इसमें कोई दो राय नहीं है कि बंग-भंग को भारतीय इतिहास में अंग्रेजी शासन के ऊपर एक कलंक के रूप में तथा गहरे काले धब्बे के रूप में देखा जाता है किंतु बंग-भंग के माध्यम से वायसराय लॉर्ड कर्जन क्या वास्तव में भारतीयों के साथ कोई घिनौना खेल खेल रहा था, इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हमें उन तथ्यों पर भी विचार करना होगा जो लॉर्ड कर्जन के पक्ष का समर्थन करते हैं।
बहुत से विद्वानों का आक्षेप है कि भारतीय इतिहासकारों ने ब्रिटिश शासन तथा उसके सर्वाधिक प्रगतिशील गवर्नर जनरलों का सम्यक् मूल्यांकन नहीं किया है जिनमें लार्ड डलहौजी एवं लार्ड कर्जन प्रमुख हैं। डलहौजी भारत के आधुनिकीकरण का प्रणेता था तथा वाजिद अली शाह जैसे शासकों के कुशासन से भारतीय प्रजा का मुक्तिदाता था।
इसी डलहौजी की प्रगतिशील नीतियों को ईस्वी 1857 के सिपाही विद्रोह का मूल कारण बताया जाता है, जिसे भारतीय इतिहासकारों ने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा से अभिहित किया है, जबकि यदि ऐसा ही होता तो डलहौजी के काल में विजित पंजाब से 1857 के विद्रोह के दमन हेतु अंग्रेजों को सर्वाधिक सहायता प्राप्त नहीं हुई होती।
लार्ड कर्जन के सुधारवादी कार्यों में विश्वविद्यालय एक्ट आदि महत्वपूर्ण कार्य सम्मिलित हैं। कर्जन के पक्ष का समर्थन करने वालों के अनुसार बंग-भंग में कर्जन का या सम्पूर्ण अंग्रेज शक्ति का कोई दुराशय दृष्टिगोचर नहीं होता है। यदि कर्जन के मंतव्य में कोई दुराशय होता भी, तो भी बंग-भंग का निर्णय भारत के दूरगामी हितों के अनुकूल ही होता।
बंग भंग के कारण मुस्लिम-बंगाल की सीमाएँ उसी काल में निश्चित हो जातीं तथा भारत की आजादी से कुछ समय पहले कलकत्ता, नोआखाली एवं बंगाल के अन्य क्षेत्र विभाजन के समय हुए दंगों की हिंसा से बच जाते। उड़ीसा और बिहार तो वैसे भी बंग-भंग का निर्णय वापस लेने पर भी अंग्रेजों द्वारा पुनः बंगाल में सम्मिलित नहीं किए गए।
बंग भंग के जबर्दस्त विरोध को देखते हुए अंग्रेजों ने भविष्य में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध वैसी ही स्थिति पुनः उत्पन्न नहीं होने देने के लिए बहुस्तरीय योजना बनाई इसी कार्ययोजना के तहत मुस्लिम लीग की स्थापना करवाई गई। इसी कार्ययोजना के तहत मोहन दास गांधी को दक्षिण अफ्रीका से लाकर कांग्रेस के सर्वमान्य नेता के रूप में प्रतिष्ठित करवाया गया।
इसी कार्ययोजना के तहत मुहम्मद अली जिन्ना को लंदन से लेकर मुस्लिम नेता के रूप में प्रतिष्ठित करवाया गया। इसी क्रम में अंग्रेजों द्वारा दलित नेता के रूप में डॉ. भीमराव अम्बेडकर को, द्रविड़ नेता के रूप में रामास्वामी पेरियार को तथा कम्युनिस्ट नेता के रूप में मानवेन्द्र नाथ राय आदि को स्थापित करवाया गया।
आज लगभग सवा सौ साल का समय बीत जाने पर भी भारतीयों में बंग-भंग के विरोध की प्रवृत्ति इतनी अधिक है कि हम बंग-भंग के पीछे की वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर पाते। इस प्रवृत्ति के कारण इतिहास की ग्रन्थियाँ बढ़ती-बढ़ती असाध्य फोड़े का रूप ले लेती हैं।
इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि आज की तरह कर्जन के समय में भी हिन्दू और मुस्लिम दो पृथक् धाराएँ थीं जिनमें हिन्दुओं तथा धर्मान्तरित मुस्लिमों की समानता का कोई बिन्दु न तब था और न अब है। इस तथ्य को स्वीकार करके ही राजस्थान के शासकों ने मुस्लिम नीति का निर्धारण किया जिसके कारण देशी रियासतों में हिन्दू-मुसलमान विवाद की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई जबकि ब्रिटिश भारत में यह समस्या अपने चरम पर पहुंचकर भीषण रक्तपात में बदल गई।
जब हम कर्जन के समय के बंगाल की स्थिति पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि उस समय के बंगाली भद्रलोक में तीन जातियाँ- ब्राह्मण, कायस्थ एवं बैद्य समाहित थीं जिनकी जनसंख्या क्रमशः 6.5 प्रतिशत, 7 प्रतिशत तथा 2.5 प्रतिशत अर्थात् कुल 16 प्रतिशत के लगभग जनसंख्या थी। बंगाल के पंच ब्राह्मणों में मुखर्जी, चटर्जी, बनर्जी, गांगुली एवं भट्टाचार्य, पंचकायस्थों में घोष, बसु, मित्र, गुहा एवं दत्त तथा बैद्यों में मजूमदार, सेन, सेन गुप्ता, गुप्ता, दास गुप्ता, रायचौधरी आदि समाहित हैं। बहुत से इतिहासकारों के अनुसार इस भद्र बंगाली वर्ग के वर्चस्व के सम्मुख बंगाल की मध्यवर्ती जातियाँ कभी उभर नहीं पायीं।
भारत की आजादी के बाद अभी तक पश्चिमी बंगाल के समस्त मुख्यमंत्री, चाहे वे कांग्रेसी हों, कम्युनिस्ट हों या तृणमूल कांग्रेसी हों, सब के सब भद्रलोक समुदाय से ही हुए हैं।
बंगाल में विदेशी मुसलमानों अर्थात् शेख, सैयद एवं मुगलों की संख्या नगण्य रही है। बंगाली भद्रलोक के विरोध में ही, बंगाल की अधिकांश अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों ने इस्लाम ग्रहण करके भद्रलोक को चुनौती देने की प्रवृत्ति अपनाई।
जहाँ बंगाल में अधिकांश निम्न जातियां कहे जाने वाले हिन्दू, धर्म छोड़कर मुसलमान बने, वहीं पंजाब में हिन्दू से मुसलमान बनने वालों में अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियां बहुत कम थीं।
भारत विभाजन के समय पंजाब में विदेशी मुसलमानों की संख्या अधिक थी और साथ ही हिन्दू धर्म से धर्मान्तरित होकर मुस्लिम बने लोगों में राजपूत, जाट, गुर्जर आदि योद्धा जातियों की संख्या अधिक थी।
यही कारण था कि जब पाकिस्तान बना, तब भारत से भागकर आए मुसलमानों को पाकिस्तान में नीची जातियों का माना गया और उन्हें उच्च रक्तवंशी मुसलमानों ने अपने साथ बैठने का अवसर नहीं दिया। अर्थात् पंजाब के उच्चरक्त वंशी मुसलमानों ने गैर-पंजाबी इलाकों से आए निम्नरक्त वंशी मुसलमानों के साथ वही व्यवहार किया जो उस काल के बंगाली भद्रलोक द्वारा अन्य बंगाली-हिन्दुओं के साथ किया जा रहा था।
जब पाकिस्तान बना तो इस क्षेत्र में रहने वाले पठान भी बड़ी संख्या में पाकिस्तान चले गए। आज बहुत से लोग भ्रमवश अफगानी मूल के पठानों को विदेशी मुसलमान मान लेते हैं, जबकि वे विदेशी नहीं हैं, वे भारतीय मूल के प्राचीन आर्य हैं। पठान ऋग्वैदिक जन ‘पख्त’ से सम्बंधित हैं जिन्होंने ऋग्वैदिक राजा सुदास के विरुद्ध दाशराज्ञ युद्ध में भाग लिया था। मौर्य राजाओं से लेकर गुप्तों एवं बाद में हर्ष के समय में भी अफगानिस्तान भारतीय राजाओं शासनाधिकार में रहा। अफगानिस्तान के लोगों को विदेशी मानने की शुरुआत इस्लाम के अफगानिस्तान में आने के बाद हुई।
सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि 1905 में हुआ बंग-भंग भले ही अखण्ड भारत के पक्षधर हिन्दुओं को अच्छा न लगा हो किंतु वह सम्पूर्ण रूप से बुरा नहीं था। इस मान्यता को मानने वालों का मत है कि बंग-भंग के पीछे लॉर्ड कर्जन की कोई दुर्भावना काम नहीं कर रही थी। यह एक विशुद्ध प्रशासनिक कार्य था।
यदि बंग-भंग से बना मुसलमानों का प्रांत 1911 में फिर से हिन्दू-बहुल बंगाल में न मिला होता तो विभाजन के समय हुए दंगों की विभीषिका नहीं हुई होती। हिन्दू बंगाल तथा मुस्लिम बंगाल की तर्ज पर अंग्रेजों द्वारा अवश्य ही आगे चलकर हिन्दू पंजाब एवं मुस्लिम पंजाब का निर्माण किया जाता और इस प्रकार पाकिस्तान बनने के समय लाखों हिन्दुओं को अपने प्राणों से हाथ नहीं धोना पड़ता। ईस्वी 1911 में निरस्त हुआ बंग-भंग ईस्वी 1947 में न केवल पूर्वी पाकिस्तान के रूप में फिर से अस्तित्व में आ गया अपितु पश्चिमी पाकिस्तान के रूप में मुस्लिम पंजाब भी अस्तित्व में आ गया।
लॉर्ड कर्जन के समर्थन में एक तथ्य यह भी जाता है कि बंग-भंग निरस्त होने के कुछ समय बाद ही उग्र हिन्दूवादी नेताओं ने कहा कि हिन्दू एवम् मुस्लिम दो राष्ट्र हैं। इस प्रकार राष्ट्रवादी हिन्दू नेता न केवल कर्जन द्वारा किए गए बंग-भंग के मत की पुष्टि कर रहे थे, अपितु पूरे भारत के विभाजन के लिए भी आवाज उठा रहे थे।
इसमें तो कोई संदेह नहीं है कि 1905 का बंग-भंग एक रक्तहीन प्रक्रिया थी जबकि 1947 का बंग-भंग भयानक रक्त-रंजित प्रक्रिया थी जिससे भारत माता को अदम्य पीड़ा सहन करनी पड़ी और हिन्दू जाति की छाती पर गहरा घाव अंकित हो गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता