Friday, January 24, 2025
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बंग-भंग निरस्त नहीं हुआ होता तो लाखों हिन्दुओं के प्राण बच जाते!

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बंग-भंग

इसमें कोई दो राय नहीं है कि बंग-भंग को भारतीय इतिहास में अंग्रेजी शासन के ऊपर एक कलंक के रूप में तथा गहरे काले धब्बे के रूप में देखा जाता है किंतु बंग-भंग के माध्यम से वायसराय लॉर्ड कर्जन क्या वास्तव में भारतीयों के साथ कोई घिनौना खेल खेल रहा था, इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हमें उन तथ्यों पर भी विचार करना होगा जो लॉर्ड कर्जन के पक्ष का समर्थन करते हैं।

बहुत से विद्वानों का आक्षेप है कि भारतीय इतिहासकारों ने ब्रिटिश शासन तथा उसके सर्वाधिक प्रगतिशील गवर्नर जनरलों का सम्यक् मूल्यांकन नहीं किया है जिनमें लार्ड डलहौजी एवं लार्ड कर्जन प्रमुख हैं। डलहौजी भारत के आधुनिकीकरण का प्रणेता था तथा वाजिद अली शाह जैसे शासकों के कुशासन से भारतीय प्रजा का मुक्तिदाता था। 

इसी डलहौजी की प्रगतिशील नीतियों को ईस्वी 1857 के सिपाही विद्रोह का मूल कारण बताया जाता है, जिसे भारतीय इतिहासकारों ने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा से अभिहित किया है, जबकि यदि ऐसा ही होता तो डलहौजी के काल में विजित पंजाब से 1857 के विद्रोह के दमन हेतु अंग्रेजों को सर्वाधिक सहायता प्राप्त नहीं हुई होती।

लार्ड कर्जन के सुधारवादी कार्यों में विश्वविद्यालय एक्ट आदि महत्वपूर्ण कार्य सम्मिलित हैं। कर्जन के पक्ष का समर्थन करने वालों के अनुसार बंग-भंग में कर्जन का या सम्पूर्ण अंग्रेज शक्ति का कोई दुराशय दृष्टिगोचर नहीं होता है। यदि कर्जन के मंतव्य में कोई दुराशय होता भी, तो भी बंग-भंग का निर्णय भारत के दूरगामी हितों के अनुकूल ही होता।

बंग भंग के कारण मुस्लिम-बंगाल की सीमाएँ उसी काल में निश्चित हो जातीं तथा भारत की आजादी से कुछ समय पहले कलकत्ता, नोआखाली एवं बंगाल के अन्य क्षेत्र विभाजन के समय हुए दंगों की हिंसा से बच जाते। उड़ीसा और बिहार तो वैसे भी बंग-भंग का निर्णय वापस लेने पर भी अंग्रेजों द्वारा पुनः बंगाल में सम्मिलित नहीं किए गए। 

बंग भंग के जबर्दस्त विरोध को देखते हुए अंग्रेजों ने भविष्य में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध वैसी ही स्थिति पुनः उत्पन्न नहीं होने देने के लिए बहुस्तरीय योजना बनाई इसी कार्ययोजना के तहत मुस्लिम लीग की स्थापना करवाई गई। इसी कार्ययोजना के तहत मोहन दास गांधी को दक्षिण अफ्रीका से लाकर कांग्रेस के सर्वमान्य नेता के रूप में प्रतिष्ठित करवाया गया।

इसी कार्ययोजना के तहत मुहम्मद अली जिन्ना को लंदन से लेकर मुस्लिम नेता के रूप में प्रतिष्ठित करवाया गया। इसी क्रम में अंग्रेजों द्वारा दलित नेता के रूप में डॉ. भीमराव अम्बेडकर को, द्रविड़ नेता के रूप में रामास्वामी पेरियार को तथा कम्युनिस्ट नेता के रूप में मानवेन्द्र नाथ राय आदि को स्थापित करवाया गया।

आज लगभग सवा सौ साल का समय बीत जाने पर भी भारतीयों में बंग-भंग के विरोध की प्रवृत्ति इतनी अधिक है कि हम बंग-भंग के पीछे की वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर पाते। इस प्रवृत्ति के कारण इतिहास की ग्रन्थियाँ बढ़ती-बढ़ती असाध्य फोड़े का रूप ले लेती हैं।

इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि आज की तरह कर्जन के समय में भी हिन्दू और मुस्लिम दो पृथक् धाराएँ थीं जिनमें हिन्दुओं तथा धर्मान्तरित मुस्लिमों की समानता का कोई बिन्दु न तब था और न अब है। इस तथ्य को स्वीकार करके ही राजस्थान के शासकों ने मुस्लिम नीति का निर्धारण किया जिसके कारण देशी रियासतों में हिन्दू-मुसलमान विवाद की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई जबकि ब्रिटिश भारत में यह समस्या अपने चरम पर पहुंचकर भीषण रक्तपात में बदल गई।

जब हम कर्जन के समय के बंगाल की स्थिति पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि उस समय के बंगाली भद्रलोक में तीन जातियाँ- ब्राह्मण, कायस्थ एवं बैद्य समाहित थीं जिनकी जनसंख्या क्रमशः 6.5 प्रतिशत, 7 प्रतिशत तथा 2.5 प्रतिशत अर्थात् कुल 16 प्रतिशत के लगभग जनसंख्या थी। बंगाल के पंच ब्राह्मणों में मुखर्जी, चटर्जी, बनर्जी, गांगुली एवं भट्टाचार्य, पंचकायस्थों में घोष, बसु, मित्र, गुहा एवं दत्त तथा बैद्यों में मजूमदार, सेन, सेन गुप्ता, गुप्ता, दास गुप्ता, रायचौधरी आदि समाहित हैं। बहुत से इतिहासकारों के अनुसार इस भद्र बंगाली वर्ग के वर्चस्व  के सम्मुख बंगाल की मध्यवर्ती जातियाँ कभी उभर नहीं पायीं।

भारत की आजादी के बाद अभी तक पश्चिमी बंगाल के समस्त मुख्यमंत्री, चाहे वे कांग्रेसी हों, कम्युनिस्ट हों या तृणमूल कांग्रेसी हों, सब के सब भद्रलोक समुदाय से ही हुए हैं।

बंगाल में विदेशी मुसलमानों अर्थात् शेख, सैयद एवं मुगलों की संख्या नगण्य रही है। बंगाली भद्रलोक के विरोध में ही, बंगाल की अधिकांश अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों ने इस्लाम ग्रहण करके भद्रलोक को चुनौती देने की प्रवृत्ति अपनाई।

जहाँ बंगाल में अधिकांश निम्न जातियां कहे जाने वाले हिन्दू, धर्म छोड़कर मुसलमान बने, वहीं पंजाब में हिन्दू से मुसलमान बनने वालों में अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियां बहुत कम थीं।

भारत विभाजन के समय पंजाब में विदेशी मुसलमानों की संख्या अधिक थी और साथ ही हिन्दू धर्म से धर्मान्तरित होकर मुस्लिम बने लोगों में राजपूत, जाट, गुर्जर आदि योद्धा जातियों की संख्या अधिक थी।

यही कारण था कि जब पाकिस्तान बना, तब भारत से भागकर आए मुसलमानों को पाकिस्तान में नीची जातियों का माना गया और उन्हें उच्च रक्तवंशी मुसलमानों ने अपने साथ बैठने का अवसर नहीं दिया। अर्थात् पंजाब के उच्चरक्त वंशी मुसलमानों ने गैर-पंजाबी इलाकों से आए निम्नरक्त वंशी मुसलमानों के साथ वही व्यवहार किया जो उस काल के बंगाली भद्रलोक द्वारा अन्य बंगाली-हिन्दुओं के साथ किया जा रहा था।

जब पाकिस्तान बना तो इस क्षेत्र में रहने वाले पठान भी बड़ी संख्या में पाकिस्तान चले गए। आज बहुत से लोग भ्रमवश अफगानी मूल के पठानों को विदेशी मुसलमान मान लेते हैं, जबकि वे विदेशी नहीं हैं, वे भारतीय मूल के प्राचीन आर्य हैं। पठान ऋग्वैदिक जन ‘पख्त’ से सम्बंधित हैं जिन्होंने ऋग्वैदिक राजा सुदास के विरुद्ध दाशराज्ञ युद्ध में भाग लिया था। मौर्य राजाओं से लेकर गुप्तों एवं बाद में हर्ष के समय में भी अफगानिस्तान भारतीय राजाओं शासनाधिकार में रहा। अफगानिस्तान के लोगों को विदेशी मानने की शुरुआत इस्लाम के अफगानिस्तान में आने के बाद हुई।

सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि 1905 में हुआ बंग-भंग भले ही अखण्ड भारत के पक्षधर हिन्दुओं को अच्छा न लगा हो किंतु वह सम्पूर्ण रूप से बुरा नहीं था। इस मान्यता को मानने वालों का मत है कि बंग-भंग के पीछे लॉर्ड कर्जन की कोई दुर्भावना काम नहीं कर रही थी। यह एक विशुद्ध प्रशासनिक कार्य था।

यदि बंग-भंग से बना मुसलमानों का प्रांत 1911 में फिर से हिन्दू-बहुल बंगाल में न मिला होता तो विभाजन के समय हुए दंगों की विभीषिका नहीं हुई होती। हिन्दू बंगाल तथा मुस्लिम बंगाल की तर्ज पर अंग्रेजों द्वारा अवश्य ही आगे चलकर हिन्दू पंजाब एवं मुस्लिम पंजाब का निर्माण किया जाता और इस प्रकार पाकिस्तान बनने के समय लाखों हिन्दुओं को अपने प्राणों से हाथ नहीं धोना पड़ता। ईस्वी 1911 में निरस्त हुआ बंग-भंग ईस्वी 1947 में न केवल पूर्वी पाकिस्तान के रूप में फिर से अस्तित्व में आ गया अपितु पश्चिमी पाकिस्तान के रूप में मुस्लिम पंजाब भी अस्तित्व में आ गया।

लॉर्ड कर्जन के समर्थन में एक तथ्य यह भी जाता है कि बंग-भंग निरस्त होने के कुछ समय बाद ही उग्र हिन्दूवादी नेताओं ने कहा कि हिन्दू एवम् मुस्लिम दो राष्ट्र हैं। इस प्रकार राष्ट्रवादी हिन्दू नेता न केवल कर्जन द्वारा किए गए बंग-भंग के मत की पुष्टि कर रहे थे, अपितु पूरे भारत के विभाजन के लिए भी आवाज उठा रहे थे। 

इसमें तो कोई संदेह नहीं है कि 1905 का बंग-भंग एक रक्तहीन प्रक्रिया थी जबकि 1947 का बंग-भंग भयानक रक्त-रंजित प्रक्रिया थी जिससे भारत माता को अदम्य पीड़ा सहन करनी पड़ी और हिन्दू जाति की छाती पर गहरा घाव अंकित हो गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

दिवेर का युद्ध (136)

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दिवेर का युद्ध

दिवेर का युद्ध हल्दीघाटी के युद्ध से भी अधिक परिणाम देने वाला था किंतु इतिहासकारों ने जानबूझ कर इस युद्ध की उपेक्षा की है क्योंकि इस युद्ध में महाराणा प्रताप ने मुगलों में कसकर मार लगाई थी और प्रताप का मेवाड़ के बहुत से भूभाग पर फिर से अधिकार हो गया था।

मेवाड़ नरेश महाराणा प्रताप अकबर के मीना बाजार को हिकारत भरी दृष्टि से देखता था और उसे गौरवहीन पुरुषों, निर्लज्जा नारियों एवं अकबर जैसे स्त्री-लोलुप ग्राहकों का व्यापार मानता था।

जब हल्दीघाटी के युद्ध को सात साल बीत गए और अकबर किसी भी प्रकार से महाराणा प्रताप को नहीं झुका सका तो वह हार-थक कर बैठ गया। इस पर महाराणा प्रताप ने अपने उन क्षेत्रों को फिर से अपने अधीन करने का निश्चय किया जो अकबर की सेना ने विगत वर्षों में छीन लिए थे। अक्टूबर 1583 में महाराणा ने कुंभलगढ़ पर अधिकार करने की योजना बनाई।

महाराणा ने सबसे पहले दिवेर थाने पर आक्रमण किया जहाँ अकबर की ओर से सुल्तान खाँ नामक थानेदार नियुक्त था। प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान उदयपुर में उपलब्ध सूर्यवंश नामक ग्रंथ में लिखा है कि जब प्रताप की सेना ने दिवेर पर आक्रमण किया तो आसपास के पांच और मुगल थानेदार अपनी-अपनी सेनाएं लेकर दिवेर पहुँच गये।

प्रताप की सेना दिवेर के बाहर मोर्चा बांधकर बैठ गई। एक दिन जब मुगलों की सेना घाटी में गश्त लगाने निकली तो महाराणा प्रताप ने उस पर धावा बोल दिया। प्रताप के वीर सैनिक सोलंकी परिहार ने सुल्तान खाँ के हाथी के पांव काट दिये।

महाराणा प्रताप ने अपने भाले से हाथी के कुंभ स्थल को फोड़ दिया। महाराणा के कुंवर अमरसिंह ने भी भाले से वार किया जिससे हाथी के कुंभ स्थल के दो टुकड़े हो गये और वह मर गया।

 कुंअर अमरसिंह ने सुल्तान खाँ की छाती में अपना भाला दे मारा। अमरसिंह के एक ही वार से थानेदार की मृत्यु हुई। थाने के दूसरे अधिकारी भी मारे गये तथा थाने पर महाराणा का अधिकार हो गया।

इसके बाद वहाँ पहुँचे आसपास के चौदह मुगल थानेदार भी प्रताप का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाये। दीवेर के युद्ध के बाद अमरसिंह ने एक ही दिन में मेवाड़ से मुगलों के पांच थाने हटा दिये।

 अमरकाव्य वंशावली ने लिखा है कि यह क्रम शेष 36 थाने उठाये जाने तक जारी रहा। इसके बाद महाराणा ने कुम्भलगढ़, जावर एवं चावण्ड को जीत लिया।

कर्नल टॉड ने दिवेर के युद्ध को मेवाड़ का मेरेथान कहा है। दिवेर का युद्ध तथा मेरेथान युद्ध में कुछ समानता अवश्य है। मेरेथान का प्रसिद्ध रणक्षेत्र ग्रीस देश की राजधानी एथेंस से 22 मील पूर्वोत्तर में स्थित ऐटिका प्रांत में है। यहाँ ई.पू. 490 में यूनानियों का ईरानियों से विकट युद्ध हुआ था जिसमें यूनानी सेनापति मिल्टियाडेस ने अद्भुत वीरता दिखाई तथा ईरानियों को अपने देश से मार भगाया।

दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप ने मुगलों से अपनी धरती ठीक उसी तरह वापस छीन ली थी जिस तरह मेरेथान के युद्ध में यूनानियों ने ईरानियों को अपने देश से बाहर निकाल दिया था।

मेवाड़ में अपने थानेदारों का पराभव देखकर अकबर ने मिर्जा खाँ अर्थात् अब्दुर्रहीम खानखाना को मेवाड़ भेजा ताकि वह महाराणा को समझा-बुझाकर अकबर की अधीनता स्वीकार करवाये। मिर्जा खाँ ने भामाशाह से बात की किंतु भामाशाह ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार दिया।

इसके बाद महाराणा प्रताप ने अपने ही कुल के उन दो राजाओं को दण्डित करने का निर्णय लिया जिन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। कर्नल जेम्स टॉड ने एनल्स एण्ड एण्टिक्विटीज ऑफ राजस्थान में लिखा है कि महाराणा ने बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर पर आक्रमण किया तथा उनके शासकों से अधीनता स्वीकार करवाई।

ई.1576 में हल्दीघाटी में हुई मुगलों की पराजय का बदला ई.1584 तक नहीं लिया जा सका था, इसलिये अकबर की उद्विग्नता बढ़ती ही जाती थी। हल्दीघाटी की असफलता के बाद से, अकबर हिन्दू सेनापतियों को महाराणा प्रताप के विरुद्ध नहीं भेज रहा था किंतु जब समस्त मुस्लिम सेनापति भी प्रताप के विरुद्ध असफल सिद्ध हुए तो 6 दिसम्बर 1584 को अकबर ने जगन्नाथ कच्छवाहा को प्रताप के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये भेजा।

अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि मिर्जा जफर बेग को बख्शी बनाकर उसके साथ किया गया। मुंशी देवीप्रसाद ने लिखा है कि जगन्नाथ कच्छवाहा दो वर्ष तक पहाड़ों में भटकता रहा किंतु महाराणा का बाल भी बांका नहीं कर सका।

ई.1586 में वह चुपचाप काश्मीर चला गया। अकबर समझ चुका था कि हिन्दुओं के इस सूर्य को ढंक लेना उसके वश की बात नहीं। अकबर के सेनापति एक-एक करके पराजय का कलंकित जीवन जीने पर विवश हुए थे। अतः अकबर ने जगन्नाथ कच्छवाहे के बाद फिर किसी सेनापति को मेवाड़ अभियान पर नहीं भेजा।

जगन्नाथ कच्छवाहा के लौट जाने के बाद महाराणा प्रताप 11 वर्ष तक अपनी प्रजा का सुखपूर्वक पालन करता रहा। इस बीच महाराणा प्रताप ने एक वर्ष की अवधि में ही अकबर के उन समस्त थानों को उठा दिया जो अकबर ने प्रताप के जीवन काल में मेवाड़ से छीने थे।

मुंशी देवी प्रसाद तथा कविराज श्यामलदास ने लिखा है कि ई.1586 तक केवल चित्तौड़गढ़ एवं माण्डलगढ़ को छोड़कर महाराणा प्रताप ने पूरा मेवाड़ अपने अधीन कर लिया।

कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि मुगलों का गर्व धूल में मिलाने के बाद महाराणा प्रतापसिंह ने कच्छवाहों को दण्डित करने का संकल्प लिया। प्रताप ने आम्बेर राज्य पर आक्रमण करके कच्छवाहों के धनाढ्य नगर मालपुरा को लूट कर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। प्रबल प्रतापी कच्छवाहे जिनका डंका पूरे भारत में बजता था, महाराणा प्रताप के विरुद्ध कुछ न कर सके।

मुंशी देवीप्रसाद ने लिखा है कि मालपुरा को नष्ट करने के बाद महाराणा प्रताप का शेष जीवन सुख और शांति से व्यतीत हुआ। उसने उजड़े हुए मेवाड़ को फिर से बसाया, उदयपुर नगर में श्रेष्ठ लोगों को लाकर उनका निवास करवाया तथा मुगलों के विरुद्ध अपना साथ देने वाले अपने सरदारों की प्रतिष्ठा और पद में वृद्धि की तथा उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें दीं।

कविराज श्यामलदास ने अपने ग्रंथ वीर विनोद में लिखा है कि चावण्ड के महलों में निवास करते हुए ही जनवरी 1597 को महाराणा का स्वर्गवास हुआ। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर चारण दुरसा आढ़ा ने अकबर के दरबार में यह छप्पय कहा था-

अस लेगो अणदाग, पाघ लेगो अणनामी।

गौ आडा गवडाय, जिको बहतो धुर वामी।

नवरोजे नह गयो, न गौ आतसां नवल्ली।

न गौ झरोखाँ हेठ, जेठ दुनयाण दहल्ली।।

गहलोत राण जीती गयो, दसण मूंद रसणा डसी।

नीसास मूक भरिया नयण, तो मृत शाह प्रतापसी।

अर्थात्-

हे गुहिलोत राणा प्रतापसिंह! तेरी मृत्यु पर बादशाह ने दांतों के बीच जीभ दबाई और निःश्वास के साथ आंसू टपकाये क्योंकि तूने अपने घोड़ों को दाग नहीं लगने दिया, अपनी पगड़ी को किसी के आगे नहीं झुकाया, तू अपना यश कमा गया,

तू अपने राज्य के धुरे को बांयें कंधे से चलाता रहा, नौरोजे में नहीं गया। न आतसों (बादशाही डेरों) में गया। कभी झरोखे के नीचे खड़ा न रहा और तेरा रौब दुनियां पर गालिब था, अतः तू हर तरह से विजयी हुआ।

अकबर के दरबारी एवं अपने समय के श्रेष्ठ कवि, बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज राठौड़ ने महाराणा प्रताप की मृत्यु पर उसे श्रद्धांजलि देते हुए कहा-

माई एहा पूत जण, जेहा रांण प्रताप।

अकबर सूतो ओझकै, जांण सिरांणे सांप।।

अर्थात्- हे माता! राणा प्रताप जैसे पुत्रों को जन्म दे जिसके भय से अकबर बादशाह कच्ची नींद सोता था, मानो उसके सिराहने सांप बैठा हो।

इस प्रकार दिवेर का युद्ध ही मेवाड़ के इतिहास में निश्चयात्मक परिणाम देने वाला सिद्ध हुआ।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

महाराणा प्रताप तथा अकबर (137)

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महाराणा प्रताप तथा अकबर

क्या महाराणा प्रताप तथा अकबर का संघर्ष दो जातियों का संघर्ष था?

निश्चित रूप से महाराणा प्रताप तथा अकबर का संघर्ष दो जातियों का संघर्ष था किंतु साम्यवादी इतिहासकारों ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की रक्षा के लिए इसे केवल दो राजाओं के बीच का संघर्ष कहकर इसकी गरिमा को कम करने का घिनौना खेल खेला है।

महाराणा प्रताप द्वारा मुगलों के विरुद्ध किए गए दिवेर युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने मेवाड़ रियासत के खोए हुए क्षेत्रों पर बड़ी तेजी से पुनः अधिकार कर लिया। इस समय तक अकबर की शक्ति और सेना, उसके राज्य और अनुभव सभी में विपुल वृद्धि हो चुकी थी किंतु फिर भी वह महाराणा प्रताप के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सका।

ई.1597 में महाराणा प्रताप ने चावण्ड के महलों में नश्वर देह का त्याग किया। अकबर ने इस समाचार को सुनकर राहत की सांस ली। संभवतः अकबर को लगता था कि महाराणा प्रताप के निधन के बाद अकबर मेवाड़ पर अधिकार कर लेगा किंतु यह अकबर की भूल थी। महाराणा प्रताप के निधन के आठ साल बाद तक अकबर जीवित रहा किंतु वह मेवाड़ को अपने अधीन नहीं कर सका।

महाराणा प्रताप तथा अकबर तो इस नश्वर संसार से चले गए किंतु उनके वंशजों के बीच यह युद्ध लगभग दो सौ सालों तक और चलता रहा। जब मुगल बादशाह कमजोर पड़कर लाल किले में ही सीमित हो गए तब भी मेवाड़ का हिंदुआ सूरज भारत की राजनीति के गगन पर उज्जवल प्रकाश बिखेरता रहा और भारतवासियों को अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देता रहा।

महाराणा प्रताप तथा अकबर के बीच के भयानक संघर्ष को कुछ इतिहासकारों ने दो जातियों तथा दो धर्मों का संघर्ष बताया है। उनके विचार से महाराणा प्रताप हिन्दू जाति तथा हिन्दू धर्म के गौरव की रक्षा के लिए मुगलों के विरुद्ध युद्ध कर रहा था। जबकि कुछ इतिहासकार इस मत को स्वीकार नहीं करते तथा महाराणा पर आरोप लगाते हैं कि उसने हिन्दू धर्म की रक्षा की बजाय अपने राज्य की रक्षा के लिये युद्ध किया।

यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो महाराणा प्रताप एवं अकबर के पूर्वजों के बीच ई.1527 से ही युद्ध आरम्भ हो गया था जब खानवा के मैदान में महाराणा प्रताप के दादा महाराणा सांगा ने अकबर के दादा बाबर से युद्ध किया था। यदि जातीय स्तर पर देखा जाए तो महाराणा प्रताप के पूर्वज बप्पा रावल के समय में आठवीं शताब्दी ईस्वी में ही मेवाड़ के शासकों ने खलीफा की सेनाओं से युद्ध करने आरम्भ कर दिए थे।

खुम्मांण (तृतीय) के समय में मेवाड़ तथा खलीफा की सेनाओं के बीच का युद्ध विशुद्ध जातीय संघर्ष के रूप में सामने आता है जो महाराणा प्रताप के बहुत से पूर्वजों के समय भी जारी रहता हुआ प्रताप के समय एवं उसके बाद भी चलता रहा था।

कुछ इतिहासकार महाराणा प्रताप द्वारा अकबर के विरुद्ध जातीय संघर्ष जारी रखने को उचित नहीं मानते, उनके अनुसार महाराणा प्रताप अव्यवहारिक तथा अदूरदर्शी था इसलिये महाराणा प्रताप ने सुलह एवं संधि का मार्ग न अपनाकर युद्ध एवं विनाश का मार्ग अपनाया। इस मत के समर्थन तथा विरोध में कई तर्क दिये जाते हैं।

महाराणा प्रताप के समर्थन में तर्क देने वालों का कहना है कि निश्चित रूप से महाराणा प्रताप हिन्दू धर्म तथा हिन्दू जाति के गौरव की रक्षा के लिये लड़ रहा था न कि अपने राज्य के लिये। यदि महाराणा प्रताप चाहता तो वह भी कुंवर मानसिंह तथा राजा भगवानदास के बहकावे में आकर अकबर की अधीनता स्वीकार करके सरलता से चित्तौड़ का दुर्ग प्राप्त कर सकता था तथा उदयपुर को अपनी राजधानी बनाये रख सकता था किंतु हिन्दुआनी आन, बान और शान ने महाराणा को अकबर के समक्ष झुकने नहीं दिया।

महाराणा के समर्थकों का कहना है कि यदि महाराणा के विरोधियों की यह बात मान ली जाए कि महाराणा प्रताप अपने राज्य तथा सिसोदिया कुल की राज्यसत्ता की रक्षा के लिये ही लड़ रहा था तो महाराणा यह कार्य अकबर की अधीनता स्वीकार करके भी बड़ी सरलता से कर सकता था।

महाराण के समर्थकों के अनुसार यदि महाराणा के विरोधियों की यह बात मान ली जाए कि महाराणा प्रताप अव्यवहारिक, कल्पनाशील तथा वास्तविकता को नहीं समझने वाला था तो उसने अपने शासन के आरम्भ में अकबर द्वारा भेजे गये उपहार क्यों स्वीकार किये?

महाराणा ने अपने शासन के आरम्भ में कुंवर अमरसिंह को अकबर के दरबार में भेजकर सद्भावना का परिचय क्यों दिया?

 स्पष्ट है कि महाराणा प्रताप, अकबर द्वारा दिखाई गई सद्भावना के बदले में सद्भावना का ही प्रदर्शन करता रहा। महाराणा ने अकारण युद्ध खड़ा नहीं किया किंतु जब अकबर ने यह इच्छा की कि महाराणा प्रताप अकबर की अधीनता स्वीकार करे तो महाराणा प्रताप हिंदुआनी आन को बेचने के लिए तैयार नहीं हुआ।

महाराणा के समर्थकों के अनुसार यदि महाराणा प्रताप अव्यवहारिक व्यक्ति होता तो वह अवश्य ही तलवार के बल पर अपने पूर्वजों के दुर्ग चित्तौड़ को लेने का प्रयास करता किंतु महाराणा ने परिस्थितियों की वास्तविकता को समझते हुए, ऐसा करने का प्रयास नहीं किया।

महाराणा के समर्थकों का कहना है कि महाराणा ने अकबर पर आक्रमण नहीं किया अपितु अकबर ने महाराणा पर आक्रमण करके महाराणा को युद्ध करने के लिये विवश किया था।

यदि महाराणा को हिन्दू धर्म की आन, बान और शान की चिंता नहीं होती तो वह अपने अंतिम दिनों में इस बात को लेकर चिंतित क्यों होता कि संभवतः उसका पुत्र अमरसिंह हिन्दुओं के गौरव की रक्षा नहीं कर सकेगा!

अकबर ने महाराणा प्रताप पर निरंतर दबाव बनाया कि महाराणा प्रताप, अकबर के दरबार में उपस्थित होकर उसे मुजरा करे किंतु महाराणा ने हिन्दू धर्म, हिन्दू जाति की मर्यादा तथा उसके गौरव की रक्षा के लिये अकबर के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।

यदि महाराणा को हिन्दू धर्म के गौरव की चिंता नहीं होती तो अकबर के दरबारी पीथल (पृथ्वीराज राठौड़) द्वारा महाराणा को पत्र लिखे जाने पर प्रताप ने अकबर के प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग करके अकबर का तिरस्कार नहीं किया होता।

महाराणा प्रताप के समर्थन में तर्क देने वालों का कहना है कि यदि महाराणा प्रताप हिन्दू धर्म के गौरव की रक्षा के लिये नहीं लड़ रहा होता तो महाराणा के समकालीन तथा बाद के समय में हुए चारणों, भाटों एवं स्थानीय कवियों ने महाराणा प्रताप की युद्ध गाथा को हिन्दू जाति के गौरव की रक्षा से जोड़कर नहीं लिखा होता।

सिसोदियों का इतिहास बताता है कि वे मुगलों, मराठों और अंग्रेजों से बराबरी के स्तर पर मित्रता करने को तैयार थे किंतु उनकी अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए। महाराणा प्रताप से पहले, रानी कर्णवती ने भी हुमायूँ को राखी भेजकर मुगलों की तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाया था जिसे हुमायूँ ने अस्वीकार कर दिया था।

वह मित्रता का प्रस्ताव था न कि अधीनता का। जबकि दूसरी ओर आम्बेर के राजा भारमल ने अकबर की अधीनता स्वीकार करके मुगलों की सहायता प्राप्त की थी न कि बराबर के स्तर पर मित्रता करके।

वर्तमान राजनीतिक वातावरण में अधिकांश इतिहासकारों को हिन्दू धर्म के गौरव से अधिक चिंता स्वयं को धर्मनिरपेक्ष दिखाने की है। इसलिये वे महाराणा प्रताप के महान त्याग एवं संघर्ष को तुच्छ राज्य के लिये किया गया संघर्ष बताते हुए नहीं हिचकिचाते।

वास्तव में अकबर और महाराणा प्रताप के बीच का संघर्ष दो राजाओं के बीच का संघर्ष नहीं था, अपितु यह विदेशी आक्रांताओं एवं स्वदेशी राष्ट्रवादियों के बीच का संघर्ष था जो इन दोनों राजाओं के पूर्वजों के समय में आठवीं शताब्दी ईस्वी में आरम्भ होकर उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी में मुगल राज्य के कमजोर पड़ जाने तक चलता रहा।

डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

हल्दीघाटी की ललकार! (138)

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हल्दीघाटी की ललकार

हल्दीघाटी की ललकार आज भी इतिहास के नेपथ्य से निकलकर भारतीयों के मन-मस्तिष्क को आह्लादित करती है। हल्दीघाटी जैसा युद्ध भारत के इतिहास में महाभारत के बाद से लेकर आज तक के काल में कोई दूसरा नहीं हुआ।

कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि महाराणा प्रताप द्वारा हिन्दू धर्म एवं हिन्दू जाति के नाम पर अकबर के विरुद्ध जातीय संघर्ष किया गया।

कुछ इतिहासकारों द्वारा लिखा गया है कि महाराणा प्रताप का यह संघर्ष राष्ट्रीय गौरव से परिपूर्ण था और हिन्दू धर्म एवं हिन्दू जाति के गौरव की रक्षा के लिए किया गया था जबकि कुछ इतिहासकारों के अनुसार महाराणा प्रताप का यह कार्य अदूरदर्शिता पूर्ण था।

इतिहासकारों का एक तीसरा पक्ष भी है जो यह मानता है कि महाराणा प्रताप द्वारा अकबर के विरुद्ध किया गया संघर्ष हिन्दू जाति के गौरव की रक्षा के लिए नहीं किया गया था अपितु अपने तुच्छ राज्य की रक्षा के लिए किया गया था।

इन इतिहासकारों के अनुसार चूंकि महाराणा प्रताप अदूरदर्शी तथा अव्यवहारिक था, इसलिए उसने अपनी प्रजा को सुलह एवं शांति के मार्ग पर ले जाने की बजाय युद्ध एवं विनाश की विभीषिका में झौंक दिया!

महाराणा प्रताप के विरोध में तर्क देने वालों का कहना है कि यदि महाराणा प्रताप हिंदू जाति तथा हिंदू धर्म की रक्षा के लिये संघर्ष करता तो महाराणा प्रताप को अफगानों की सहायता प्राप्त नहीं हुई होती और महाराणा प्रताप अपनी सेना के एक अंग का संचालन हकीम खाँ सूरी को न सौंपता।

महाराणा के विरोधी इतिहासकारों के अनुसार अकबर तथा प्रताप के बीच का युद्ध हिंदू जाति और मुसलमान जाति के बीच का युद्ध नहीं था क्योंकि एक ओर तो हकीम खाँ सूरी मुसलमान होकर भी हिंदू राजा महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ रहा था तो दूसरी तरफ राजकुमार मानसिंह हिंदू होकर भी मुसलमान बादशाह अकबर के लिए लड़ रहा था। यदि यह हिंदू-मुस्लिम युद्ध होता तो अकबर अपनी सम्पूर्ण सेना का संचालन कुंवर मानसिंह को न सौंपता।

इन लोगों के अनुसार यदि हल्दीघाटी का युद्ध हिन्दू जाति, हिन्दू धर्म तथा हिन्दू देश की स्वतन्त्रता की रक्षा का युद्ध होता तो अन्य हिन्दू नरेश भी महाराणा प्रताप के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर अकबर के विरुद्ध लड़े होते किंतु उस काल के अधिकांश हिन्दू राजा अकबर की तरफ से लड़े थे।

महाराणा प्रताप के विरोधी मत के लोगों के अनुसार कुछ लेखकों का यह कहना कि अकबर के काल में महाराणा तथा उसके पक्ष के राजपूतों को छोड़कर शेष हिन्दू नरेश कायर हो गये थे और उनका इतना अधिक नैतिक पतन हो गया था कि वे अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए अपनी स्वतन्त्रता, अपने धर्म तथा मान-सम्मान को मुगलों के हाथ बेच देने के लिए उद्यत हो गये थे, किसी भी प्रकार स्वीकार्य नहीं है।

महाराणा के विरोधियों के अनुसार चूंकि प्रताप मेवाड़ राज्य तथा सिसोदियों की राज्यसत्ता की रक्षा के लिये लड़ रहा था, इस कारण इस युद्ध से अन्य हिन्दू राज्यों को विशेष उत्तेजना नहीं मिली।

कुछ विद्वानों का कहना है कि राजपूताना के राजपूत राज्यों को मेवाड़ की साम्राज्यवादी नीति का अनुभव हो चुका था और मेवाड़़ के प्रतापी राजाओं ने उनके साथ जो व्यवहार किया था उनमें मेवाड़ के प्रति पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया था। अब वे मेवाड़ के नेतृत्व में संगठित होने के लिए तैयार नहीं थे।

इन विद्वानों के अनुसार अकबर भी जातीयता अथवा धार्मिक भावना से प्रेरित होकर महाराणा के विरुद्ध युद्ध नहीं कर रहा था। मेवाड़ पर आक्रमण अकबर की साम्राज्यवादी नीति का एक अंग था।

यदि मेवाड़ गैर-हिन्दू राज्य होता तो भी अकबर उस पर उसी प्रकार आक्रमण करता, जिस प्रकार उसने अन्य हिन्दू अथवा अन्य मुसलमान राज्यों पर किया था। इन लोगों के अनुसार अकबर ने विशुद्ध राजनीतिक उद्देशय से मेवाड़ पर आक्रमण किया था न कि मजहबी उद्देश्य से।

यदि हम महाराणा प्रताप के विरोधियों के तर्कों को स्वीकार करते हैं तो हमें स्पष्ट भान हो जाता है कि हम मध्य-ऐशियाई देशों से खलीफा की सेना के रूप में भारत में प्रवेश करने वाली एवं बाबर की सेना के रूप में भारत पर अधिकार करने वाली एक विदेशी जाति, विदेशी संस्कृति एवं विदेशी राज्यसत्ता के विरुद्ध महाराणा प्रताप, उसके पूर्वजों एवं उसके वंशजों द्वारा द्वारा किए गए संर्घष को नकारते हैं।

निश्चित रूप से महाराणा प्रताप ही नहीं अपितु सम्पूर्ण गुहिल राजवंश द्वारा पहले तुर्कों एवं बाद में मुगलों के विरुद्ध किया गया संघर्ष राष्ट्रीय संघर्ष था, हिन्दू अस्मिता की रक्षा के लिए किया गया संघर्ष था।

यदि यह भी मान लिया जाए कि महाराणा प्रताप, उसके पूर्वज एवं उसके वंशज केवल अपने राज्य की रक्षा के लिए लड़ रहे थे, तब भी विदेशियों के विरुद्ध गुहिलों द्वारा किए गए संघर्ष का मूल्य कम नहीं हो जाता। न ही हल्दीघाटी की ललकार धीमी पड़ती है।

महाराणा प्रताप के विरोधी इस प्रश्न का जवाब कभी नहीं दे पाते कि जब अन्य हिन्दू राजा, यहाँ तक कि सैंकड़ों सालों तक महाराणाओं के अधीन रहने वाले हिन्दू राजा भी मुगलों की अधीनता स्वीकार करके अपने राज्यों को सुरक्षित रख पा रहे थे, तब महाराणा प्रताप अकबर की अधीनता स्वीकार करके अपना राज्य कैसे गंवा देते!

निश्चित ही है कि महाराणा अपने राज्य की रक्षा के लिए नहीं अपितु राष्ट्रीय गौरव एवं हिन्दुओं की जातीय गौरव की रक्षा के लिए लड़ रहे थे। वे राज्य की सुरक्षा के लिए नहीं अपितु अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए लड़ रहे थे।

महाराणा प्रताप के संघर्ष की विराटता के पक्ष एवं उनके विरोध में विचार रखने वालों द्वारा प्रस्तुत तथ्यों पर विचार करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महाराणा प्रताप एक आदर्शवादी राजा था।

वह प्राचीन क्षत्रियों के आदर्शों पर चलते हुए हिन्दू जाति तथा धर्म के गौरव को बनाये रखने के लिये, अपने क्षत्रियपन को बचाए रखने के लिए, अपने कुल की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए जीवन भर कठिन संघर्ष करता रहा।

महाराणा ने किसी भी प्रकार के लालच में आए बिना, अकबर से संघर्ष किया, उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की। महाराणा ने अफगानों की सहायता इसलिये स्वीकार की क्योंकि उस काल में अफगान, मुगलों के सबसे बड़े शत्रु थे और वे स्वेच्छा से मुगलों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे।

यह भी स्पष्ट है कि महाराणा का हिन्दुत्व काल्पनिकता तथा कोरी भावुकता से प्रेरित नहीं था जिसमें हकीम खाँ सूरी जैसे अफगान तोपचियों की सेवा लेने का भी साहस न हो! हिन्दू जाति तथा हिन्दू गौरव की रक्षा का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि महाराणा के लिये अफगान मित्र भी अस्पर्श्य हो जाते।

महाराणा पर थोथे आदर्श, काल्पनिकता तथा कोरी भावुकता का आरोप तभी लग सकता था जब वह मुगलों के साथ-साथ अफगानों को भी अपना शत्रु बना लेता। जब अकबर हिंदुओं की तलवार से हिंदुओं को मार सकता था तो महाराणा भी अफगानों की तोपों से मुगलों को मार सकता था।

इसमें कोई दो राय नहीं कि अकबर मुगल राज्य की स्थापना के लिये लड़ रहा था जबकि महाराणा प्रताप हिन्दू गौरव की रक्षा के लिये लड़ रहा था। इस सम्पूर्ण विवेचना से यही निष्कर्ष निकलता है कि हल्दीघाटी की ललकार विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध राष्ट्रीय संघर्ष के जारी रहने की घोषणा थी!

जिन परिस्थितियों में हल्दीघाटी का युद्ध हुआ, उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि भारत के राष्ट्रीय गौरव की किलकारी थी हल्दीघाटी की ललकार!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

शिया सुन्नी तथा सूफी (139)

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शिया सुन्नी तथा सूफी

अकबर स्वयं सुन्नी मुसलमान था किंतु उसके रक्त में शिया सुन्नी तथा सूफी तीनों का खून बहता था। वह इस्लाम की इन तीनों धाराओं का संयुक्त वारिस था।

ईस्वी 1576 के आते-आते अकबर का राज्य काफी विस्तृत हो चुका था। इसलिए उसने अपनी प्रजा का प्रशासनिक नेतृत्व करने के साथ-साथ मजहबी नेतृत्व करने का भी विचार किया। अकबर द्वारा प्रजा के मजहबी नेतृत्व के लिए किए गए प्रयासों की चर्चा करने से पहले हमें अकबर की मजहबी प्रवृत्तियों की पृष्ठभूमि के बारे में कुछ जानना चाहिए।

अकबर की मजहबी प्रवृत्तियों के बारे में भिन्न-भिन्न लेखकों ने एक दूसरे से बिल्कुल उलट विचार व्यक्त किए हैं। इस आलेख में हम अकबर की पारिवारिक एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि में कार्य कर रही मजहबी प्रवत्तियों की चर्चा करेंगे।

अकबर का पिता हुमायूँ सुन्नी मत को मानने वाला था और उसकी माता हमीदा बानू फारस अर्थात् ईरान से आए शिया मत को मानने वाले मियां अली बाबा दोस्त की पुत्री थी। यह परिवार ईरान के खुरासान प्रांत के तोरबात-ए-जाम नगर का प्रसिद्ध सूफी परिवार था जो गायन-वादन की विशिष्ट शैली के लिए जाना जाता था।

इस प्रकार अकबर की धमनियों में शियाओं, सुन्नियों तथा सूफियों का मिश्रित रक्त प्रवाहित हो रहा था। यदि यह कहा जाए कि अकबर इस्लाम की तीनों मुख्य शाखाओं अर्थात् शिया सुन्नी तथा सूफी का संयुक्त वारिस था, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

हालांकि अकबर के पूर्वज समरकंद के सुन्नी थे किंतु उन्हें अपने जीवन में अनेक बार ईरान के शियाओं से समझौते करने पड़े थे। हुमायूँ के दादा बाबर को मध्य-ऐशियाई उज्बेकों से लड़ने के लिए ईरान के शिया बादशाह शाह इस्माइल से संधि करके कुछ समय के लिए शिया मत अपनाना पड़ा था।

अकबर के पिता हुमायूँ ने मियां अली बाबा दोस्त की पुत्री से विवाह किया था जो शिया थी। इसी प्रकार हुमायूँ को भारत से भाग कर ईरान में शरण लेनी पड़ी थी जहाँ उसे शिया मतावलम्बियों की तरह रहना पड़ा था और एक शिया शहजादी से विवाह करना पड़ा था।

हुमायूँ का अत्यंत स्वामि-भक्त सरदार बैराम खाँ भी शिया था जो बाद में अकबर का मुख्य संरक्षक बना। इस प्रकार हुमायूँ, हमीदा बानू बेगम तथा खानखाना बैराम खाँ अकबर की मजहबी प्रवृत्तियों एवं व्यवहार के लिए उत्तरदाई थे।

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि अकबर के सुयोग्य शिक्षक अब्दुल लतीफ ने जो अपने धार्मिक विश्वासों में इतना उदार था कि फारस देश के शिया मतावलम्बी, अब्दुल लतीफ को सुन्नी मत का समझते थे जबकि उत्तर भारत के सुन्नी मतावलम्बी, अब्दुल लतीफ को शिया मत का मानते थे। अब्दुल लतीफ ने ही अकबर को सबके साथ शांति रखने के सिद्धांत का पाठ पढ़ाया था जिसे भारतीय राजनीति में सुलहकुल कहा जाता है।

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि अकबर सुलहकुल के सिद्धांत को कभी नहीं भूला। धार्मिक कट्टरता और मदान्धता अकबर स्वभाव के ही प्रतिकूल थी।

राज्यारोहण के पश्चात के कुछ वर्षों में अकबर को शाह अबुल मुआली, बैराम खाँ तथा शेख गदाई सहित अनेक मुसलमानों के विरुद्ध सख्त कदम उठाने के लिए प्रेरित किया गया किंतु फिर भी अकबर ने किसी प्रकार की कट्टरता का परिचय नहीं दिया।

डॉ. श्रीवास्तव ने लिखा है कि तत्कालीन इतिहास लेखक बदायूंनी के वृतांत से पता चलता है कि अकबर दिन में न केवल पांच बार नमाज पढ़ता था बल्कि वह राज्य, धन-दौलत और मान-प्रतिष्ठा प्रदान करने की अल्लाह की अपार अनुकंपा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के निमित्त प्रतिदिन प्रातःकाल अल्लाह का चिंतन करता था और या-हू या-हादी का ठीक मुसलमानी ढंग से उच्च स्वर से पाठ करता था।

अकबर सुन्नी होने पर भी प्रत्येक वर्ष अजमेर में सूफी दरवेश ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की भक्ति-भाव से यात्रा करता था। बहुत से इतिहासकारों ने अकबर की इस धार्मिक उदारता की प्रशंसा की है।

डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार अकबर अपने युग के मुस्लिम बादशाहों से बिल्कुल उलट, उदार तथा व्यापक दृष्टिकोण का बादशाह था। वह वैचारिक संकीर्णता से परे था।

अकबर का बाल्यकाल संकटों, षड़यंत्रों तथा मुसीबतों से भरा हुआ होने के कारण अकबर का जीवन तथा धर्म के प्रति दृष्टिकोण, एक सामान्य बादशाह से भिन्न होना स्वाभाविक था।

उसे कामरान तथा अन्य चाचाओं की धूर्त्तता तथा राज्यलिप्सा के लिये किये गये षड़यंत्रों से अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि अपने ही मजहब के लोग तथा अपने ही रक्त सम्बन्धी, राज्य तथा सम्पत्ति के लिये किसी भी निर्दोष के प्राण लेने के लिये उद्धत हो जाते हैं।

इसलिये अकबर ने मजहब तथा रक्त-सम्बन्धों को ही सब-कुछ मानने के स्थान पर व्यक्ति के भीतर बसने वाले गुणों को प्रमुखता दी तथा हर धर्म में बसने वाली अच्छी बात को स्वीकार किया।

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार अकबर के पिता हुमायूँ को अपने भाइयों से कदम-कदम पर धोखे और विश्वासघात मिले थे जो कि हुमायूँ की ही तरह सुन्नी मुसलमान थे।

जबकि मुगल दरबार में काफिर समझे जाने वाले शियाओं एवं हिंदुओं ने हुमायूँ को अपने यहाँ रखकर उसे अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने का अवसर दिया था।

इस कारण हुमायूँ में उतना धार्मिक कट्टरपन तथा उन्माद नहीं था जितना उसके पूर्वज तैमूर लंग तथा बाबर में था। हुमायूँ सुसंस्कृत, उदार, दयालु तथा सहिष्णु बादशाह था। उसके व्यक्तित्त्व का अकबर पर गहरा प्रभाव पड़ा।

सूफियों के प्रति अकबर सहज आकर्षण का अनुभव करता था, इस कारण वह प्रत्येक बड़े युद्ध अभियान पर जाने से पहले स्वयं अजमेर जाता था और ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर उपस्थित होकर मनौती मांगता था।

अकबर ने फतहपुर सीकरी में सूफी दरवेश सलीम चिश्ती के साथ निकट सम्बन्ध बनाए। बादशाह होते हुए भी अकबर शेख सलीम चिश्ती के मकान में जाकर रुकता था और उसने अपनी मुख्य बेगम को गर्भवती होने पर सलीम चिश्ती के मकान में रखकर उसका प्रसव करवाया ताकि बेगम को इस सूफी दरवेश का आशीर्वाद प्राप्त हो सके और अकबर की बेगमें पुत्रों को जन्म दे सकें।

जब अकबर के पहले पुत्र का जन्म हुआ तो अकबर ने सलीम चिश्ती के नाम पर अपने पुत्र का नाम सलीम रखा। इतना ही नहीं, अकबर अपने इस पुत्र को सामान्यतः शेखू बाबा अथवा शेखू कहकर ही पुकारता था क्योंकि सलीम चिश्ती को शेखुल इस्लाम भी कहते थे।

अकबर के एक अन्य पुत्र दानियाल का जन्म भी अजमेर में सूफी दरवेश ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के खादिम शेख दानियाल के मकान में हुआ था तथा इस शहजादे का नाम भी इसी खादिम के नाम पर रखा गया।

इस प्रकार अकबर की रक्त परम्परा और इतिहास परम्परा में शिया सुन्नी तथा सूफी तीनों ही समाए हुए थे। इस संयुक्त विरासत के कारण ही वह इस्लाम की इन तीनों धाराओं अर्थात् शिया सुन्नी तथा सूफी तीनों को ही प्रसन्न नहीं रख सका।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

अकबर का राज्य! (140)

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अकबर का राज्य

यह सही है कि अकबर के संरक्षक बैराम खां ने अकबर का राज्य स्थापित किया था और उसे दुश्मनों से बचाया था किंतु जिस समय बैराम खाँ इतिहास के नेपथ्य में गया, उस समय तक अकबर का राज्य बहुत छोटा था। उसने अपने बाहुबल, हिम्मत और अपनी सेनाओं के बल पर अपना राज्य बढ़ाया था किंतु अकबर का राज्य बढ़ाने में जितना योगदान अकबर के अपने मजहब के लोगों का था, उससे कहीं अधिक योगदान उन लोगों का था जो अकबर के मजहब के नहीं थे!

अकबर की रगों में समरकंद के सुन्नियों, ईरान के शियाओं एवं खुरासान के सूफियों का रक्त बहता था, इस कारण वह इस्लाम की तीनों प्रमुख शाखाओं का संयुक्त वारिस था।

बहुत से इतिहासकारों ने लिखा है कि अकबर ने हिंदुओं के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया जो कि उसके पूर्ववर्ती मुस्लिम बादशाहों से बिल्कुल उलट था। इनमें पं. जवाहरलाल नेहरू एवं डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव प्रमुख हैं।

जवाहरलाल नेहरू ने जेल की कोठरियों से अपनी पुत्री इंदिरा प्रियदर्शिनी के नाम बहुत से पत्र लिखे थे जिन्हें सस्ता साहित्य मण्डल द्वारा विश्व इतिहास की झलक के नाम से प्रकाशित किया गया।

इन पत्रों में नेहरू ने लिखा है कि अकबर के उदार दृष्टिकोण के कारण अकबर को अपने मजहब के लोगों की बजाय दूसरे मजहबों के लोगों से अधिक सहयोग मिला।

वे लिखते हैं कि बैराम खाँ ने शिया होते हुए भी सुन्नी मत को मानने वाले अकबर के लिये नये सिरे से मुगल राज्य की रचना की। हिन्दू अमीरों राजा टोडरमल तथा बीरबल ने अकबर को पूरा विश्वास, समर्थन तथा सहयोग दिया तथा उसके राज्य को उस युग के विश्व के लिये आदर्श बना दिया। यहाँ तक कि इन हिन्दू उमरावों ने अकबर के लिये अपने प्राण न्यौछावर कर दिये।

इन उमरावों के अतिरिक्त आम्बेर, जोधपुर, बीकानेर, बूंदी एवं जैसलमेर आदि हिन्दू राज्यों के शासकों ने अकबर के राज्य-विस्तार के लिए जीवन भर अकबर के शत्रुओं से युद्ध किया।

अकबर इन राजाओं की सेनाओं पर अपनी सेनाओं से भी अधिक भरोसा करता था, इसलिए अकबर में धार्मिक सहिष्णुता का भाव जीवन भर निरंतर बना रहा।

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि अकबर का जन्म और पालन-पोषण अपेक्षाकृत अधिक उदारतापूर्ण वातावरण में हुआ था। अकबर का जन्म अमकरकोट के हिंदू सरदार के घर में हुआ था जहाँ उसे एक महीने तक रहना पड़ा था।

बीस वर्ष की आयु पूरी करने से पहले ही अकबर ने युद्ध में सैनिकों को बंदी बनाने और उन्हें मुसलमान बनाने के बुरे नियम को बंद करवा दिया। डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार यदि तात्विक दृष्टि से देखा जाए तो अकबर अत्यंत धार्मिक व्यक्ति था।

वह जीवन और मृत्यु की समस्याओं पर गंभीर विचार किया करता था और 20 वर्ष की आयु पूरी करने पर धर्म और राजनीति में समन्वय और सामंजस्य स्थापित न कर पाने के कारण उसका मन गहरी पीड़ा का अनुभव करने लगा था।

अकबर की यह आध्यात्मिक चेतना ही उसके द्वारा ई.1563 में हिंदुओं से लिए जाने वाले तीर्थयात्री-कर बंद किए जाने के लिए उत्तरदाई है। दूसरे वर्ष अर्थात् ई.1564 में अकबर ने एक और क्रांतिकारी कदम उठाया। उसने जजिया-कर जो गैर मुसलमानों पर लगाया जाता था और जिसे पूर्व कालीन तुर्क-अफगान सुल्तानों, यहाँ तक कि अकबर के पिता और पितामह ने भी वसूल करना अपना धार्मिक कर्तव्य समझा, समाप्त कर दिया।

इन बातों द्वारा अकबर की धार्मिक नीति में अपने पूर्वजों की अपेक्षा मूलतः परिवर्तन का आभास मिलता है। डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार अकबर अपने व्यक्तिगत जीवन में बहुत वर्षों तक एक निष्ठावान किंतु उदार मुसलमान था। जिस समय अकबर ने सुलह-कुल की नीति का निर्माण नहीं किया था, उस समय आम्बेर के राजा भारमल ने अपनी पुत्री हीराकंवर का विवाह अकबर के साथ किया।

इस विवाह ने अकबर के धार्मिक विचारों में बहुत परिवर्तन किया। उसने काफिर समझे जाने वाले हिन्दुओं की अच्छाइयों, आदर्शों एवं नैतिक जीवन को निकटता से देखा। इससे अकबर में हिन्दू धर्म के प्रति आदर का जो भाव उत्पन्न हुआ, वह जीवन भर बना रहा।

भारत में तेरहवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों में ही धार्मिक तथा आध्यात्मिक आन्दोलन चले। बहुत से धर्म सुधारक विभिन्न धर्मों के बीच लौकिक एकता की खोज तथा धार्मिक समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे थे।

इस कारण देश के सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में उदारता तथा सहिष्णुता के भाव उत्पन्न हो रहे थे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार अकबर पर भी उन महान विचारों का प्रभाव पड़ा।

अपनी पुत्री इंदिरा प्रियदर्शिनी को लिखे एक पत्र में नेहरू ने लिखा है कि अकबर के शासन काल में ही यूरोप में मुगलों के लिए महान्-मुगल शब्द काम में लिया जाने लगा। नेहरू लिखते हैं कि वह जमाना यूरोप में नीदरलैण्ड के विद्रोह का और इंग्लैण्ड में शेक्सपीयर का था।

अपनी पुत्री इंदिरा प्रियदर्शिनी को लिखे पत्र में नेहरू ने लिखा है- ‘जिन दो संस्कृतियों एवं मजहबों का इस देश में साथ आ पड़ा था, उन दोनों के समन्वय के लिए भारत में कैसी खामोश ताकतें काम कर रही थीं।

मैंने तुमको भवन-निर्माण की नई शैली और भारतीय भाषाओं खासकर उर्दू या हिंदुस्तानी के विकास के बारे में लिखा था और मैं तुमको रामानंद, कबीर और गुरु नानक जैसे सुधारक और धर्म-गुरुओं के बारे में भी लिख चुका हूँ जिन्होंने इस्लाम और हिन्दू धर्म के एक से पहलुओं पर जोर देकर और उनके बहुत से रीति-रस्म और आडम्बरों की निंदा करके दोनों को एक-दूसरे के नजदीक लाने की कोशिश की थी।’

नेहरू लिखते हैं- ‘उस समय समन्वय की यह भावना चारों ओर फैली हुई थी। और अकबर के दिमाग ने जो हर बात को बारीकी से महसूस करता था और ग्रहण करता था, जब इस भावना को हजम किया तो उसमें बहुत बड़ा जवाबी असर हुआ होगा।

वास्तव में वह इस भावना का सबसे बड़ा व्याख्या करने वाला बन गया था। एक राजनीतिक की हैसियत से भी अकबर इसी नतीजे पर पहुंचा होगा कि उसका बल और राष्ट्र का बल इसी समनवय से बढ़ सकते हैं। वह एक बहुत बहादुर, लड़ाका और कुशल सेनानायक भी था।

अशोक की तरह वह लड़ाइयों से नफरत नहीं करता था किंतु तलवार की विजय से वह स्नेह की विजय को ज्यादा अच्छी समझता था और यह भी जानता था कि ऐसी विजय ज्यादा टिकाऊ होती है। इसलिए वह पक्के इरादे के साथ हिन्दू सरदारों और हिन्दू जनता का स्नेह हासिल करने में जुट गया।’

नेहरू ने लिखा है-

‘इस तरह अकबर ने राजपूतों को अपनी तरफ कर लिया और वह जनता का प्यारा बन गया। वह पारसियों और उसके दरबार में आने वाले जेजुइट पादरियों तक से अच्छा व्यवहार करता था जिन्होंने उसे ईसाई बनाने का प्रयास किया।

अकबर की उदारता और अकबर द्वारा इस्लामी शरीयत के खिलाफ की गई कार्यवाहियों से मुसलमान अमीर अकबर से नाराज हो गए और अकबर के खिलाफ कई विद्रोह हुए।’

अकबर के गुणों से सम्मोहित पण्डित नेहरू ने लिखा है- ‘महान! पुरुषों में चुम्बक जैसा आकर्षण होता है जो लोगों को अपनी ओर खींचता है। अकबर में यह दैहिक आकर्षण-शक्ति और मोहनी अत्यधिक मात्रा में थी।

जेजुइट लोगों के अद्भुत विवरण के अनुसार अकबर की वश में करने वाली आंखें इस तरह झिलमिलाती थीं जिस तरह सूर्य की रौशनी में समुद्र। फिर इसमें ताज्जुब की क्या बात है, अकबर का यह व्यक्तित्व हमको आज भी मोहता है और उसका शाही व मर्दाना स्वरूप उन ढेरों लोगों से बहुत ऊँचा दिखलाई पड़ता है, जो सिर्फ बादशाह हुए हैं।’                                      

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा है बड़े बदलावों की!

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नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा - www.bharatkaitihas.com
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

भारत की जनता को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा है कि वे देश में बड़े बदलाव करें। हालांकि लोकतंत्रीय शासन पद्धति में प्रधानमंत्री अकेला निर्णय नहीं लेता, मंत्रिमण्डल के सामूहिक निर्णय से सरकार चलती है। मंत्रिमण्डल अपने राजनीतिक दल की नीतियों के अनुसार निर्णय लेता है तथा राजनीतिक दल जनता की अपेक्षा के अनुसार सरकार पर दबाव बनाता है। इतना सब होने पर भी प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व ही अंततोगत्वा सरकार के समस्त निर्णयों एवं नीतियों पर आच्छादित रहता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विगत साढ़े दस वर्षों से भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार चला रहे हैं। उनका व्यक्तित्व पहले ही दिन से करिश्माई नेता जैसा रहा है।

नरेन्द्र मोदी से पहले भारत की राजनीति में दो ही नेता करिश्माई माने जाते रहे हैं- जवाहर लाल नेहरू एवं इंदिरा गांधी किंतु उनके करिश्माई नेतृत्व किसी काम के नहीं निकले। उन्होंने जो नीतियां बनाईं, देश की राजनीति को जो दिशा दी, भारत के सामाजिक ढांचे का जो सत्यानाश किया, उससे भारत देश कम और धर्मशाला अधिक बन गया। जिसकी मर्जी आए, देश में घुसे और नागरिक बनकर देश की सरकार को चुने। मजहब के नाम पर देश में अधिक से अधिक सुविधाएं ले और देश के नागरिकों के गले काटे।

नरेन्द्र मोदी सरकार ने विगत साढ़े दस वर्षों में पुरानी सरकारों की नीतियों को त्यागकर नई राजनीति का आरम्भ किया है। इस अवधि में नरेन्द्र मोदी सरकार ने बहुत से अद्भुत कार्य किए हैं किंतु भारत के भाग्य को बदल सकने वाले कार्य अब भी नरेन्द्र मोदी सरकार के संकल्प और कर्म की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

भारत की जनता को विशेषकर हिन्दू जनता को, यदि और अधिक स्पष्ट कहें तो बीजेपी के मतदाताओं को नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा है कि वे देश के भीतर कुछ बहुत बड़े परिवर्तन करें। यदि नरेन्द्र मोदी सरकार इन परिवर्तनों की ओर कदम बढ़ाती है तो निश्चित रूप से न केवल राष्ट्र मजबूत होगा, न केवल देश के भीतर शांति बढ़ेगी, न केवल भारत का भविष्य सुरक्षित होगा, अपितु एक ऐसे नए इतिहास का निर्माण होगा जिसकी गूंज शताब्दियों तक बनी रहेगी। नरेन्द्र मोदी भी सच्चे करिश्माई नेता सिद्ध होंगे।

प्रत्येक हिन्दू को नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा है कि भारत में अवैध रूप से निवास कर रहे प्रत्येक रोहिंग्या को देश से बाहर निकालकर उनके अपने देशों बांगलादेश या बर्मा में धकेल दिया जाए।

जनता की दूसरी अपेक्षा यह है कि भारत सरकार वक्फ बोर्ड को तुरंत भंग करे। वक्फ बोर्ड की सम्पूर्ण सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण किया जाए तथा इस सम्पत्ति को देश के बेरोजगार नौजवानों के लिए रोजगार विकसित करने में प्रयुक्त किया जाए। आज वक्फ बोर्ड के पास दस लाख हैक्टेयर भूमि है। यह भूमि देश के विकास में काम आए न किसी मजहबी फिरके की सम्पत्ति बनकर रहे।

जनता की तीसरी अपेक्षा यह है कि प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट को तुरंत समाप्त करके एक ऐसा कानून बनाया जाए जिसके तहत देश के उन समस्त स्थलों का संवैधानिक सर्वे करवाया जा सके जिन पर हिन्दू अपना दावा जताते हैं। उन दावों का निबटारा करने के लिए विशेष न्यायिक ट्रिब्यूनल बनाए जाने चाहिए। जो स्थल प्राचीन हिन्दू धार्मिक स्थल के रूप में पहचाने जाते हैं, उन्हें वापस हिन्दुओं को त्वरित गति से लौटाया जाए। उसके लिए वर्षों अथवा दशकों तक कानूनी कार्यवाहियां न चलें।

नरेन्द्र मोदी सरकार से जनता की चौथी अपेक्षा यह है कि भारत के संविधान में इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी के दौरान जबर्दस्ती जोड़े गए धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को हटाया जाए तथा भारत के संविधान की उद्देश्यिका पुनः वैसी ही कर दी जाए जैसी कि 1950 में देश का संविधान लागू करते समय थी।

जनता की नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश की एकता एवं अखण्डता के लिए कार्य किए जाएं। नरेन्द्र मोदी सरकार भारत की एकता और अखण्डता को मजबूत करने के लिए कुछ बड़े कदम उठाए।

सरकार द्वारा देश के भीतर महजबी कलह को समाप्त करने तथा देश में सुख एवं शांति का वातावरण बनाने के लिए अल्पसंख्यक बोर्ड जैसी समस्त संस्थाओं को समाप्त करके राष्ट्रीय एकता बोर्ड जैसी संवैधानिक संस्थाएं गठित की जानी चाहिए। इन संस्थाओं का कार्य यह हो कि जो लोग अथवा जिनके पूर्वज विगत एक हजार सालों में भय, लालच, विवशता अथवा भ्रम वश हिन्दू धर्म छोड़कर चले गए हैं, उन्हें अपनी मर्जी से पुनः हिन्दू धर्म में लाने के शांतिपूर्ण प्रयास किए जाएं।

नरेन्द्र मोदी सरकार से जनता की छठी अपेक्षा यह है कि जिस प्रकार उन्होंने भारत की राजनीति को परिवारवाद से मुक्त करवाया है, उसी प्रकार वे भारत की ज्युडीशियरी को लगभग 30-32 परिवारों के वर्चस्व से मुक्त करवाएं। विगत पिचहत्तर सालों से भारत के उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालयों में पीढ़ी दर पीढ़ी इन्हीं परिवारों के सर्वाधिक जज बन रहे हैं। भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए जज बनने के समान अवसर उपलब्ध होने चाहिए।

यदि नरेन्द्र मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में इनमें से आधे कार्य भी कर पाती है और आधे कार्य अपने चौथे कार्यकाल में करने का लक्ष्य निर्धारित करती है तो भारत की जनता को बड़ी राहत मिलेगी तथा देश में अशांति का वातावरण समाप्त होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा है कि वे समय रहते कदम उठाएं तथा उन संकल्पों को पूरा करें जो जनसंघ की स्थापना के समय नेताओं ने लिए थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

भगवान बुद्ध कौन थे?

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भगवान बुद्ध कौन थे?

भगवान बुद्ध कौन थे? यह प्रश्न अटपटा सा लगता है किंतु वैदिक ऋषि भगवान गौतम बुद्ध और शाक्यमुनि गौतम बुद्ध हिन्दू धर्म के इतिहास की ऐसी पहेली बन गए हैं जिसे सुलझाना बहुत कठिन है किंतु यदि हिन्दू धर्म के अवतारवाद के दर्शन को अच्छी तरह से समझ लिया जाए तो यह गुत्थी बड़ी सरलता से सुलझ जाती है कि वैदिक ऋषि भगवान बुद्ध और शाक्यमुनि गौतम बुद्ध अलग-अलग हैं!

भारत के स्थापित इतिहास में शाक्य मुनि सिद्धार्थ गौतम को गौतम बुद्ध एवं भगवान बुद्ध भी लिखा जाता है। इस कारण सनातनी धर्मावलम्बी एवं बौद्ध मतावलम्बी दोनों ही, शाक्यमुनि गौतम बुद्ध एवं भगवान गौतम बुद्ध को एक ही व्यक्ति मानते हैं किंतु वास्तव में ये एक व्यक्ति नहीं हैं, दो हैं।

आज से लगभग 100 साल पहले तक इतिहासकारों ने गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी को भी एक ही व्यक्ति मानकर प्राचीन भारत का इतिहास लिखा था। इस असमंजसता का कारण सिद्धार्थ गौतम एवं महावीर स्वामी, इन दोनों राजकुमारों के नाम, जन्म-काल, जन्म-स्थल, राजकुल, माता-पिता, इनके द्वारा प्रतिपादित दर्शनों का वैदिक धर्म से विरोध आदि तथ्य बहुत ही समानता रखते थे।

आगे चलकर जैसे-जैसे गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी का इतिहास सामने आता गया, वैसे-वैसे यह स्थापित होता चला गया कि बुद्ध और महावीर एक व्यक्ति नहीं थे, ये दो थे एवं अलग-अलग थे और बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म की स्थापना एक व्यक्ति ने नहीं की थी, दो अलग-अलग व्यक्तियों ने की थी।

ऐसा और भी मामलों में देखा गया है कि एक ही नाम के दो महापुरुष अथवा अवतार हो जाते हैं। ऋषि जमदग्नि के पुत्र का नाम भी राम है और राजा दशरथ के पुत्र का नाम भी राम है। इसलिए इन्हें अलग-अलग पहचानने के लिए जमदग्नि के पुत्र को परशुराम कहा गया।

राम और परशुराम की तरह ही, शाक्य मुनि गौतम बुद्ध एवं भगवान गौतम बुद्ध एक व्यक्ति के दो नाम नहीं थे, अपितु ये दोनों नाम दो अलग-अलग व्यक्तियों के थे जो आपस में एक जैसे प्रतीत होने के कारण एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं।

जो भगवान गौतम बुद्ध, भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, वे शाक्य मुनि गौतम बुद्ध अर्थात् सिद्धार्थ गौतम से अलग हैं।

दार्शनिक आधार पर भी, शाक्य मुनि गौतम बुद्ध अथवा सिद्धार्थ गौतम भगवान विष्णु के अवतार हो भी नहीं सकते क्योंकि विष्णु तो वेदों की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं जबकि शाक्य मुनि गौतम बुद्ध ने वेदों को स्वीकार नहीं किया। विष्णु तो यज्ञ की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं, जबकि शाक्य मुनि गौतम बुद्ध ने यज्ञों का विरोध किया। इस तथ्य से यह पहेली सुलझती हुई लगती है किभगवान बुद्ध कौन थे?

भगवान विष्णु तो ब्राह्मणों की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं, जबकि शाक्य मुनि गौतम बुद्ध ने ब्राह्मणों द्वारा अर्जित सम्पूर्ण ज्ञान, उनके द्वारा बनाए गए वर्ण-विधान एवं कर्मकाण्ड आदि समस्त बातों का विरोध किया। भगवान विष्णु तो परमात्मा माने जाते हैं जिनसे समस्त आत्माओं का निर्माण होता है जबकि शाक्य मुनि गौतम बुद्ध ने तो परमात्मा एवं आत्मा के बारे में कोई बात नहीं की।

भगवान विष्णु का दर्शन आत्मदीपो भव के सिद्धांत पर खड़ा है जिसका अर्थ होता है, आत्मा को प्रकाशित करो जबकि बुद्ध का दर्शन अप्प दीपो भव के सिद्वांत पर खड़ा है जिसका अर्थ होता है स्वयं दीपक बन जाओ। इन दो अलग विचारों से भी यह पहेली सुलझती हुई लगती है किभगवान बुद्ध कौन थे?

विष्णु रूपी परमात्मा से उत्पन्न आत्माएं तो देह छोड़ने के बाद मोक्ष प्राप्त करती हैं जबकि शाक्य मुनि गौतम बुद्ध के अनुसार मनुष्य अपने कर्मों से इसी देह में निर्वाण प्राप्त कर लेता है।

ऐसी स्थिति में शाक्यमुनि गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार कैसे माना जा सकता है! निश्चित रूप से भगवान विष्णु के अवतार माने जाने वाले गौतम बुद्ध, शाक्यमुनि गौतम बुद्ध से अलग हैं। और यह प्रश्न अनुत्तरित नहीं रह जाता कि भगवान बुद्ध कौन थे?

पुराणों में विष्णु के दस अवतार मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बलराम एवं कल्कि बताए गए हैं। कुछ ग्रंथों में बलराम के स्थान पर विष्णु के मोहिनी अवतार को सम्मिलित किया गया है तो कुछ ग्रंथों में गौतम बुद्ध को नौंवा अवतार माना गया है किंतु दशावतारों की सूची के गौतम बुद्ध शाक्य मुनि गौतम बुद्ध से अलग हैं।

वर्तमान समय में हिन्दुओं में यह धारणा प्रचलित है कि चूंकि हिन्दू धर्म बहुत उदार है इसलिए भगवान को न मानने वाले गौतम बुद्ध को भी हिन्दुओं ने विष्णु का नौवां अवतार मान लिया है जबकि यह धारणा पूरी तरह से गलत है।

शाक्य मुनि गौतम बुद्ध भगवान विष्णु के अवतार नहीं हैं, इस बात का आभास तो इस बात से ही हो जाना चाहिए कि विष्णु के दशावतारों की सूची में वेदों को न मानने वाले भगवान महावीर अथवा उनसे पहले के किसी भी जैन तीर्थंकर का नाम नहीं है। फिर वेदों को न मानने वाले गौतम बुद्ध का नाम दशावतारों की सूची में क्यों होता? अतः निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि दशावतारों की सूची के भगवान गौतम बुद्ध शाक्य मुनि गौतम बुद्ध से अलग हैं।

सनातन धर्म में गौतम नामक दो बड़े ऋषि हुए हैं। पहले गौतम आज से लगभग सात हजार साल पहले भगवान राम के काल में हुए थे जिनकी नारी को भगवान राम ने सामाजिक अपवाद से मुक्त किया था। इन गौतम ऋषि का नाम वेदों में मिलता है। इन्होंने वैदिक ऋचाएं की रचना भी की थी।

आज से लगभग पांच हजार साल पहले, सनानत हिन्दू धर्म में गौतम नामक एक और महान् ऋषि हुए जो क्षीरसागर में अनंत-शयन करने वाले अर्थात् शेषनाग की शैया पर शयन करने वाले विष्णु के नौंवे अवतार माने गए। इन्होंने गौतम धर्म सूत्र की रचना की थी जिसमें वर्ण व्यवस्था के नियम निर्धारित किए गए। षड्दर्शनों में से एक न्याय दर्शन के प्रणेता भी यही गौतम हैं। गौतम के कई हजार साल बाद मनु नामक जिस ऋषि ने मनुस्मृति की रचना की थी, उस मनुस्मृति का आधार भी इन्हीं गौतम ऋषि द्वारा रचित गौतम धर्मसूत्र है।

न्याय दर्शन एवं गौतम धर्मसूत्र के रचयिता गौतम ऋषि ने यज्ञों में बलि देने की प्रथा को अनुचित बताया तथा उसे जीव-हिंसा कहा। उनके प्रभाव से यज्ञों में पशु-बलि का प्रचलन बहुत से क्षेत्रों में बंद हो गया। समाज पर गौतम के व्यापक प्रभाव के कारण ही उन्हें भगवान विष्णु का नौंवा अवतार स्वीकार किया गया तथा उन्हें भगवान गौतम बुद्ध कहा गया। उनकी माता का नाम अंजना और पिता का नाम हेमसदन था। भगवान गौतम बुद्ध का जन्म बिहार प्रांत के ‘गया’ नामक स्थान पर हुआ था जिसे हिन्दुओं का सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता है।

न्याय दर्शन एवं गौतम धर्मसूत्र के रचयिता गौतम ऋषि के लगभग ढाई हजार साल बाद अर्थात् आज से ठीक ढाई हजार साल पहले हुए शाक्य राजा शुद्धोदन एवं उनकी महारानी माया के पुत्र के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उन्होंने भी जीवहिंसा को बहुत बड़ा पाप बताया तथा मानव मात्र के लिए अहिंसा के मार्ग पर चलने का निर्देशन किया। उन्हें शाक्य मुनि गौतम बुद्ध के नाम से जाना गया।

शाक्य गौतम बहुत ही कठोर साधक एवं परम ज्ञानी हुए। उन्होंने कठिन तपस्या के बाद तत्त्वानुभूति की और वे बुद्ध कहलाए। शाक्य मुनि को उनके शिष्यों ने तथागत कहा तथा हिन्दुओं ने उन्हें आगे चलकर वैदिक ऋषि भगवान गौतम बुद्ध से जोड़ दिया।

बौद्ध दर्शन में भगवान जैसा कोई अस्तित्व है ही नहीं, अतः इस बात को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि शाक्य गौतम के लिए भगवान शब्द का प्रयोग बौद्धों ने नहीं, हिन्दुओं ने किया।

श्रीललित विस्तार ग्रंथ के 21वें अध्याय के पृष्ठ संख्या 178 पर उल्लेख है कि संयोगवश शाक्य मुनि गौतम बुद्ध ने उसी स्थान पर तपस्या की जिस स्थान पर भगवान बुद्ध ने तपस्या की थी। इसी कारण लोगों ने दोनों को एक ही मान लिया।

जर्मन इतिहासकार मैक्स मूलर के अनुसार शाक्य सिंह बुद्ध अर्थात गौतम बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के लुम्बिनी के वनों में ईस्वी पूर्व 477 में हुआ था। अर्थात् शाक्य मुनि केवल ढाई हजार साल पहले हुए। जबकि सनातन धर्म के भगवान बुद्ध आज से 5000 वर्ष पहले बिहार के ‘गया’ नामक स्थान में प्रकट हुए थे।

श्रीमद् भागवत महापुराण (1/3/24) तथा श्रीनरसिंह पुराण (36/29) के अनुसार भगवान बुद्ध आज से लगभग 5000 साल पहले इस धरती पर आए। मैक्समूलर के अनुसार गौतम बुद्ध ईस्वी पूर्व 477 में अर्थात् आज से ठीक 2501 साल पहले आए।

इस प्रकार काल की भिन्नता के आधार पर भी सिद्ध होता है कि सनातन धर्म के भगवान बुद्ध और शाक्य मुनि गौतम बुद्ध एक नहीं हैं।

श्रीगोवर्धन मठ पुरी के पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती के अनुसार भगवान हिन्दुओं के भगवान बुद्ध और बौद्धों के गौतम बुद्ध दोनों अलग-अलग काल में जन्मे अलग-अलग व्यक्ति थे।

सनातन धर्म में जिन भगवान गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का अंशावतार बताया गया है, उनका जन्म मगध के कीकट प्रदेश में ब्राह्मण कुल में हुआ था जबकि उनके जन्म के ढाई हजार वर्ष बाद कपिलवस्तु में जन्मे गौतम बुद्ध, क्षत्रिय राजकुमार थे।

ब्राह्मणों ने ही सनातन धर्म के गौतम बुद्ध को भगवान का अवतार घोषित करके उन्हें पूजने की शुरुआत की थी। ब्राह्मण कर्मकांड में जिस बुद्ध की चर्चा होती है वे शाक्य मुनि से अलग हैं। जिस गौतम ऋषि का उल्लेख वेदों में हुआ है, वही सनातनियों के भगवान बुद्ध हैं। उन्हें ही भगवान का अंशावतार माना जाता था। इन्हीं गौतम बुद्ध की चर्चा श्रीमद्भागवत में भी हुई है जो कि ब्राह्मण कुल जन्मे थे।

उज्जैन के पहली शताब्दी ईस्वी के आसपास उज्जैन के राजा विक्रमादित्य की राजसभा के नौ रत्नों में से एक अमरसिंह ने अमरकोष नामक संस्कृत ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ में भगवान बुद्ध के 10 और गौतम बुद्ध के पांच पर्यायवाची नामों को एक ही क्रम में लिखा गया है। इस कारण हिन्दुओं को बुद्ध के नाम पर भ्रम हुआ तथा भगवान बुद्ध एवं शाक्य गौतम को एक ही मान लिया गया।

अमरकोष के रचयिता को यह भ्रम गौतम शब्द के कारण हुआ जो दोनों नामों में जुड़ा हुआ है। वेदों के गौतम ऋषि का गोत्र गौतम था और संभवतः शाक्य क्षत्रिय राजकुमार सिद्धार्थ का गोत्र भी गौतम था। इसी कारण अमर कोष के रचयिता को यह भ्रम हुआ।

अग्निपुराण में भगवान बुद्ध को लंबकर्ण अर्थात् लम्बे कान वाला कहा गया है। इस कारण शाक्य मुनि की प्रतिमाओं में भी लम्बे कान बनाए जाने लगे।

वाल्मीकि रामायण में बुद्ध को चोर कहा गया है-

वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड के 109वें सर्ग के चौतीसवें श्लोक में बुद्ध का उल्लेख इस प्रकार हुआ है- ‘यथा हि चोरः तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।’

अर्थात् ‘बुद्ध यानी जो नास्तिक है और नाम मात्र का बुद्धिजीवी है, वह चोर के समान दंड का अधिकारी है।’ निश्चित रूप से यह श्लोक रामायण में बहुत बाद में जोड़ा गया है। फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि यदि तथागत बुद्ध को भगवान राम का अवतार मान लिया गया होता तो उन्हें वाल्मीकि रामायण में चोर के समान दण्ड का भागी नहीं कहा गया होता। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि रामायण में तथागत बुद्ध नाम लिखा गया है न कि गौतम बुद्ध या भगवान बुद्ध।

इस विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि जिन वैदिक ऋषि गौतम को सनातनियों ने विष्णु का अवतार मानकर भगवान बुद्ध कहा, उनका काल पांच हजार साल पहले का है। शाक्य मुनि तथागत गौतम जिनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था, उन्हें नाम की एकता के कारण हिन्दुओं ने भगवान बुद्ध मान लिया है जिनका काल आज से लगभग ढाई हजार साल पहले का था। ऐसी और भी बहुत सी बातें यह गुत्थी सुलझाने में सहायता करती है कि भगवान बुद्ध कौन थे?

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

हिन्दूधर्म और सिक्खपंथ

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गुरु गोविंदसिंह एवं पंचप्यारे

हिन्दूधर्म और सिक्खपंथ वैसे ही हैं जैसे सूर्य और उसका प्रकाश। हिन्दू धर्म सूर्य है तो सिक्ख पंथ उसका प्रकाश है। हिन्दू धर्म वृक्ष है तो सिक्ख पंथ उसकी शाखा है।

कुछ दिनों पहले बागेश्वर धाम के गादीपति पंडित धीरेन्द्र शास्त्री ने एक वक्तव्य दिया था कि संभल के हरिहर मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक होना चाहिए। बरजिंदर परवाना नामक एक सिक्ख अतिवादी ने समझा कि धीरेन्द्र शास्त्री ने अमृतसर के स्वर्णमंदिर में शिवजी का अभिषेक करने की बात कही है जिसे हरमंदिर भी कहा जाता है। उसने कहा कि वह धीरेन्द्र शास्त्री को जान से मार डालेगा।

वर्तमान समय में बरजिंदर परवाना जैसे सैंकड़ों अथवा हजारों सिक्ख अतिवादी हैं जो हिन्दू धर्म को सिक्ख धर्म से अलग समझकर इस तरह की हरकतें कर रहे हैं। इन अतिवादियों को कनाडा, अमरीका एवं पाकिस्तान में बैठी हुई भारत विरोधी शक्तियों से फण्ड तथा अजेण्डा दोनों मिलते हैं जिनके कारण ये अतिवादी लोग कोई काम करके रोजी-रोटी कमाने एवं अपने परिवारों को सुख-शांति के मार्ग पर ले जाने की बजाय इस तरह की हिंसात्मक कार्यवाहियों, धमकियों एवं बयानों से देश में घृण फैलाने का काम करते हैं। उनकी इन हरकतों से ही हिन्दू और सिक्ख एक-दूसरे को शंका की दृष्टि से देखने लगे हैं। 

होना तो यह चाहिए कि सिक्ख अतिवादी इस बात पर विचार करें कि हिन्दुओं का हरिहर मंदिर तथा सिक्खों का हरमंदिर कितने मिलते-जुलते नाम हैं तथा इस बात के जीते-जागते प्रमाण हैं कि हिन्दू और सिक्ख एक ही हैं, वे अलग-अलग नहीं हैं।

सिक्ख अतिवादी अस्सी के दशक में हुए जनरैल सिंह भिण्डरवाला के समय से सिक्ख धर्म को न केवल हिन्दू धर्म से अलग धर्म के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, अपितु इस तरह का विष उगल रहे हैं जिससे यह लगता है कि इन दोनों धर्मों में कोई जन्मजात का वैर है।

कनाडा में जिस तरह से सिक्ख अतिवादियों ने खालिस्तान की स्थापना के नाम से अपना अड्डा जमाया है और कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रूडो जैसे पॉलिटीशियन्स ने उन्हें धन, शक्ति एवं समर्थन दिए हैं, उनसे इन अतिवादियों को लगता है कि वे सचमुच एक दिन खालिस्तान बना लेंगे।

यह निश्चित है कि वे अपना पेट पालने के लिए हिंसा के जिस मार्ग पर चल रहे हैं, वह रास्ता आगे जाकर काली धुंध में विलीन हो जाता है। गुरु नानक के सम्मान में एक भजन गाया जाता है कि सतगुरु नानक परगतिटया, मिटी धुंध जब चानण होया।

सिक्ख अतिवादियों को अपने परिवार वालों के बीच बैठकर सोचना चाहिए कि वे हिंसा और घृणा के जिस मार्ग पर चल रहे हैं, क्या उससे उन्हें तथा उनके परिवार को कभी कोई प्रकाश मिलेगा!

विगत चौदह सौ साल से संसार भर में जिस तरह इस्लाम के नाम पर आतंकवादी मानवता के शत्रु हुए बैठे हैं, क्या सिक्ख अतिवादी अपने समाज को उसी मार्ग पर ले जाना चाहते हैं?

क्या सिक्ख अतिवादियों को गुरु नानक की यह बात कभी याद आती है- नानक दुखिया सब संसारा? यह सारा संसार दुखों से भरा पड़ा है। संसार में दैहिक, दैविक और भौतिक तीन प्रार के दुख व्याप्त हैं। मनुष्य का पूरा जीवन इन तीनों दुखों से लड़ने में ही बीत जाता है। इन दुखों से लड़ने के लिए एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य का साथ और सहयोग चाहिए किंतु जब मानव-मानव का शत्रु होकर जिएगा तो दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों प्रकार के दुख हजार-हजार गुना होकर इंसानों को सताएंगे।

क्या सिक्ख अतिवादियों को उनके माता-पिता गुरु, किसी ने नहीं बताया कि भारत भूमि पर विशाल वटवृक्ष के रूप में विकसित सनातन धर्म की चार बड़ी शाखाएं वैदिक दर्शन, जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन एवं सिक्ख पंथ के रूप में विकसित हुई हैं। यह ठीक वैसे ही है, जैसे कि एक ही पिता के पुत्रों से अलग-अलग गोत्र चल पड़ते हैं।

क्या वे पुत्र आपस में एक-दूसरे को मारने की धमकी देते हैं? हिन्दू भी एक ओंकार को मानते हैं, सिक्ख भी एक ओंकार को मानते हैं, हिन्दू भी विष्णु की पूजा पुरुषोत्तम के रूप में तथा शिव की पूजा महाकाल के रूप में करते हैं, गुरु नानक ने भी ‘अकाल पुरुष’ को चरम सत्य माना है जिसने प्रकृति, माया, मोह, गुण, देवता, राक्षस और सारा जगत् बनाया है।

इस प्रकार आरम्भ से अंत तक पूरा का पूरा हिन्दू धर्म और पूरा का पूरा सिक्ख पंथ एक दूसरे के पर्याय ही हैं, इनमें कहीं कोई भेद नहीं है।

हिन्दू भी वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत पर चलता है और गुरु नानक भी एक नूर ते सब जग उपजा कौन भले कौन मंदे कहकर हिन्दू धर्म को जगाया। जब हमारे गुरु एक हैं तो हिन्दूधर्म और सिक्खपंथ अलग कहाँ हैं?

गुरुग्रंथ साहब में 541 भक्ति पद कबीर के, 60 भक्ति पद नामदेव के और 40 भक्ति पद संत रविदास के हैं। जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानंद, कबीर, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास जैसे वैष्णव भक्तों एवं हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह, भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप आदि हिन्दू कवियों के पदों से गुरुग्रंथ साहब भरा पड़ा है। फिर भेद कहाँ है, झगड़ा कहाँ है?

गुरु गोबिंदसिंह ने कहा था-

सकल जगत में खालसा पंथ गाजै, जगै हिन्दू धर्म सब भण्ड भाजै!

गुरु गोबिन्दसिंह ने ‘चण्डी’ की स्तुति की तथा रामकथा पर सुन्दर खण्डकाव्य लिखा। व्यवाहारिक रूप में सिक्ख गुरु, अवतारों तथा हिन्दू देवी- देवताओं में श्रद्धा रखते थे। सिक्ख ग्रन्थों में लिखा है-

रामकथा जुग जुग अटल, जो कोई गावे नेत।

स्वर्गवास रघुवर कियो, सगली पुरी समेत।

भारत की आजादी के समय सिक्खों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर अपने उन पड़ौसियों एवं सगे सम्बन्धियों के प्राणों की रक्षा की जो सिक्ख नहीं थे, हिन्दू थे। हिन्दुओं ने भी सिक्खों के लिए अपनी जान की बाजी लगाई।

भारत की आजादी के बाद सिक्खों को सरदारजी और सरदार साहब कहकर आदर दिया जाता था। सिक्ख भारत के प्रधानमंत्री बने, राष्ट्रपति बने, गृहमंत्री, वित्तमंत्री और विदेशमंत्री बने। सिक्ख तीनों सेनाओं के अध्यक्ष बने, पंजाब आदि प्रांतों में मुख्यमंत्री बने। सिक्ख योजना आयोग और वित्त आयोग के अध्यक्ष बने, चेयरमैन रेलवे बोर्ड बने।

डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउंटेंट, आईएएस, आईपीएस, आईएफएस, प्रोविंशियल सर्विसेज जैसी एक भी ऐसी प्रतिष्ठिति सेवा नहीं है, जिसमें सिक्ख अधिकारी न हों। फिर भेद कहाँ है, झगड़ा कहाँ है? हिन्दूधर्म और सिक्खपंथ अलग कहाँ हैं?

मुझे याद है कि जब हम छोटे बच्चे थे, तब हमारे पिताजी हमें हिन्दू मंदिरों के साथ-साथ, जब भी अवसर मिलता था, सिक्खों के गुरुद्वारे, सिंधियों के गुरुद्वारे, आर्यसमाज, जैन मंदिर तथा बौद्ध पेगोडा ले जाया करते थे। आज भी मेरी पीढ़ी के लोगों के लिए ये सब धर्मस्थल एक ही हैं, अपने ही हैं, इनसे हमें कभी परायापन अनुभव नहीं होता, न तब होता था और न आज होता है।

मैंने बद्रीनाथ, वैष्णो देवी और रामेश्वरम् के मंदिरों में सिक्खों को शिवलिंग पर जल चढ़ाते हुए, दुर्गाजी के समक्ष दीपक घुमाते हुए और हरिद्वार में गंगाजी नहाते हुए खूब देखा है। जब किसी हिन्दू बस्ती में किसी सिक्ख का घर होता था, तो सारे लोग होली दीवाली में उसके भी घर रामा-श्यामा करने जाते थे। वैशाखी और लोहड़ी जैसे त्यौहार तो आज भी सिक्ख और हिन्दू एक साथ ही मानते हैं। फिर झगड़ा कहाँ है।

जब कोई सिक्ख यह नारा लगाता है- जो बोले सो निहाल तो आगे की पंक्ति का सत् सिरी अकाल बोलने में हिन्दू सबसे आगे रहते हैं। बहुत से हिन्दू सिक्खों को देखकर सत् सिरी अकाल कहकर अभिवादन करते हैं। यदि दार्शनिक स्तर पर देखा जाए हिन्दूधर्म और सिक्खपंथ इतने निकट हैं कि इन्हें अलग करके देखना कठिन है।

इतनी सारी समरसताओं के उपरांत भी जब कुछ सिरफिरे अतिवादियों द्वारा हिन्दुओं के विरोध में कार्यवाही की जाती है, उन पर हिंसा की जाती है तो बहुत दुख होता है। सिक्ख अतिवादियों ने कनाडा, अमरीका, इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया आदि कई देशों में हिन्दुओं पर हमले किए हैं। अब भी समय है, यदि पूरा सिक्ख समाज एक होकर अपने परिवार के अतिवादी नौजवानों को सिक्ख धर्म के आदर्शों से परिचय करवाए तो मानवता का बहुत भला होगा।

आज पंजाब में लाखों सिक्ख परिवार थोड़े से पैसों के लालच में, चमत्कारों की भूल भुलैया में अथवा मीठी-मीठी बातों में आकर ईसाई हो रहे हैं। यदि सिक्ख अतिवादियों को सिक्ख पंथ की रक्षा करनी है तो अपना ध्यान उन ईसाई मिशनरियों पर केन्द्रित करे, न कि हिन्दुओं पर हमले करने में।

भारत विराधी ताकतों द्वारा फैंके जा रहे टुकड़ों पर पलने वाले अतिवादी सिक्ख कभी भी अपने परिवारों को शांति, सुरक्षा और उन्नति नहीं दे पाएंगे, अपना नहीं तो अपने परिवारों का तो सोचो! हिन्दूधर्म और सिक्खपंथ अलग कहाँ हैं?

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

राहुल गांधी का आचरण

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राहुल गांधी का आचरण

कांग्रेसी सांसद राहुल गांधी का आचरण एक बार फिर से सवालों के घेरे में है। राहुल गांधी वर्ष 2004 से सार्वजनिक जीवन में हैं। इस आलेख में उनके द्वारा सार्वजनिक रूप से किए जा रहे आचरण पर संक्षेप में चर्चा की गई है तथा यह समझने का प्रयास किया गया है कि राहुल गांधी द्वारा विगत बीस वर्ष में किया गया आचरण गुण्डागर्दी की श्रेणी में आता है या नहीं! यह भी समझने का प्रयास किया गया है कि क्या राहुल गांधी की सांसदी फिर से जाएगी!

19 दिसम्बर 2024 को भाजपा के सांसद निशिकांत दुबे ने संसद परिसर में सैंकड़ों सांसदों के बीच में राहुल गांधी को ‘गुण्डागर्दी करते हो, बूढ़े को गिरा दिया, शर्म नहीं आती’ कहकर धिक्कारा।

एक समय था जब संसद में पक्ष-विपक्ष के सांसदों में ऐसी गरिमामय नोंकझोंक होती थी कि उसे सुनने वाला भी आनंद से भर जाता था। एक बार भाजपा की सांसद विजयाराजे सिंधिया ने लोकसभा में अपनी सीट से खड़े होकर कहा कि दिल्ली में गुण्डागर्दी इतनी अधिक बढ़ गई है कि किसी सभ्य महिला का सड़क पर निकलना मुश्किल हो गया है। इस पर किसी कांग्रेसी सांसद ने हंसते हुए कहा था कि बहिनजी फिर आपको तो कोई मुश्किल नहीं होती होगी। कांग्रेसी सांसद की इस हाजिर जवाबी पर पूरी लोकसभा में जोर का ठहाका लगा था।

इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि संसद में गुण्डागर्दी पर चर्चा तब भी होती थी और आज भी होती है किंतु आज के कांग्रेसी सांसदों का अंदाज बदल गया है।

माना जाता है कि गुण्डा शब्द भारत में इटली से आया है। पांचवीं शताब्दी ईस्वी में इटली के शासक ऑलिब्रियस के समय में शासन की सारी शक्ति उसके प्रधानमंत्री रिसीमेर और उसके भतीजे गुण्डोबैड के हाथों में रही। गुण्डोबैड इतना बुरा व्यक्ति था कि इटैलियन और अंग्रेजी भाषाओं में ‘गुण्डा’ एवं ‘बैड’ शब्द ‘बुराई’ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगे।

बात इधर-उधर न चली जाए, इसलिए वापस मूल विषय पर अर्थात् राहुल गांधी पर आते हैं। राहुल गांधी पर आरोप है कि उन्होंने 19 दिसम्बर 2024 को भाजपा के दो सांसदों को धक्का दिया जिससे दोनों को गंभीर चोटें लगीं और उन्हें आईसीयू में भर्ती करवाकर उनका एमआरआई करवाना पड़ा।

राहुल गांधी ने बीजेपी के सांसदों को धक्का दिया या नहीं, राहुल गांधी का यह कृत्य गुण्डागर्दी की परिभाषा में आता है या नहीं, यह तो भविष्य ही बताएगा जब पुलिस के अनुसंधान और न्यायालयों की बहसों के बाद अंतिम निर्णय निकलेगा।

राहुल गांधी का सबसे पहला आपत्तिजनक आचरण तब सामने आया था, जब उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा बनाए गए एक कानून को सार्वजनिक मंच पर फाड़कर फैंका था। ऐसी हरकत राहुल गांधी को क्या सिद्ध करती है?

राहुल गांधी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक को मोहनदास कर्मचंद गांधी की हत्या के लिए बिना किसी आधार पर सैंकड़ों बार हत्यारा कहा और अंत में उन्हें कोर्ट में जाकर अपने इस गैरजिम्मेदार आचरण के लिए माफी मांगनी पड़ी। राहुल गांधी का यह आचरण किस श्रेणी में आता है?

राहुल गांधी ने भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री के लिए एक बार सार्वजनिक रूप से कहा कि बेरोजगारी इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि देश का युवा नरेन्द्र मोदी को सड़कों पर जूतों से पीटेगा। ऐसा भड़काऊ बयान देकर क्या राहुल गांधी देश के युवाओं को हिंसा का मार्ग आपाने के लिए कह रहे थे? राहुल का यह आचरण क्या उन्हें किसी सभ्य इंसान की श्रेणी में रखता है?

राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए असम्मानजनक एवं हल्के शब्दों का प्रयोग सार्वजनिक रूप से कई बार किया है। राहुल गांधी ने नरेन्द्र मोदी के संदर्भ में सार्वजनिक रूप से यह तक कहा कि सारे मोदी चोर क्यों होते हैं? इस वक्तव्य पर राहुल गांधी की सांसदी तक चली गई थी। मामला अब भी सुप्रीम कोर्ट में लम्बित है।

2019 के लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी ने सार्वजनिक सभाओं में चौकीदार चोर है के नारे लगवाकर देश के प्रधानमंत्री को बदनाम करने का कुकृत्य किया।

राहुल गांधी संसद में सम्पूर्ण हिन्दू जाति को हिंसक कह चुके हैं। क्या सम्पूर्ण हिन्दू जाति को हिंसक बताने वाली भाषा किसी भी जिम्मेदार आदमी की हो सकती है?

19 दिसम्बर को ही नागालैण्ड के एक आदिवासी समुदाय से आने वाली सांसद ने लोकसभा अध्यक्ष के समक्ष एक शिकायत प्रस्तुत की है कि राहुल गांधी ने मेरे एकदम निकट आकर मुझे डांटा। राहुल मेरे इतने पास आ गए कि मुझे अपमान का अनुभव हुआ। क्या यह हरकत किसी सभ्य मनुष्य की हो सकती है? राहुल गांधी तो एक प्रधानमंत्री के पुत्र हैं, एक प्रधानमंत्री के पोते हैं, एक प्रधानमंत्री के पड़पोते हैं। इतनी शालीन विरासत के बावजूद कोई आदमी सार्वजनिक आचरण के सामान्य सिद्धांत सीखने से कैसे वंचित रह सकता है।

इस प्रकार राहुल गांधी सार्वजनिक रूप से जिस शब्दावली का प्रयोग करते रहे हैं उसे सभ्य नहीं माना जाता किंतु सहन कर लिया जाता है किंतु राहुल गांधी ने 19 दिसम्बर 2024 को संसद परिसर में जो आचरण किया है, वह आचरण कानून की परिभाषा में राहुल गांधी को क्या सिद्ध करेगा, यह तो अब कोई न्यायालय ही तय करेगा किंतु जनता अपने नेताओं से इस तरह के आचरण की अपेक्षा नहीं करती, शायद उसे सहन भी नहीं करना चाहेगी। क्या राहुल की सांसदी फिर से जाएगी, क्या वे जेल जाएंगे, क्या होगा, यह सब भविष्य के गर्भ में है।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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