- जाटों का मुख्य व्यवसाय खेती तथा पशुपालन है। अतः इस मत को मानने में कोई अतिश्योक्ति दिखाई नहीं देती कि धेनुमार्ग (डेन्मार्क) में जाट रहते थे। वे गायें पालते थे और उनका मूल स्थान आज भी जुटलैण्ड कहलाता है।

यहाँ एक बात यह भी देखनी होगी कि ‘जाट’ भारत से लेकर जर्मनी तक पाये जाते हैं।

वास्तविकता क्या है ?

जाटों को विदेशी विद्वानों ने शक, कुषाण, हूण, यूची अथवा विदेशी जातियों की संतान होना बताया है, वस्तुतः ये विद्वान एक सोची समझी साजिश के तहत ऐसी मान्यताएं स्थापित करते थे। उन्होंने न केवल जाटों को अपितु गुर्जरों, चौलुक्यों, चावड़ों, प्रतिहारों तथा राठौड़ों को भी विदेशी ठहराने का प्रयास किया।

अंग्रेज एवं अन्य यूरोपीय जातियां जो मध्यकाल में भारत आईं और उन्नीसवीं शताब्दी में देश की वास्तविक शासक बन गईं तो उन्होंने यहाँ की जनता को यह समझाने का प्रयास किया कि न केवल हम, अपितु भारत के पुराने शासक क्षत्रिय अथवा राजपूत भी विदेशी थे। अतः हमसे घृणा करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

विदेशी विद्वानों ने तो यहाँ तक सिद्ध कर दिया कि सम्पूर्ण आर्य जाति ईरान, यूनान, उत्तरी ध्रुव, भूमध्य सागर के तट अथवा किसी अन्य प्रदेश से भारत में आये। ये मान्यताएं भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक तथा धार्मिक परम्पराओं के आधार पर अमान्य ठहराई जा चुकी हैं। जाटों को विदेशी बताना भी इन विदेशी विद्वानों का यही कारण था।

भारतीय समाज का इतिहास ऋग्वेद से मिलना प्रारम्भ होता है। ऋग्वेद में जाति व्यवस्था का नहीं अपितु वर्ण व्यवस्था का उल्लेख है। जातियां तब बनी ही नहीं थीं।

भारतीय समाज के इतिहास की दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक भगवान वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत है। इस पुस्तक में क्षत्रिय जातियों अथवा क्षत्रिय वंशों का विस्तार से उल्लेख हुआ है।

महाभारत में मद्रकों के साथ जाटतृकों का उल्लेख भी हुआ है। महाभारत में जाटतृक (अथवा जर्तिका) जाति के रहने का जो स्थान बताया गया है, वह आधुनिक पंजाब ही है। अतः इस बात की प्रबल की सम्भावना है कि जाटों की उत्पत्ति जाटतृकों से हुई हो।

कर्ण द्वारा मद्रराज शल्य को जाटतृकों के बारे में जो ऊँची-नीची बातें कही गई हैं, वे शाश्वत सत्य नहीं मानी जा सकतीं। कर्ण अपने परिवार एवं समाज से च्युत व्यक्ति था। उसके दुष्ट स्वभाव के कारण ही दुर्योधन ने उसे अपना मित्र एवं सेनापति बनाया था।

मद्रराज शल्य की बहिन माद्री कुरुवंशी महाराज पाण्डु को ब्याही गई थी। पाण्डु की महारानी किसी हीन कुलोजात राजकुल की नहीं हो सकती थी। मद्रराज शल्य निःसंदेह कर्ण से श्रेष्ठ था।

कर्ण का स्वभाव श्रेष्ठ पुरुषों से द्रोह करने तथा उन्हें येन-केन-प्रकरेण नीचा दिखाने का था। अतः कर्ण की किसी बात का विश्वास नहीं किया जा सकता। उसके द्वारा यह कहा जाना कि जर्तिका स्त्रियां शराब पीकर और नशे में नंगी होकर नाचती हैं तथा जिन बर्तनों को कुत्ते चाटते हैं, उन्हीं में जर्तिका लोग भोजन करते हैं, सिवाय दुष्टता के और कुछ नहीं है।

यदि ये लोग ऐसे होते तो इनकी राजकुमारी महाभारत काल के सर्वशक्तिशाली, परम प्रतापी नरेश पाण्डु को न ब्याही गई होती।

लेखक की धारण है कि आज के जाट महाभारत में वर्णित जाटतृक अथवा जर्तिका जाति के वंशज हैं जो बाह्लीक (स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले के संयुक्त पंजाब) देश में रहते थे और वहां से चलकर इनका प्रसार भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, चीन, तिब्बत, मंगोलिया, स्पेन, स्कैण्डिवेनिया, नो-वो गोर्ड, मिश्र, यूनान, तुर्किस्तान, अरब, इंग्लैण्ड, ग्रीक, रोम तथा जर्मनी तक हुआ।

विभिन्न देशों के जाटों ने कालान्तर में अपने देश की सभ्यता, संस्कृति और धर्म को अपना लिया।

यद्यपि भारत के जाटों में नागों के अतिरिक्त अन्य कई जातियां सम्मिलित हैं तथापि वर्तमान समय में जाट अपने मूल स्वरूप से निकटता बनाये रखने में केवल भारत में ही सफल हो सके हैं। वे यहाँ आज भी वैदिक सभ्यता को अपनाये हुए हैं, कृषिकर्म में संलग्न हैं तथा अपने स्वातंत्र्य-प्रिय स्वभाव के कारण सबसे अलग दिखाई देते हैं।

जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ भ्रामक बातों का निराकरण यहीं कर देना उचित होगा। जाटों को आर्येतर जाति मानने, नागों से उत्पन्न होने अथवा शिवजी की जटाओं से उत्पन्न होना बताये जाने के कुछ कारण हैं।

वस्तुतः जिस समय भारतीय समाज वैदिक सभ्यता से आगे निकलकर पौराणिक काल में पहुंचा तो ना-ना प्रकार की जातियां उत्पन्न हो गईं। इन जातियों की उत्पत्ति ऊपर से नीचे हुई थी।

अर्थात् भारतीय समाज में प्रारम्भ में समस्त आर्य ब्राह्मण थे। वे ईश्वर तथा सत्य के साथ-साथ प्रकृति के रहस्यों की खोज करते थे। वे प्रकृति से प्राप्त कन्द, मूल, फल आदि पर जीवन यापन करते थे।

जब उन्हें दूसरे देशों से आने वाले आक्रान्ताओं से अपनी रक्षा करने की आवश्यकता अनुभव हुई तो कुछ ब्राह्मण क्षत्रियों में परिवर्तित हो गये। ऐसा करते समय आर्यों ने देवताओं से अस्त्र-शस्त्र एवं उनके संचालन का ज्ञान प्राप्त किया।

जब समाज के भरण-पोषण के लिये कृषि कर्म एवं पशुपालन की आवश्यकता हुई तो कुछ ब्राह्मण एवं क्षत्रिय; वैश्यों में परिवर्तित हो गये।

सभ्यता और समाज के और आगे बढ़ने पर अनुचरों और सेवकों की आवश्यकता हुई तो कुछ ब्राह्मण,  क्षत्रिय और वैश्य; शूद्र कर्म करने लगे। इन शूद्रों में अन्त्यज सम्मिलित नहीं थे। इन शूद्रों में कुम्हार, सुथार, नाई, माली आदि जातियां सम्मिलित थीं न कि चाण्डाल तथा डोम जैसी अन्त्यज कही जाने वाली जातियां। अंत्यज जातियां तो बहुत आगे चलकर उत्पन्न हुईं।

जैसे-जैसे समाज बढ़ता गया, उसे अनुशासनबद्ध रखने के प्रयास भी बढ़ते गये। ब्राह्मणों ने समाज को धार्मिक अनुशासन में तथा क्षत्रियों ने प्रशासनिक एवं सामरिक अनुशासन में आबद्ध किया।

इस सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणों का देवताओं से सीधा सम्पर्क था। चूंकि देवता पहाड़ों में रहते थे इसलिये ब्राह्मण धरती के देवता कहे जाने लगे।

जब देव जाति नष्ट हो गई और आक्रांताओं से समाज की रक्षा के लिये क्षत्रियों को ही जूझना पड़ा तो वे राजा बन गये और ब्राह्मण या तो उनके पुरोहित एवं मंत्री बनकर रह गये या मानव समाज से दूर जंगलों एवं पर्वतों में ऋषि-मुनि बनकर तपस्या करने लगे।

कुछ वैश्यों ने जो कि कृषि कर्म एवं पशुपालन में संलग्न थे, ब्राह्मणों और क्षत्रियों दोनों की बनाई व्यवस्थाओं को मानने से इन्कार कर दिया और वे स्वतंत्र आचरण करने लगे। यही कारण है कि ब्राह्मणों ने इन्हें अजातीय (बिना जात का) कहकर अपनी खीझ उतारनी चाही। यही कृषिकर्मा लोग आगे चलकर जाट कहलाये।

आगे चलकर आर्यों की नाग उपजाति भी इन्हीं जाटों में विलीन हो गई। समय-समय पर अन्य क्षत्रिय जातियां भी युद्धकर्म त्यागकर कृषि एवं पशुपालन में संलग्न हो गईं तथा वे भी जाटों में सम्मिलित हो गये।

यही कारण है कि जाटों में नागों के तक्षक, कालिय, कुठर तथा कुण्डु गोत्र पाये जाते हैं तो क्षत्रियों के गहलोत, दाहिमा, पंवार, यादव, तंवर तथा मॉर गोत्र भी मिलते हैं।

जाटों की स्त्रियां सिर पर बोर धारण करती हैं जो कि जाटों की नागों से निकटता का परिचायक है। जाटों और नागों की निकटता के सम्बन्ध में दो प्रमाण और दिये जा सकते हैं। एक तो यह कि जहां-जहां नाग रहते थे, उस पूरे क्षेत्र में अब जाट बहुलता से पाये जाते हैं।

नागौर नगर नागों द्वारा बसाया गया था इस कारण नागौर, नागपुर, नागद्रह, अहिच्छत्रपुर (बरेली) तथा अन्य नामों से जाना जाता था। इस क्षेत्र में जाट बहुलता से रहते हैं।

कहा जाता है कि जन्मेजय के नागयज्ञ के बाद बचे हुए नाग इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से चलकर राजस्थान से लेकर नागपुर (महाराष्ट्र) तथा उसके नीचे तक फैल गये।

यही कारण है कि दिल्ली से लेकर हिसार, सीकर, चूरू, झुंझुनूं, बीकानेर, नागौर, जोधपुर, बाड़मेर तथा जैसलमेर आदि जिलों में बड़ी संख्या में जाट रहते है। वस्तुतः इस पूरे क्षेत्र में नागों की बस्तियां थीं जिनके साथ-साथ जाट रहते थे।

नाग नगरों में तथा जाट गांवों एवं ढाणियों में रहते थे। नागों से जाटों की निकटता का दूसरा प्रमाण यह है कि जाटों को भगवान शंकर की जटाओं से उत्पन्न होना बताया गया है। नाग भगवान शंकर के गले में रहते हैं तो जाट नागों से श्रेष्ठ होने के कारण शंकर के सिर की जटाओं से निकले हैं। यही ऐतिहासिक रूपक इस मिथक के पीछे दिखाई देता है।

जाट आज भी ब्राह्मणों की बहुत सारी व्यवस्थाओं को नहीं मानते। जाटों में विधवा विवाह अथवा नाते की प्रथा प्रचलित है। स्त्रियां सामान्यतः पर्दा नहीं करतीं। वंशानुगत अधिकार में जाटों का विश्वास नहीं है। ये वर्गवाद में भी विश्वास नहीं करते। उत्पादन एवं श्रम को महत्व देते हैं।

कानूनगो ने जाटों के बारे में लिखा है कि जाट व्यक्तिवादी हैं और व्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं। जाट वही करता है जो उसकी दृष्टि में ठीक जंचे और कहीं-कहीं वह उसे जानबूझ कर भी करता है जो उसे गलत लगे।

डॉ. रणजीत सिंह ने लिखा है कि चारित्रिक दृष्टि से जाट प्राचीन आंग्ल-सैक्सन और रोमनवासियों के समान प्रतीत होता है। स्वभाव की दृष्टि से वह जर्मनों से मेल खाता है। इवेटशन कहता है कि जाट बातों द्वारा कठिनता से सहमत होता है।

ये सब टिप्पणियां इस बात की द्योतक हैं कि जाटों ने भारतीय आर्य होते हुए भी ब्राह्मणों की व्यवस्था को पूरी तरह नहीं स्वीकारा।

क्षत्रियों से भी इनका पूरा विरोध रहा। जहां कहीं भी जाटों ने अपना शासन स्थापित करना चाहा, क्षत्रियों ने उनका बड़ा भारी विरोध किया किंतु भरतपुर, गोहद, धौलपुर, पंजाब तथा अन्य कुछ स्थानों पर जाटों ने अपने राज्य कायम किये।

जाटों का विरोध केवल ब्राह्मण अथवा क्षत्रियों से ही नहीं रहा अपितु अंग्रेजों के शासनकाल में तेजी से पनपी महाजनी व्यवस्था को भी जाटों ने पूरी तरह से ललकारा।

यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति पर जितना प्रभाव ब्राह्मणों द्वारा बनाई धर्म-व्यवस्था, क्षत्रियों द्वारा बनाई गई शासन व्यवस्था और वैश्यों द्वारा करवाये गये लोकोपकारक कार्यों का है, उतना ही व्यापक और गहरा प्रभाव जाटों के व्यक्ति-स्वातंत्र्य चेतना का भी है।

आजाद भारत में जाटों ने उत्तर भारत की खेती को संवारा है तो भारतीय सेना को लाखों वीर सैनिक भी उपलब्ध कराये हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था पर जाटों का गहरा प्रभाव है।

शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में भी जाट जाति के विद्वान व्यक्तियों ने मील के पत्थर स्थापित किये हैं। यह धर्म-प्राण जाति, गौ-सेवा के प्रति जितनी समर्पित है, उतनी समर्पित कोई अन्य जाति नहीं है।

निष्कर्ष

आदि मनु के समय में और उनके बहुत बाद के काल में भी आर्य बस्तियां भारत से लेकर मध्य एशिया तथा यूरोप महाद्वीप तक फैली हुई थीं। उस काल में अलग-अलग देश अस्तित्व में आने आरम्भ नहीं हुए थे। इसलिये उस समय धरती के जिस क्षेत्र में आर्य जाति विस्तृत थी उस पूरे भू-क्षेत्र को भारत कहा जाना चाहिये।

उस काल में कौनसा आर्य कबीला कहां रहता था और घूमते-घूमते कहाँ जाकर निवास करने लगा, इस सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया जा सकता। हो सकता है कि जाट उस समय जुटलैण्ड में रहते हों।

निष्कर्षतः इतना ही कहा जा सकता है कि जाट जाति आखण्ड भारत के संयुक्त पंजाब क्षेत्र की रहने वाली प्राचीन एवं विशुद्ध आर्य जाति है और पूर्णतः भारतीय है। यह नैतिक परम्पराओं पर आधारित धर्मप्रेमी एवं गौसेवक जाति है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

क्या गुर्जर जनजाति है!

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क्या गुर्जर जनजाति है

क्या गुर्जर जनजाति है! इस विषय पर विचार करने से पहले हमें गुर्जरों के अधिवास क्षेत्र पर एक दृष्टि डालनी चाहिए। उत्तर भारत में गुर्जरों का अधिवास बड़ी संख्या में पाया जाता है। यह जाति कश्मीर की घाटियों से लेकर, पंजाब की नदी क्षेत्रों, राजस्थान के मैदानों तथा नीचे मध्यप्रदेश आदि प्रांतों में पाई जाती है। इनकी मांग है कि चूंकि गुर्जरों में जनजातीय लक्षण पाए जाते हैं, इसलिए इन्हें जनजाति स्वीकार किया जाए।

कौन हैं गुर्जर!

क्या गुर्जर जनजाति है! इस विषय पर विचार करने से पहले हमें गुर्जरों के इतिहास पर एक दृष्टि डालनी चाहिए। गुर्जर जाति के बारे में अभी तक विद्वानों द्वारा निर्विवाद रूप से यह निर्णय नहीं लिया जा सका है कि यह एक आर्य जाति है अथवा आर्येतर जाति है। इसका किसी भारतीय जनजातीय कबीले से उद्भव हुआ है अथवा यह जाति भारत के बाहर के किसी भू प्रदेश से किसी कालखण्ड में भारतवर्ष में आयी है।    

प्राचीन क्षत्रियों के वंशज

क्या गुर्जर जनजाति है! इस विषय पर विचार करते समय हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि  क्या वे प्राचीन क्षत्रियों के वंशज हैं?

सुप्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार प्राचीनकाल में गुर्जर नाम का एक राजवंश था जिसके मूल पुरुष के नाम से उसके वंशज गुर्जर कहलाये। गुर्जर किन्हीं प्राचीन क्षत्रिय राजवंश की संतान हैं, इसके पक्ष में गुर्जर प्रदेश की उपस्थिति एक बड़ा प्रमाण जान पड़ता है।

बहुत से गुर्जरों का भी मानना है कि वे प्राचीन कालीन गुर्जर नामक क्षत्रिय जाति की संतान हैं। उनका दावा है कि गुर्जर प्रतिहार वंश ही उनका मूल वंश है।

कुछ लोग चौहान शासक पृथ्वीराज चौहान को भी गुर्जर मानते हैं क्योंकि पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम् में पृथ्वीराज को गुर्जरेश्वर कहा गया है।

कुछ लोग मिहिरभोज को गुर्जर राजा मानते हैं, जबकि मिहिरभोज प्रतिहार था। वस्तुतः ये लोग प्रतिहारों को ही गुर्जर मानते हैं इसलिए मिहिरभोज को भी गुर्जर राजा मानते हैं।

कुछ लोग मिहिरकुल को गुर्जर मानते हैं जबकि मिहिरकुल तो हूण था।

यदि मिहिरभोज को गुर्जर स्वीकार कर लिया जाए तो गुर्जर विशुद्ध रूप से भारतीय हैं और यदि मिहिरकुल को गुर्जर माना जाए तो गुर्जर विदेशी सीथियन माने जाएंगे। यह दावा अन्य ऐतिहासिक साक्ष्यों से मेल नहीं खाता।

इस प्रकार आजकल कुछ लोग गुर्जरों के इतिहास को उलझा रहे हैं।

गुर्जर प्रदेश एवं गुजरात

क्या गुर्जर जनजाति है! इस विषय पर विचार करते समय हमें गुर्जर प्रदेश एवं गुजरात जैसे राजनीतिक क्षेत्रों अथवा इकाइयों पर पर भी विचार करना चाहिए।

सातवीं शताब्दी ईस्वी एवं उसके बाद के काल में राजस्थान के नागौर जिले में स्थित डीडवाना से लेकर दक्षिण में भड़ौंच तक का सारा प्रदेश गुर्जरों के अधीन था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ई.641 में भारत की यात्रा की। उसने अपनी पुस्तक में गुर्जर देश का वर्णन किया है और उसकी राजधानी भीनमाल होना बताया है।

ह्वेनसांग गुर्जर देश की परिधि 833 मील अर्थात् 1333 किलोमीटर बताता है। इससे अनुमान होता है कि गुर्जरात्रा बहुत बड़ा प्रदेश था और उसकी लम्बाई 300 मील (480 किलोमीटर) रही होगी।

ह्वेनसांग का बताया हुआ गुर्जर देश महाक्षत्रप रुद्रदामा के शक राज्य के अन्तर्गत था किंतु रुद्रदामा के गिरिनार के शक संवत् 72 (वि.सं. 207 या ई.150) से कुछ ही बाद के लेख में उसके अधीनस्थ देशों के जो नाम दिये हैं उनमें गुर्जर नाम नहीं है और उसके स्थान पर ‘श्वभ्र’ और ‘मरु’ नाम लिखे गये हैं जिससे प्रतीत होता है कि ई.150 के आसपास तक ‘गुर्जर देश’ नाम प्रसिद्धि में नहीं था।

शक क्षत्रपों का राज्य समाप्त होने के बाद के किसी कालखण्ड में जो क्षेत्र गुर्जर जाति के अधीन रहा होगा, उसके लिये गुर्जरात्रा शब्द प्रयुक्त हुआ होगा।

ह्वेनसांग के विवरण से हमें ह्वेनसांग के समय के महत्वपूर्ण मार्र्गाें के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। ह्वेनसांग सतलुज नदी से दक्षिण-पश्चिम की ओर बढ़ा तथा आठ सौ ‘ली’ चलने के बाद पो-लि-ये-ट-लो अर्थात् पारियात्र प्रदेश की ओर बढ़ा।

रैनण्ड ने इसे बैराठ माना है किन्तु इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। यहाँ से वह पाँच सौ ली पूर्व में चलने पर मो-टू-लो अर्थात् मथुरा पहुंचा। अन्य मार्ग वलभी से एक हजार आठ सौ ली उत्तर में चलकर कुचेलो पहुंचा जिसकी राजधानी पिलो मोला थी। पिलोमोलो की संगति भीनमाल से की जाती है।

प्रतिहार राजा भोजदेव (प्रथम) के वि.सं. 200 अर्थात् ई.843 के दानपत्र में गुर्जरात्रा भूमि में आधुनिक डीडवाना (अब नागौर जिले में) को शामिल बताया है।

कालिंजर से मिले 9वीं शती के एक शिलालेख में जोधपुर राज्य के मंगलानक गांव को गुर्जरात्रा में शामिल बताया है। यह गांव डीडवाना से थोडे़ अन्तर पर ही है। इन दोनों शिलालेखों से तथा ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि सातवीं से नौंवी शताब्दी के बीच जोधपुर राज्य का उत्तर से दक्षिण तक का समस्त पूर्वी भाग गुर्जरात्रा में शामिल था।

इसी तरह दक्षिण और लाट के राठौड़ों तथा प्रतिहारों के बीच लड़ाइयों के वृत्तान्त से जाना जाता है कि गुर्जर देश की दक्षिणी सीमा लाट से जा मिली थी। कालान्तर में यह सीमा सिमटते-सिमटते जोधपुर राज्य के ठीक दक्षिण में आबू पर्वत के दूसरी ओर तक ही सिमट गई।

गुर्जर देश पर गुर्जरों का अधिकार कब हुआ और कब तक रहा, इस कालखण्ड की निश्चित तिथियाँ बता पाना संभव नहीं है किन्तु अनुमान लगाया जाता है कि शक क्षत्रपों का राज्य समाप्त होने के बाद यहाँ गुर्जरों का अधिकार हुआ होगा और ई.628 से पहले किसी समय में गुर्जरों की सत्ता नष्ट हो गई होगी क्योंकि ई.628 में भीनमाल पर चावड़ा वंश के राजा व्याघ्रमुख नाम अथवा उपाधि वाले राजा का शासन था।

भारतीय जनजाति!

क्या गुर्जर जनजाति है! डा. बी. एन. पुरी के अनुसार गुर्जर अत्यंत प्राचीन काल से अन्य जनजातीय कबीलों की तरह भारत में ही निवास करते थे।

के. एम. मुंशी के अनुसार गुर्जर शब्द जाति का वाचक न होकर देश विशेष का सूचक है। चूंकि भारत में ही गुर्जर प्रदेश था इसलिये गुर्जर एक भारतीय जाति है।

यह एक सामान्य प्रचलित धारणा रही है कि गुर्जर प्रदेश पर अधिकार कर लेने के कारण प्रतिहार शासक इतिहास में गुर्जर प्रतिहार के नाम से प्रसिद्ध हुए किंतु कुछ विद्वान यह दावा करते हैं कि गुर्जर और प्रतिहार अलग-अलग संज्ञाएं न होकर एक ही संज्ञा है। उनके अनुसार गुर्जर प्रतिहार ही आगे चलकर गुर्जर कहलाने लगे।

 बहुत से विद्वान गुर्जर प्रतिहारों की तरह बड़गूजरों को भी गुर्जर बताते हैं जबकि बड़गूजर जनजातीय कबीले से उत्पन्न न होकर मेवाड़ की राणा शाखा से उत्पन्न हुए हैं तथा बड़गूजरों एवं गूजरों में कोई सम्बन्ध नहीं है।

विदेशी मूल के हैं गुर्जर!

डॉ. हार्नले, वूलर, विसेन्ट स्मिथ तथा पी. सी. बागची आदि इतिहासकार गुर्जरों को श्वेत हूणों का वंशज मानते हैं। इन विद्वानों के अनुसार गुर्जर हूणों के साथ या उनके आने के शीघ्र पश्चात् भारत में आये तथा अधिक संख्या में राजपूताने में बस गये।

प्रसिद्ध इतिहासकार सर जेम्स काम्फेल एवं ए. एम. टी. जैक्सन आदि कई विद्वानों का विचार है कि मध्य ऐशिया में रहने वाले खजर (अथवा खर्जर) कबीलों से गुर्जरों की उत्पत्ति हुई। खजर श्वेत हूणों की एक श्रेणी थी। खजर लोगों की एक श्रेणी गोर्जियन थी, यह गोर्जियन ही गुर्जर कहलाये।

कनिंघम, गिर्यर्सन, डॉ. गुणानंद जुयाल तथा राहुल सांकृत्यायन आदि अनेकानेक विद्वानों ने इनका सम्बन्ध श्वेत हूणों, यूचियों, खर्जरों, सीथियनों, कुषाणों एवं शकों से जोड़ा है। केनेडी आदि इतिहासकारों के अनुसार गुर्जर सूर्योपासक हैं तथा ये किसी समय ईरान से भारत में आये।

कर्नल टॉड, भण्डारकर, तथा बी. ए. स्मिथ आदि इतिहासकारों का मानना है कि गुर्जर सीथियन जातियों से उत्पन्न हुए।

अनेक विद्वान गुर्जरों की उत्पत्ति मध्य एशिया, समरकंद, बलख, बुखारा, ताहिया, गोर्जिया, सीस्तान, खोटान तथा कैस्पियन सागर के निकटवर्ती स्थान से मानते हैं। डॉ. मोहियुद्दीन तथा डॉ. रामप्रसाद खटाना के अनुसार जॉर्जिया गुर्जरों का मूल स्थान था। ये अत्यंत प्राचीन काल में जॉर्जिया से चलकर छोटे-छोटे समूहों में भारत पहुंचे तथा उत्तर भारत के विभिन्न भागों में निवास करने लगे।

गौचर ही कहलाये गूजर!

कुछ विद्वानों के अनुसार गौचर शब्द से गुर्जर शब्द की उत्पत्ति हुई है। गुर्जर जाति हजारों वषों से गौ-चारण का कार्य करती रही है। आज भी उत्तर भारत में बसने वाले गुर्जरों का मुख्य धंधा कृषि एवं गौ-पालन ही है। जिस प्रकार चरवाहे रेबारी कहलाने लगे उसी प्रकार गौचर गुर्जर कहलाने लगे। गुर्जरों की उत्पत्ति के बारे में आज जितने भी मत प्रचलित हैं, उनमें यह मत सर्वाधिक उपयुक्त जान पड़ता है।

वृषभान कुमारी भी हैं गूजरी

गूजर शब्द भारतीय संस्कृति में अत्यंत प्राचीन काल से प्रचलित रहा है। ब्रज साहित्य में वृषभान कुमारी राधाजी को भी गूजरी कहकर पुकारा गया है। वस्तुतः दूध के व्यवसाय से जुड़ी हुई होने के कारण ही राधाजी को गूजरी कहा गया है। ब्रजसाहित्य में सुंदर स्त्री को भी गूजरी अथवा गुजरिया कहकर पुकारा गया है।

चौपड़ा समिति के अनुसार गुर्जर जनजाति नहीं

गुर्जर जाति लम्बे समय से अपने लिए जनजाति वर्ग में आरक्षण की मांग करती रही है। उनका कहना है कि हम एक जनजातीय समूह हैं। इसलिए हमें जनजाति माना जाए। 

गुर्जरों को जनजाति आरक्षण वर्ग में सम्मिलित किये जाने की मांग पर विचार करने के लिये राजस्थान सरकार ने जस्टिस जसराज चौपड़ा की अध्यक्षता में एक समिति गठित की।

इस समिति ने 17 नवम्बर 2007 को सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। रिपोर्ट में कुल 294 पृष्ठ हैं जिनमें से 192 पृष्ठों में समिति ने अपनी अनुशंसाएं लिखीं। शेष 102 पृष्ठों में सम्बन्धित दस्तावेज और संलग्नक दिये। समिति ने 147 गांवों का दौरा करके गुर्जर और मीणा जाति के रहन-सहन और आर्थिक स्थिति का गहन अध्ययन किया जिससे कई महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य सामने आये हैं।

समिति ने गुर्जरों को जनजातीय आरक्षण के योग्य नहीं माना तथा यह भी कहा कि राज्य में बसने वाली मीणा जाति सहित कई अन्य जातियां जिन्हें वर्तमान में जनजाति वर्ग में आरक्षण की सुविधा मिल रही है, वे जनजातीय वर्ग से आरक्षण की सुविधा पाने की योग्यता नहीं रखतीं।

समिति ने अनुशंसा की कि जनजाति वर्ग में आरक्षण देने के आधार की समीक्षा हो तथा इसे बदला जाये ताकि समाज के सभी वर्गों के साथ न्याय हो सके। रिपोर्ट मंे कहा गया कि गुर्जरों की एक तिहाई आबादी अर्थात् 8 लाख गुर्जर 13 तहसीलों में अत्यंत पिछड़े हाल में बसे हुए हैं।

सवाईमाधोपुर, अलवर, राजसमन्द सहित लगभग आधा दर्जन जिलों में बसे गुर्जरों में जनजातीय गुण भी पाये गये हैं। सवाईमाधोपुर जिले के खण्डार और डांग क्षेत्र के गुर्जर बहुल क्षेत्र आदिम श्रेणी के काफी निकट हैं। इसी जिले की बौंली तहसील और अलवर जिले के छिंद क्षेत्र में भी भौगोलिक एकाकीपन के लक्षण हैं।

उदयपुर संभाग में बसे ”हेरा का गुर्जर” वर्ग में जनजातियों के चिह्न मिले हैं। भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ जिलों में जाति पंचायत का प्रचलन है। कोटा और बंूदी जिलों के देसी गुर्जर दूसरे क्षेत्रों से आये गुर्जरों से विवाह नहीं करते।

जस्टिस चौपड़ा समिति की रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान में गुर्जरों के पास राज्य का 20 प्रतिशत पशुधन है तथा प्रति गुर्जर परिवार औसतन 6.45 बीघा जमीन उपलब्ध है जबकि प्रदेश में प्रति परिवार औसतन 6.67 बीघा जमीन उपलब्ध है।

गुर्जरों के पास 47 लाख 67 हजार 508 पशु हैं जिनमें से 18 लाख 28 हजार 837 बकरियां, 5 लाख 70 हजार 745 गाय एवं बैल, 13 लाख 21 हजार 465 भैंस, 10 लाख 26 हजार 803 भेड़, 16 हजार 655 ऊंट, 2 हजार 474 घोड़े तथा 529 गधे हैं।

जस्टिज जसराज चौपड़ा समिति ने माना है कि कृषि भूमि तथा पशुधन के इस विपुल स्वामित्व को देखते हुए राजस्थान के गुर्जर अधिक पिछड़ी स्थिति में नहीं हैं।

निष्कर्ष

इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक, ऐतिहासिक एवं आर्थिक आधार पर गुर्जर एक जनजाति नहीं है, गुर्जर भारत की प्राचीन काल की उच्च जाति है किंतु जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि जिस आधार पर कुछ अन्य जातियों को जनजातीय वर्ग में सम्मिलित किया गया है तो हमें गुर्जरों की मांग न्यायसंगत जान पड़ती है।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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