Sunday, July 6, 2025
spot_img
Home Blog

चौके चूल्हे वाली औरतें!

0
चौके चूल्हे वाली औरतें - bharatkaitihas.com
चौके चूल्हे वाली औरतें

दुनिया तेज गति से दौड़ रही है, भारत की गति कुछ अधिक ही तेज है। भारत की इस तेज गति को चौके चूल्हे वाली औरतें ही संतुलन प्रदान कर सकती हैं।

भारत सरकार द्वारा टीवी चैनलों पर एक लम्बा फीचर विज्ञापन दिखाया जा रहा है जिसमें विगत 11 साल में देश में हुई आर्थिक उन्नति का विवरण दिया गया है। इस फीचर में एक पंक्ति का भाव इस प्रकार है कि हमने दुनिया को दिखा दिया है कि अब भारत ऐसा देश नहीं रहा जिसमें औरतों को चौके चूल्हे तक सीमित रखा जाता है।

चौके-चूल्हे से औरतों को हटा देना, सिक्के का एक पहलू है जो कि कहने-सुनने में बहुत अच्छा लगता है। सिक्के का दूसरा पहलू बहुत भयावह है जिस पर इस फीचर में चर्चा नहीं की गई है।

मेरी समझ में यह नहीं आया कि भारत दुनिया को यह क्यों दिखाना चाहता है कि अब हम औरतों को चौके-चूल्हे तक सीमित रखने वाले देश नहीं रहे।

क्या यह पंक्ति उन औरतों का अपमान नहीं है जो अपने घर में चौका-चूल्हा करके अपना घर-संसार सजाती हैं, घर के लोगों को पौष्टिक खाना देती हैं, अपने बच्चों को स्कूल से लाती-ले जाती हैं। उनके कपड़े धोती हैं, उन्हें होमवर्क करवाती हैं, उन्हें अच्छे संस्कार देती हैं। उन्हें पार्क में खिलाने ले जाती हैं, उन्हें जिन्दगी की धूप-छांव और गलियों के कुत्तों से बचाती हैं, उन्हें देश का जिम्मेदार नागरिक बनाने में अपना पूरा जीवन लगा देती हैं।

चौके चूल्हे वाली औरतें अपने घर के बूढ़े, बीमार, अशक्त सदस्यों की सेवा करती हैं। उन्हें नहलाती हैं, सहारा देती हैं, बीमार होने पर उन्हें हॉस्पीटल ले जाती हैं। ऐसी कौनसी जिम्मेदारी है जिसे ये चौके चूल्हे वाली औरतें नहीं निभातीं।

चौके चूल्हे वाली औरतें दोपहर के खाली समय में कढ़ाई, बुनाई, सिलाई करती हैं, खीचे-पापड़, चिप्स बनाती हैं। घर की साफ-सफाई पर अधिक समय व्यय करती हैं। फिर चौके चूल्हे वाली औरतों का यह अपमान क्यों?

निश्चित रूप से विगत 11 साल में भारत सरकार ने देश की तस्वीर बदली है। देश में रोजगार के अवसर बढ़ाए हैं, लोगों में समृद्धि लाने में सफलता मिली है। स्त्री शिक्षा में वृद्धि हुई है। लोगों का स्वास्थ्य पहले से बेहतर हुआ है। औरतें घरों से बाहर निकलकर कमा रही हैं और देश की जीडीपी बढ़ा रही हैं। नए सड़क-पुल, बांध, वैज्ञानिक संस्थानों के कारण दुनिया भर में भारत का डंका बज रहा है। क्या इस डंके में चौके चौके चूल्हे वाली औरतें कोई योगदान नहीं देतीं?

चौके चूल्हे वाली औरतें परिवार को अद्भुत सुरक्षा और संरक्षण देती हैं, जिसके कारण परिवार के लोगों को किसी का थूका हुआ, पेशाब किया हुआ, पसीने से सना हुआ खाना नहीं खाना पड़ता। चौके-चूल्हे वाली इन औरतों के कारण परिवार में हर तरह की प्रसन्नता आती है।

क्या चौके चूल्हे वाली औरतें उन औरतों से पिछड़ी हुई हैं जो चौका-चूल्हा छोड़कर घर से बाहर कमाने निकलती हैं।

ऐसे बहुत से प्रकरण सीसीटीवी कैमरों में कैद हुए हैं जब बाजार से खाना लाने वाले लड़के रास्ते में टिफिन खोलकर उनमें थूकते हैं या खाने में से कुछ चुराकर खाते हैं।

भारत में ऐसे प्रकरण भी हुए हैं जब अपने बच्चों को घर पर छोड़कर ऑफिस जाने वाली महिलओं के बच्चों को उसकी आया ने नंगा करके चौराहे पर बैठा कर भीख मंगवाई। ऐसे प्रकरण भी सीसी टीवी कैमरों में कैद हुए हैं जब घर में खाना बनाने वाली औरतों को किसी बात पर डांट देने पर वे अपने पेशाब में आटा गूंध कर रोटियां बनाती हैं या सब्जी में अपना पेशाब डालकर घर वालों से डांट का बदला लेती हैं।

ऐसे प्रकरण भी हुए हैं जब अपने बच्चों को घर में आया के भरोसे छोड़कर जाने वाली औरतों ने सीसीटीवी कैमरों में देखा कि आया ने बच्चे को अफीम खिलाकर सुला दिया है और कॉलोनी की आयाएं घर में इकट्ठी होकर बच्चे के दूध और बिस्किट की पार्टी करती हैं।

ऐसे प्रकरण भी सीसीटीवी कैमरों में पकड़े गए हैं जब आयाओं द्वारा बच्चों को चुप करवाने के लिए उन्हें बेरहमी से मारा-पीटा जाता है और बच्चा डर-सहम कर सो जाता है।

चौके चूल्हे वाली औरतें ही अब घरों में तुलसी का पौधा लगाती हैं, सुबह शाम तुलसी के पास दिया रखकर उसे प्रणाम करती हैं। चौके चूल्हे वाली औरतें ही अपने घरों में भगवान की आरती करती हैं, अपने परिवार के सदस्यों की प्रसन्नता के लिए तरह-तरह के त्यौहार और पर्व मनाती हैं तथा त्यौहार पर विविध प्रकार के व्यंजन बनाती हैं।

नौकरी पर जाने वाली औरतों में अधिकांश के पास इतना सब करने के लिए समय नहीं होता। इस कारण अब भारतीय परिवारों में परम्परागत व्यंजन बनने बंद हो गए हैं। इस मामले में हालत इतनी ज्यादा खराब है कि अब किसी नई उम्र की लड़की को कढ़ी जैसी सामान्य चीज भी बनानी हो तो वे यूट्यब पर वीडियो देखकर बनाती हैं। 

मैं नौकरी करने वाली औरतों का दुश्मन नहीं हूँ। मुझे उनके साथ बहुत सहानुभूति है। निश्चित रूप से परिवार में आर्थिक समृद्धि लाने में  उनका बड़ा बड़ा योगदान है किंतु इस समृद्धि के लिए उन्हें बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। वे सुबह से शाम तक काम करती हैं।

ये पढ़ी-लिखी औरतें बसों में धक्के खाती हैं, बॉस की डांट सुनती हैं, ऑफिस से छुट्टी लेने के लिए हर समय तनाव में रहती हैं। ऑफिस जाने से पहले घर में खाना बनाती हैं, ऑफिस से लौटकर फिर खाना बनाती हैं या बाजार से बना-बनाया खाना मंगवाती हैं। किसी तरह से बच्चों को पीट-पाटकर उनका होमवर्क करवाती हैं और थकान से चूर-चूर होकर पलंग पर गिर जाती हैं। यह थकान ही अक्सर दाम्पत्य जीवन में तनाव उत्पन्न करने का कारण बनती है। आजकल बहुत सी लड़कियां वर्क फ्रॉम होम करती हैं। उन्हें 12-14 घण्टे प्रतिदिन काम करना पड़ता है।

आज बहुत सी औरतें हैं जो किसी अच्छी नौकरी पर लग जाती हैं तो फिर नौकरी करने के लिए परिवार नहीं बसातीं। विवाह नहीं करतीं, लिव इन रिलेशन में रहती हैं, बॉयफ्रैंड बनाती हैं। ऑफिस और बॉयफ्रैंड के चक्कर में अपने परिवार से पूरी तरह कटकर जीती हैं। बच्चे पैदा नहीं करतीं जिसके कारण देश की डेमोग्राफी तेजी से बदल रही है।

मैंने ऐसी लड़कियों को महानगरों में सड़कों के किनारे खड़े होकर पिज्जा-बर्गर, चाउमीन और समोसे खाते हुए देखा है। इन्हें पौष्टिक आहार के नाम पर कुछ नहीं मिलता। धीरे-धीरे मन और जीवन दोनों में पसर आए खालीपन को दूर करने के लिए इनमें से बहुत सी लड़कियां सिगरेट और शराब का सहारा लेती हैं।

युवावस्था में तो सब झेल लिया जाता है किंतु वृद्धावस्था में इनमें से अधिकांश औरतों को कोई सहारा देने वाला तक नहीं मिलता।

बात निकलेगी तो दूर तक जाएगी। आज स्त्री और पुरुष दोनों कमाते हैं, उसके चलते चीजें कितनी महंगी हो गई हैं, पहले एक कमाता था, सात-आठ लोग खाते थे, आज पति-पत्नी दोनों कमाते हैं, मिलर अपनी छोटी सी गृहस्थी भी नहीं चला पाते हैं।

उनकी आय का लगभग सारा पैसा बच्चों की एज्यूकेशन, मेडिकल ट्रीटमेंट, डिलीवरी, मकान का किराया, कार का लोन, मकान का लोन चुकाने में खर्च होता है। क्या फायदा हुआ, दोनों के कमाने से। जो मकान आज से बीस-तीस साल पहले हजारों में आता था, अब करोड़ों में आता है।

क्या चौका-चूल्हा करना पिछड़ेपन की निशानी है। कोई तो इस काम को करेगा। चौका-चूल्हा के बिना परिवार के सदस्यों के मुंह में पौष्टिक भोजन का निवाला कैसे जाएगा!

यदि कोई औरत अपने घर में चौका-चूल्हा करे तो पिछड़े पन की निशानी और जब वही औरत किसी होटल में जाकर शेफ बने, किसी रेस्टोरेंट में टेबल-टेबल जाकर खाने को ऑर्डर ले या ग्राहकों के झूठे बर्तन उठाए, उन्हें शराब परोसे, तो वह एडवांसमेंट की निशानी है।

ऐसा एडवांसमेंट किस काम का? इससे तो घर में चौका चूल्हा करके अपने परिवार की सजाना-संवारना कई गुना अधिक अच्छा है। परिवार और देश की जीडीपी में चौके-चूल्हे वाली औरतों का योगदान किसी से कम नहीं होता, अधिक ही होता है।

देश की जीडीपी में ग्रोथ के साथ-साथ देश का डेमोग्राफिक बैलेंस भी जरूरी है। यदि डेमोग्राफी बदल गई तो हमारा देश ही नहीं रहेगा, फिर तो जीडीपी का भी क्या अर्थ रह जाएगा। इसलिए चौके चूल्हे वाली औरतें हर तरह से अभिनंदन के योग्य हैं, सम्मान और श्रद्धा की पात्र हैं। चौका-चूल्हा हमारे लिए गौरव का विषय है, न कि हीनता की निशानी या पिछड़ेपन की निशानी। इंदिरा गांधी और मार्गेट थैचर तक चौका-चूल्हा करती थीं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

नए युग की चुड़ैलें!

0
नए युग की चुड़ैलें - bharatkaitihas.com
नए युग की चुड़ैलें

नए युग की चुड़ैलें पढ़ी-लिखी हैं, सुंदर हैं, पैसे वाली हैं, दुस्साहसी हैं। ऊँची सोसाइटी में रहती हैं तथा मोटा बैंक-बैलेंस रखती हैं।

15 जून 2025 को जोधपुर के न्यूज पेपर्स में एक समाचार छपा कि एक स्कूल संचालक ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। उसे किसी औरत ने हनी ट्रैप में फंसा लिया था। इस स्कूल संचालक ने अपने सूसाइड नोट में लिखा है कि अब वह थक गया है, और अधिक नहीं झेल सकता, इसलिए आत्महत्या कर रहा है। मेरा विचार है कि किसी पुरुष को हनीट्रैप में फंसाने वाली कोई औरत तो नहीं हो सकती, कोई चुड़ैल ही हो सकती है।

कमाल हो भई नए युग की चुड़ैलें आप भी! आपने किसी पुरुष को हनीट्रैप में फंसाया तो फंसाया, थोड़ा-बहुत पैसा छीन-झपट कर उसे जिंदा तो छोड़ देतीं किंतु आपने अपने शिकार को इतना निचोड़ा कि कि उस बेचारे मनुष्य को आत्महत्या ही करनी पड़ी।

चुड़ैलों के बारे में मुझे सबसे पहले शेक्सपीयर के नाटक मैकबेथ से पता लगा। तीन बहिनों के रूप में रहने वाली वे चुड़ैलें बड़ी अजीब सी हैं, बड़ी कुरूप, डरावनी, टोना टोटका करने वाली और कुछ-कुछ जादुई ताकतों वाली, वैसी चुड़ैलें शायद भारत में नहीं पाई जातीं।

मैंने बचपन में सुनी कहानियों से जाना है कि भारतीय चुड़ैलें बहुत सुंदर होती हैं। वे अक्सर किसी सुंदर, युवा और धनवान युवक को आकर्षित करती हैं, फिर उसे मारकर उसका खून पी जाती हैं। मैंने यह भी सुना है कि चुड़ैलें उलटे पैरों से चलती हैं।

हालांकि मुझे ठीक-ठीक तो आज भी नहीं पता कि चुड़ैल क्या होती है, कैसी होती है किंतु मेरा विश्वास है कि आजकल भारत के शहर-शहर में नए युग की चुड़ैलें घूम रही हैं। आजकल की ये चुड़ैलें भी बहुत सुंदर हैं, ये भी किसी धनवान पुरुष का शिकार करती हैं, महंगे कपड़े पहनती हैं, महंगे फोन रखती हैं, महंगा मेकअप करती हैं तथा उल्टें पैरों से चलती हैं। इनकी आवाज में जादू है, पलक झपकते ही आदमी को अपने वश में करती हैं।

आजकल इंदौर की उस चुड़ैल के किस्से तो रोज टेलिविजन पर देखने को मिल ही रहे हैं कि कैसे उसने अपने नए-नवेले पति से कहा कि तुम मुझे विधवा कर दो। अपने पति की हत्या करवाने के बाद सोनम नाम की यह चुड़ैल पूरे 17 दिन तक बुरका पहनकर हिन्दुस्तान के अलग-अलग शहरों में बेखौफ घूमती रही। टेलिविजन वाले बता रहे हैं कि उसे चुड़ैल ने अपने पति को मरवाने के लिए अपने बचपन के मित्रों को बीस लाख रुपए की सुपारी दी। बाप रे कितनी धनवान और कितनी हिम्मती हैं ये भारतीय चुड़ैलें!

कुछ दिन पहले ही एक ऐसी चुड़ैल का कारनामा सामने आया जिसने अपने पति के साथ हिल स्टेशन पर जाकर खूब डांस-वांस किए और फिर उसकी हत्या करके उसके शरीर को सीमेंट के ड्रम में ही जमा दिया ताकि उसके शव के सड़ने से बदबू नहीं निकले और पुलिस उसके शव को नहीं ढूंढ सके।

पतियों को मारने वाली नई युग की चुड़ैलें सामान्यतः अपने पतियों को अपने बॉयफ्रेण्डों से मरवाती हैं, वहीं कुछ चुड़ैलें तो अपने पति को मारने का परिश्रम भी नहीं करतीं। पतियों से ही कहती हैं कि चलो अब तुम खुद ही मर जाओ। मुझे क्यों तकलीफ देते हो!

जौनपुर की उन दो चुड़ैलों के नाम आप भूले नहीं होंगे। इन चुड़ैलों ने अतुल सुभाष नामक एक युवक से इतना पैसा खींचा कि उस बेचारे को आत्महत्या करके ही अपनी जान छुड़ानी पड़ी। अतुल सुभाष ने तो अपने सूसाइड नोट में अपनी सास और पत्नी के रूप में खून चूस रही इन चुड़ैलों के साथ-साथ एक महिला जज का नाम भी लिखा है कि वह भी इन चुड़ैलों के साथ मिल गई। ताकि अधिक से अधिक पैसा खींचा जा सके।

आगरा के 28 वर्षीय मानव शर्मा ने भी एक चुड़ैल से पीछा छुड़ाने के लिए आत्महत्या कर ली। वह चुड़ैल मानव शर्मा की पत्नी थी और दूसरे पुरुषों से सम्बन्ध रखती थी। मना करने पर अपने पति को झूठे मुकदमों में फंसाने की धमकी देती थी। उससे पीछा छुड़ाने का मानव शर्मा के पास और कोई उपाय नहीं बचा था।

12 मार्च 2025 को गुड़गांव के सोहना के रहने वाले 45 वर्षीय भारत ने आत्महत्या कर ली। उसने अपने सूसाइड नोट में लिखा है कि उसकी पूर्व पत्नी उसे फोन करके सम्पत्ति मांगती है और मना करने पर आत्महत्या करने के लिए उकसाती है। पति ने सचमुच आत्महत्या कर ली।

कर्नाटक के पीटर का नाम भी सुर्खियों में आया था। उसने भी चुड़ैल के अत्याचारों से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या कर ली। उसने अपने सूसाइड नोट में अपने पिता को लिखा कि डैडी मुझे माफ कर दीजिए मेरी पत्नी पिंकी मुझे इतना टॉर्चर करती है कि अब मैं जी नहीं सकता।

गजरौला के दिवाकर शर्मा का नाम आपने शायद ही सुना हो जिसने 27 मार्च 2025 को भरी दोपहरी में अपने घर में फांसी लगा ली। दिवाकर शर्मा की पत्नी हिरदेश उर्फ अंजू शादी के कुछ दिन बाद ही लड़-झगड़ कर अपने पीहर चली गई। वह रोज अपने पति को फोन करके मरने के लिए उकसाती थी। वह अपने पति से कहती थी कि तेरे मरने के बाद ही मुझे शांति मिलेगी। यदि तू नहीं मरा तो मैं तेरा जीवन तहस-नहस कर दूंगी। झूठे मुकदमे में फंसाने की धमकी देती थी।

दिवाकर शर्मा ने मौत को गले लगाने से पहले अंजू से वीडियो कॉल पर बात की। वीडियो कॉल पर भी अंजू दिवाकर को मरने के लिए उकसाती रही। अपने जीवन से निराश दिवाकर ने खुदकुशी कर ली। अब अंजू अपने मृत पति दिवाकर के पिता के मकान पर कब्जा करना चाहती है। अंजू अपने पति दिवाकर शर्मा के अंतिम दर्शन के लिए भी नहीं आई।

16 मई 2025 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर सदर कोतवाली क्षेत्र में एक सहायक अध्यापक कोविद कुमार ने अपनी पत्नी और सास की प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर ली। आत्महत्या से पहले बनाए एक वीडियो में उसने बताया कि उसकी पत्नी लक्ष्मी कुशवाहा अपनी मां, बहन और भाई के साथ रहती है। पत्नी लक्ष्मी ने अपने पति कोविद कुमार के विरुद्ध दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा का मुकदमा दर्ज करा रखा है। हर महीने उसकी सैलरी का पूरा पैसा ले लेती है और अपने पति पर दबाव बनाती है कि तुम अभी मर जाओ ताकि तुम्हारी नौकरी हमें मिल जाए।

एक चुड़ैल तो ऐसी निकली जो अपने पति और बच्चों को छोड़कर अपने पाकिस्तानी मित्र के साथ घूमने-फिरने मौज मनाने के लिए भारत की सीमा पार करके पाकिस्तान पहुंच गई। अंजू नाम की यह चुड़ैल कुछ दिन पाकिस्तान में मौज-मस्ती करने के बाद फातिमा बनकर फिर से भारत लौट आई।

अरे भई तू कैसी चुड़ैल है, तू ने अपने देश, अपने धर्म, अपने पति को छोड़ा सो छोड़ा, तू तो अपने बच्चों से भी प्रेम नहीं कर पाई! बच्चों के लिए तो माताएं अपनी जान तक दे देती हैं।

कुछ दिन पहले मैंने यूट्यूब पर एक शॉर्ट देखा जिसमें एक चुड़ैल अपनी सगी बूढ़ी एवं विधवा माँ को धरती पर घसीट-घसीट कर पीटती हुई दिखाई दे रही थी क्योंकि बूढ़ी, अशक्त और विधवा माँ अपना घर उस चुड़ैल के नाम नहीं कर रही थी! पुलिस ने उस बुढ़िया को उस चुड़ैल के चंगुल से निकाला।

आज ही टेलिविजन पर एक समाचार देखने को मिला कि यूपी के हरदोई में एक पैट्रौल पम्प पर एक चुड़ैल ने जरा सी कहा-सुनी होने पर पैट्रौल पम्प के कर्मचारी की छाती पर पिस्तौल रख दी। क्या शानदार पर्सनल्टी, क्या गजब का आत्मविश्वास, क्या उसका महंगा पहनावा, कैसी उसकी गाड़ी!

महिला सशक्तीकरण के नाम पर भारतीय नारी को भारत की मूल संस्कृति के विरुद्ध भड़का कर ऐसी जीवन पद्धति की ओर धकेल दिया गया है जिसमें असंतोष और दुख के सिवाय कुछ नहीं मिलने वाला। मनुष्य को किसी के भड़कावे में नहीं आना चाहिए, अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिए। जीवन का सुख किस बात में है, इस बात को समझना चाहिए।

आज बहुत सी पढ़ी-लिखी लड़कियां पैसे की हवस के कारण अपराध करके जेलों में बैठी हैं। नारी शक्ति के पुराधाओं ने उन्हें इस हालत में पहुंचा दिया। भारतीय समाज की दुर्गति करने वाले महिला सशक्तीकरण के अलम्बरदार अब कहां हैं। क्या वे इन लड़कियों को फिर से शांत और सुखी जीवन दे सकते हैं!

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते वाले देश में अचानक ही ये चुड़ैलें कहां से घुस आईं। मां के चरणों में सिर रखने वाली भारतीय संस्कृति अचानक ही चुड़ैलों के कहर से कैसे कांप उठी!

नए युग की चुड़ैलें कृपा करके शांत हो जाएं। भगवान के लिए शांत हो जाएं। मानवता के लिए शांत हो जाएं। अपनी जिंदगी में सुख-चैन बनाए रखने के लिए शांत हो जाएं।

भगवान ने तुम्हें बहुत सुंदर जीवन दिया है। तुम चुड़ैल नहीं हो। तुम हमारी मां, बहिन, बेटी, पत्नी, बुआ, चाची, दादी, नानी हो। तुमने अपनी कोख में हमें पाला है, हमारा बचपन तुम्हारी बांहों में झूला झूलकर बड़ा हुआ है। तुम्हारी लोरियां आज भी हमारे कानों में गूंजती हैं। आज तुम्हारे कारण पूरी नारी जाति अपमानित हो रही है।

आओ! फिर से भारतीय संस्कृति के सुनहरे पथ पर लौट आओ। हंसी-खुशी अपनी घर-गृहस्थी बसाओ। अपने पति की कमाई हुई रूखी-सूखी रोटियां अपने बच्चों और पति के साथ मिल-बांट कर खाओ।

पढ़ाई-लिखाई, रुपया पैसा, अच्छे कपड़े, अच्छा मेकअप, घूमना फिरना, बैंक बैलेंस, पद-प्रतिष्ठा जिंदगी में उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जितनी की शांत नदी की तरह अपनी यात्रा पूरी करने वाली उजली-उजली सी जिंदगी।

जीवन रूपी बगिया न औरत के बिना महक सकती है और न पुरुष के बिना। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे की ताकत हैं। एक-दूसरे का सुख हैं। जीवन की सुंदरता शांति धारण करने में है, किसी की भी शांति छीनने में नहीं है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

पतियों को मारने वाली पढ़ी-लिखी औरतें!

0
पतियों को मारने वाली - www.bharatkaitihas.com
पतियों को मारने वाली पढ़ी-लिखी औरतें!

भारत सरकार के क्राइम डाटा एवं राज्य सरकारों की रिपोर्टों के अनुसार विगत पांच सालों में केवल बिहार, यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में 785 ऐसे केस पुलिस में रिपोर्ट हुए जिनमें पत्नियों ने ही अपने पति की हत्या की या करवाई। पतियों को मारने वाली इन औरतों में से अधिकांश औरतें पढ़ी-लिखी हैं और आर्थिक रूप से स्वावलम्बी हैं। इस आलेख में पतियों को मारने वाली पढ़ी-लिखी औरतों के मनोविज्ञान का विश्लेषण किया गया है।

कुछ समय पहले तक उन हिन्दू लड़कियों के शव मिलते थे जो लव जिहादियों के हत्थे चढ़कर सूटकेसों में पैक होती थीं किंतु आजकल देश में उन पतियों के शवों की बाढ़ आ गई है जिन्हें उनकी ही ब्याहता पत्नी ने मारा या मरवाया है।

भारत सरकार के क्राइम डाटा एवं राज्य सरकारों की रिपोर्टों के अनुसार विगत पांच सालों में केवल बिहार, यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में 785 ऐसे केस पुलिस में रिपोर्ट हुए जिनमें पत्नियों ने ही अपने पति की हत्या की या करवाई। पतियों को मारने वाली इन औरतों में से अधिकांश औरतें पढ़ी-लिखी हैं और आर्थिक रूप से स्वावलम्बी हैं।

पति या पत्नी के प्राण ले लेना तो भारत की संस्कृति नहीं है, न ही भारत की सामाजिक व्यवस्था ऐसी है जिसमें पति या पत्नी एक-दूसरे की हत्या करें। यह इन आंकड़ों की गहराई में जाएं तो पता चलता है कि पति या पत्नी की हत्याओं का सिलसिला तब से अपने चरम पर पहुंचा है जब से भारत में महिलाओं का  सशक्तीकरण किया गया है।

भारत की आजादी के बाद नारी सशक्तिकरण और महिला मुक्ति के बड़े-बड़े आंदोलन चले। अमरीकी एनजीओज तथा यूएन प्रायोजित संस्थाओं द्वारा चलाए गए इन आंदोलनों के नेताओं द्वारा कहा गया कि जब तक भारतीय नारी शिक्षित नहीं होगी, तब तक भारतीय नारी पर अत्याचार होने बंद नहीं होंगे। जब नारियां शिक्षित होने लगीं, तब कहा गया कि जब तक नारी घर से बाहर निकलकर आर्थिक रूप से सशक्त नहीं होगी, तब तक भारतीय नारी स्वयं पर होने वाले अत्याचारों का सामना नहीं कर सकेगी।

इन आंदोलनों का परिणाम यह हुआ कि भारतीय नारी शिक्षा और रोजगार पाने के लिए घरों से बाहर निकलीं और पुरुषों की ही तरह शिक्षा एवं नौकरियां पाकर आर्थिक रूप से सक्षम होने लगीं। उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने लगे। निश्चित रूप से नारी में कार्य करने की क्षमता और लगन, पुरुष से कई गुना अधिक है। इस कारण कुछ ही दशकों में इन शिक्षित भारतीय नारियों ने पुरुषों पर बढ़ बना ली और भारत के निजी क्षेत्र के रोजगारों में पूरी तरह से छा गईं।

शिक्षा और आर्थिक स्वावलम्बन के इस लक्ष्य को पाने के बाद नारी मुक्ति आंदोलन के लोगों ने भारत की शिक्षित एवं पैसे वाली भारतीय नारियों के समक्ष नया लक्ष्य रखा कि नारी का शरीर उसका अपना है, उस पर अन्य किसी का अधिकार नहीं है। नारी को पूरा अधिकार है कि वह अपनी मर्जी के पुरुष से प्रेम करे, उसके साथ लिव इन रिलेशन में रहे, अपनी मर्जी के कपड़े पहने। अपनी मर्जी से डाइवोर्स ले। बड़े शहरों एवं मध्यम कस्बों की बहुत सी पढ़ी-लिखी एवं पैसे वाली नारियों ने इन आवाजों को महामंत्र की तरह स्वीकार कर लिया और उसी रास्ते पर चल पड़ीं।

इस महामंत्र से ग्रस्त नारियों ने सड़कों पर निकलकर नारे लगाए- माई स्कर्ट इज लाउडर दैन योअर वॉइस। यह एक तरह से भारत की सामाजिक परम्परा को सीधी-सीधी चुनौती थी, या यूं कहें कि भारत के परम्परावादी समाज के विरुद्ध खुला विद्रोह था किंतु इन नारी मुक्ति आंदोलन वालों की प्रबलता देखकर भारतीय समाज इतना साहस नहीं जुटा पाया कि वह इस पढ़ी-लिखी, पैसे वाली और स्वतंत्र विचार रखने वाली नारी को विवेक के मार्ग पर चलने की सलाह दे सके ताकि परिवार नामक संस्था को बिखरने से रोका जा सके।

नारी सशक्तीकरण आंदोलनों में कही गई बातों के अनुसार तो इन शिक्षित, स्वावलम्बी और स्वतंत्र मस्तिष्क वाली नारियों को सुखी हो जाना चाहिए था किंतु हुआ ठीक उलटा। बहुत सी शिक्षित, स्वावलम्बी और स्वतंत्र मस्तिष्क वाली नारियां लव जिहाद में फंस गईं। त्रिकोणीय प्रेम सम्बन्धों की आग में घिर गईं। घर और ऑफिस की दोहरी जिम्मदारियों में धंस गईं। बहुत सी औरतें सिगरेट और शराब की आदी होकर स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं से ग्रस्त हो गईं।

जब मनुष्य की जेब में पैसा आता है तो स्वाभाविक है कि उसके मन में कुछ दृढ़ता एवं अहंकार भी जागृत हो जाता है। बहुत सी नारियां अहंकारग्रस्त होकर अपने परिवार, समाज और सहकर्मियों का प्रेम और सहानुभूति खो बैठीं। इन नारियों को सिखाया और समझाया गया कि तुम्हें प्रेम और सहानुभूति की नहीं अपितु अधिकारों की जरूरत है, रूपयों और पदों की जरूरत है। यही कारण था कि इन नारियों को प्रेम और सहानुभूति नहीं मिली, केवल अधिकार मिले, पद मिले, स्वतंत्र रहने के विचार मिले और लाखों रुपयों के पैकेज मिले।

पिछले कुछ दशकों से भारत में अपराध के बढ़ते हुए ग्राफ को देखकर मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि जब से भारत की नारी शिक्षित और आर्थिक रूप से स्वावलम्बी हुई है, भारतीय सामाजिक परम्पराओं के रेशमी और मुलायम बंधनों को तोड़कर स्वतंत्र विचारों की स्वामिनी हुई है तब से भारतीय नारी पर अत्याचारों की मात्रा कई गुना बढ़ गई है। शिक्षा और धन के बल पर स्वतंत्र और सबल हुई नारियों के कटे हुए शव सूटकेसों में मिलने लगे हैं।

आज नारियों के ऊपर पहले से भी अधिक जघन्य अपराध हो रहे हैं। आजादी से पहले के भारतीय समाज में नारी पर दहेज आदि को लेकर जितने अत्याचार होते थे, आज दहेज उत्पीड़न तो सुनने में नहीं मिलता किंतु नारियों की हत्याओं में कई गुना वृद्धि हो गई है। अशिक्षित, कम पढ़ी-लिखी नारी भले ही स्वयं पर होने वाले अत्याचारों का मुकाबला नहीं कर पाती थी किंतु वह स्वयं अपराधों में बहुत कम लिप्त होती थी।  शायद ही फूलनदेवी जैसी कोई पीड़ित औरत अपराध और हत्याओं का मार्ग चुनती थी।

आज तो भारतीय नारी त्रिकोणीय प्रेम सम्बन्धों में फंसकर स्वयं भी जघन्य अपराध करने लगी हैं। पिछले पांच साल में ही भारत में बहुत से पुरुषों को अपनी पत्नियों के अत्याचारों से दुखी होकर आत्महत्याएं करनी पड़ी हैं। बहुत से पतियों और प्रेमियों की लाशें सूटकेसों और सीमेंट के ड्रमों, कचरे के डिब्बों और जंगलों में मिली हैं। लवजिहाद में फंसी बहुत सी लड़कियों के शव उनके ही प्रेमियों ने सूटकेसों में बंद करके जंगलों में फैंके हैं या सुनसान जगहों पर छोड़े हैं।

नारियों द्वारा किए जा रहे एवं नारियों के प्रति बढ़ रहे अत्याचारों की आड़ में, मैं यह कतई नहीं कह रहा कि शिक्षा या आर्थिक स्वावलम्बन भारतीय नारियों को अपराध की ओर ले गया है या नारियों पर अत्याचार का कारण बना है। किंतु आदमी सोचने के लिए विवश तो होता ही है कि क्या अब वह समय वापिस आ गया है जब लड़कों को कम पढ़ी-लिखी लड़कियों को अपनी पत्नी के रूप में चुनना चाहिए!

देश में नारियों के प्रति बढ़ रहे अत्याचार के ग्राफ को देखते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि आज के स्कूलों, कॉलेजों एवं यूनिवर्सिटियों में जो शिक्षा दी जा रही है, उस शिक्षा में दोष है। चाहे नारी हो या पुरुष दोनों को ही आज व्यक्तिवादी शिक्षा दी जा रही है जिसमें स्त्री एवं पुरुष दोनों ही अपने-अपने अहंकार एवं अहंकार जन्य कुण्ठाओं से ग्रस्त होकर एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हो गए हैं।

आज की शिक्षा ऐसी है कि चाहे स्त्री हो या पुरुष, दोनों में ही एक दूसरे की सेवा करने की, एक दूसरे से प्रेम करने की, एक दूसरे के प्रति समर्पण भाव रखने की, एक दूसरे को संरक्षण देने की भावना समाप्त को समाप्त करती है तथा एक ऐसे मानसिक अंधकार में धकेल देती है, जहाँ केवल और मैं और मैं का भाव छाया रहता है। जहां दया, करुणा, क्षमा जैसे शब्द अत्याचारों के प्रतीक हैं तथा अधिकारों की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।

आज की युवा पीढ़ी को घर से लेकर विद्यालय तक कोई यह शिक्षा नहीं देता कि स्त्री पुरुष एक दूसरे के शत्रु या प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं, एक दूसरे के मित्र हैं, साथी हैं, अनंतकाल के सहचर हैं, एक दूसरे का जीवन सुखद एवं सरल बनाने के लिए हैं। केवल बराबरी ही स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की एकमात्र धुरी नहीं हो सकती। बराबरी का दावा मनुष्य के जीवन से चैन छीनकर असंतोष भर देता है और एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना जीवन में सुगंध भर देती है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

वामपंथी विचारधारा से प्रेरित भारतीय औरतें!

0
वामपंथी विचारधारा - www.bharatkaitihas.com
वामपंथी विचारधारा से प्रेरित भारतीय औरतें

वामपंथी विचारधारा से प्रेरित भारतीय औरतें क्या कभी भी भारत माता की पीड़ा को नहीं समझ पाएंगी? उन्हें हिन्दुओं से बेरुखी और हिन्दू-विरोधियों से सहानुभूति की घुट्टी किसने पिलाई है?

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बीकानेर आए जहाँ से उन्होंने पूरी दुनिया के नाम एक संदेश दिया। उन्होंने कहा कि मेरी रगों में गर्म सिंदूर बहता है। जब सिंदूर बारूद बनता है, तो दुश्मनों के होश उड़ जाते हैं। दो दिन बाद गुजरात की भूमि से नरेन्द्र मोदी ने पाकिस्तान के नाम संदेश दिया- चैन से जियो, अपने हिस्से की रोटी खाओ, नहीं तो मेरी गोली तो है ही।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कण्ठ से निकले ये शब्द भारत की वीरत्व परम्परा की द्योतक है। हम इसी परम्परा के पुजारी हैं। इसी परम्परा को कवि प्रदीप ने इन शब्दों में पिरोया था- ये है अपना राजपुताना, नाज जिसे तलवारों पे। इसने अपना जीवन काटा बरछी तीर कटारों पे। कूद पड़ी थी यहाँ हजारों पदमिनियां अंगारों पे।

सच पूछो तो यह देश अपने परिवार, देश, समाज और धर्म को बचाने के लिए अंगारों पर कूद पड़ने वाली महिलाओं का ही है। उन्होंने ही इस देश को बनाया है।

रामधारीसिंह दिनकर ने हिमालय के प्रति अपनी कविता में लिखा है- पददलित इसे करना पीछे, पहले ले मेरा सिर उतार।

अर्थात्- हिमालय पर्वत शत्रु को ललकारते हुए कहता है कि तू भारत की धरती को अपने पैरों से बाद में रौंदना, पहले मेरा सिर उतार ले। अर्थात् अपने देश की रक्षा के लिए पहला बलिदान मैं दूंगा।

हम भारत के अमर बलिदानी लोग हैं, इसीलिए आज संसार में सिर ऊंचा किए खड़े हैं।

एक मध्यकालीन कवि ने अमर बलिदान की परम्परा को इन शब्दों में लिखा है- इला न देणी आपणी, हालरिया हुलराय। पूत सिखावै पालणै, मरण बड़ाई माय।

अर्थात्- माता अपने पुत्र को झूला झुलाती हुई कहती है कि किसी को कभी अपनी धरती मत देना। हे पुत्र कायर की तरह जीने में नहीं वीर की तरह मरने में ही यश है।

इसी परम्परा को राजस्थान के एक कवि ने महाराणा प्रताप के संदर्भ में लिखा है- माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप। अकबर सूतो ओझकै, जाण सिराणै साँप।

अर्थात्- हे माता। तू ऐसे पुत्रों को जन्म दे जैसे महाराणा प्रताप। प्रताप के भय से अकबर कभी पूरी नींद नहीं लेता था क्योंकि उसे ऐसा लगता था जैसे उसके सिराहने सांप बैठा हो।

भारतीय वीर परम्परा की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद हम 22 अप्रेल 2025 की उस घटना की ओर चलते हैं जब पाकिस्तान से आए खूंखार आतंकियों ने जम्मू कश्मीर प्रांत के पहलगाम में भारतीय पर्यटकों का धर्म पूछकर और उनकी पैण्ट खुलवाकर उनकी हत्या की। एक हिन्दू यवती का पति भी इस हत्याकाण्ड में मारा गया। उस हिन्दू युवती ने इस हत्याकाण्ड पर प्रतिक्रिया देते हुए मीडिया के सामने अपील की कि मेरे पति की मौत का बदला मुसलमानों या कश्मीरियों को मारकर न लिया जाए।

क्या यह हैरान कर देने वाली बात नहीं है कि उस हिन्दू युवती ने यह कहने की बजाय कि मेरे पति के हत्यारों का सिर काट लाओ, उस युवती ने कश्मीरियों और मुसलमानों के प्रति अपनी चिंता व्यक्त की।

क्या उस युवती को सचमुच यह लगता था कि जैसे ही इस हत्याकाण्ड की खबर मीडिया में आएगी, भारत के गैर कश्मीरी और गैर मुस्लिम लोग हथियार उठाकर कश्मीरियों और मुसलमानों को मारने के लिए दौड़ पड़ेंगे?

क्यों उस हिन्दू युवती को भारत की वीर परम्परा का ज्ञान नहीं है? क्यों वह गंभीर शोक के क्षणों में गांधीगिरि दिखा रही है? न तो वह खुद आतंकियों से भिड़ी, न उसने अपनी, अपने पति की और अन्य पर्यटकों की प्राण रक्षा के लिए कोई साहस दिखाया। उसे केवल चिंता थी तो कश्मीरियों की और मुसलमानों की!

आपमें से बहुत से श्रोताओं ने फ्लाइट अटेंडेंट नीरजा भनोत का नाम सुना होगा जिसने वर्ष 1986 में केवल 23 साल की आयु में, मुम्बई से न्यूयॉर्क जा रहे पैन एम फ्लाइट 73 के अपहृत विमान के यात्रियों को फिलिस्तीन आतंकवादियों से बचाते हुए अपनी जान दे दी। भारत सरकार ने उसे अशोक चक्र दिया था।

मैं मानता हूँ कि सब लोग ऐसा साहस नहीं दिखा सकते किंतु कम से कम अपनी वाणी का उपयोग तो सोच समझ कर कर सकते हैं। क्या कश्मीरियों एवं मुसलमानों से बदला न लेने की अपील करने वाली उस युवती को एक भी ऐसी घटना याद है जब स्वतंत्र भारत के हिन्दुओं, जैनों, बौद्धों, सिक्खों, पारसियों एवं ईसाइयों में से किसी ने भी, कभी भी, किसी भी हत्याकाण्ड के विरोध में कोई रक्तरंजित सामूहिक कदम उठाया हो? क्या उसे भारत के लोग बांगलादेशियों की तरह सड़कों पर दंगा करने वाले लगते हैं।

स्वतंत्र भारत के इतिहास पर आज तक केवल दो ही दाग हैं। पहला दाग तब 1984 में लगा था जब भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके ही अंगरक्षकों ने गोलियों से भून दिया था। तब अवश्य ऐसा हुआ था कि हत्यारों के सम्प्रदाय वालों को सड़कों पर मारा गया था किंतु उस हत्याकाण्ड को भारत के लोगों ने स्वतःस्फूर्त उत्तेजना के वशीभूत होकर कारित नहीं किया था, अपितु श्रीमती गांधी की पार्टी के कुछ नेताओं ने उस हत्याकाण्ड का सामूहिक नेतृत्व किया था। कांग्रेस पार्टी के नेताओं के कृत्य के लिए भारत के समस्त लोगों को कलंकित कैसे किया जा सकता है?

भारत में जातीय नरसंहार का दूसरा उदाहरण 1990 का है जब कश्मीर में मुसलमान आतंकवादियों ने हिन्दुओं का नरसंहार किया था जिन्हें कश्मीरी पण्डित कहा जाता है।

जब भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हुई, जब पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंतसिंह की हत्या हुई, जब भारतीय सेना के पूर्व जनरल ए. एस. वैद्य की हत्या हुई, जब जनसंघ के संस्थापकों दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की हत्या हुई, तब भी भारत के किसी भी प्रांत के लोगों ने, भारत के किसी भी धर्म, सम्प्रदाय या पंथ के लोगों ने हत्यारों की जाति या मजहब या प्रांत के लोगों का सामूहिक नरंसहार नहीं किया था। जब काश्मीर के आतंकियों ने कश्मीर के हिन्दुओं को मारा तब भी भारत के हिन्दुओं ने किसी प्रकार का बदला नहीं लिया।

तब फिर उस युवा हिन्दू मोहतरमा ने अपने पति की हत्या पर यह क्यों कहा कि मेरी अपील है कि वे कश्मीरियों और मुसलमानों से बदला न लें? क्या वे बता सकती हैं कि उन्हें किससे डर लग रहा था, कौन कश्मीरियों और मुसलमानों को मारकर उनसे बदला लेने वाले थे?

बदला तो उसी से लिया जाता है, जिसने अपराध किया हो, या फिर किसी और से लिया जाता है? उस युवा महिला के पति की हत्या का बदला लेने के लिए भारत की सेना ने पाकिस्तान पर ही हमला किया, जहां से आए आतंकियों ने यह अपराध किया था या फिर किसी और देश पर कर दिया?

क्या ऐसा नहीं लगता कि इस मोहरतमा को अपने पति की हत्या हो जाने के दुख से अधिक चिंता कश्मीर के उन लोगों तथा उन मुसलमानों की थी, जिन्हें पता नहीं कौन मार डालने वाले थे?

मेरा विश्वास है कि यदि गांधीजी जीवित होते तो इतनी गांधीगिरि तो वे भी नहीं दिखाते जितनी इस मोहतरमा ने दिखाई है।

जिस महिला का पति मरा है, उसका दुख समझा जा सकता है किंतु इस पढ़ी-लिखी युवती की प्रतिक्रिया पर भी तो बात होनी चाहिए जो भारत के समस्त लोगों को बिना किसी कारण के संदेह के कटघरे में खड़ी करती है।

आखिर इस युवती ने अपने निर्दोष पति की निर्मम हत्या पर ऐसी विचित्र प्रतिक्रिया क्यों दी जिसमें भारत की समूची गैर कश्मीरी और समूची गैर मुस्लिम जनता संभावित हत्याकाण्ड के संदेह के घेरे में खड़ी हो गई?

इसी संदर्भ में थोड़ी सी चर्चा कुछ अन्य पढ़ी-लिखी महिलाओं की करते हैं। जब महाराष्ट्र पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी हेमंत करकरे बम्बई के आतंकवादी हमले में आतंकियों की गोलियों से छलनी होकर शहीद हुए और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे को एक करोड़ रुपए की राशि देने की घोषणा की तब कविता करकरे ने नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध बड़ी कड़वी प्रतिक्रिया देते हुए उस राशि को ठुकरा दिया था।

मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि गुजरात के दंगों में निर्दोष जनता को दंगाइयों के हाथों से बचाने में सफलतापूर्वक काम करने वाले मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे के मन में इतनी कड़वाहट क्यों थी? क्या केवल इसलिए कि नरेन्द्र मोदी मुसलमानों के तुष्टिकरण की राजनीति नहीं करते?

इस संदर्भ में श्वेता भट्ट की चर्चा करना भी उचित होगा। गुजरात कैडर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को साम्प्रदायिक दंगों के आरोप में फंसाने के लिए पूरा जोर लगाया किंतु किसी भी स्तर पर नरेन्द्र मोदी की संलिप्तता नहीं पाई गई।

जब संजीव भट्ट को न्यायालय के आदेश से जेल भेज दिया गया तब संजीव भट्ट की पत्नी श्वेता भट्ट ने नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध लगातार जहर उगला तथा उसके बाद हुए गुजरात विधान सभा के चुनावों में नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध चुनाव में उतर पड़ी।

मेरी समझ में यह नहीं आया कि श्वेता भट्ट को अपने पति के काले कारनामों पर शर्मिंदा होने की बजाय नरेन्द्र मोदी पर किस बात का गुस्सा था।? श्वेता भट्ट को ऐसा क्यों लगता था कि गुजरात में साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए नरेन्द्र मोदी ही दंगों के दोषी हैं? क्या केवल इसलिए कि नरेन्द्र मोदी मुसलमानों के तुष्टिकरण की राजनीति नहीं करते?

इसी संदर्भ में एक और घटना की चर्चा करते हैं।  13 दिसम्बर 2001 को कुछ आतंकवादियों ने भारत की संसद पर आतंकी हमला हुआ। इन आतंकवादियों को संसद की रक्षा में नियुक्त सुरक्षा कर्मचारियों ने मार डाला। आतंकियों एवं सुरक्षा कर्मियों के बीच हुए संघर्ष में कुछ सुरक्षा कर्मी शहीद हुए थे।

इस घटना के कुछ वर्ष बाद, उन शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए दिल्ली में एक बैठक का आयोजन किया गया। इस बैठक में एक पढ़ी लिखी महिला ने मानवाधिकारों की दुहाई देते हुए आतंकियों के सरगना मोहम्मद अफजल गुरु को निर्दोष बताया तथा उसे मुक्त करने की मांग की। उस समय अफजल गुरु एवं उसके साथियों पर भारतीय न्यायालयों में मुकदमा चल रहा था।

जब मानवाधिकार वादी उस उच्च शिक्षित महिला ने मोहम्मद अफजल गुरु को निर्दोष बताया तो संसद पर हुए हमले में शहीद हुए एक सुरक्षा कर्मचारी की पत्नी जो कि अपेक्षाकृत कम पढ़ी-लिखी थी और हिन्दी भी ढंग से नहीं बोल सकती थी, उठकर खड़ी हुई और जोर से चिल्लाकर बोली कि आज जो तू यहाँ गुलाबी कपड़ा पहनकर लैक्चर दे रही है, यदि तेरे मोहम्मद अफजल गुरु ने पार्लियामेंट पर हमला नहीं किया होता तो तेरी जगह मैं गुलाबी कपड़ा पहनकर बैठी होती, और तू मेरी जगह धौळा पहर कर बैठती।

जब पढ़ी-लिखी महिलाओं की बात चल ही रही है तो थोड़ी सी चर्चा तीस्ता सीतलवाड़ की भी करते हैं। तीस्ता सीतलवाड़ के दादा मोतीलाल चमनलाल सीतलवाड़ की पोती तथा अतुल सीतलवाड़ और सीता सीतलवाड़ की पुत्री हैं। वे मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं तथा उन्होंने जावेद आनंद नामक एक अल्पसंख्यक अधिकार कार्यकर्ता से निकाह किया है।

तीस्ता सीतलवाड़ ने अपना आधा जीवन गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध षड़यंत्र रचने में बिताया। यदि यह कहा जाए कि तीस्ता सीतलवाड़ के बिछाए हुए खतरनाक जाल से नरेन्द्र मोदी बाल-बाल ही बच सके हैं, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

तीस्ता के मन में नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध के इतना विष क्यों है? नरेन्द्र मोदी ने तो उनका कुछ नहीं बिगाड़ा। बात घूमफिर कर वहीं पहुंच जाती है कि चूंकि नरेन्द्र मोदी मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति नहीं करते, इसलिए तीस्ता उनकी शत्रु बन गई।

एक पढ़ी-लिखी स्त्री का उदाहरण हाल ही का है जिसका नाम स्वाति मल्होत्रा है जो पाकिस्तान के लिए जासूसी करती हुई पकड़ी गई है। भारत के लोगों ने तो उसके परिवार वालों से किसी तरह का बदला लेने की बात तक नहीं सोची। क्योंकि भारत की परम्परा यही है कि जिसने अपराध किया है, अपराधी केवल वही है, उसका बदला उसके परिवार के लोगों से, या जाति-मजहब और प्रांत के लोगों से नहीं लिया जा सकता।

इस ब्लॉग के माध्यम से मैं समस्त पढ़ी-लिखी औरतों पर किसी भी तरह का आरोप नहीं लगा रहा, पढ़ीलिखी महिलाएं ही इस देश और समाज का भविष्य हैं किंतु यह समझने और समझाने में असमर्थ हूं कि क्यों कुछ पढ़ी लिखी महिलाएं मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति न करने वाले नरेन्द्र मोदी, हिन्दुओं के लिए राजनीति करने वाली प्रज्ञा भारती और निर्दोष कर्नल पुरोहित को जेल की सलाखों के पीछे देखना चाहती हैं? क्यों कुछ पढ़ी-लिखी महिलाएं मोहम्मद अफजल गुरु को फांसी के फंदे से छुड़ाने की वकालात करती हैं।

क्यों कुछ पढ़ी लिखी औरतें यह बात नहीं समझ पातीं कि जेहाद के नाम पर आने वाले ये आक्रांता 1400 सालों से पूरी धरती पर निरीह एवं निर्दोष लोगों को मार रहे हैं। हमें उनके इरादों से लड़ना होगा। इसके लिए पूरी दुनिया की अच्छी शक्तियों को एक होना होगा।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

नरेन्द्र मोदी की गर्जना भारतीय उपमहाद्वीप की मुक्ति का महामंत्र है!

0
नरेन्द्र मोदी की गर्जना - www.bharatkaitihas.com
नरेन्द्र मोदी की गर्जना भारतीय उपमहाद्वीप की मुक्ति का महामंत्र है!

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पाकिस्तान की जनता को चेताया है कि अपने हिस्से की रोटी खाओ और सुख से जियो। नरेन्द्र मोदी की गर्जना सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप की मुक्ति का महामंत्र है!

 यदि आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा बांगलादेश की जनता ने मोदी के इस संदेश में छिपे शब्दों का मूल्य नहीं समझा और जेहाद तथा गजवाए हिन्द का पाठ पढ़ाने वाले और काफिरों को मार कर हूरें प्राप्त करने के लिए आतंकवाद का रास्ता दिखाने वाले मुल्ला-मौलवियों से अपना पीछा नहीं छुड़ाया तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा बांगलादेश की जनता को भी एक दिन गाजा में मर रहे फिलिस्तीनियों की तरह रोटी-रोटी को मोहताज होकर बंदूकों की गोलियों का शिकार बनना होगा।

पाकिस्तान में बैठे जेहादी मानसिकता वाले मुल्ला-मौलवियों की तहरीरों को सुनकर मुझे संत कबीर की याद आती है जिन्होंने आज से पांच सौ साल पहले कहा था- जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध। अंधा-अंधा ठेलिया, दोन्यूँ कूप पड़ंत। अर्थात् जब गुरु और चेले दोनों ही अंधे हों तो दोनों एक-दूसरे को ठेलते हुए कुएं में गिर जाते हैं।

अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा बांगलादेश की जनता ने जेहाद के लिए उकसाने वाले जिन मुल्ला-मौलवियों को अपना गुरु बनाया है, वे मुल्ला-मौलवी ही एक दिन अपने चेलों को मौत के मुंह में ले जाएंगे।

Kaise-Bana-Tha-Pakistan
To purchase this book please click on Image.

1947 में जिस समय पाकस्तिान बना था, उस समय हुए दंगों में लाखों लोग मारे गए थे। उन हत्याओं की जांच करने के लिए भारत सरकार ने जस्टिस जी. डी. खोसला आयोग का गठन किया था। जस्टिस खोसला की रिपोर्ट के अनुसार इन दंगों में 10 लाख लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़े। लंदन में प्रकाशित एनुअल रिपोर्ट के अनुसार इन दंगों में 5 लाख लोग मारे गए तथा 1 करोड़ 20 लाख लोगों को जन-धन की हानि हुई। ये सारी हत्याएं उन अलगाववादी मुल्ला-मौलवियों और मुस्लिम लीगी नेताओं की तहरीरों का परिणाम थीं जो भारत के मुसलमानों को हर हाल में पाकिस्तान लेने के लिए उकसाते थे। विगत 78 सालों में पूरी दुनिया कहां से कहां पहुंच गई किंतु पूरी दुनिया में बैठे अलगवाववादी और जेहादी मानसिकता वाले मुल्ला-मौलवी अपनी जमात के लोगों को आधुनिक युग की तरफ बढ़ने की बजाय आज भी जेहाद और गजवा-ए-हिन्द की तरफ बढ़ने के लिए अपना जीवन कुर्बान करने की शिक्षा देते हैं। जब अटलबिहारी वाजयपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने पाकिस्तान में पनप रहे आतंकवाद के संदर्भ में कहा था कि जिंदगी से बड़ी क्या चीज हो सकती है! ये आतंकवादी जिंदगी की बजाय मौत की तरफ बढ़ रहे हैं।

इन मुल्ला-मौलवियों ने अफगानिस्तान के लोगों को किस मुकाम पर पहुंचा दिया, पूरी दुनिया के सामने खुली किताब की तरह साफ है। अफगानिस्तान के लड़कों के हाथों में से किताबें छीनकर बंदूकें पकड़ा दी गई हैं। अफगानिस्तान की लड़कियां मानव के लिए सुलभ सहज जीवन एवं शिक्षा के उजाले से मरहूम करके काले परदों के अंधेरों में बंद कर दी गई हैं।

मुल्ला-मौलवियों की इसी मानसिकता के चलते ईरान में भी मुस्लिम लड़कियों का जीन हराम है। थोड़ा सा ओर आगे बढ़कर गाजा पर दृष्टि डालें तो और भी भयावह तस्वीर सामने आती है।

गाजा में रहने वाले फिलिस्तीनियों ने आतंकवादी संगठन हमास को अपना गुरु बनाया और नतीजा उनके सामने है। गाजा के लोग और हमास के आतंकी दोनों ही मौत के मुंह में कीड़े-मकोड़ों की तरह गिरकर मर रहे हैं। आज गाजा के लोग भूख से मर रहे हैं, बीमारी से मर रहे हैं, भुखमरी से मर रहे हैं, प्यास से मर रहे हैं और इजराइली सैनिकों की गोलियों एवं बमों से मर रहे हैं। अब तक इजराइल गाजा में कितने लोगों को मार चुका है, इसका वास्तविक आंकड़ा किसी के पास नहीं है।

कुछ अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के अनुसार 7 अक्टूबर 2023 से आरम्भ हुए इजराइल-हमास युद्ध में अब तक 55,000 से अधिक फिलिस्तीनी मरे हैं, जिनमें बच्चे, महिलाएं और बूढ़े भी शामिल हैं। इजराइल अब तक गाजा की 77 प्रतिशत भूमि पर कब्जा कर चुका है और 85 प्रतिशत फिलिस्तीनियों को बेघर कर चुका है।

फिलिस्तीनियों को यह परिणाम इसलिए भोगना पड़ रहा है कि उन्होंने जेहाद के लिए अंधे हमास को अपना गुरु बनाया।

27 मई 2025 को जब एक अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी ने दक्षिणी गाजा के राफा शहर में लोगों को खाना बांटने के लिए एक कैम्प लगाया तो भूख से बिलबिलाते हजारों फिलिस्तीनी इंसानियत की सारी गरिमा को भूलकर कीड़ों की तरह भोजन सामग्री की छीन-झपट करने लगे। इन लोगों को नियंत्रित करने के लिए इजराइली सेना ने हेलिकॉप्टर से गोलियां बरसाईं। इस दौरान मची भगदड़ में कहा नहीं जा सकता कि कितनी बड़ी संख्या में लोग फिलिस्तीनी लोग मौत के मुंह में समा गए।

गाजा में 2 मार्च 2025 से अनाज की आपूर्ति बंद है। गाजा में खाद्य भंडार पूरी तरह से खत्म हो गए हैं। अमरीका भुखमरी की चपेट में आए फिलिस्तीनियों को खाना पहुंचाना चाहता है किंतु इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने अपनी सेना से कहा है कि खाने का एक कण भी हमास के आतंकियों तक न पहुंच सके।

नेतन्याहू ने साफ-साफ कहा है कि जब तक हमास के आतंकी बंधक बनाए गए इजराइली नागरिकों को नहीं छोड़ते तब तक इजराइल अपनी कार्यवाही जारी रखेगा। न तो हमास इजराइल की इस शर्त को मानता है और न इजराइल के सैनिक गाजा पर बारूद बरसाना बंद करते हैं। गाजा क्षेत्र में रहने वाली फिलीस्तीनी लोग जाएं तो कहां जाएं।

अंधे लोग जब अपने से भी बड़े अंधे को अपना गुरु बनाते हैं तब ऐसा ही होता है। पाकिस्तान के लोगों के पास अब भी समय बचा हुआ है। वे जेहाद फैलाने वाले मुल्ला-मौलवियों से छुटकारा पाकर आधुनिक शिक्षा और आधुनिक लोकतंत्र की ओर बढ़ सकते हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वक्तव्य अपने हिस्से की रोटी खाओ और सुख से जियो का यदि कोई अर्थ निकलता है तो वह केवल यही है कि आतंकवाद की तरफ मत बढ़ो। शिक्षा और रोजगार पाने की तरफ बढ़ो। खुली मानसिकता और खुले विचारों की तरफ बढ़ो। हैवानियत की तरफ नहीं, इंसानियत की तरफ बढ़ो।

यदि पाकिस्तान की जनता ने समय रहते भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सलाह पर ध्यान नहीं दिया तो वह दिन दूर नहीं जब पाकिस्तान के लोगों को भी हवाई जहाज के टायरों पर बैठकर यूरोप और अमरीका की तरफ भागना पड़ेगा या गाजा के लोगों की तरफ रोटयों और पानी की बूंदों के लिए लूटपाट करते हुए बंदूकों से निकली गोलियां खाकर मरना पड़ेगा।

इसी लिए मैंने इस ब्लॉग के आरम्भ में ही कहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की गर्जना भारतीय उपमहाद्वीप की मुक्ति का महामंत्र है!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

जेहाद का अंतिम पड़ाव !

0
जेहाद का अंतिम पड़ाव - bharatkaitihas.com
जेहाद का अंतिम पड़ाव

क्या इस संसार में कोई भी इस प्रश्न का उत्तर ईमानदारी से दे सकता है कि जेहाद क्या होता है और जेहाद का अंतिम पड़ाव क्या है? शायद नहीं…. कोई नहीं। इसलिए नहीं कि कोई जानता ही नहीं, जानते तो सब लोग हैं किंतु इस प्रश्न का उत्तर इतना खौफनाक है कि कोई उस खौफ का सामना नहीं करना चाहता!

22 अप्रेल 2025 को पाकिस्तान से आए आतंकवादियों ने पहलगाम में 27 भारतीय पर्यटकों को मौत के घाट उतार दिया। आतंकवादियों ने उसे जेहाद कहा।

इस हमले के बाद भारत में भी एक मौलवी बता रहा था कि पहलगाम में जो कुछ हुआ वह जेहाद है क्योंकि रमजान के पवित्र महीने के बाद काफिरों को मारना जेहाद कहलाता है। उस मौलवी ने यह भी बताया कि कुछ मुसलमान इस हमले की निंदा करेंगे। इस निंदा को अल तकैया कहा जाता है। यह भी जेहाद का हिस्सा है।

अर्थात् उस मौलवी के अनुसार काफिरों को मारना तथा काफिरों को मारने की निंदा करना, दोनों ही जेहाद है। इस मौलवी का पूरा वीडियो यूट्यूब पर उपलब्ध है।

क्या कोई भी व्यक्ति जेहाद की इस परिभाषा से सहमत हो सकता है? पहलगाम पर आगे बात करने से पहले जेहाद के सम्बन्ध में कुछ प्रश्नों पर विचार करते हैं। दुनिया भर के मुल्ला, मौलवी, काजी, आलिम और पढ़े-बेपढ़े मुसलमान अपने-अपने हिसाब से जेहाद की परिभाषा देते हैं, इस कारण वे लोग जो मुसलमान नहीं हैं, जेहाद के बारे में अपनी समझको लेकर उलझन में रहते हैं कि जेहाद क्या है?

यह कहाँ से शुरु होकर कहाँ खत्म होता है? अर्थात् दुनिया में जेहाद कब आरम्भ हुआ था और जेहाद का अंतिम पड़ाव क्या है?

कुछ मुल्ला-मौलवी कहते हैं कि अपने भीतर की बुराइयों को नष्ट करके अल्लाह तक पहुंचना जेहादहै। अल्लाह तक पहुंचना जेहाद का अंतिम पड़ाव है।

क्या आतंकवादी जेहाद की इस परिभाषा को मानते हैं? इन आतंकवादियों द्वारा किए जा रहे जेहाद की परिभाषा क्या है? उनके द्वारा किए जा रहे जेहाद का अंतिम पड़ाव क्या है?

प्रत्येक आतंकवादी घटना के बाद भारत और पाकिस्तान में कुछ मुल्ला-मौलवीबड़े फख्र से यह कहते हुए सुनने को मिल जाएंगे कि काफिरों को मारना जेहाद है तथा जेहाद करते हुए शहीद होकर जन्नत की 72 हूरें प्राप्त करना जेहाद का अंतिम पड़ाव है।

पिछले चौदह सौ सालों से दुनिया भर में मुसलमानों की संख्या लगातार बड़ी तेजी से बढ़ रही है, कुछ लोग इसी को जेहाद बताते हैं।

यदि जेहाद की इस परिभाषा को मानें तो यह मानना पड़ेगा कि धरती पर जेहाद पिछले चौदह सौ सालों से चल रहा है।

प्रश्न यह है कि क्या किसी कौम या मजहब के लोगों की जनसंख्या का बढ़ जाना वास्तव में जेहाद ही है?

कुछ लोग हमास के द्वारा इजराइल में घुसकर निर्दोष इजराइली औरतों, पुरुषों एवं बच्चों को मारने और बंधक बना लेने को जेहाद बताते हैं तो कुछ लोग लव जेहाद, लैण्ड जेहाद, थूक जेहाद आदि के माध्यम से भी जेहाद को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं।

जब पहलगाम की घटना के बाद भारत की सेना ने पाकिस्तान में रह रहे आतंकवादियों के विरुद्ध सैनिक अभियान किया तो तुर्की ने पाकिस्तान को युद्ध में काम आने वाले ड्रोन भिजवाए। यह वही तुर्की है जिसे भूकम्प की त्रासदी में भारत द्वारा सबसे पहले राहत सामग्री भिजवाई गई थी।

तुर्कीए ने भारत के उपकार का बदला भारत के विरुद्ध, पाकिस्तान को युद्ध सामग्री भेजकर किया। क्या इसे जेहाद कहते हैं? क्या तुर्की के लिए भारत जैसे सहिष्णु देश को नष्ट करने में सहयोग करना जेहाद का अंतिम पड़ाव है?

भारत की सेना ने पाकिस्तान के कुख्यात आतंकवादी ठिकानों पर हमले करके बहुत से आतंकवादी मारे तथा लश्कर के कमाण्डर अब्दुल रउफ के दो बेटों को भी मिसाइल से उड़ा दिया। अपने बेटों के शरीरों के चिथड़े उड़ते ही अब्दुल रउफ बड़े घमण्ड के साथ पाकिस्तान की सड़कों पर निकला और उसने पाकिस्तान की अशिक्षित एवं निर्धन जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि मेरे सात बेटे थे, मुझे फख्र है कि उनमें से दो जेहाद करते हुए शहीद हुए। मेरे पांच बेटे और हैं, मैं अपने ये पांच बेटे भी रब की राह में शहीद करवाउंगा।

भारत में एक बेटा होना भी बहुत बड़ी बात मानी जाती है। कुछ समय पहले तक तो भारत के लोग एक बेटे की चाहत में सात-सात बेटियां पैदा कर लेते थे। जब बेटा नहीं होता था तो अपनी किस्मत को कोसते थे। और पुत्रहीनता को अपने बुरे कर्मों का फल बताते थे।संभवतः अब्दुल रउफ बड़ा धर्मात्मा है जिसे एक या दो नहीं, सात बेटों का बाप होने का फख्र हासिल हुआ।

अब्दुल रउफ आतंकी संगठन लश्कर का बड़ा कमाण्डर है, इसलिए पाकिस्तान की जनता में उसकी आवाज बड़ी इज्जत से सुनी जाती है। रउफ की इस बात को सुनकर कि वह अपने पांच और बेटों को रब की राह में शहीद करेगा, पाकिस्तान की सड़कों पर नारा ए तदबीर अल्लाह हो अकबर बड़ी जोर से बोला गया, पाकिस्तान की जनता ने तालियां बजाकर खुशी जताई। उनकी छातियां जोश से भर गईं। ऐसा लगता था जैसे अब्दुल रउफ की इस बात को सुनकर पाकिस्तान की जनता में जेहाद करने के लिए नया जोश छा गया।

भारतीय न्यूज चैनलों तथा सोशियल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर यह दृश्य बारबार दिखाया गया। इसे देखकर कोई भीमनुष्य यह सोचने के लिए विवश हो जाएगा कि अब्दुल रउफ जो कह रहा है, क्या वास्तव में वही जेहाद है? क्या दूसरों को मारना और उन्हें मारने की लालसा में स्वयं मर जाना और अपनी औलादों को मर जाने देना जेहाद है? क्या यही जेहाद का अंतिम पड़ाव है?

भारत में कहा जाता है कि गजवा ए हिन्द जेहाद है और गजवा ए हिन्द ही भारत में जेहाद का अंतिम पड़ाव है। यदि गजवा ए हिन्द जेहाद है तो फिर भारत के बाहर घट रही घटनाएं क्या हैं? क्या वे भी जेहाद हैं, या फिर उन घटनाओं का जेहाद से कुछ लेना-देना नहीं है!

पहलगाम हमले के दौरान पाकिस्तान से एक बड़ी अशोभनीय खबर आई कि पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री सत्तर वर्षीय इमरान खान के साथ पाकिस्तानी सेना के एक मेजर ने घिनौना व्यवहार किया है। पाकिस्तान में इसे गिलमा कहा जाता है। तो क्या पाकिस्तानी लोग गिलमा को भी जेहाद मानते हैं? निश्चित रूप से यह जेहाद नहीं हो सकता, जेहाद तो कुछ और ही चीज होती होगी!

कुछ समय पहले बांगलादेश में हिन्दुओं का नरसंहार किया गया था और उसे जेहाद बताया गया था। यदि अपने ही देश के निर्दोष विधर्मियों को मारना जेहाद है तो फिर बांगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के साथ जो कुछ हुआ, वह क्या था? क्यों उन्हें अचानक ही अपना देश छोड़कर भारत में भाग आना पड़ा?

क्यों उनकी अपनी ही कौम के लोगों ने उनके अण्डर गार्मेंट्स बांगलादेश की सड़कों पर उछाले थे?

तो क्या बांगलादेश में अपनी ही कौम की 77 वर्षीया व्द्ध महिला प्रधानमंत्री के अण्डर गार्मेंट्स सड़कों पर उछालने को जेहाद माना जाता है? निश्चित रूप से यह घटना जो कुछ भी रही हो, इसे जेहाद तो नहीं कहा जा सकता?

दो दिन पहले हीबांगला देश से खबर आई है कि बांगलादेश के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल हामिद कोट-पेंट उतारकर लुंगी में छिप गए और रात के अंधेरे में थाइलैण्ड के रास्ते इण्डोनेशिया भाग गए। मन में एक बार फिर सवाल उठता है कि क्या अपनी ही कौम के लोगों को अपना देश छोड़कर भाग जाने के लिए मजबूर कर देना जेहाद है। क्या यही जेहाद का अंतिम पड़ाव है?

क्या इसी जेहाद के चलते पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्रियों नवाज शरीफ और बेनजीर भुट्टो को अपना देश छोड़कर विदेशों में भाग जाना पड़ा था? क्या वह जेहाद का अंतिम पड़ाव था?

या फिर जेहाद का अंतिम पड़ाव वह है जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो को पाकिस्तान की सेना ने फांसी के फंदे पर लटकाया था?

या फिर जेहाद का अंतिम पड़ाव वह था जब पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को उनके अपने ही देश में बम विस्फोट में मार दिया गया था!

यदि ये जेहाद हैं तो ये कैसे जेहाद हैं। इन जेहादों का अंतिम पड़ाव क्या है? मैं नहीं जानता कि जेहाद क्या है! मैंने न तो कुरान पढ़ी है, न हदीस पढ़ी है और न मुझे यह पता है कि कुरान या हदीस में जेहाद का अर्थ बताया भी गया है कि नहीं!

मैं तो जेहाद की उन परिभाषाओं पर बात कर रहा हूँ जो परिभाषाएं इजराइल और फिलीस्तीन से लेकर अजरबैजान, तुर्की, पाकिस्तान, बांगलादेश और भारत में घटी घटनाओं के बाद दुनिया भर के मुल्ला मौलवियों द्वारा दी जाती रही हैं। पिछले एक दशक में जेहाद के नाम पर लंदन, पेरिस और स्विट्जरलैण्ड भी बहुत बड़ी मात्रा में खून बहाया गया है।

मैंने इतिहास की किताबों में पढ़ा है कि आज से 1300 वर्ष पहले भारत पर पहला मुस्लिम आक्रमण करने वाले मुहम्मद बिन कासिम से लेकर महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी, अहमदशाह अब्दाली तथा जहीरुद्दीन बाबर आदि विदेशी हमलावरों ने भारत पर किए गए हमलों को जेहाद बताया था।

मैं एक बार फिर कहता हूँ कि मुझे नहीं मालूम कि जेहाद क्या है किंतु मेरा छोटा सा दिमाग यह कहता है कि किसी का खून बहाना, किसी वृद्ध महिला प्रधानमंत्री के अण्डर गारमेंट्स सड़कों पर लहराना तथा किसी बूढ़े पूर्व प्रधानमंत्री का गिलमा करना, अपने ही देश के पूर्व प्रधानमंत्री को फांसी पर चढ़ाना, उन्हें बम धमाकों से मार देना आदि कुकृत्य चाहे जो भी कहलाते हों, कम से कम जेहाद तो नहीं हो सकते।

मुल्ला मौलवियों द्वारा दी जा रही जेहाद की परिभाषाओं तथा सड़कों पर दिखाई देने वाले जेहाद के स्वरूप के इतने सारे उदाहरणों एवं इतनी सारी विवेचना के बाद भी मैं फिर से उसी बिंदु पर आकर खड़ा हो जाता हूँ, जहाँ से मैने बात आरम्भ की थी कि भले ही दुनिया भर में जेहाद चल रहा है किंतु शायद ही कोई समझता हो कि जेहाद वास्तव में क्या होता है, यह कहाँ से शुरु होता है और कहाँ पहुंचकर खत्म होता है?

शायद कोई नहीं जानता कि जेहाद क्या है, शायद इसलिए क्योंकि यह पूरी तरह रहस्यमयी है।

मेरे लिए आज भी यह प्रश्न अनुत्तरित है कि जेहाद क्या है और जेहाद का अंतिम पड़ाव क्या है? कुछ लोग कहते हैं कि एक दिन पूरी दुनिया को मुसलमान बनना है, उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो कुछ भी किया जाए, वह सब जेहाद है। पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है?

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

पाकिस्तान का परमाणु बम किस का है!

0
पाकिस्तान का परमाणु बम - bharatkaitihas.com
पाकिस्तान का परमाणु बम किस का है!

हाल ही में पाकिस्तान में आतंकवादियों के विरुद्ध भारतीय कार्यवाही के दौरान किराना पहाड़ी पर ब्रह्मोस मिसाइलों के गिरते ही अमरीका जिस तरह फड़फड़ाया, उसे सुनकर यह संशयह होता है कि पाकिस्तान का परमाणु बम किसका है!

क्या किराना पहाड़ी में रखे परमाणु बम अमरीका के हैं? क्या अमरीका ने ये बम भारत की छाती पर पांव रोपने के लिए रखे हुए हैं?

इस विषय पर बात करने से पहले एक दृष्टि परमाणु बम के इतिहास पर डालते हैं।

दुनिया में पहले परमाणु बम का परीक्षण 16 जुलाई 1945 को अमरीका द्वारा किया गया था। उस समय दुनिया में द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और अमरीका तथा यूरोप युद्ध हारने के कगार पर थे!

6 अगस्त 1945 को अमरीका ने जापान के हिरोशिमा नगर पर लिटिल बॉय नामक परमाणु बम गिराया और 9 अगस्त 1945 को नागासाकी पर फैट बॉय नामक परमाणु बम फोड़ा।

इन परमाणु बमों के गिरते ही दूसरा विश्व युद्ध तो समाप्त हो गया किंतु इन बमों से हुए विनाश को देखकर पूरी दुनिया में परमाणु बम की दहशत व्याप्त हो गई।

इस कारण तब से लेकर आज तक संसार के किसी भी देश ने अपने किसी भी शत्रु पर परमाणु बम नहीं फोड़ा है किंतु उसके बाद पूरी दुनिया परमाणु बम विकसित करने की होड़ में लग गई ताकि उसे किसी अन्य परमाणु शक्ति सम्पन्न देश के दबाव में आने या उससे डरने की आवश्यकता नहीं रहे।

1949 में अमरीका ने कनाडा तथा कुछ यूरोपीय देशों को अपने साथ मिलाकर नाटो का गठन किया। इसके बाद अमरीका ने इन नाटो देशों में अपने परमाणु बम छिपा दिए ताकि जरूरत के समय वह अपने परमाणु बमों का उपयोग चीन और रूस के विरुद्ध कर सके। आज अमरीका ने अपने 100 परमाणु बम छः नाटो देशों में छिपा रखे हैं जिनमें जर्मनी, इटली, तुर्की, बेल्जियम, नीदरलैंड और बेलारूस शामिल हैं।

यह सही है कि भारत की आजादी में अमरीका की भी कुछ भूमिका थी किंतु जब भारत स्वतंत्र हो गया और उसके दो-तीन टुकड़े हो गए, तब अमरीका ने कभी नहीं चाहा कि भारत विकसित हो तथा एक मजबूत देश बने।

उस समय भारत अमरीका का सड़ा हुआ गेहूं खरीद कर खाता था किंतु इंदिरा गांधी ने ऑस्ट्रेलिया के कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन अर्नेस्ट बोरलोग से सहयोग लेकर भारत में गेहूं की बौनी प्रजातियां विकसित कीं तथा भारत को अमरीका से गेहूं लेने की आवश्यकता समाप्त हो गई।

इससे अमरीका को बड़ी बौखलाहट हुई तथा अमरीका के दो राष्ट्रपतियों हेनरी किसंजर तथा रिचर्ड निक्सन ने भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए अपमान जनक शब्द कहे तथा उन्हें बूढ़ी चुड़ैल तक कहा। जब 1971 में भारत पाकिस्तान के बीच बड़ा युद्ध लड़ा गया तब अमरीका ने पाकिस्तान की सहायता की तथा भारत को धमकाया। हालांकि रूस द्वारा भारत का पक्ष लिए जाने के कारण अमरीका भारत के विरुद्ध कुछ नहीं कर सका।

इस युद्ध के लगभग ढाई साल बाद 18 मई 1974 को भारत ने अपना पहला परमाणु बम परीक्षण किया। उस समय तक रूस, इंगलैण्ड, फ्रांस तथा चीन भी परमाणु बम बना चुके थे और भारत इस शृंखला में छठा देश था।

अमरीका की बौखलाहट और अधिक बढ़ गई। वह कभी नहीं चाहता था कि भारत के पास कभी भी परमाणु क्षमता आए। इसलिए अमरीका ने भारत पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए तथा पाकिस्तान को अरबों डॉलर्स की आर्थिक सहायता प्रदान की ताकि वह भारत के विरुद्ध एक मजबूत शत्रु के रूप में उभर सके।

भारत के बाद पाकिस्तान और उत्तर कोरिया ही ऐसे देश हैं जो बड़े जोर-शोर से दावा करते हैं कि उनके पास भी अपने बनाए हुए एटम बम हैं। दुनिया भर में बड़े विश्वास के साथ यह माना जाता है कि इजरायल के पास भी परमाणु हथियार हैं, किंतु इजराइल कभी भी अपने पास परमाणु बम होने का दावा नहीं करता।

भारत के परमाणु परीक्षण के दस साल बाद वर्ष बाद 1984 के अंत में पाकिस्तान ने दावा किया कि उसने भी परमाणु विस्फोट करने की क्षमता प्राप्त कर ली है।

क्या यह हैरान करने वाली बात नहीं है कि आज तक ईरान, तुर्की, जर्मनी और इटली जैसे देश परमाणु विस्फोट करने की क्षमता अर्जित नहीं कर पाए जबकि पाकिस्तान जैसे पिद्दी देश ने यह क्षमता प्राप्त कर ली।

क्या पाकिस्तान का परमाणु बम अमरीका की ही कोई चाल थी? क्या अमरीका ने ही पाकिस्तान का परमाणु बम बनवाया या फिर अमरीका ने पाकिस्तान में अपने परमाणु बम रखकर उसे पाकिस्तान का परमाणु बम कहा?

1984 में पाकिस्तान ने यह दावा किया कि उसने परमाणु विस्फोट करने की क्षमता प्राप्त कर ली है, इस दावे के लगभग एक साल पहले अर्थात् 1983 में अमरीका ने पूरी दुनिया के सामने यह प्रचारित किया कि पाकिस्तान के वैज्ञानिक डॉ. अब्दुल कादिर खान ने नीदरलैण्ड से परमाणु बम को बनाने की विधि चुराई है।

अमरीका ने यह भी दावा किया कि अब्दुल कादिर खान ने ही एम्सटर्डम से यूरेनियम संवर्द्धन की तकनीक भी चुराई है। 

अब्दुल कादिर खान ई.1972 से 75 के बीच एम्सटरडम में फिजिक्स डायनैमिक्स रिसर्च लैबोरेटरी में काम करता था। अमरीका ने दावा किया कि उसी समय अब्दुल कादिर ने यूरेनियम संवर्द्धन के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां जुटाईं तथा ई.1976 में नीदरलैंड के यूरेंका ग्रुप की प्रयोगशालाओं से कुछ गोपनीय दस्तावेज चुराकर पाकिस्तान भाग आया और उसने पाकिस्तान में यूरेनियम संवर्द्धन प्लांट विकसित किया।

यह एक हैरान करने वाली बात थी कि अब्दुल कादिर ने एम्सटरडम से यूरेनियम संवर्द्धन की तकनीक वर्ष 1972 से 75 के बीच चुराई तथा नीदरलैण्ड से परमाणु बम बनाने की तकनीक वर्ष 1976 में चुराई। उस पर आरोप 1983 में लगा। इस आरोप के एक साल के भीतर ही पाकिस्तान ने दावा कर दिया कि अब पाकिस्तान ने भी परमाणु विस्फोट करने की क्षमता प्राप्त कर ली है।

पूरा मामला फिल्मी ड्रामे की स्क्रिप्ट जैसा लगता है किंतु पाकिस्तान के दावे को दुनिया के किसी भी देश ने अस्वीकार नहीं किया। इस कारण पाकिस्तान को परमाणु शक्ति सम्पन्न देश मान लिया गया तथा उसके बाद से जब कभी भी भारत पाकिस्तानी आतंकवाद के विरुद्ध कोई कदम उठाता है तो पाकिस्तान, भारत पर परमाणु बम फैंकने की धमकी देता है और भारत उसके दबाव में आ जाता है।

अमरीका द्वारा पूरी दुनिया में यह प्रचार किया जाता है कि पाकिस्तान के परमाणु बमों का बटन पाकिस्तानी सेना के पास है तथा पाकिस्तान की सेना आतंकवाद के अंतर्राष्ट्रीय सरगनाओं द्वारा नियन्त्रित होती है। इस कारण पाकिस्तान की सेना, पाकिस्तान की सरकार को अंधेरे में रखकर कभी भी कोई खतरनाक कदम उठा सकती है।

 वर्ष 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के समय में भारत ने दूसरा परमाणु बम विस्फोट परीक्षण किया जिससे तिलमिलाकर अमरीका ने भारत पर कई प्रकार के व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए किंतु जब इन प्रतिबंधों से अमरीका को ही नुक्सान हुआ तो ये प्रतिबंध हटा दिए गए।

यही कारण है कि 1984 से लेकर 2024 तक की चालीस साल की अवधि में भारत की कार्यवाहियां पाकिस्तानी आतंकवाद के विरुद्ध सदैव कमजोर दिखाई देती हैं। परमाणु बम के भय के चलते ही अटल बिहारी वाजपेयी ने कारगिल युद्ध के दौरान अपने भारत के सवा डेढ़ हजार सैनिकों को मरवा लिया किंतु उन्होंने भारतीय सेना को पाकिस्तान में घुसकर पाकिस्तानी सैनिकों एवं आतंकियों को मारने की अनुमति नहीं दी।

पाकिस्तान के परमाणु बम का भय दिखाकर अमरीका पूरे चालीस साल तक भारत पर दादागिरी करता रहा। अमरीका ने मानवाधिकार संगठन का गठन किया और उसके माध्यम से भारत की संस्कृति को नष्ट करने का घिनौना खेल खेला। इसी मानवाधिकार संगठन की आड़ में भारत में चुनावी राजनीति को प्रभावित किया गया।

नरेन्द्र मोदी की वर्तमान सरकार पिछले आम चुनावों में इसी षड़यंत्र का शिकार होकर पूर्ण बहुमत प्राप्त करने से वंचित हुई हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प स्वयं इस घिनौने खेल का खुलासा कर चुके हैं कि मानवाधिकार संगठन द्वारा बांगलादेश के नाम पर भारत में पैसा भेजा गया और उसका दुरुपयोग भारत के आम चुनावों को प्रभावित करने में हुआ।

वर्ष 2025 में पाकिस्तान के बुरे आए और 22 अप्रेल 2025 को पाकिस्तान के आतंकियों ने भारत में घुसकर पहलगाम में 27 भारतीयों की हत्या कर दी। इसके बाद अमरीका ने घड़ियाली सहानुभूति दिखाते हुए कहा कि भारत को पूरा अधिकार है कि वह इस आतंकी हमले का बदला ले।

इस समय तक अमरीका यही सोचता रहा कि पाकिस्तानी परमाणु बमों के भय से भारत कभी भी पाकिस्तान पर हमला नहीं करेगा किंतु जैसे ही भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध पहली कार्यवाही की, अमरीका के सुर बदल गए।

अमरीका के उपराष्ट्रपति ने कहा कि हम भारत और पाकिस्तान के बीच नहीं पड़ेंगे। जब भारत की मिसाइलें नूरखान एयरबेस से कुछ ही दूर किराना पहाड़ियों पर बम गिरने लगीं तो अमरीका बुरी तरह फड़फड़ा गया।

इसी फड़फड़ाहट के कारण ट्रम्प ने भारत और पाकिस्तान के बीच तुरंत सीज फायर का दबाव बनाना आरम्भ किया। भारत तो वैसे भी तब तक जो करना था, कर चुका था। इसलिए जब पाकिस्तान ने कार्यवाही बंद कर दी तो भारत ने भी बंद कर दी।

सीज फायर तो हो गया किंतु भेड़िए की खाल में बैठी भेड़ का मालिक भी दुनिया को दिखाई दे गया।

हो सकता है कि मेरी बात न्यूनाधिक मात्रा में या पूरी तरह गलत हो किंतु यदि 1945 से लेकर 2025 तक के संसार भर में परमाणु शक्ति के इतिहास, भारत अमरीका और पाकिस्तान के बीच बनते-बिगड़ते सम्बन्ध तथा हाल ही में हुए घटनाक्रमों की कड़ियां आपस में जोड़ी जाएं तो कोई बड़ी बात नहीं है कि पाकिस्तान का परमाणु बम वास्तव में अमरीका का ही कोई घिनौना खेल हो!

प्रकृति का नियम है कि झूठ हर समय नहीं जीत सकता। एक न एक दिन सच की सफदेली झूठ के काले अंधेरे को चीर कर सामने आ ही जाती है। पाकिस्तान का परमाणु बम भी एक दिन पूरी सच्चाई के साथ दुनिया के सामने आकर रहेगा। हमें समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। वर्तमान समय में तो हमें भारत सरकार की तेजी से बदलती हुई विदेश एवं रक्षा नीतियों का आनंद लेना चाहिए तथा उनका समर्थन करना चाहिए।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता 

Ama-Nagavaloka

0
Ama-Nagavaloka - bharatkaitihas.com
Ama-Nagavaloka

After the demise of Ama-Nagavaloka Bappabhatti returned to Kanauj now ruled by former’s son Dunduka. Dunduka had already begun devoting himself to a dancing woman named Kantika and had made himself very obnoxious to his subjects and relations.

The history of India in the eighth century and the early decades of the ninth is shrouded in considerable mist. This much, however, is certain that in the first half of the eighth century the political scene of north India was dominated by the towering personalities of Yasovarman of Kanauj and Lalitaditya Muktapida of Kashmir. [1]

On the history of Yasovarman some authentic light is thrown by the Gaudavaho of Vakpati, his court poet, the Rajatarangini of Kalhana and the Chinese sources. They definitely prove that Yasovarman quit the north India scene some time in the middle of the century. But after his disappearance the history of Kanauj, the hub of eighth north Indian politics in this period, becomes extremely confused. [2]

However, some Jain works which deal with the life of Bappabhattisuri, the friend and preceptor of Ama Nagavaloka, the successor of Yasovarman, cast side lights on this dark period. Prominent among these works are the Prabandhakosa’[3] of Rajasekhara suri (1349), the Prabhavakacharita[4] of Prabhachandra suri (composed same time after Hemachandra, probably in the 14th century)[5] the Bappabhattisuricharita of Manikyasuri (13th or 14th century), [6] the Vividhatirthakalpa of Jinaprabhasuri (14th cent.), the Tapagachchhapattavali of Dharmasagaragani etc.  [7]

Though these Jain works[8] are not contemporary records like the Gaudavaho, it is believed that the material preserved in them is based on continuous tradition and hence is quite reliable. But usually scholars have taken from such works isolated facts to support their this or that hypothesis. In order to avoid the pitfalls of such an approach, we propose to discuss all the facts of historical importance about Ama-Nagavaloka as they are known from the story of Bappabhatti and assess how far they are consonant with the material provided by other sources. [9]

THE STORY OF BAPPABHATTI AND AMA-NAGAVALOKA

The various versions of the story of Bappabhatti as known from the above mentioned Jain sources agree on all the essential details. In the summary given below the differences of the various versions are mentioned in the footnotes. They, however, do not affect the central story much.

Bappabhatti was a disciple of Siddhasena of theGachchha of Modberakapura (Modhera, in Gujarat). He was born in the Vikrama year 800 (=743 A.D.) [10] and received his diksha as a Jain monk in V.E. 807 (=750 A.D.). In his childhood he became a friend of the prince Ama, the son of Yasovarman, the illustrious ruler of Kanauj,[11] who was the head-jewel of the famous dynasty of Chandragupta, by whom was made illustrious the already illustrious dynasty of the Mauryas.

Ama, who later on became famous as Nagavaloka (because of his taking hold of a poisonous cobra which succeeded in killing a mongoose in fight), was born of Yasodevi, during her temporary exile caused by the jealousy of a co-wife.

The friendship of Ama and Bappabhatti commenced when the prince, who was a spendthrift had been expelled by his father and was getting education at Modhera. When in course of time Yasovarman died and Ama succeeded to the throne the latter brought Bappabhatti from Modhera and received him with royal honours. This happened after 750 A.D., the date of the diksha of Bappabhatti and before 754 A.D., the year when he was raised to the dignity of a suri by his guru Siddhasena. [12]

After some time some misunderstanding arose between the two friends and Bappabhatti went to Lakshanavati (Lakhnauti), the capital of the king of Dharma of Gauda,[13] who was an enemy of Ama. Dharma gave shelter to Bappabhatti on the condition that the Jain monk would not return to Kanauj until the king Ama personally came to the Gauda court to invite his friend.

When Ama Nagavaloka heard of this condition he went to Lakshanavati in cognito and succeeded in extending a personal invitation to Bappabhatti without letting the king Dharma know of his identity. Thereupon Bappabhatti returned to Kanauj.

The story of Bappabhatti also has vakpatiraja the author of the Gaudavaha as one of its main characters. He has been described as “the head-jewel of the Kshatriyas and born of the Paramara clan.” Previously he was in Gauda enjoying the patronage of another ruler of the name Dharma (who ruled earlier than Dharma, the rival of Ama).

Vakpati was taken to Kanauj by Ama’s father Yasovarman [14] when the latter invaded Gauda and defeated and killed the elder Dharam. At Kanauj he composed the Gaudavadha and by this means got himself released from prison. Now, he came to Kanauj of his own accord to meet Bappabhatti and was, received as an honoured guest by Ama Nagavaloka.

On this occasion he composed two new works the Gaudabandha (distinct from the Gaudavaho) and the Mahumahavijaya. [15] After some time he felt dissatisfied with theconduct of Ama and retired to Mathura where, towards the end of his life, he was converted to Jainism by Bapppabhatti.

In the story of Bappabhatti a reference is also made to the conquest by Ama-Nagavaloka of Rajagiridurga ruled by Samudrasena, [16] though it was actually captured by him when in accordance with the prophecy of Bappabbatti, the sight of Bhoja, the infant grandson of the king, fell on it. Towards the end of his life Ama visited several tirthas including Stambhatirtha, Vimalagiri, Raivatagiri, Prabhasa and Magadhatirtha and ultimately gave up his life by immersing himself in the holy waters of the Ganga in the Vikrama year 890 (=833 A.D.) after duly accepting the Jain faith from Bappabhatti.

After the demise of Ama-Nagavaloka Bappabhatti returned to Kanauj now ruled by former’s son Dunduka. Dunduka had already begun devoting himself to a dancing woman named Kantika [17] and had made himself very obnoxious to his subjects and relations. He wanted to kill his son Bhoja because an astrologer had predicted that Bhoja would be a patricide.

Thereupon the queen of Dunduka and her brothers took Bhoja to Pataliputra. Now Dunduka directed the aged Bappabhatti to bring Bhoja back tothe capital. Not wishing to follow the king’s command, Bappabbatti gave up his life in the Vikrama year 895 (=838 A.D.) af the age of 95. The prince Bhoja was extremely moved by the sad demise of the Jain saint. He returned to Kanauj, killed his father and occupied the throne. [18]

AUTHENTICITY OF THE STORY

This is the history of Ama-Nagavaloka known from the life-story of Bappabhattisuri. We have divested it of all the miraculous elements and unnecessary datails which were intended to glorify the Jain faith and the achievements of Bappabhatti. But even in the historical part of the story there are several facts which are of doubtful nature. There are also several obvious inaccurate statements in some versions of the story. However, most of them may be easily explained or are of no consequence.

For example the Prabandhakosa gives the credit of killing Dharma, the king of Gauda and of patronising Vakpati to Yasodharman whose known date is 532 A.D. But this inaccuracy may be dismissed, as a copyists’ error for in the Devanagari characters the letters dha and va are so similar as easily to lead to a confusion of one for the other. Similarly, the fact that Rajasekhara suri has placed Lakshanavati in Deccan is of no consequence for he places Gauda desa also in that direction.

The Jain authors also make Vakpati write the Mahumahavijaya after he had already composed the Gaudavaho while Vakpati himself has referred to that work in his Gaudavaho. [19] But this point merely proves that the literary chronology of the Jain author was at fault; it does not go against the admissibility of their testimony.

Another line of attack on the authenticity of the Jain tradition is concerned with the personality and achievements of Bappabhatti. It is claimed that he was given diksha as a recluse at the age of seven, was raised to the dignity of a suri at the age of eleven and became a chosen Ama even before that.

He is also credited with converting preceptor of Vakpati, Ama and many others to the Jain faith. But if we remember that the story was basically intended to glorify the Jain faith and also keep in mind the life of Sankracharya who became a master of all the sastras in his childhood, such scepticism in the Jain story would loose much of its force.

REVIEW OF THEORIES REGARDING AMA-NAGAVALOKA

As regards the historical data concerning the king Ama-Nagavaloka himself, the most doubtful point of the Jain sources is that they ascribe him an abnormally long life of more thanhundred years and what is more a long reign of 83 years. Before he began his education at Modherakapura with Bappabhatti in c.750 A.D. he had been expelled by his father Yasovarman on account of his being a spendthrift and had become addicted to youthful follies.

Therefore he must have been more than eighteen years old in 750 A.D. and thus at the time of his death in 833 he could not have been less than hundred years old.

Such a long life is not impossible but when the Jain works assert that out of these hundred years he ruled for at least 83 years, i. e. from c.750 A.D. to 833, the thing becomes extremely doubtful. On the face of it, it appears palpably impossible that a king could rule for 83 years in that age of kaleidoscopic changes.

It becomes still more difficult to believe in veiw of the fact that our sources reveal that at least three Ayudha kings namely Vajrayudha, Indrayudha and Chakrayudha ruled over kanauj in the period when Ama-Nagavaloka is said to have been on the throne.[20]

In order to solve this difficulty many scholars such as G. H. Ojha, R.C. Majumdar, R.S. Tripathi and And Dasaratha Sharma identify Ama-Nagavaloka with Nagabhata II of the Gurjara Pratihara dynasty.[21]

But they find it impossible to explain the fact that Ama-Nagavaloka was the son of Yasovarman who died in c 750 while Nagabhata II was the son of Vatsaraja who was ruling in 783 A.D.[22]

They are, therefore, constrained to assume that the details of the life story of Bappabhatti are “mixed indeed with plenty of fiction.[23]

On the other hand many scholars accept Ama-Nagavaloka as the son and successor of Yasovarman without bothering to take into consideration the fact that Ama is said to have died in 833 A.D.[24]

A third group of scholars including S.K. Aiyangar and G.C. Choudhary believe that Ama-Nagavaloka, the son of Yasovarman indeed ruled at Kanauj from c.750 to 833 A.D. and was followed in turn by Dunduka and Bhoja and suggest that in that period the Gurjara Pratiharas ruled somewhere else.[25]

But, such a view not only implies a belief in an abnormally long reign of 83 years of Ama-Nagavaloka, but also invites insurmountable difficulties in the reconstruction of the history of tripartite struggle in this period and makes it impossible to explain. the rule of Vajrayudha, Indrayudha and Chakrayudha at Kanauj in the age of Nagabhata II and Dharmapala.

Thus none of the above mentioned theories solves the riddle of Ama-Nagavaloka satisfactorily.  As a reaction to this confusion scholars such as B.P. Sinha have maintained that it is “difficult to base any conclusion on such works of very doubtful value.”. [26]

But this drastic verdict against the authenticity of these Jain works is not at all necessary, for even if they fall short of historical compositions in many ways. it would still be demanding too much to dismiss them as completely worthless.

The Jain literature is famous for its historical value. The works under discussion refer to such historical personages as Yasovarman, Nagavaloka, Vakpati and Dharma (pala). They claim that they are based on the tradition handed down by the learned men. They, therefore, cannot and should not be discarded as entirely valueless.

COMPOSITE PERSONALITY OF AMA-NAGAVALOKA

To us it appears that the story of Bappabhatti and Nagavaloka would become intelligible if it is presumed that its authors have confused the personalities of the two kings of the name of Nagavaloka who flourished at two different times, though they may (or may not) be correct in assigning a long life to Bappabhatti himself.

The first Nagavaloka was cbviously the son of Yasovarman as the tradition asserts. There is nothing in the facts known from other sources to doubt this assertion. The date of Yasovarman as indicated by this tradition (after Vikrama year 807=750 AD when Ama was only a prince but before V.E. 811=754 A.D. when he the Chinese annals. [27]

It proves that the was already ruling) is generally supported by Kalhana’s Rajatarangini and authors of the life story ofBappabhatti had reliable data for this aspect of their testimony. This conclusion becomes irresistible by the fact that they refer to Vakpati, the author of the Gaudavaho as a contemporary of Yasovarman and his son.

Here it is interesting to note that theexistence of a king namedAma who ruled overKanauj is also known to the Dharmaranya Section of the BrahinaKhanda of the Skanda Purana.[28]

Though the whole account of the passage in question is woven upon the mythical in a complicated manner and it is almost impossible to interpret its details in a rational manner, it is quite obvious that it is referring to the king Ama-Nagavaloka of the Jain tradition.

It mentions him ruler of Kanauj (Kanyakubjadhipatih) and refers to his sarvabhaumatva or paramountcy. It also tells us that his daughter Ratnaganga was converted to the Jain faith by a Jivika (Ajivika i e. Jain monk) Indrasuri.

Ama himself was devoted to the righteous Dharma (Satyadharma parayana) but later on he also embraced Jainism. These facts indicate that the existence of a ruler of Kanauj named Ama was also known to the author of the Skanda Purana.

Thus the existence of a king name Ama alias Nagavaloka in the post Yasovarman period appears to have been a fact. But all the facts recorded by the Jain authors about Ama-Nagavaloka are not applicable to this ruler; many of them are obviously applicable to Nagabhata II the son of Vatsaraja Pratihara. Firstly, Nagavaloka died in 833 A D. Thus he belonged to the period of Nagabhata II, for the known date of Nagabhata II from inscriptions is V.E. 872 (=815 A.D.). [29]

Secondly, Nagavaloka was succeeded by his son Dunduka who ruled for only a short time and was succeeded by Bhoja, the grandson of Nagavaloka. Similarly Nagabbata II was succeeded by his son Ramabhadra who after a short while was followed by Bhoja, the grandson of Nagabhata II. Thus, but for the difference in the names of the sons of Nagabhata II and Nagavaloka, the two traditions perfectly agree.

Thirdly the Gurjar Pratiharas ruled over Kanauj at least from the closing years of the reign of Nagabhata II, [30] while Nagavaloka is described as a ruler of Kanyakubja. The hostility of Dharmapala with Nagabhata II is also a historical fact and in the Jain tradition the king Dharma is said to have been on hostile terms with Nagavaloka.

The conclusive evidence for the identity of Nagavaloka with Nagabhata II is provided by a reference to the conquest of Rajagiridurga by Nagavaloka in the Jain tradition, a feat which has been explicitly attributed to Nagabhata II in the verse 11 of the Gwalior Prasasti [31] of Minira Bhoja.[32]

CAUSE OF THE CONFUSION

Thus it is obvious that the Nagavaloka of the Jain story is a composite personality in which certain facts about Nagabhata II Pratihara, the son of the son of Vatsaraja have been ascribed to Ama-Nagavaloka, the Yasovarman. The cause of this confusion is quite obvious. Ama, the son of Yasovarman became famous as Nagavaloka while Nagabhata II was also known by this Viruda. [33]

This is conclusively proved by the Pathari inscription of Parabala dated V E. 917 (=861 A.D. 29) according to which Parabala’s father Karkaraja invaded the territories of Nagavaloka and defeated him in a bloody fight.Now, this Nagavaloka who flourishedonly a generation earlier than 861 A.D. was obviously Nagabhata II; he could not have been the son of Yasovarman who died in c. 750 A.D.[34]

That Nagabhata II was known as Nagavaloka is also proved by the Harsha stone inscription of Vigraharaja Chahamana, dated V.E. 1030 (=973 A.D.) where one of his predecessors Guvaka I is described as having obtained honour at the court of Nagavaloka.[35]

As Guvaka I flourished in the first half of ninth century, his patron Nagavaloka can only be identified with Nagabhata II Thus we find that in the age to which the life of Bappabhatti has been ascribed by the Jains (743-838 A.D.), two kings became famous as Nagavaloka.

Further, both of them ruled over Kanauj. It is also possible, if only remotely, that both of them patronized the Jain saint. It was, therefore, quite natural for the authors of the life of Bappabhatti, who composed their works in the thirteenth century or after, to identify these two rulers. But once the contradictions involved in their supposition are clearly understood and the cause of this confusion is appreciated, it becomes easy to separate the two streams of traditions which have got mixed up in their works.

SUGGESTION

This suggestion is important from several points of view. Firstly, it clears a lot of confusion regarding the history of north India in the second half of the eighth and early decades of the ninth century. It means that Ama-Nagavaloka, who ascended the throne in c. 750 did not rule till 833 A.D. and that Dunduka and Bhoja were not his successors; they were the successors of Nagabhata II who died in 833 A.D.

Thus, without rejecting the historicity of Ama-Nagavaloka, the son of Yasovarman, we obtain a gap in the history of Kanauj between Ama-Nagavaloka and Nagabhata II in which the three Ayudha kings- Vajrayudha, Indrayudha and Chakrayudha may easily be placed.

It obviates the necessity of declaring the Ayudha rule over Kanauj as a concoction or identifying Indrayudha of inscriptions and literature with Ama-Nagavaloka as S. K. Aiyangar and G.C. Choudhary have done.

G.C. Choudhary has become so much confused by the untenability of his supposition that he has identified Vajrayudha[36] and Indrayudha[37] both with Ama-Nagavaloka. Our suggestion also makes it easier to reconstruct the history of the Rashtrakuta invasions on north India in this period, for now it remains no longer necessary to start with the assumption that Ama-Nagavaloka, the son of Yasovarman ruled over Kanauj from c. 750 to 833 A.D.

Secondly, our suggestion throws a new light on the history of Ramabhadra, the son of Nagabhata II. For now he can be confidently identified with Dunduka of the Jain Tradition. It was suspected by R.C. Majumdar long ago that Ramabhadra was a very weak monarch. [38] But unfortunately be relied on the rather weak evidence of the Barah Copper plate [39] and the Daulatpura inscription [40] from which it appears that two grants one in the Kalanjaramandala and the other in the Gurjaratrabhumi fell into abeyance during Ramabhadra’s reign. It indicates that his reign was a period of stress and strain.

And Dasaratha Sharma questioned the inference of Majumdar, [41] but the Gwalior prasasti of Bhoja (Verse 12) also explicitly refers to “the cruel and haughtly commanders” whom Ramabhadra had subdued with the help of his subordinate kings. These haughty commanders were identified by Majumdar and Tripathi with the Palas.

But to us it appears that the author of the prasasti could not have mentioned the Pala enemies of the Pratiharas as cruel and haughty commanders, they must have been the rebellious generals of Ramabhadra himself.

But why did the Pratihara generals raise the banner of revolt against Ramabhadra? Perhaps the answer is provided by the story of Bappabhatti according to which Dunduka, identified with Ramabhadra, had become infatuated with a dancing girl named Kantika and had made himself obnoxious to his people and relations.

Majumdar, Tripathi and Dasaratha Sharma could not utilize the material of the Jain tradition for the reconstructions of the history of Ramabhadra because they were confused by the fact that in the tradition Dunduka has been made the grandson of Yasovarman.

But if this tradition is interpreted in the light of our suggestion the whole thing becomes transparent and the evidence of the Gwalior prasasti for the reign of Ramabhadra and the Jain testimony for the reign of Dunduka become complementary to each other.


[1] S. R. Goyal, The Riddle of Ama-Nagavaloka of the Jain Tradition, Proceedings of Rajasthan History Congress, 1976, pp. 26-36.

[2] S. R. Goyal, The Riddle of Ama-Nagavaloka of the Jain Tradition, Proceedings of Rajasthan History Congress, 1976, pp. 26-36.

[3] The account of the life of Bappabhatti is given in its Bappabhattisuri prabandha.

[4] The story of Bappabhatti as given in this work is merely a versified amplification of that which is given by Rajasekhara.

[5] In addition to writing a story of Hemachandra’s life, Prabhachandra speaks of him as having written ‘long ago’ (pura).

[6] This date is conjectural, there being no ground for it beyond the belief that works of this kind were written in this period.

[7] The Vicharasaraprakarana of Pradyumnasuri (13th cent.), the Gathasahasri of Samayasundara and a Pattavali by Ravivardhana also contain some information on the life of Bappabhatti.

[8] For all these works, except the Tapagachchhapattavali, vide Gaudavaho ed. by S.P. Pandit, Intro. pp. cxxv-clxi where all the relevant material from them has been reproduced.

[9] S. R. Goyal, The Riddle of Ama-Nagavaloka of the Jain Tradition, Proceedings of Rajasthan History Congress, 1976, pp. 26-36.

[10] According to the Vividhatirthakalpa, the Gatha ahasri and the Vicharasaraprakarana Bappabhatti was born after Vikrama year 830 (=774 A.D.).

[11] In the Bappabhattisuricharita Yasovarman is described as the king of Kanyakubja who ruled at Gopagiri or Gwalior. The Prabandhakosa also locates his capital at Gopalagiridurga (Gwalior)

[12] S. R. Goyal, The Riddle of Ama-Nagavaloka of the Jain Tradition, Proceedings of Rajasthan History Congress, 1976, pp. 26-36.

[13] The Bappabhattisuricharita and the Prabandhakosa place Lakshanavati, the capital of Dharma, on the banks of Godavari but in the Gauda desa.

[14] According to the Prabandhakosa, “by Yasodharman, the king of a neighbouring country.”

[15] According to some works Madrama hivijaya.

[16] It is interesting that the Nirmand copper plate inscription, which has been assigned by Fleet to the 7th century and by Cunningham to the 12th, a reference is made to Maharaja Samudrasena who ruled over Nirmand in the Kangra district (vide Fleet, Corpus, III, pp. 286).

[17] Or Khandya.

[18] S. R. Goyal, The Riddle of Ama-Nagavaloka of the Jain Tradition, Proceedings of Rajasthan History Congress, 1976, pp. 26-36.

[19] Gaudavaho, V. 69.

[20] Tripathi, R. S., History of Kanauj, pp. 212 ff.

[21] Ojha, G. H., E I. XIV. p. 179, n. 3; Majumdar, R. C., Journal of the Dept. of Letters, X, p. 45; Sharma, Dasaratha, Rajasthan through the Ages, p. 143.

[22] As recorded in the Jain Harivamsa.

[23] Sharma, D., op. cit., p. 143.

[24] Cf. Buddha Prakash, Aspects of Indian History and Civilization, pp, 113-16.

[25] Aiyangar, S.K., Ancient India and South Indian History and Culture, I, pp. 345 ff.; Choudhary, G.C. Political History of North India from Jain Sources, pp. 21 ff.

[26] Sinha, B.P., Decline of the Kingdom of Magadha, p. 368, n. 2.

[27] Vide The Classical Age, p. 131; Tripathi, loc. cit pp. 194 ff.

[28] Attention of scholars to this evidence has been drawn by Dr. P.K. Agrawala (The Quarterly Review of Historical Studies, Culcutta, XV, No. 2, pp. 109 ff.)

[29] Known from the Buchkala inscription (E I. IX, p. 198).

[30] It is inferred from the Barah plate of Bhojadeva (E I. XIX, pp. 15 ff.) which informs us of Nagabhata It’s approval of a grant in the Kalan- jaramandala of the Kanyakubjabbukti.

[31] E I. XVIII, pp 99 ff.

[32] According to R.C. Majumdar and Dasaratha Sharma this verse refers to the hill-forts of the kings of Apartta etc. But H.A. Phadake (All India Oriental Conference, Gauhati Session, Snmmaries of Papers, pp. 96-7) has shown that here reference is made to a place named Rajagiridurga which according to Alberuni was situated to the west of Lahore. We suggest that Samudrasena, whom Nagavaloka defeated at Rajagiridurga, may plausibly be identified with Samudrasena of the Nirmand copper plate inscription (Fleet, Corpus, III, pp. 286 ff).

[33] Aiyangar (loc. cit., p. 366) is wrong when he states that “the title Naga- valoka is given to his (Nagabhata II’s) grand-father in the Sagartal or Gwalior inscription of Bhoja”.

[34] E I, IX, p. 253; Tripathi, op. cit., p. 231.

[35] E I, II, p. 121, 126. See also I A, 1911, pp. 239-40 for the identification of Nagavaloka with Nagabhata II.

[36] Choudhary, loc. cit. p. 24.

[37] Ibid. p. 27.

[38] JDL, X. p. 46.

[39] E I, XIX, pp. 18, 19.

[40] Ibid. V, p. 213.

[41] Sharma, D., loc. cit., pp. 146 ff.

तुर्की कम्पनी सेलेबी पर शोर क्यों नहीं मचाया राहुल गांधी ने?

0
तुर्की कम्पनी सेलेबी - bharatkaitihas.com
तुर्की कम्पनी सेलेबी पर शोर क्यों नहीं मचाया राहुल गांधी ने

भारत की अपनी कम्पनी अडाणी पर इतना गुस्सा दिखाने वाले राहुल गांधी ने तुर्की की किसी भी कम्पनी पर कभी गुस्सा क्यों नहीं दिखाया। राहुल गांधी ने कभी भी भारत सरकार के विरुद्ध यह आवाज क्यों नहीं उठाई कि उसने तुर्की कम्पनी सेलेबी को इतना संवदेनशील कार्य देकर भारत की सुरक्षा क्यों दांव पर लगा रखी है?

दो साल पहले कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने अडानी समूह के अध्यक्ष गौतम अडाणी को निशाने पर लिया था और संसद से लेकर भारत के कई शहरों में जनसभाओं, चुनावी दौरों, प्रेस वार्ताओं तथा विदेश यात्राओं में बार-बार यह सवाल उठाया था कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने भारत के छः हवाई अड्डे गौतम अडाणी समूह को क्यों सौंप दिए?

राहुल गांधी ने हिण्डनबर्ग से जारी की जा रही रिपोर्टों को भी अपने आरोपों का आधार बनाया। इन रिपोर्टों में कहा गया था कि अडाणी समूह ने भारत में बड़ा भ्रष्टाचार किया है। उस समय अमरीका में जो बाइडेन की सरकार थी तथा उस सरकार के कार्यकाल के अंतिम समय में अमरीका में अडाणी समूह पर एक मुकदमा भी खड़ा किया था कि अडाणी की कम्पनी ने अमरीका में टेण्डर पाने के लिए अमरीकी अधिकारियों को बड़ी रिश्वत दी।

इन सब आरोपों के कारण अडाणी समूह को दुनिया भर के शेयर बाजारों में बड़े-बड़े झटके लगे किंतु हर बार वह इन झटकों से उबर गया।

इससे पहले कि अडाणी समूह के विरुद्ध रिश्वत के आरोप का मुकदमा अमरीकी अदालत में आगे बढ़ पाता, 2024 में अमरीका में नए राष्ट्रपति के चुनाव हो गए। जो बाइडर सत्ता से बाहर हो गए तथा डोनाल्ड ट्रम्प की सरकार बन गई। ट्रम्प सरकार ने वे कानून ही समाप्त कर दिए जिनके तहत अडाणी समूह पर भ्रष्टाचार करने तथा रिश्वत देने के आरोप लगे थे और बड़ी जोर शोर से मुकदमा खड़ा किया गया था।

ट्रम्प सरकार के बनते ही जनवरी 2025 में हिण्डनबर्ग ने भी अपनी दुकान पर ताला लगा दिया। क्या आप जानते हैं कि हिण्डनबर्ग नामक दुकान में क्या बिकता था?

हिण्डनबर्ग स्वयं को फोरेसिंक वित्तीय अनुसंधान करने वाली कम्पनी कहती थी और अंतर्राष्ट्रीय शेयर मार्केट में बड़ी-बड़ी कम्पनियों के शेयर्स की शॉर्ट सेलिंग का धंधा करती थी और दावा करती थी कि वह विभिन्न कम्पनियों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचारों का पर्दा फाश करने के लिए निवेश अनुसंधान का काम करती है तथा उनकी रिपोर्ट जारी करती है।

वस्तुतः पूरा खेल ब्लैक मेलिंग का था जिसके जरिया दुनिया भर के शेयर बाजारों को ऊपर उठाया और नीचे गिराया जाता था। जैसे ही अमरीका में जो बाइडन की दुकान बंद हुई, हिण्डनबर्ग की दुकान भी बंद हो गई।

राहुल गांधी ने इसी बेईमान हिण्डनबर्ग को अपने आरोपों का आधार बनाया था और भारत में चल रही नरेन्द्र मोदी सरकार के विरुद्ध आरोप लगाए थे कि वह अडाणी समूह को गलत फायदा पहुंचा रही है। इस मुद्दे को लेकर अक्सर संसद की कार्यवाहियां भी ठप्प कर दी जाती थीं।

निश्चित रूप से भारतीय मतदाता के मानस पर राहुल गांधी द्वारा लगाए जा रहे आरोपों का असर हुआ था और नरेन्द्र मोदी सरकार को 2024 के चुनावों में 2014 तथा 2019 जैसा समर्थन नहीं मिला था।

अब जबकि मई 2025 में भारत सरकार ने भारत के हवाई अड्डों पर उच्च सुरक्षा वाले कामों से जुड़ी हुई तुर्की कम्पनी सेलेबी की सिक्योरिटी क्लियरेंस को रद्द कर दिया तब भारत के लोगों को पता लगा कि वर्ष 2008 से तुर्की की सेलेबी नामक यह कम्पनी बम्बई, दिल्ली, कोचीन, कन्नूर, बैंगलोर, हैदराबाद, गोवा, अहमदाबाद तथा चेन्नई स्थित हवाई अड्डों पर उच्च सुरक्षा से जुड़े अत्यंत संवेदनशील कार्य कर रही है।

इन कामों में हर वर्ष लगभग 5.4 लाख टन कार्गो को संभालना शामिल है। यह कार्य फ्लाइट ऑपरेशन से जुड़े लोड कंट्रोल का अत्यंत उच्च संवेदनशील काम है। अर्थात् भारत के हवाई अड्डों से उड़ान भरने वाले हवाई जहाजों में जो सामान जाता है, तुर्की कम्पनी सेलेबी इस सामान का प्रबंधन करती है। इतना ही नहीं यह कम्पनी एविएशन तथा मैट्रो रेल निर्माण आदि कार्यों से भी जुड़ी हुई है। लखनऊ, पूना, बम्बई की मैट्रो रेल परियोजनाओं से भी जुड़ी हुई है।

तुर्की कम्पनी सेलेबी एक अकेली तुर्की कम्पनी भारत में काम नहीं कर रही है। अपितु गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, जम्मूकश्मीर तथा उत्तर प्रदेश में तुर्की की कई कम्पनियां मैट्रो रेल निर्माण, टनल निर्माण आईटी और कंस्ट्रक्शन जैसे काम कर रही हैं।

भारत की अपनी कम्पनी अडाणी पर इतना गुस्सा दिखाने वाले राहुल गांधी ने तुर्की की किसी भी कम्पनी पर कभी गुस्सा क्यों नहीं दिखाया। राहुल गांधी ने कभी भी भारत सरकार के विरुद्ध यह आवाज क्यों नहीं उठाई कि उसने तुर्की कम्पनी सेलेबी को इतना संवदेनशील कार्य देकर भारत की सुरक्षा क्यों दांव पर लगा रखी है?

हालांकि वे यह प्रश्न उठाते भी कैसे क्योंकि यह कम्पनी से वर्ष 2008 में भारत के हवाई अड्डों में घुसी थी जब राहुल गांधी की अपनी पार्टी की सरकार थी! शायद इसलिए भी क्योंकि हिण्डनबर्ग ने तुर्की की कम्पनी पर कभी सवाल खड़ा नहीं किया था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Raja Kokkalla Founded The Kalachuri Dynasty

0
Raja Kokkalla - bharatkaitihas.com Banner of Blog Post
Raja Kokkalla Founded The Kalachuri Dynasty

There are three inscriptions- Inscription of Yuvaraja Deva II (of about third quarter of the 10th century A.D.), Karna’s Inscription of 1042 A.D. and Prithvideva’s Amoda Inscription of 1079 A.D., which provide us with information about Kalchuri Raja Kokkalla I. [1]

The earliest one is the undated inscription of Yuvaraja Deva II [2] of circa third quarter of the 10th century A.D. It says that having conquered the whole world, Kokkalla I established two pillars of fame i. e. Bhoja in the north and Krishnaraja in the south. Kalachuri Karna’s inscription [3] of 1042 A.D. which is of later date than the former gives some more information about Kokkalla I.

It says that Kokkalla raised his hand symbolysing protection (vHk;) to Bhoja, Vallabharaja, Shri Harsha the ruler of Chitrakuta and Shankaragana. Next in the series is the Amoda inscription of Prithvideva [4] who belonged to Kalachuri Branch of Ratanpur and is dated in 10-9 A.D. It exaggerates the facts about Kokkalla I and says that, having snatched the elephants and horses of Karnataka, ruler of Vanga, Gujjara, ruler of Konkana, ruler of Sakambhari, Turushkas and Raghuvanshi’s, he established a pillar of victory.[5]

Of these the first account given by Yuvaraja Deva II can only imply that Kokkalla I (850-890 A.D) assisted the Pratihara King Bhoja I (836- 892 A.D.) in the north and the Rastrakuta king Krishnaraja II (878-914 A.D.) in the south and in this way contributed towards establishing the two Pillars of fame in the north and the south.[6]

In the second account given by Karna the later Kalachuri ruler, Bhoja and Vallabharaja (Krishnaraja II) are the same as in the first one, but Harsha the ruler of Chitrakuta and Raja Shankaragana have also been added. Dr. Dasharatha Sharma [7] has identified Chitrakuta-bhupala Shri Harsha with the Chandella ruler Harsha and Shankaragana with Guhila Shankaragana of Mewar but there are certain objections to these identifications.

Firstly it should be noted that Chitrakuta (north of Kalanjara) was not included in the empire of Harsha, the Chandella ruler, as it was under the Pratiharas upto that time and was conquered from them by Krishna III in the time of his father Amoghavarsha before 940 A.D and it was captured from the Rashtrakutas by the Chandellas under king Yasovarman the son of Harsha.[8]

Secondly the Chandella ruler Harsha (who helped Ksitipala alias Mahipala, the grandson of Bhoja, to ascend the throne of Kanauj around 917 A D.), cannot be accepted as contemporary to Kokkalla I. Besides, Harsha was a contemporary of Indra III, the grandson of the Rastrakuta king Krishna II, while Kokkalla I was the father in law of Krishna Raja II. Hence, Raja Harsha of the above inscription cannot be identified with Harsha, the Chandella ruler but has to be identified with some other Harsha, whose reign was contemporary to that of Kokkalla I. [9]

Thirdly the undated Chatsu (Rajasthan) inscription of Baladitya describes his forefather Guhila Shankaragana who by conquering the ruler Bhata subjected the lands of Gaudas to his master. Guhila Shankaragana’s son Harsha conquered the rulers of northern India and presented their fine horses to Pratihara Bhoja.[10]

Probably by military service for two generations they were able to extend their territory from Chatsu (26 miles south of Jaipur) to Chittor. Raja Sankaragana of Karna’s inscription cannot be the father of Harsha the ruler of Chitrakuta mentioned in this inscription as both the father and the son could not be called rulers at the same time. Hence this Sankaragana must be the Kalachuri ruler of Sarayupara (across the Sarvuriver) whose son Gunambhodhideva, according to Sodhadevas’ Kalha (Gorakhpur) inscription of V.S. 1134-1079 A.D, snatched by force the fortune of Gauda and got land from Bhoja (836-892 A D.).[11]

Thus by process of elimination there are left only four persons who were contemporary to Kokkalla I ie. Pratihara Bhoja I, Rashtrakuta Krishnraja II, Guhila Harsha and Kalachuri Shankaragana. The scholars who identify Bhoja of the Kalachuri inscription with Bhoja I are Cunningham,[12] Kielhorn, [13] R.C. Majumdar, [14] HC. Rai, [15] DC. Ganguli,[16] Khushal Chand [17] and Dasharatha Sharma.[18]

Those who identify this Bhoja with Bhoja second are Hoernel, [19] R.D. Banerji. [20] R. S. Tripathi,[21] B. N. Puri[22] N. S. Bose[23] and S. K. Mitra. [24]

The basis of the latter identification is that Harsha Chandella is the Harsha of the Kalachuri inscription as he helped Ksbitipala alias Mahipala to sit on the throne of Kannauj once again against Bhoja II, hence this Bhoja II was contemporary of Kokkalla I. But as we have said above that this Harsha was not themaster of Chitrakuta, hence this identification is not tenable. As far as Kokkalla I helping Krishna Raja II is concerned, it is proved by his sending his son Shankaragana for helping Rastrakuta Krishna Raj II against the Chalukyas of Vengi. [25]

So far as holding a band of assurance against fear to Bhoja (Pratihar), Harsha (Chandella) and Shankaragana (Guhila) is concerned Dasharatha Sharma [26] has suggested that as Krishna Raja II was his son in-law, in the same way other three viz. Bhoja, Harsha and Sank- aragana might be his son-in-laws and thus he could hold a hand of benediction protecting them against all fears.[27]

If one agrees to the logic of Dr. Dasharatha Sharma there emerge four son-in-laws of Kokkalla I (850-890 A.D). They would be as under:-

S.N.Name of the kingDynastyReignComments
1Krishna Raj IRashtrakuta878-914 A.D.Established fact.
2HarshaChandellac. 900-925 A.DMarriage probable but protection impo- ssible as he ruled later.
3Bhoja IPratihar836-892 A D.Marriage though probable but difficult.
4ShankaraganaGuhilaContemporary of Nagabhata II (c. 794-833 A.D.)Marriage as well as protection impossible.

If this hypothesis of Dr. Dasharatha Sharma is accepted, one would reach the conclusion that his second son-in-law Chandella Harsha was the same who was a contemporary of Indra III, the grandson of his first son-in- law Rashtrakuta Krishna Raja II.

Bhoja I, his third son-in-law must have been a bit elder than Kokkalla I as he sat on the throne 14 years before him and died two years after him. The fourth son-in-law Guhila Shankaragana must have been elder than even Bhoja as his son Harsha was contemporary of Ramabhadra (c 833-836 A D.) and Bhoja (c. 836-892 A.D.).

Thus Kokkalla’s four son-in-laws belonged to four generation. First was Guhila Sankaragana of Chatsu who probably died 17 years before Kokkalla I sat on the throne about 850 A.D. As Shankaragana’s son Harsha was contemporary of Rambhadra (833-836 A.D.) and Bhoja (836-892 A D.), his father Shankaragana should have been before both of them.

Second son-in-law was Bhoja who sat on the throne 14 years before him. Third was Krishna Raja II who was entroned 28 years after him and fourth was Chandella Harshawho was a contemporary of Indra III (915-927 A.D.). Even if we calculate in reverse order from Chandella Dhanga (grandson of Harsha) whose first inscription is of V.S. 1011=953 A.D, his father Yasovardhana’s reign would fall between 925 and 950 A D. and his grandfather Harsha’s reign would fall between 900 and 925 A.D.

Thus this Harsha, while as still a prince of Chandella dynasty could be his son-in-law before 890 A.D. before Kokkalla I died. Though It is very difficult to imagine yet not impossible that Bhoja I was his son-in-law but it is impossible to believe that Guhila Shankaragana the father of Harsha, who preceded Kokkalla I by one generation, could be his son-in-law.Thus with due reverence to the revered scholar, it may besaid that his hypothesis does not stand the test of logic.

Hence it is probable that Kokkalla I must have helped Bhoja I and thus the latter together with his feudatories must have felt assured by the co-operation of Kokkalla. This fact has been eulogised later by king Karna- kalachuri, 152 years after the death of Kokkalla I, when he says that Kokkalla I gave a hand of protection to all of them.

The third evidence before us is that of Amoda inscription of Prithvideva incised 37 years after Karna’s inscription If the first evidence of the record of Yuvaraja deva II made them (Bhoja and Krishna Raja) pillars of his victory, the second evidence of the record of Karna added two more per- sons to it for receiving the hand of protection and the third evidence of the record of Prithvideva interpreted the term pillars of victory in such a way that he put these rulers among the list of defeated enemies as given below: Karnataka (Krishna Raja), ruler of Konkana (Shilahara), ruler of Shakambhari (Chahamana), Turushka (Hunas) and the scions of Raghu (Ghulias).

But the historical facts speak otherwise. Let us examine these facts one by one. Among those mentioned above rulers of Konkana were the feudatories of the Rashtrakutas hence they could have been counted among those who received his helping hand.

The rulers of Shakumbhari and the Guhilas were the feudatories of the Gurjara Pratiharas and probably the Turuskas (Hunas) living on the Chambal were also their feudatories, Thus all of them could also be counted in the list of those who leaped the benefit of his military aid to Bhoja Pratihar against the ruler of Bengal and might have in lieu of it given him some wealth including horses and elephants on his pressing demand.

Thus, the ruler of Vanga might have been certainly one who was defeated with his help. It is thus indicated that Kokkalla I might have helped at different times Bhoja I and Krishna Raja II.

This act of help and benediction might have been of some consequence to the recipients but may notbe considered as a great personal achievement.

Any attempt to eulogies him further on the basis of the record of Prithvideva of Ratanpur would be making a mountain of the mole hill. V. V. Mirashi [28] is more correct when he says that he strengthened the foundation of the Pratihara Empire by helping Bhoja I, gave valuable help to Rashtrakuta Krishna Raj II against the Chalukyas of Vengi and also helped Kalachuri ruler Shankaragana and Harsha, the ruler of Chitrakuta (Chittod.)

REFERENCES


[1] Jai Narayan Asopa, Historical Evidence and Truth About Kalchuri Kokkalla First, Proceedings, Rajasthan History Congress, pp. 36-42.

[2] जित्वा कृ (त्स्नां) , येन पृथ्वीमपूर्व्वङ्कीर्तिस्तम्भद्वन्द्वमारोप्यते स्म ।
कौम्भोभ्दव्यान्दिश्यसौ कृष्णराजः कौवे (बे) र्याश्च श्रीनिधि भोजदेव ॥ (17)

Corpus Inscriptionum Indicarum, Vol. IV, by V.V. Mirashi, p. 210

[3] भोजे वल्ल (भ) राजे श्री हर्ष (र्षे) चित्रकूटभूपाले।
स (श) ङ्करगणे च रा (ज) नि यस्यासीदभयदः पाणि ॥ (7)

CII, Vol. IV, by V.V. Mirashi, p. 2.

[4] काण (र्णा) टवङ्ग पतिगूर्जरकोङ्कणेश ।
साकंभरीपतितुरू (ष्क) घूद्भवानाम (म्) ।
आदायकोस (श) हरिदन्त (ति) चायं ।
हठेन स्तंभो जयस्य विहितो भुवियेन राज्ञा ॥

CII. Vol. IV, by V. V. Mirashi, pp. 404 – 05

[5] Jai Narayan Asopa, Historical Evidence and Truth About Kalchuri Kokkalla First, Proceedings, Rajasthan History Congress, pp. 36-42.

[6] Jai Narayan Asopa, Historical Evidence and Truth About Kalchuri Kokkalla First, Proceedings, Rajasthan History Congress, pp. 36-42.

[7] Rajasthan through the Ages, Vol. I, Ed. Dasharatha Sharma, Bikaner, 1966, p. 172

[8] Bharata Kaumudi, I, pp. 269 ff; Epigraphia Indica, XII, p. 15, Verse 23

[9] Jai Narayan Asopa, Historical Evidence and Truth About Kalchuri Kokkalla First, Proceedings, Rajasthan History Congress, pp. 36-42.

[10]तत्सूनुद्धामधाम्नां निधिरधिकयां भोजदेवाप्तभूमिः ।

प्रत्यावृत्यप्रकारः प्रथितपृथुयशसा (शा) श्रीगुणाम्भोधिदेवः।

येनोद्दामै कद द्विपघटितघटाघात संसक्त मुक्त ।

सोपानोद तुरासि प्रकट पृथुपथेनाहृता गौड़लक्ष्मी ॥ (9)

CII, Vol. IV, p. 387

[11] Archaeological Survey Report, Vol. IX, pp. 84, 103

[12] Epigraphia Indica, Vol. II, pp. 301, 304.

[13] C.I.I., Vol. IV, p. 387.

[14] Majumdar, R.C., History of Bengal, Vol. I, p. 128.

[15] Ray, H.C., Dynastic History of Northern India, Vol. II, p. 574.

[16] Indian Historical Quarterly, Vol. XII, pp. 480 ff.

[17] Ibid., Vol. XVIII, pp. 117 ff.

[18] Rajasthan Through the Ages, Vol. I, pp. 172-74.

[19] Journal of the Royal Asiatic Society, 1904, p. 651.

[20] Palas of Bengal, p 65.

[21] History of Kanauj, pp. 256-7.

[22] History of the Gurjara Pratiharas, pp. 78-81.

[23] History of the Chandellas of Jaijakabhukti (Calcutta, 1956), p. 26, fa. 17.

[24] Early Rulers of Khajuraho, Calcutta 1958, p. 34.

[25] Majumdar and Pusalkar, Age of Imperial Kanauj, p. 135.

[26] Rajasthan Through the Ages, Vol. I, p. 172

[27] Jai Narayan Asopa, Historical Evidence and Truth About Kalchuri Kokkalla First, Proceedings, Rajasthan History Congress, pp. 36-42.

[28] V.V. Mirashi, Kalachuri Naresha aur unka kala, Bhopal, V.S, 2022, pp. 15-16

- Advertisement -

Latest articles

चौके चूल्हे वाली औरतें - bharatkaitihas.com

चौके चूल्हे वाली औरतें!

0
दुनिया तेज गति से दौड़ रही है, भारत की गति कुछ अधिक ही तेज है। भारत की इस तेज गति को चौके चूल्हे वाली...
नए युग की चुड़ैलें - bharatkaitihas.com

नए युग की चुड़ैलें!

0
नए युग की चुड़ैलें पढ़ी-लिखी हैं, सुंदर हैं, पैसे वाली हैं, दुस्साहसी हैं। ऊँची सोसाइटी में रहती हैं तथा मोटा बैंक-बैलेंस रखती हैं। 15 जून...
पतियों को मारने वाली - www.bharatkaitihas.com

पतियों को मारने वाली पढ़ी-लिखी औरतें!

0
भारत सरकार के क्राइम डाटा एवं राज्य सरकारों की रिपोर्टों के अनुसार विगत पांच सालों में केवल बिहार, यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में...
वामपंथी विचारधारा - www.bharatkaitihas.com

वामपंथी विचारधारा से प्रेरित भारतीय औरतें!

0
वामपंथी विचारधारा से प्रेरित भारतीय औरतें क्या कभी भी भारत माता की पीड़ा को नहीं समझ पाएंगी? उन्हें हिन्दुओं से बेरुखी और हिन्दू-विरोधियों से...
नरेन्द्र मोदी की गर्जना - www.bharatkaitihas.com

नरेन्द्र मोदी की गर्जना भारतीय उपमहाद्वीप की मुक्ति का महामंत्र है!

0
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पाकिस्तान की जनता को चेताया है कि अपने हिस्से की रोटी खाओ और सुख से जियो। नरेन्द्र मोदी...
// disable viewing page source