Wednesday, September 11, 2024
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कोट पर जनेऊ डालकर घूमने वाले से डरते हैं लोग!

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कोट पर जनेऊ
कोट पर जनेऊ

भारत में कानून के दायरे में रहकर जिंदगी जीने वाला कोई भी व्यक्ति किसी से नहीं डरता किंतु कोट पर जनेऊ डालकर घूमने वाले से हर कोई डरता है! यह अनोखा क्रांतिकारी अमरीकियों से हमारी जाने क्या शिकायत कर आए, यह सोचकर हर कोई भयभीत रहता है।

राहुल गांधी ने अमरीका वालों से जाकर शिकायत की है कि भारत में सिक्ख पगड़ी नहीं पहन पा रहे हैं, कड़ा नहीं पहन पा रहे हैं, गुरुद्वारों में नहीं जा पा रहे हैं। अब पता नहीं अमरीका वाले भारत वालों को इस बात के लिए कितना डांटेंगे, फटकारेंगे, कितनी लानत-मलानत करेंगे और वित्तीय प्रतिबंध लगाएंगे! भारत के लोगों को डरना चाहिए, सचमुच!

समझ में नहीं आता कि जब इस देश में राहुल गांधी कोट पर जनेऊ ओढ़कर शिवमंदिरों में घुसे, तब भी उन्हें किसी ने नहीं रोका तो भला सिक्खों को उनके अपने देश भारत में पगड़ी बांधकर गुरुद्वारों में जाने से कौन रोक सकता है!

राहुल गांधी को शायद पता नहीं है कि प्रच्छन्न रूप से जिस हिन्दू जाति पर वे सिक्खों को पगड़ी नहीं पहनने देने का अरोप लगा रहे हैं, वस्तुतः वह हिन्दू जाति ही पगड़ी पहनकर सिक्ख बनी है। यह बात 325 साल से अधिक पुरानी नहीं है जब गुरु गोविंद सिंह ने पांच हिन्दुओं के सिरों पर पगड़ी बांधते हुए कहा था-

सकल जगत में खालसा पंथ गाजे। जगे धर्म हिन्दू तुरक धुंध भाजे।।

राहुल गांधी ने अमरीका वालों से जाकर यह भी कहा है कि अब भारत में लोग नरेन्द्र मोदी से नहीं डरते। जैसे ही 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजे आए, विदिन मिनिट्स लोगों का डर दूर हो गया। इसका श्रेय मुझे अर्थात् राहुल गांधी को नहीं जाता, इसका श्रेय कांग्रेस को और समस्त विपक्षी दलों को जाता है।

अरे भई एक ओर तो आप यह कह रहे हैं कि भारत में सिक्ख इतने डरे हुए हैं कि पगड़ी पहनकर गुरुद्वारों में नहीं जा पा रहे और दूसरी ही सांस में कह रहे हैं कि लोग अब नरेन्द्र मोदी से नहीं डर रहे!

पहले यह तो तय कर लीजिए कि लोग डर रहे हैं कि नहीं डर रहे! या केवल सिक्ख डर रहे हैं और बाकी लोगों का डर लोकसभा चुनावों के बाद दूर हो गया है क्योंकि कांग्रेस को 99 या 98 सीटें मिल गईं!

एक बात और समझ में नहीं आई कि लोग नरेन्द्र मोदी से क्यों डरेंगे? क्या कोई कानूनी दायरे में रहकर जीने वाला नागरिक अपने ही देश के प्रधानमंत्री से डरता है? प्रधानमंत्री तो देश के लोगों द्वारा ही चुना गया होता है। देश का प्रधानमंत्री तो देश के लोगों का संरक्षक होता है, हितैषी होता है और विश्वसनीय मित्र होता है। ऐसे व्यक्ति से लोग क्यों डरेंगे?

क्या भारत के लोग नरेन्द्र मोदी के पहले के किसी भी प्रधानमंत्री से डरते थे? जिस समय देश अंग्रेजों के अधीन था, उस समय भी भारत के लोग इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनल्ड, चैम्बरलेन, विंस्टन चर्चिल और क्लेमेंट एटली आदि से नहीं डरते थे, तो भारत के लोग आजादी के 75 साल बाद नरेन्द्र मोदी से क्यों डरेंगे?

एक बार को यदि यह मान भी लिया जाए कि भारत के लोग अपने ही प्रधानमंत्री से डरे तो इसके केवल दो ही उदाहरण हैं, यदि सिक्ख डरे तो राजीव गांधी के शासन काल में और हिन्दू डरे तो केवल इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपात् काल में।

अब नरेन्द्र मोदी के शासन काल में कौन डर रहा है भाई! मुसलमान तो खुद कहते हैं कि हम किसी से नहीं डरते। यह तो केवल राहुल गांधी ही हैं जो कुछ दिन पहले तक यह कहते फिरते थे कि देश का मुसलमान डरा हुआ है। अगली ही सांस में यह भी कहते थे कि मैं नरेन्द्र मोदी से नहीं डरता।

समझ में नहीं आता कि वह कौनसा डर है जिसकी बात हर समय राहुल गांधी किसी न किसी बहाने से किया करते हैं! यह डर काले साये की भांति राहुल गांधी के अवचेतन पर नहीं तो कम से कम जिह्वा पर अवश्य आकर बैठ गया है। कहीं यह सत्ता से वंचित रह जाने का भय तो नहीं है?

संभवतः राहुल गांधी को भय है कि प्रधानमंत्री की जिस कुर्सी पर उनके पिता, दादी और दादी के पिता बरसों-बरस बैठे रहे, उस कुर्सी तक वे कभी नहीं पहुंच पाएंगे। कांग्रेस बुद्धिजीवियों की पार्टी है, क्या कोई राहुल गांधी को समझाएगा कि प्रधानमंत्री बनने के लिए क्या करना पड़ता है!

यदि आज तक राहुल गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी के कुछ नजदीक तक भी नहीं पहुंच पाए तो इसमें कोई क्या कर सकता है। वे बातें ही ऐसी अटपटी, और बचकानी करते हैं और विदेश में जाकर कहते हैं कि भारत में चुनाव निष्पक्ष नहीं होते। जब चुनाव निष्पक्ष होते ही नहीं है तो फिर राहुल अपने लिए कौनसा सुनहरा भविष्य देख रहे हैं?

एक बात और यदि इस देश का आदमी किसी से डरा हुआ है तो केवल उस आदमी से डरा हुआ है जो कोट पर जनेऊ डालकर अपने आप को दत्तात्रेय गोत्र का ब्राह्मण बताता है और मुसलमानों एवं दलितों का स्वघोषित नेता बनता है। यदि किसी का दिल दलितों के लिए वाकई धड़कता है है तो वह स्वयं को दत्तात्रेय ब्राह्मण घोषित क्यों करता है?

जब अपनी जाति अपनी मर्जी से ही घोषित करनी है तो स्वयं को दलित घोषित क्यों नहीं करते? क्या इसमें वे अपना अपमान समझते हैं? जब भारत में कोई व्यक्ति कोट पर जनेऊ डालकर स्वयं को ब्राह्मण बता सकता है तो स्वयं को दलित क्यों नहीं बता सकता!

आजकल तो वैसे भी हिन्दू तीर्थों पर बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमान गले में जनेऊ डालकर बैठ गए हैं, वे शायद कोट पर जनेऊ डालकर नहीं बैठ सकते! यदि भारत के लोग वाकई में किसी से डरे हुए हैं तो हिन्दू तीर्थों में बैठे इन जनेऊ धारी रोहिंग्याओं से डरे हुए हैं। कोट पर जनेऊ पहनने वालों से तो एक-दो चुनावों के बाद पीछा छूट जाएगा किंतु इन जनेऊ धारी रोहिंग्याओं से पीछा जाने कैसे और कब छूटेगा!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मोहन भागवत आखिर चाहते क्या हैं?

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मोहन भागवत एवं नरेन्द्र मोदी

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत की बात करने से पहले एक छोटी सी कहानी।

तीर्थयात्रा पर जा रहे एक वृद्ध दम्पत्ति भोजन करने के लिए एक ढाबे में आए। उन्होंने एक थाली भोजन मंगवाया। पहले पति ने भोजन किया और उनकी वृद्धा पत्नी पंखा झलती रहीं। जब पति भोजन कर चुके तो पत्नी ने भोजन आरम्भ किया तथा वृद्ध पति पंखा झलने लगे। ढाबे का स्वामी वृद्ध-दम्पत्ति के इस प्रेम भाव को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला- महाशय आप लोगों का जीवन धन्य है, इस आयु में भी आपके जीवन में इतना प्रेम है! पति ने मुस्कुराते हुए कहा कि प्रेम-व्रेम तो जो है सो है, किंतु कुछ मजबूरी भी है। हमारे पास दांतों का सैट एक ही है।

इस छोटी सी कहानी के बाद मैं आरएसएस और बीजेपी पर आता हूँ और उसके बाद मोहन भागवत पर आऊंगा। आरएसएस और बीजेपी का सम्बन्ध पति-पत्नी वाला नहीं है अपितु माँ-बेटे जैसा है। संघ के हृदय से बीजेपी प्रकट हुई है। इन दोनों के पास भी दांतों का एक ही सैट है। दांतों के इस सैट का नाम है- हिन्दुत्व। 

आएसएस ने बीजेपी को जन्म ही नहीं दिया अपितु पाल-पोस कर इतना बड़ा भी किया कि बीजेपी अटल बिहारी वाजपेयी के समय में आठ साल तक देश पर शासन कर चुकी है तथा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश पर विगत साढ़े दस साल से शासन कर रही है।

अटल बिहारी वाजपेयी तो पूरे आठ साल गठनबंधन की सरकार होने का हवाला देकर देश में एक भी ऐसा काम नहीं कर सके जिसके कारण इतिहास उन्हें याद रख सके किंतु उस सरकार की इतनी उपलब्धि अवश्य थी कि उसने पूरे आठ साल तक ताकतवर राजनीतिक जोंकों को देश का रक्त नहीं चूसने दिया।

अपने अब तक के कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार ने बहुत से ऐसे काम किए हैं जिनके लिये उसे इतिहास में याद किया जाएगा। जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाई। लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग किया। राममंदिर का भव्य निर्माण करवाया। कोरोना के संकट से सबसे पहले उबरने वाला देश भारत ही था जिसके कारण करोड़ों लोगों का जीवन बचा।

नरेन्द्र मोदी सरकार ने वैश्विक स्तर पर भारत की छवि शक्तिशाली देश के रूप में स्थापित की। देश की अर्थव्यवस्था को संसार भर की आर्थिक शक्तियों की पंक्ति में लाकर खड़ा किया। रूस-यूक्रेन युद्ध में स्वयं को पूरी तरह अंतर्राष्ट्रीय दबावों से मुक्त रखा।

नरेन्द्र मोदी सरकार ने अमरीका के लाख विरोधी प्रयासों के बावजूद रूस से सस्ता तेल खरीद कर भारत के अरबों रुपए बचाए। जो बाइडेन ने क्वार्ड की आड़ में लाख प्रयास किया कि भारत चीन से भिड़ जाए किंतु नरेन्द्र मोदी सरकार ने चीन को बिना युद्ध किए ही अपनी सीमाओं पर नियंत्रित किया तथा भारत-पाकिस्तान के बीच चलने वाली रेल एवं बस सेवाओं तथा व्यापार को बंद करके, शत्रुवत् व्यवहार कर रहे पाकिस्तान के हाथ में भीख का कटोरा थमा दिया।

नरेन्द्र मोदी सरकार ने वंदे भारत जैसी शानदार ट्रेनें चलाईं। चौदह नए एम्स बनाए। घर-घर शौचालय बनवाए। साढ़े तीन करोड़ परिवारों को पक्के घर दिलवाए। देश के 140 करोड़ लोगों में से 80 करोड़ लोगों को निःशुल्क राशन उपलब्ध करवाया तथा एक करोड़ निर्धन परिवारों को निशुल्क गैस कनैक्शन दिए।

जन-धन योजना, किसानों को सब्सीडी, युवाओं को रोजगार आदि-आदि की बात करें तो बात लम्बी हो जाएगी किंतु इन शानदार उपलब्धियों के समक्ष, नरेन्द्र मोदी से पहले की सरकारें बहुत बौनी दिखाई देती हैं।

आज उत्तर प्रदेश में आदित्यनाथ योगी, असम में हेमंत बिस्वा, राजस्थान में भजनलाल शर्मा तथा मध्यप्रदेश में मोहन यादव की सरकारें अपराधियों के अवैध घरों पर बुलडोजर चला रही हैं, तो उनके पीछे भी नरेन्द्र मोदी सरकार का ही वरद हस्त है। अन्यथा बीजेपी शासित राज्यों में ऐसी कार्यवाहियां कदापि संभव नहीं थीं।

आदित्यनाथ योगी के शासन में उत्तर प्रदेश पुलिससाढ़े तेरह हजार से अधिक एनकाउंटर कर चुकी है। क्या केन्द्र सरकार के सहयोग एवं समर्थन के बिना कोई राज्य सरकार ऐसा साहसिक कार्य कर सकती थी!

उज्जैन मंदिर परिसर का विस्तार एवं सौंदर्यीकरण, वाराणसी मंदिर का उद्धार एवं विस्तार, केदारनाथ मंदिर का विकास आदि जैसे महत्वपूर्ण कार्य भी नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में उन प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों द्वारा किए गए।

गुजरात के काण्डला पोर्ट के आस-पास सैंकड़ों एकड़ जमीन पर किए गए कब्जे, भेंट द्वारिका में बनाई गई अवैध मजारें और मस्जिदें, उत्तराखण्ड में सरकारी भूमियों पर बनाई गई मजारें और मस्जिदें, द्वारिका में मुसलमान नाव चालकों द्वारा हिन्दू तीर्थयात्रियों पर की जा रही मनमानियों आदि को रोकने के काम बीजेपी की प्रदेश सरकारों द्वारा किए गए हैं।

इतनी सारी उपलब्धियों के बावजूद देश का एक बड़ा वर्ग नरेन्द्र मोदी से नाराज है। कोई जीएसटी को लेकर दुखी है, कोई रेल किराए में वृद्धजनों को मिलने वाली छूट के बंद होने से दुखी है, कोई बैंक खातों में ब्याज दरों के कम होने से दुखी है। कोई आयकर में छूट की वृद्धि से असंतुष्ट है। कुछ लोग टोल नाकों पर हो रही वसूली से नाराज हैं।

बहुत से लोग तो इसलिए दुखी हैं कि नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा चलाई गई व्यक्तिगत लाभ की योजनाओं का अधिकांश लाभ उन लोगों ने लूट लिया जो कभी भी बीजेपी को वोट नहीं देते। बहुत से लोग इसलिए दुखी हैं कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने ममता बनर्जी की सरकार को बर्खास्त नहीं किया।

बहुत से लोग इसलिए भी नरेन्द्र मोदी से नाराज हैं कि राहुल गांधी, सोनिया गांधी एवं प्रियंका वाड्रा को नेशनल हेराल्ड आदि प्रकरणों में जेल में बंद नहीं किया गया। रॉबर्ट वाड्रा पर बॉर्डर पर भूमि खरीदने के मामले में भी कार्यवाही नहीं हुई।

कुछ बड़े मुद्दे भी हैं जिन पर नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा कार्यवाही किए जाने की अपेक्षा बीजेपी के प्रत्येक समर्थक को थी। वक्फ बोर्ड पर जो संशोधित कानून अब लाया गया है, वह पिछले दस सालों में क्यों नहीं आया? धर्मस्थलों के सम्बन्ध में नरसिम्हा राव सरकार द्वारा 1947 की स्थिति को बहाल रखने वाला कानून अब तक रद्द क्यों नहीं किया गया? संविधान से धर्मनिरपेक्ष एवं समाजवाद शब्द क्यों नहीं हटाए गए? आदि।

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आम जनता की नाराजगी की बातें समझ में आती हैं किंतु यह बात समझ में नहीं आती कि मोहन भागवत नरेन्द्र मोदी से क्यों नाराज हैं? क्यों वे बार-बार यह दोहराते हैं कि स्वयंसेवक को घमण्ड नहीं होना चाहिए। स्वयंसेवक को स्वयं को भगवान नहीं समझना चाहिए। स्वयंसेवक को जनता का सेवक होना चाहिए।

मोहन भागवत भले ही नाम न लें किंतु बीजेपी के समर्थकों एवं विरोधियों दोनों को समझ में आता है कि वह स्वयंसेवक कौन है जो मोहन भागवत की दृष्टि में घमण्डी हो गया है और स्वयं को भगवान समझने लगा है!

न तो नरेन्द्र मोदी ने कभी यह कहा कि मैं भगवान हूँ, न उन्होंने घमण्ड वाली ऐसी कोई बात कही, न उन्होंने कभी किसी सफलता का श्रेय स्वयं लिया। नरेन्द्र मोदी ने केवल इतना कहा कि भगवान की मुझ पर विशेष कृपा है और इस अच्छे कार्य के लिए भगवान ने मुझे चुना! मोदी और उनके समर्थक इतना अवश्य कहते हैं कि ये मोदी की गारण्टी है! मोदी है तो मुमकिन है! ये जुमले जनता का विश्वास जीतने के लिए गढ़े गये हैं न कि मोदी के घमण्ड का प्रदर्शन करने के लिए!

जनता इतना अवश्य समझती है कि एक ओर नरेन्द्र मोदी हैं जो संसद में खड़े होकर कहते हैं कि अब सनातन को भी (अपनी सुरक्षा के लिए) सोचना पड़ेगा और दूसरी ओर भागवत हैं जो कहते हैं कि सब अपने हैं और सब हिन्दू हैं। सबका डीएनए एक है और भारत में रहने वाले सब हिन्दू हैं। यदि मोहन भागवत की बात सही है तो फिर देश में आए दिन दंगे क्यों होते हैं?

समझ नहीं आता कि मोहन भागवत आखिर चाहते क्या हैं? वे साफ-साफ क्यों नहीं कह देते? ऐसा तो नहीं हो सकता कि मोहन भागवत यह न समझ सकें कि उनके मुख से निकले शब्दों से जनता में क्या संदेश जा रहा है! फिर वे इस ओर से सतर्क क्यों नहीं हैं?

आरएसएस के स्वयंसेवक जब भी मोहन भागवत का नाम लेते हैं तो उन्हें परम पूज्य कहते हैं। क्या यह अहंकार नहीं है, क्या संतों और महात्माओं के अतिरिक्त और कोई पूज्य अथवा परम पूज्य होता है? मोहन भागवत से तो किसी ने नहीं कहा कि आप स्वयं को परम पूज्य कहने वालों को ऐसा कहने से क्यों नहीं रोकते!

मोहन भागवत यह अवश्य ही समझते होंगे कि आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत से अधिक लोकप्रिय हैं। यदि उन्होंने मोदी की छवि को नुक्सान पहुंचाया तो उस नुक्सान का कुछ हिस्सा स्वयं मोहन भागवत के हिस्से में भी आएगा, क्योंकि आखिर दोनों के पास दांतों का तो एक ही सैट है- हिन्दुत्व।

मोहन भागवत और नरेन्द्र मोदी को दांतों के इस सैट की सुरक्षा मिलकर करनी चाहिए। दांतों का यह सैट केवल उन दोनों की ही सम्पत्ति नहीं है, भारत की धर्मप्राण हिन्दू जनता के पास भी दांतों का केवल यही एक सैट है। यदि आरएसएस एवं बीजेपी के मुखियाओं की लड़ाई से हिन्दुत्व के पुनः गौरव प्राप्त करने के अभियान को क्षति पहुंची तो किसी के पास कुछ नहीं बच पाएगा!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

रेल कर्मचारी हैं कि अराजक तत्व!

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वंदे भारत ट्रेन को हरी झण्डी दिखाते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

इन दिनों आगरा एवं गंगापुर सिटी मण्डलों के रेल कर्मचारी उदयपुर-आगरा कैंट वंदे भारत ट्रेन के संचालन को लेकर आपस में जो मारपीट कर रहे हैं, उसने संसार के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान भारतीय रेल की संस्कृति का सिर शर्म से झुका देने जैसा काम किया है। यह मारपीट कई दिनों से चल रही है।

रेल मण्डलों के कर्मचारियों के बीच ट्रेनों के संचालन को लेकर विवाद की घटनाएं पहले भी होती थीं किंतु इस बार कुछ रेल कर्मचारी अपने ही साथियों के साथ ऐसी मारपीट कर रहे हैं, जिसके वीडियो देखकर हैरानी होती है!

अराजकता पर उतरे रेल कर्मचारियों ने 7 सितम्बर को अपने साथी रेलवे गार्ड के कपड़े फाड़कर और स्टेशन पर घसीट कर पीटा। रेल कर्मचारियों ने गार्ड एवं चालक के केबिन के कांच के शीशे और ताले भी तोड़ दिए। ये उद्दण्ड रेल कर्मचारी समझ रहे होंगे कि ऐसा करके उन्होंने अपनी बहादुरी का परिचय दिया किंतु ऐसी मारपीट तो गुण्डे किया करते हैं!

दोनों मण्डलों के रेल कर्मचारी चाहते हैं कि इस रेल का संचालन उनके पास रहे। संभव है कि दोनों तरफ के कर्मचारियों के अपने-अपने कुछ मुद्दे हों किंतु उन्हें सुलझाने के लिए क्या मारपीट और तोड़फोड़ के ही तरीके बचे हैं! जब रेल के भीतर ही रेल कर्मचारी सुरक्षित नहीं रहेंगे तो कहाँ रहेंगे?

रेल-कर्मचारियों के लिए रेल उतनी ही आदरणीय है जितनी कि किसी व्यक्ति की माँ होती है। भारतीय रेल, कर्मचारी और उसके परिवार का पेट भरने वाली माँ नहीं तो और क्या है? क्या कोई अपनी माँ को क्षति पहुंचाता है? क्या कोई कर्मचारी किसी के कपड़े फाड़ता है? क्या सभ्य समझ में ऐसी हरकतें सहन की जा सकती हैं?

रेल कर्मचारी भारत में सबसे अधिक अनुशासित कर्मचारियों में माने जाते हैं। ये लोग घड़ी देखकर जीवन जीने के अभ्यस्त होते हैं। उनके प्रत्येक कार्य में अनुशासन इस तरह घुल जाता है जिस तरह फूल में सुगंध। आगरा एवं गंगापुर सिटी के संचालन को लेकर मारपीट और तोड़-फोड़ कर रहे कर्मचारी फूल और सुगंध दोनों को कुचल रहे हैं।

भारतीय रेल एक अखिल भारतीय संस्थान है, इसमें क्षेत्रीयता, प्रादेशिकता, भाषा, जाति जैसी संकीर्णताएं नहीं हैं। इसी कारण भारतीय रेल ने पूरे संसार में अपनी अलग पहचान बनाई है। रेल कर्मचारियों ने तो अपने प्राणों की बाजी लगाकर भारतीय सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाया है तथा अपने देश की रक्षा की है। गडरा रोड का स्मारक ऐसी गौरवमयी घटनाओं के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

रेल को क्षतिग्रस्त करके इन रेलकर्मचारियों ने अपनी घिनौनी प्रवृत्ति का परिचय दिया है। रेल कर्मचारी, रेल का मालिक नहीं है, रेल का नौकर है। क्या नौकर अपने मालिक पर हाथ उठाता है? क्या ऐसा काम करने वाला रेल कर्मचारी अपने लिए किसी भी पक्ष की भी सहानुभूति की आशा कर सकता है?

अनुशासनहीन एवं अराजकता के स्तर तक उद्दण्ड हो चुके रेल कर्मचारियों को तुंरत सेवा से बर्खास्त किया जाना चाहिए तथा रेलवे स्टेशन पर उत्पात मचाने के अपराध में जेल भी भेजा जाना चाहिए।

भारतीय रेल के संवर्द्धन एवं संरक्षण में रेलवे बोर्ड की बड़ी भूमिका रही है। इसका गठन बहुत मजबूत विधायी शक्तियों के साथ हुआ है। इन्हीं शक्तियों के बल पर रेलवे बोर्ड संसार के सबसे बड़ी संख्या वाले कर्मचारी संस्थान का संचालन बिना किसी बाधा के करता है।

रेलवे बोर्ड की मजबूती का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आजादी के बाद बहुत से राजनेताओं ने रेलवे बोर्ड को कमजोर करके इसमें राजनीति के छल-कपट घुसाने का प्रयास किया किंतु उनके सभी प्रयास असफल रहे। आशा की जानी चाहिए कि रेलवे बोर्ड कर्मचारियों की उद्दण्डता से सख्ती से निबटेगा ताकि रेलवे की संस्कृति की सर्वोच्चता बनी रहे।

रेलवे प्रबंधन के साथ-साथ रेलवे यूनियन्स को भी इस ओर ध्यान देना चाहिए कि कैसे रेल कर्मचारी अनुशासन में रहें, कैसे वे रेल की शान को संसार में सबसे ऊपर रखें, कैसे वे स्वयं गरिमामय जीवन जिएं तथा कैसे वे अपने जीवन को जनता की सेवा में समर्पित करके एक पुष्प की तरह महकें।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

जातीय जगनणना में दूर खड़ी मुस्कुराएंगी सवर्ण जातियाँ !

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जातीय जगनणना - bharatkaitihas.com
जातीय जगनणना - उल्टा पड़ेगा दांव!

जातीय जगनणना से पहले सवर्ण जातियों में जो बेचैनी दिखाई दे रही है, वह शीघ्र उन जातियों में स्थानांतरित हो जाएगी जो जातीय जगनणना के परिणाम स्वरूप किसी बड़े लाभ का गणित लगा रही हैं!

एक पुरानी कहावत है- भुस में आग लगाय, जमालो दूर खड़ी मुसकाय। जमालो तब तक ही मुस्कुरा सकती है जब तक वह दूसरों के भूसे में आग लगाती है। इस बार जमालो ने ओवर कॉन्फिडेंस में अपने ही भूसे में आग लगा ली है। अब जमालो नहीं मुस्कुराएगी, वह पछताएगी और पूरा गांव दूर खड़ा होकर जमालो का तमाशा देखेगा!

ऐसा ही कुछ हाल जातीय जगनणना वाले मामले में कांग्रेस का होने वाला है। कांग्रेस पिछले कुछ सालों से जातीय जनगणना के भूसे में आग लगाने का प्रयास कर रही है। अब ऐसा लग रहा है कि पूरा गांव भूसे में आग लगाने को तैयार है। पता नहीं क्यों कांग्रेस इस बात की अनदेखी कर रही है कि जिस भूसे में आग लगने वाली है, उससे कांग्रेस का ही सबसे अधिक नुक्सान होने वाला है!

लोकसभा चुनाव 2024 में दलित जातियां, पिछड़ी जातियां और मुसलमान वोटर जिस बड़ी संख्या में कांग्रेस के साथ जुड़ा, उससे कांग्रेस को लगता है कि जातीय जनगणना के मुद्दे को उछाल कर कांग्रेस 52 से 99 पर पहुंची है। संभवतः इसीलिए कांग्रेस ने जातीय जनगणना के मुद्दे को कस कर पकड़ लिया।

कांग्रेस को लगता था कि सरकार कभी भी जातीय जनगणना के लिए तैयार नहीं होगी और कांग्रेस इस मुद्दे को भुनाकर 99 से 272 पर पहुंच जाएगी किंतु दांव उलटा भी पड़ सकता है, ऐसा कांग्रेस ने क्यों नहीं सोचा?

भाजपा अब तक इस मुद्दे पर असमंजस में थी कि कहीं इससे समाज में जातीय वैमनस्य न फैल जाए किंतु अब लगता है कि भाजपा ने कांग्रेस के हाथ से यह मुद्दा छीनने के लिए जातीय जनगणना करवाने का मन बना लिया है।

जातीय जनगणना से सवर्ण जातियों को कुछ फर्क तो पड़ेगा किंतु अधिक फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि उन्हें पता है कि उनकी संख्या देश में एक तिहाई से अधिक नहीं है। वैसे भी अब पढ़ा-लिखा सवर्ण युवा सरकारी नौकरी में नहीं जाता, प्राइवेट सैक्टर के पैकेज के पीछे भागता है।

जातीय जनगणना से फर्क उन जातियों को पड़ेगा जो विगत कुछ दशकों से आरक्षण की मलाई खाती आ रही हैं। जातीय जनगणना के बाद इस मलाई पर वे जातियां हक जताएंगी जो आरक्षण में रहकर भी इसका कोई लाभ नहीं उठा सकी हैं। उन्हें आरक्षण के नाम पर बुरी तरह से ठगा गया है।

मनमोहनसिंह सरकार द्वारा करवाए गए आर्थिक सर्वेक्षण में 37 लाख से अधिक जातियों की सूची बनाई गई थी। यदि जातीय जनगणना के नाम पर फिर से वैसी ही एक नई सूची बनवाई जाए तो जातीय जनगणना का कोई अर्थ नहीं होगा।

अतः बहुत अधिक संभावना है कि जब किसी परिवार की जाति लिखी जाएगी तो अगले कॉलमों में यह भी लिखा जाए कि उस परिवार के पास भूमि कितनी है, भैंसें कितनी हैं, वाहन कितने हैं, ट्रैक्टर कितने हैं, मकान कितने हैं, सरकारी नौकरियों में सदस्य कितने हैं?

जैसे ही यह सूची तैयार होकर सामने आएगी, वैसे ही उन आरक्षित जातियों के भीतर बेचैनी उत्पन्न होगी जिनके पास कोई भूमि, भैंस, ट्रैक्टर वाहन, मकान और नौकरी आदि नहीं होंगे। वे अपने लिए कोटा के भीतर कोटा और क्रीमी लेयर जैसी मांगें करेंगे जिनके लिए सुप्रीम कोर्ट पहले से ही अपनी राय व्यक्त कर चुका है और कुछ निर्देश भी दे चुका है।

अब तक दलित वर्ग में आरक्षण का बड़ा हिस्सा खा रहीं यूपी की जाटव और बिहार की पासवान जैसी जातियां, जनजाति वर्ग में मीणा, ओबीसी वर्ग में कुर्मी और यादव जैसी जातियां, राजस्थान में जाट, माली और चारण जैसी जातियाँ संभवतः आरक्षण का वैसा लाभ न ले सकें जैसा वे अब तक लेती आई हैं।

वैसे भी अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल यादव, जाट, मीणा, माली चारण, आदि बहुत सी जातियाँ उच्च वर्ण जातियां हैं, सामाजिक एवं आर्थिक आधार पर वे ठीक वैसी ही है जैसी कायस्थ, राजपुरोहित, या अन्य पढ़ी-लिखी एवं सम्पन्न जातियां हैं। यादव, जाट, मीणा, माली, चारण में से एक भी जाति ऐसी नहीं है जिन्हें आजादी से पहले या बाद में, सवर्ण समाज अपने साथ बैठाकर भोजन नहीं करता था अथवा उनके घर भोजन करने नहीं जाता था।

दलित एवं ओबीसी वर्ग की जिन जातियों से लोग मुख्यंत्री, प्रधानमंत्री, राज्यपाल एवं राष्ट्रपति बनते हैं, वे पिछड़े हुए कैसे हो सकते हैं! क्योंकि इन पदों के लिए कोई आरक्षण नहीं है!

दूसरी ओर दलित वर्ग को ही लें, इनके भीतर की स्थिति ऐसी है कि यदि बिहार की पासवान जाति की तुलना मुसहरा जाति से की जाए तो पासवान की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति मुसहरे की तुलना में वैसी ही है जैसे अम्बानी और अडाणी के कारखानों के सामने पेड़ के नीचे बैठकर दांतुन बेचने वाला लड़का।

राजस्थान सरकार द्वारा वर्ष 2012 में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व जांचने के लिये करवाए गए सर्वे के अनुसार राज्य में 23 पिछड़ी जातियों का एक भी सदस्य सरकारी नौकरी में नहीं था। इन जातियों के नाम इस प्रकार थे- गाड़िया लोहार, बागरिया, हेला मोगिया, न्यारिया, पटवा, सतिया-सिंधी, सिकलीगर, बंदूकसाज सिरकीवाल, तमोली, जागरी, लोढ़े-तंवर, खेरवा, कूंजड़ा, सपेरा, मदारी, बाजीगर, नट, खेलदार, चूनगर, राठ, मुल्तानी, मोची, कोतवाल तथा कोटवाल।

जातीय जगनणना के बाद ये जातियाँ सामने आएंगी और वे आरक्षित जातियों से अपने हिस्से का लाभ मांगेंगी। इस कारण आरिक्षत जातियों में बेचैनी उत्पन्न होगी। इस बेचैनी के जो भी परिणाम आगे निकलेंगे, उनके बारे में अभी से आकलन करना कठिन है किंतु इतना तय है कि कांग्रेस को इस जातीय जनगणना से कोई लाभ नहीं मिलेगा। अपितु यादव, कुर्मी, जाट, चारण, माली, जाटव, पासवान जैसी शक्तिशाली आरक्षित जातियां कांग्रेस का विरोध करेंगी।

यह भी संभव है कि ये शक्तिशाली आरक्षित जातियां जातीय जगनणना को रोकने का प्रयास करें अथवा उनके नतीजे सार्वजनिक न करने के लिए दबाव बनाएं। ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस ने कनार्टक में जो जातीय जनगणना करवाई उसके नतीजे आज तक सार्वजनिक नहीं किए गए।

बिहार में जो जातीय जगनणना हुई, उसका कोई लाभ किसी भी राजनीतिक दल को नहीं मिला। इस बार भी जातीय जगनाणना का लाभ किसी भी राजनीतिक दल को नहींं मिलेगा। यह ठीक वैसा ही होगा जैसे कि मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का लाभ वी. वी. पी. सिंह और उनकी पार्टी को नहीं मिला! उनके साथ-साथ किसी और दल को भी नहीं मिला।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

जातीय उन्माद के भंवर में फंस गई देश की कश्ती!

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जातीय उन्माद - bharatkaitihas.com
जातीय उन्माद में फंसा भारत

क्या देश की कश्ती जातीय उन्माद के भंवर में फंस गई है! क्या जातीय जनगणना इस उन्माद का चरम है! या देश के समक्ष इससे भी बड़ा संकट मुंह बाए खड़ा है!

जिन दिनों देश को आजादी मिली थी, उन दिनों प्रदीप का गाया एक गीत बड़ा प्रसिद्ध हुआ था- हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के।

ऐसे संभाल कर रखा हमने आजादी की कश्ती को! आजादी मिले अभी सौ साल भी नहीं हुए हैं कि चारों ओर से जाति-जाति की पुकार सुनाई दे रही है। हर तरफ से आरक्षण का शोर है। हर तरफ बेरोजगारों की भीड़ खड़ी है और अपनी-अपनी जाति के नाम पर नौकरी मांग रही है।

राजनीतिक दलों ने कभी अजगर बनाकर, कभी एमवाई का नारा लगाकर तो कभी पीडीए बनाकर देश में जातिवाद का भयानक तूफान खड़ा कर दिया है।

मण्डल कमीशन लागू होने के बाद से देश की नैय्या दिन प्रति दिन जातियों के भंवर में गहरी धंसती जा रही है। बिहार, यूपी, हरियाणा, पंजाब एवं तमिलनाडू आदि विभिन्न प्रांतों में ताल ठोक रहे क्षेत्रीय दलों की तो उत्पत्ति ही जातीय वोटों के गणित पर हुई है।

लगभग समस्त क्षेत्रीय दलों को जीवन दान अर्थात् वोट और सत्ता जातीय उन्माद फैलाकर प्राप्त होते हैं किंतु अब तो देश पर दीर्घकाल तक शासन करने वाले कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल ने भी जातीय जनगणना के नाम पर जातीय उन्माद को बढ़ाना आरम्भ कर दिया है।

यह जातीय उन्माद हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा। इस उन्माद के कारण हम एक दूसरे के दुश्मन जैसा व्यवहार करने लगे हैं। राजनीतिक दल एक दूसरे से लड़ें तो बात समझ में आती है कि इन्हें सत्ता छीननी है किंतु जातीय उन्माद में फंसकर जनता आपस में लड़-मर रही है। हम अपनी स्वाभाविक संस्कृति को भूलते जा रहे हैं।

आज देश में प्रत्येक जाति को आरक्षण चाहिए। ज्यादा से ज्यादा आरक्षण चाहिए। कोई दिमाग लगाने को तैयार नहीं है कि न केवल आरक्षण की अपितु सरकारी नौकरियों की भी एक सीमा है! इस समय जिन भी जातियों को कुल मिलाकर पचास प्रतिशत के आसपास आरक्षण मिला हुआ है, यदि केवल उन्हीं को सौ प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाए तो क्या उन समुदायों के समस्त नौजवानों को नौकरियां मिल जाएंगी!

जाति आधारित आरक्षण का अर्थ है कि आरक्षित समुदाय के लोगों में उनकी जाति के कारण सामाजिक एवं आर्थिक समस्याएं उत्पन्न हुई हैं।

यदि जाति ही समस्या है तो देश में लाखों ब्राह्मण परिवार निर्धनता की रेखा से नीचे जीवन यापन क्यों कर रहे हैं? क्षत्रिय समुदाय के लाखों परिवार मजदूरी करके जीवन यापन क्यों कर रहे हैं? प्रतिवर्ष वैश्य जाति के लोग व्यापार में घाटा खाकर और कर्ज के जाल में फंसकर आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?

प्राचीन हिन्दू समाज में जातियों का निर्माण व्यक्ति द्वारा किए जा रहे कार्य के आधार पर हुआ था। आजादी से पहले तक हम लोग अपनी जाति अथवा परिवार के द्वारा हजारों वर्षों से किए जा रहे कामों को करते आ रहे थे। उसी के आधार पर हम बढ़ई, सुनार, कुम्हार, मोची, तेली, नाई, दर्जी, महाजन, ब्राह्मण या राजपूत कहलाते थे।

आजादी के बाद इन सबका पैतृक व्यवसाय छुड़वाकर तथा जबर्दस्ती पढ़ा-पढ़ाकर नौकरियों की लाइनों में लगा दिया गया और जब अपेक्षित संख्या में नौकरियां नहीं मिलीं तो समाज में आरक्षण का भूत खड़ा किया गया।

अब तो आरएसएस ने भी जातीय जनगणना की आवश्यकता स्वीकार कर ली है। कुछ दिन पहले ही राहुल गांधी ने कहा था कि देश में जातीय जनगणना होगी, ऑर्डर आ गया है। राहुल गांधी कौनसे ऑर्डर की बात कर रहे थे!

कहा नहीं जा सकता कि जातीय जनगणना से कौनसी नई समस्याएं खड़ी होंगी क्योंकि हिन्दू समाज को जातियों के नाम पर लड़वाने का अधिकांश काम तो पहले ही पूरा हो चुका है। अब तो एस सी को एस सी से, एसटी को एस टी से और ओबीसी को ओबीसी से लड़वाना ही बाकी रहा है। संभवतः जातीय जनगणना से ऐसा ही कुछ भयानक परिणाम निकले!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

चिराग पासवान खो चुके हैं अपनी विश्वसनीयता!

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चिराग पासवान

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चल रही एनडीए की तीसरी सरकार के तीन बड़े स्टेक होल्डरों में से तीसरे चिराग पासवान ने वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में अपनी विश्वसनीयता खो दी है!

पिछले दिनों उन्होंने जातीय जनगणना के मामले में राहुल गांधी के सुर में सुर मिलाया, वक्फ बोर्ड के प्रावधानों पर आपत्ति की तथा सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय का यह कहकर विरोध किया कि हम आरक्षण के कोटे के भीतर कोटे से सहमत नहीं हैं।

एनडीए सरकार पहले ही यह स्पष्ट कर चुकी थी कि सरकार सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए क्रीमी लेयर वाले सुझाव से सहमत नहीं है, फिर भी चिराग ने जिस तरह उछल-उछल कर एनडीए के प्रति अपना विरोध स्पष्ट किया, वह एनडीए के लिए सिरदर्दी पैदा करने वाला है।

एनडीए सरकार का हिस्सा बनने के लिए चिराग पासवान लोकसभा चुनावों से पहले और बाद में यह कहते रहे हैं कि वे नरेन्द्र मोदी के हनुमान हैं, समझ में नहीं आता कि चिराग पासवान किस तरह के हनुमान हैं! हनुमानजी तो लंका को फूंक कर आए थे जबकि चिराग तो एनडीए को ही चिन्गारी दिखाने का काम कर रहे हैं।

चिराग पासवान को एनडीए तीन में केबीनेट मंत्री का पद दिया गया है, जबकि इस पद के लिए न केवल एनडीए के अन्य स्टेक होल्डर दलों में अपितु स्वयं बीजेपी में भी वर्षों से मंजी हुई राजनीति कर रहे नेता दावेदार थे किंतु लगता है कि चिराग को घी हजम नहीं हुआ!

चिराग के पिता रामविलास पासवान ने भी हालांकि जीवन भर जातिवादी राजनीति की जिसे उन्होंने सिद्धांतवादी राजनीति कहकर अलग-अलग दलों की सरकारों में मंत्री पद भोगे किंतु उन्होंने अपनी विश्वसनीयता कभी नहीं खोई। जबकि चिराग पासवान जातिवादी राजनीति के नाम पर स्वयं अपनी ही विश्वसनीयता खो रहे हैं।

जब एनडीए तीन बनी थी, तब सबको लगा था कि नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू एनडीए तीन पर दबाव की राजनीति करेंगे और चिराग के बारे में किसी को ऐसा अनुमान नहीं था कि वे पिद्दी न पिद्दी का शोरबा होते हुए भी सरकार पर इतना दबाव बनाने का प्रयास करेंगे।

चिराग की इन्हीं हरकतों के कारण बीजेपी चिराग के चाचा पशुपति पासवान के साथ नए सिरे से गठबंधन की तैयारियां कर रही हैं।

यह सही है कि लोकसभा चुनावों में चिराग के सहयोग के बिना न केवल एनडीए को अपितु स्वयं बीजेपी को भी बिहार में कुछ सीटें और कम मिलतीं किंतु यह भी उतना ही सही है कि बीजेपी के सहयोग के बिना चिराग को बिहार में एक भी सीट नहीं मिलती!

चिराग अपने इस कमजारे पक्ष को समझ नहीं पा रहे किंतु चाचा पशुपित पारस चिराग को यह बात एक बार फिर अच्छी तरह से समझा देंगे।

डॉ. मोहनलाल गुप्ता

ममताबनर्जी की असली ताकत कौन है?

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ममताबनर्जी की असली ताकत

ममताबनर्जी की असली ताकत कौन है, वह जनता जिसने ममता के दल को वोट देकर चुना, या विदेशी घुपैठिए? या फिर कोई अन्य विदेशी शक्ति जो पड़ौसी बांगलादेश में शेख हसीना की सरकार का तख्ता पलट करके हिन्दुओं के खून से होली खेल रही है?

आखिर किस रहस्यमयी ताकत के बल पर ममता बनर्जी ने 28 अगस्त को देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम लेकर पूरे देश को धमकाया कि यदि ममता की सरकार अस्थिर हुई तो वे भारत की राजधानी सहित अनेक प्रांतों में आग लगा देंगी?

तो क्या अब ममता बनर्जी पश्चिमी बंगाल की निरंकुश मालकिन बन गई हैं और वे स्वयं ही इतनी ताकतवर हो गई हैं कि देश में आग लगा सकती हैं! या फिर उनकी ताकत के पीछे वास्तव में कोई और है?

ममता बनर्जी के अतिरिक्त और किसी मुख्यमंत्री ने 1947 से लेकर आज तक देश के प्रधानमंत्री के लिए इतने अपमानजनक शब्दों का प्रयोग नहीं किया और न ही कभी भारत की अस्मिता को चुनौती दी।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर, इंदिरा गांधी, नरसिम्हा राव तथा अटल बिहारी वाजपेयी तक की सरकारों ने विभिन्न कारणों से राज्य सरकारों को बर्खास्त किया किंतु किसी भी मुख्यमंत्री ने न तो कभी प्रधानमंत्री के लिए जवाहर बाबू या अटल बाबू जैसे हल्के शब्दों का प्रयोग किया और न कभी देश में आग लगाने की धमकी दी।

जहाँ तक मुझे स्मरण है, जब अटलबिहारी वाजपेयी ने बिहार की सरकार बर्खास्त की थी, तब राबड़ी देवी हाथ में डण्डा लेकर बिहार की सड़कों पर उतरी थीं और उन्होंने बिहार के तत्कालीन राज्यपाल सुंदरसिंह भण्डारी के लिए कहा था कि इसकी एक टांग तो पहले से ही टूटी हुई है, दूसरी टांग मैं तोड़ डालूंगी।

ममता बनर्जी किसे धमका रही हैं, इसे समझना कठिन नहीं है किंतु इस धमकी की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसे समझना अत्यंत कठिन है। ममता बनर्जी को ऐसी भाषा का प्रयोग करने की हिम्मत कौन दे रहा है! भारत के विभिन्न प्रांतों में बैठे रोहिंग्या या बांगलादेश और नेपाल के बॉर्डर से आए वे विदेशी घुसपैठिए जो दीमक की तरह भीतर ही भीतर अपनी संख्या बढ़ा चुके हैं? इनमें से ममताबनर्जी की असली ताकत कौन है?

निश्चित रूप से नेताओं को जो भी शक्ति मिलती है, जनता के वोट से मिलती है। किसी भी नेता में यह शक्ति सदा के लिए नहीं रहती। जैसे ही नेता जनता की नजरों से उतरता है, स्वतः शक्तिविहीन हो जाता है। ममता को भी यह बात अच्छी तरह से ज्ञात होगी! इतना होने पर भी ममता आग से खेलने की तैयारी कर रही हैं तो किस ताकत के बल पर!

लोकतंत्र में जनता के द्वारा विधिवत् चुनी गई सरकार को भंग किया जाना श्रेयस्कर नहीं माना जा सकता किंतु जब चुनी हुई सरकार निरंकुश आचरण करने लगे अथवा प्रदेश में अराजकता फैल जाए तो उसे भंग करके जनता को फिर से अपनी पसंद की सरकार चुनने का अवसर देना पूरी तरह लोकतांत्रिक पद्धति है।

भारत के संविधान ने केन्द्र सरकार को जिम्मदारी दी है कि वह राज्य की जनता को अराजकता एवं निरंकुश शासन से बचाए। ममता की सरकार निरंकुश आचरण कर रही है तथा राज्य में अराजकता फैल गई है, इसलिए केन्द्र सरकार को शीघ्र ही कोई निर्णय लेना चाहिए।

यदि ममता की धमकी प्रधानमंत्री के अपमान तक सीमित रहती तो एक अलग तरह का मामला होता किंतु ममता की धमकी देश की अस्मिता के लिए खतरे के रूप में दिखाई दे रही है। इसलिए इस बात पर विचार किया जाना आवश्यक है कि ममताबनर्जी की असली ताकत कौन है?

इससे पहले कि पश्चिमी बंगाल में स्थितियां भयावह मोड़ लें, केन्द्र सरकार को कोई समुचित कदम उठाना चाहिए। यदि केन्द्र सरकार पश्चिमी बंगाल की जनता के हितों की रक्षा करने में अक्षम रहती है तो केन्द्र सरकार भी भारत की जनता का विश्वास खो देगी। जनता का विश्वास ही लोकतंत्र की असली ताकत है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

कंगना रनौत ने गलत क्या कहा?

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कंगना रनौत

लोकतंत्र हो अथवा राजतंत्र राजनीति में सत्य को प्रायः दूसरा स्थान मिलता है, पहला स्थान पाखण्ड को मिलता है। इसी पाखण्ड को राजनीति और कूटनीति कहा जाता है। यही कारण है कि कंगना रनौत सत्य बोलकर कई बार विरोधियों के निशाने पर आ जाती हैं। हर बार उन्हें अपने द्वारा बोले गए सत्य के लिए विरोध सहन करना पड़ता है। महाराष्ट्र में भी उनके साथ ऐसा ही कुछ हुआ था।

इस बार जब कंगना रनौत ने यह कहा कि किसान आंदोलन के नाम पर कुछ उपद्रवी तत्व भारत में वैसा ही कुछ करना चाहते थे जैसा कि बांगलादेश में हुआ, तो कंगना की अपनी पार्टी ने ही कंगना के वक्तव्य से किनारा कर लिया। यदि ईमानदारी से देखा जाए तो कंगना रनौत ने गलत क्या कहा?

कंगना रनौत ने वही तो कहा जो राकेश टिकैत ने खुलेआम स्वीकार किया! टिकैत ने कहा कि भारत में बंगलादेश जैसा काम अवश्य होकर रहेगा, हमारी पूरी तैयारी है! यह काम तो उसी दिन हो लेता जिस दिन हम प्रधानमंत्री निवास की बजाय लाल किले की तरफ मुड़ गए थे। हमें किसी न बहकाया नहीं होता तो हम लाल किले की तरफ नहीं जाते, मोदी की तरफ जाते।

कांग्रेस के सारे नेता अलग-अलग शब्दों में यह बात कह चुके हैं कि भारत में भी एक दिन वह होगा जैसा बंगलादेश में हुआ है। बंगलादेश में हुए प्रकरण के बाद सबसे पहले उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत ने बड़ी कठोर शब्दावली में कहा था कि भारत एक दिन बंगलादेश बनेगा और यह भी बताया था कि क्यों बनेगा!

राउत, टिकैत और अन्य विपक्षी नेताओं के वक्तव्यों के बाद कंगना रनौत ने जो कुछ कहा, उसमें गलत क्या था? फिर भी यदि भारतीय जनता पार्टी ने उनके इस बयान से किनारा कर लिया तो उसका एकमात्र कारण यह दिखाई देता है कि इन दिनों भारत की राजनीति मिथ्या नरेटिव गढ़ने के आधार पर चल रही है। हालांकि सत्य के आधार पर तो शायद ही कभी चली।

विपक्ष के नेता आए दिन एक झूठा नरेटिव गढ़ते हैं और भाजपा को उसमें घेरने का प्रयास करते हैं कि भाजपा किसान विरोधी है, भाजपा मजदूर विरोधी है, भाजपा दलित विरोधी है, भाजपा ओबीसी विरोधी है, भाजपा मुसलमान विरोधी है, भाजपा आरक्षण विरोधी है, भाजपा छात्र विरोधी है, भाजपा महिला विरोधी है। यदि ऐसा है तो फिर देश में ऐसा कौन बच जाता है, भाजपा जिसकी विरोधी नहीं है।

यही कारण है कि यदि भाजपा स्वयं को कंगना के वक्तव्य से अलग नहीं करती तो अवश्य ही विपक्षी दल भाजपा के विरुद्ध इस नरेटिव को और गहरा करने का प्रयास करते कि भाजपा और नरेन्द्र मोदी किसानों को आतंकवादी और खालिस्तानी मानते हैं।

विपक्षी दलों ने किसान आंदोलन को लेकर जो हो-हल्ला मचाया, उसके कारण भारत सरकार और भाजपा कभी भी देश के आम किसान तक यह संदेश नहीं पहुंचा पाईं कि दिल्ली की सीमाओं पर जो कुछ हुआ वह किसान आंदोलन नहीं था, अपति भारत के अरबन नक्सलियों एवं कनाडा में बैठे खालिस्तानी आतंकियों द्वारा किसानों को उकसाकर किया गया एक नक्सली षड़यंत्र था जिसका उद्देश्य देश में अराजकता फैलाकर सरकार की छवि को खराब करना था।

यदि यह नक्सली एवं खालिस्तानी षड़यंत्र नहीं था तो फिर लाल किले से तिरंगा उतारकर क्यों फैंका गया। आंदोलन के दौरान सिक्खों का धर्मग्रंथ फाड़ने से लेकर बलात्कार जैसी तमाम तरह की गैरकानूनी हरकतें क्यों हुईं? यदि यह नक्सली आंदोलन नहीं था तो ‘हाय-हाय मोदी मरजा तू’ जैसे नारे क्यों लगाए गए?

निश्चित रूप से किसानों की आड़ में नक्सली तत्व ही ऐसे नारे लगा रहे थे और खालिस्तानी तत्व भारत का झण्डा उतारकर फैंक रहे थे। यदि उनका उद्देश्य बंगलादेश में हुई घटना जैसा कार्य करने का नहीं था तो और क्या था? यह तो हमारा सौभाग्य है कि देश बहुत बड़ा है और देश की अधिकांश जनता अहिंसक एवं धर्मप्राण है।

जब तक भारत की जनता अपने इस नैसर्गिक स्वरूप में अर्थात् अहिंसक एवं धर्मप्राण बनी रहेगी, तब तक भारत में वैसा कुछ नहीं होगा जैसा श्रीलंका एवं बंगलादेश में हुआ है। जहाँ तक कंगना रनौत का प्रश्न है, उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा अपितु भारत की जनता को षड़यंत्रकारियों के चंगुल में फंसने से रोकने का प्रयास किया है।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

योगी आदित्यनाथ की आवाज सुनो!

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योगी आदित्यनाथ की आवाज सुनो!

योगी आदित्यनाथ ने जन्माष्टमी के दिन जो कुछ कहा, वैसा कहने की हिम्मत वर्ष 2014 से पहले देश में केवल दो ही राजनेताओं में थी, एक तो स्वयं योगी आदित्यनाथ जिन्होंने भारत की संसद में सनातन की रक्षा के लिए राजनीतिक दलों से बार-बार गुहार लगाई और दूसरे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी।

आदित्यनाथ योगी और नरेन्द्र मोदी में अंतर केवल इतना है कि जो बात योगी खुलकर बोलते हैं, उसे नरेन्द्र मोदी संकेतों में कहते हैं, उदाहरण भर देते हैं जैसे कि कपड़ों से पहचान लो, कार के पिछले पहिए के नीचे आदि-आदि।

अभी उन बातों को अधिक दिन नहीं हुए हैं जब नई संसद में प्रतिपक्ष के नेता की हैसियत से राहुल गांधी ने हिन्दुओं को हिंसक कहा। इस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में कहा था कि अब सनातन को भी सोचना होगा।

नरेन्द्र मोदी सनातन को क्या सोचने के लिए कह रहे थे! आदित्यनाथ योगी ने वही स्पष्ट किया है कि बंटेंगे तो कटेंगे! एक रहेंगे तो नेक रहेंगे। स्वाभाविक है कि राहुल, अखिलेश एवं औबेसी जैसे नेता हायतौबा मचाएं कि योगी ने ऐसा क्यों कहा!

क्या विगत एक शताब्दी में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांगलादेश में सनातन के साथ जो कुछ हो गया है और उन्हें निरीह पशुओं की तरह काट दिया गया है, उसे देखकर सनातन को अपने लिए सोचने का अधिकार नहीं है! क्या सनातन को अपने बचाव के लिए एक रहने का अधिकार नहीं है!

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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में और योगी आदित्यनाथ ने सार्वजनिक मंच से जो कुछ कहा है, वही चिंता कुछ महीने पहले असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा भी सार्वजनिक रूप से प्रकट कर चुके हैं। उन्होंने देश को स्पष्ट शब्दों में बताया कि असम की डेमोग्राफी तेजी से बदल रही है, कुछ ही दशकों में असम में हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। यह मेरे लिए अस्तित्व का प्रश्न है।

क्या होता है, जब देश की डेमोग्राफी बदलती है! इसे समझने के लिए अयोध्या संसदीय क्षेत्र के चुनाव परिणाम को देखना पर्याप्त है। भाजपा जैसा मजबूत राजनीतिक दल, राममंदिर बनवाकर भी, धारा 370 हटाकर भी, निशुल्क आटा खिलाकर भी, अलग लद्दाख क्षेत्र बनवाकर भी, सिटीजनशिप अमेंडमेंट कानून लाकर भी, अयोध्या संसदीय क्षेत्र का चुनाव हार जाता है और अखिलेख यादव जैसा सनातन विरोधी नेता 37 सीटें पाकर एवं राहुल गांधी जैसा सनातन विरोधी नेता 99 सीटें पाकर सनातन धर्म वालों का संसद के भीतर और बाहर उपहास करते हैं, उसे हिंसक बताते हैं।

पूरी दुनिया में लेबनान देश में डेमोग्राफिक परिवर्तन से हुए विनाश की चर्चा हो रही है। कुछ दशक पहले तक लेबनान ईसाई देश हुआ करता था, चुपचाप वहाँ की डेमोग्राफी बदल दी गई। आज लेबनान मुस्लिम देश है। कभी इजराइल के समर्थन में खड़ा रहने वाला लेबनान आज इजराल से भयानक युद्ध कर रहा है।

इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि योगी आदित्यनाथ को यह क्यों कहना पड़ा कि बंटेंगे तो कटेंगे! योगी आदित्यनाथ ने यह बात राहुल गांधी और अखिलेश यादव आदि सनातन विरोधी राजनीति करने वाले नेताओं द्वारा की जा रही जातीय जनगणना की मांग के विरोध में कही है। जातीय जनगणना सनातन को बांटने का षड़यंत्र है।

देश में जातीय आधार पर लागू की गई आरक्षण व्यवस्था पहले ही सनातन को एससी, एसटी, ओबीसी और जनरल में बांट चुकी है, अब सनातन के बारीक टुकड़े करने की तैयारी है। हालांकि कांग्रेस इस दिशा में बहुत पहले से ही जुटी हुई है। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि अंग्रेजों ने जब 1931 में जातीय आधारित जनगणना करवाई थी, तब भारत में 4147 जातियां पाई गई थीं किंतु कांग्रेस की सरकार द्वारा वर्ष 2011 के आर्थिक सर्वेक्षण में 46 लाख से अधिक जातियों के नामों की सूची तैयार करवाई गई थी।

इतना तो कोई भी सामान्य समझ वाला व्यक्ति जानता है कि भारत में 46 लाख जातियां नहीं रहतीं। कांग्रेस इस सूची की आड़ में क्या खेल करना चाहती थी, इसे समझना कठिन है।

राहुल गांधी, मुलायमसिंह के सुपुत्र अखिलेश यादव और चिराग पासवान आदि नेता जातीय जनगणना करवाकर उससे कौनसा सामाजिक अथवा आर्थिक लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं?

जातीय जनगणना के आधार पर न तो खेती की भूमि का फिर से बंटवारा होगा, न पशुपालकों की भैंसें बांटी जाएंगी। ट्रैक्टर भी जहाँ खड़े हैं, वहीं रहेंगे। लोकसभा में 545 के आसपास सीटें हैं, इन सीटों को हजारों अथवा लाखों जातियों में कैसे बांटा जाएगा! सरकार नौकरियों को भी जातीय आधार पर कैसे बांटा जाएगा।

जातीय जनगणना से केवल एक ही लक्ष्य प्राप्त होगा कि सनातन के सामाजिक ताने-बाने में असंतोष को चरम पर पहुंचाकर उसे आपस में ही लड़वा कर बिखेर दिया जाए। अतः योगी आदित्यनाथ की बात समय रहते सुनी जानी चाहिए। एक रहिए, नेक रहिए। सनानत को एक मजबूत शक्ति के रूप में स्थापित कीजिए।

सनातन के सामाजिक एवं आर्थिक ताने-बाने को सुधारने के लिए वैज्ञानिक पद्धति से एवं योजनाबद्ध ढंग से काम किया जाना चाहिए न कि जातीय जनगणना करवाकर भारत राष्ट्र के अस्तित्व के लिए कोई बड़ा खतरा पैदा करना चाहिए।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्

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कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्

भगवान् श्रीकृष्ण ने मानव जाति को ज्ञान, कर्म एवं भक्ति पर आधारित जीवन व्यतीत करने का मार्ग दिखाया। इस कारण कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् कहकर उनके अवदान की प्रतिष्ठा की जाती है।

विष्णु वैदिक देवों में एक हैं। उन्हें सृष्टिकर्त्ता, सृष्टिपालक एवं सृष्टिनियंता होने के साथ-साथ जीव को भवसागर से मुक्ति देने वाला परमात्मा कहा गया। इस कारण वेदों को मानने वालों में विष्णु की पूजा का प्रचलन हुआ। विष्णु को संकर्षण एवं वासुदेव भी कहा जाता है। जब भगवान श्रीकृष्ण इस जगत् में अवतार के रूप में प्रतिष्ठित हुए तो उन्हें संकर्षण होने के कारण श्रीकृष्ण कहा गया तथा वैकुण्ठवासी वासुदेव का अवतार माना गया। वसुदेव के पुत्र होने के कारण भी श्रीकृष्ण को वासुदेव कहा गया।

विष्णु तथा उनके अवतारों की पूजा करने वालों को वैष्णव कहा गया और उनका सम्प्रदाय भागवत धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ। श्रीकृष्ण-भक्ति का प्रभाव भारत की सीमाओं को पार करके सुदूर पूर्व एवं पश्चिम तक फैला। श्रीकृष्ण के मुख से निकली गीता दार्शनिक जगत की अमूल्य निधि घोषित हुई।

श्रीकृष्ण ने हिन्दुओं के दार्शनिक चिंतन में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये जिससे वैदिक धर्म का काया-कल्प होकर उसे लोक में अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई। श्रीकृष्ण के समय में ब्रजक्षेत्र में इन्द्रदेव की पूजा होती थी जो एक प्राचीन वैदिक देवता था और जिसके बारे में मान्यता थी कि इन्द्र अपनी पूजा से प्रसन्न होकर धरती पर वर्षा करता है तथा उसके अप्रसन्न होने से अतिवृष्टि अथवा अनावृष्टि होती है।

भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों को अपने अलौकिक स्वरूप के दर्शन करवाकर निष्ठुर इन्द्रदेव की पूजा समाप्त करवा दी तथा वैदिक यज्ञों को पुनः प्रतिष्ठित किया। उन्होंने धर्मराज युधिष्ठर से सात्विक ढंग का राजसूय यज्ञ करवाया और झूठी पतलों को उठाने का कार्य स्वयं अपने हाथों से किया। श्रीकृष्ण ने राधारानी की प्रतिष्ठा को अपने समकक्ष करके लौकिक जगत में स्त्री-पुरुष के आध्यात्मिक भेद को समाप्त किया।

श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से ज्ञान, भक्ति एवं कर्म की त्रयी प्रवाहित की तथा मनुष्य को निरासक्त रहकर कर्म करने का उदपेश दिया। उन्होंने स्वयं ग्वाला बनकर गोपालों के साथ क्रीड़ की, गोपियों को प्रेम का संदेश दिया, तथा गायों की सेवा करके मनुष्य को सहज-सरल धर्म का पालन करने का मार्ग दिखाया। श्रीकृष्ण ने कंस आदि बुरी शक्तियों का संहार करके मनुष्य के समक्ष बुराइयों से लड़ने का मार्ग प्रशस्त किया।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने धर्मनिष्ठ पाण्डवों को अतिशय विनम्रता के कारण उत्पन्न अकृमण्यता की स्थिति से बाहर निकाला तथा अपना नैसर्गिक अधिकार प्राप्त करने के लिए प्राणों की बाजी तक लगाने का उपदेश दिया।

श्रीकृष्ण ने ही भारत के समस्त अच्छे और बुरी क्षत्रियों को कुरुक्षेत्र के मैदान में खींचकर उनके बीच महाभारत जैसे विशाल युद्ध की रचना की किंतु युद्ध से पहले शांति के समस्त प्रयास भी किये। वे स्वयं शान्ति दूत बनकर दुर्योधन आदि के पास गए और अंत में महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ पर सारथी बनकर बैठ गए।

श्रीकृष्ण चाहते तो स्वयं भी लड़ सकते थे किंतु उन्होंने युद्ध न करके और सरथी बनके, मानव मात्र को संदेश दिया कि जीवन का संघर्ष जीव को स्वयं करना है, ईश्वर तो उसे कर्म करने की छूट देता है तथा स्वयं उस कर्म का साक्षी बनकर उसके कर्मों एवं उसकी वृत्ति के अनुसार उसे कर्म का फल देता है।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध अर्थात् कर्म करने के लिए प्रेरित करते समय ईश् एवं जीव के वास्तविक स्वरूप, उनके परस्पर सम्बन्ध एवं मानव के लिए करणीय कर्म आदि का ज्ञान करवाया। ऐसा करने के लिए उन्होंने समस्त उपनिषदों का ज्ञान निचोड़कर अर्जुन के समक्ष बहुत ही सरल भाषा में प्रस्तुत किया। इसी कारण गीता के लिए कहा जाता है-

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।

अर्थात्- श्रीकृष्ण रूपी गोपाल ने उपनिषदों रूपी गायों को दुह कर गीता रूपी अमृत प्राप्त किया, अर्जुन रूपी बछड़े ने उस अमृत का पान किया।

श्रीकृष्ण ने यादव वंश में जन्म लिया था। पुराणों में यादवों को क्षत्रिय, गौपालक एवं आभीर नामक तीन जातियों में रखा है। श्रीकृष्ण ने क्षत्रिय होने के कारण प्रजा की रक्षा करने का धर्म निभाया, पशुपालक जैसे छोटे कहे जाने वाले वंश में जन्म लेकर मानव मात्र में सहयोग एवं मैत्री का मार्ग दिखाया। यदि यादवों को आभीर स्वीकार कर लिया जाए तो श्रीकृष्ण विदेशी कुल में अवतार लेने वाले, विष्णु के पहले अवतार थे।

श्रीकृष्ण ने अपनी शरण में आने वाले मानवों के योगक्षेम वहन करने का आश्वासन दिया जिसका आशय यह है कि वे ब्राह्मण से लेकर स्त्री एवं शूद्र तक समस्त मानवों को अपनी शरण में लेते हैं तथा उनका योगक्षेम वहन करते हैं। श्रीकृष्ण ने कर्मयोग पर दृढ़ रहने वालों के लिए समान रूप से मुक्ति के द्वार खोल दिये।

जन साधारण ने कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् कहकर श्रीकृष्ण को अपना रक्षक एवं गुरु माना-

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।।

ज्ञान, कर्म एवं योग को जीवन का अंग बनाने का उपदेश श्रीकृष्ण से पहले किसी और दार्शनिक, चिंतक एवं समाज सुधारक ने नहीं दिया इसलिए श्रीकृष्ण ही वे प्रथम दार्शनिक थे जिनकी वंदना कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् कहकर की गई।

श्रीकृष्ण के प्रयासों से वैदिक धर्म ने नया रूप धारण किया। मन की उदारता और हृदय की विशालता को हिन्दुओं ने अपनी संस्कृति का अभिन्न अंग बना लिया। इसी उदारता और विशालता के कारण हिन्दुओं ने जैनियों के तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव को एवं तथागत बुद्ध को भी विष्णु के अवतारों में स्वीकार कर लिया।

भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव भगवान श्रीराम के लगभग दो हजार साल बाद हुआ किंतु सनातन धर्म में अवतारवाद की धारणा श्रीकृष्ण के आविर्भाव के बाद ही आई क्योंकि वाल्मीकि रामायण लिखे जाने तक भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम एवं महापुरुष माना जाता था।

पुराणों की रचना श्रीकृष्ण के आविर्भाव के बहुत बाद में हुई। पुराणों में ही अवतारवाद की संकल्पना स्वीकार की गई। पुराणों ने ही विष्णु के दशावतारों की संकल्पना हिन्दू समाज के समक्ष रखी। पुराणों ने ही सबसे पहले मर्यादा पुरुषोत्तम राम को विष्णु का अवतार स्वीकार किया। पुराणों ने ही देवकीनंदन श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार घोषित किया।

पुराणों की रचना से पहले महाभारत की रचना हो चुकी थी, अतः पुराणों की दशावतार की संकल्पना के आधार पर मूल महाभारत का कई बार पुनर्लेखन हुआ। वाल्मीकि रामायण में भी बहुत से परिवर्तन करके श्रीराम को परब्रह्म परमेश्वर श्री विष्णु का अवतार घोषित किया गया।

जैन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि महावीर स्वामी एक बार श्रीकृष्ण मन्दिर में ठहरे। इससे स्पष्ट है कि आज से 2600 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण को भगवान के रूप में पूजा जाता था।

इस प्रकार श्रीकृष्ण ने केवल सनातन धर्म को अपति सम्पूर्ण मानवता को ज्ञान, कर्म एवं भक्ति की त्रयी पर चलने का व्यावहारिक, दार्शनिक एवं तात्विक मार्ग दिखाया। इस कारण वे लोक में पूज्य हैं तथा कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् कहकर वंदना किए जाने के योग्य हैं।

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