Thursday, September 11, 2025
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अकबर का भूमि प्रबन्धन

अकबर का भूमि प्रबन्धन उस युग की परिस्थितियों को देखते हुए काफी हद तक वैज्ञानिक था। इसमें किसानों से निश्चित कर लेने की व्यवस्था की गई थी जिसके कारण कर्मचारी किसानों पर मनमानी नहीं कर सकते थे।

अकबर ने सैनिक सुधारों की भांति भूमि सुधार भी गुजरात विजय के बाद ही आरम्भ किये। इस्लामशाह की मृत्यु के बाद शेरशाह द्वारा स्थापित की हुई भूमि व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी। जब हुमायूँ ने अपने खोये हुए भारतीय साम्राज्य को फिर से प्राप्त किया तब उसने अपने राज्य को अपने अमीरों तथा अफसरों में बाँट दिया।

राजकीय भूमि तथा जागीर भूमि को स्पष्ट रूप से एक दूसरे से अलग नहीं किया गया था। इससे बड़ी गड़बड़ी फैली हुई थी। बैरमखाँ भी अपने शासन काल में भूमि सम्बन्धी कोई महत्त्वपूर्ण सुधार नहीं कर सका था। उसके शासन काल में केन्द्रीय सरकार प्रतिवर्ष उपज तथा परगना में प्रचलित मूल्य के आधार पर सरकारी लगान निश्चित करती थी।

हुमायूं की लगान व्यवस्था में कई दोष थे। प्रतिवर्ष उपज तथा अन्न के मूल्य के बदलते रहने से सरकारी लगान की दर भी बदलती रहती थी और जब तक केन्द्र से दर निश्चित होकर नहीं आ जाती थी तब तक लगान वसूली भी नहीं हो सकती थी। इससे लगान वसूल करने में बड़ा विलम्ब होता था तथा सरकार और कृषक दोनों को परेशानी होती थी।

उपज तथा मूल्य का पता लगाने में भी धन व्यय होता था और यह मूल्यांकन अविश्वनीय होता था। अकबर इन दोषों से अवगत था और उनके निराकरण के लिए दृढ़ संकल्प था। अकबर के मन्त्रियों ने भूमि सम्बन्धी सुधार आरम्भ कर दिये थे परन्तु गुजरात तथा बंगाल विजय के उपरान्त अकबर ने स्वयं भूमि प्रबन्ध की ओर ध्यान दिया। जब अकबर ने जागीर प्रथा को समाप्त कर दिया तब भूमि का पुनर्प्रबन्धन अनिवार्य हो गया।

अकबर का भूमि प्रबन्धन

(1.) भूमि की नाप

1575 ई. में अकबर ने अपने अधिकारियों को साम्राज्य की भूमि की नाप करने तथा अन्य प्रकार की सूचनाएँ एकत्रित करने के आदेश दिये। उस समय भूमि की नाप का काम तनाव अर्थात् रस्सी द्वारा किया जाता था जिसके फैलने और सिकुड़ने की सम्भावना रहती थी। अकबर ने रस्सी के स्थान पर बाँस के टुकड़ों का प्रयोग करवाया जो लोहे के छल्लों से जुड़े रहते थे और जिनके फैलने और सिकुड़ने की संभावना नहीं थी।

(2.) करोड़ियों की नियुक्ति

सम्पूर्ण मुगल सल्तनत में 182 करोड़ी नियुक्त किये गये। प्रत्येक करोड़ी के अधिकार क्षेत्र में एक करोड़ रुपये तक की आय वाली भूमि रखी गई। करोड़ी को अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा निश्चित करने, लगान के विभिन्न साधनों का लेखा रखने, प्रत्येक कृषक से कितनी धन राशि मिलती है इसका हिसाब रखने और प्रत्येक प्रकार की फसल का लेखा रखने के निर्देश दिये गये। प्रत्येक करोड़ी की सहायता के लिए एक कारकूून और एक पोतदार अर्थात् कोषाध्यक्ष नियुक्त किया गया।

(3.) प्रांतों का गठन

1580 ई. तक केन्द्रीय सरकार के कार्यालय में समस्त आवश्यक सूचनाएँ एकत्रित कर ली गईं। इन दिनों राजा टोडरमल प्रधान अर्थमंत्री था। सुधार के कार्य को टोडरमल के सहयोगी ख्वाजा शाह मन्सूरी ने किया। सुधार का पहला काम यह किया गया कि सरकारों अथवा जिलों को मिला कर प्रान्त बनाये गये। कुल बारह प्रान्तों का निर्माण किया गया। प्रत्येक प्रान्त में लगान के मामलों की देखभाल के लिये एक दीवान नियुक्त किया गया।

(4.) दह-सालह बंदोबस्त

अकबर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सुधार दह-सालह अर्थात् दस वर्ष की दर पर आधारित भू-प्रबन्ध करना था। प्रत्येक सूबे में ऐसे परगनों को, जिनकी उपज एक समान थी मिलाकर एक क्षेत्र बना दिया गया और उसकी लगान निश्चित कर दी गई। उपज के एक तिहाई भाग के बराबर लगान तय किया गया।

लगान के नकद भुगतान की व्यवस्था के लिये 1580 ई. के पहले के दस वर्षों के मूल्य का औसत निकाल कर नकद लगान निश्चित कर दी गई। इस प्रकार उपज तथा मूल्य के घटने-बढ़ने का प्रभाव समाप्त हो गया और किसानों से एक निश्चित राशि लगान के रूप में लेनी निर्धारित कर दी गई।

दह-सालह बंदोबस्त से सरकार को लाभ: दह-सालह प्रबन्ध से सरकार तथा किसानों दोनों ही को लाभ हुआ। यह कि व्यवस्था इतनी सरल थी कि इसे कार्यान्वित करने में सरकारी कर्मचारियों को कोई कठिनाई नहीं हुई। अब उन्हें केन्द्रीय सरकार के आदेश की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती थी।

चूॅकि लगान की राशि निश्चित हो गई थी इसलिये वे फसल के पकते ही लगान वसूल करना आरम्भ कर देते थे। इस व्यवस्था से एक बहुत बड़ा लाभ यह हुआ कि खेतों के बो देने के बाद ही राजकीय अधिकारियों को यह पता लग जाता था कि इस वर्ष सरकार को लगान से कितना रुपया मिलेगा।

दह-सालह बंदोबस्त से किसानों को लाभ: दह-सालह व्यवस्था से किसानों को बड़ा लाभ हुआ। लगान निश्चित हो जाने से खेत बोते ही किसान को पता लग जाता था कि उसे कितना लगान देना है। इससे वह सरकारी कर्मचारियों की बेईमानी से बच गया। इस व्यवस्था से किसानों को नुक्सान भी हुआ।

अब उपज तथा मूल्य के घटने-बढ़ने से जो लाभ-हानि होती थी वह राज्य के स्थान पर किसानों को भोगनी पड़ती थी। फिर भी किसानों को पुरानी व्यवस्था की तुलना में नई व्यवस्था अधिक न्याय-संगत जान पड़ी इसलिये वे संतुष्ट हो गये।

जब सरकार ने किसानों से यह वायदा किया कि यदि अकाल या दैवी प्रकोपों से फसल नष्ट हो जायेगी तो लगान में कमी कर दी जायेगी तो किसानों का संतोष और अधिक बढ़ गया। फलतः सरकार तथा किसान दोनों ही ने दह-सालह व्यवस्था का स्वागत किया और यह व्यवस्था पूरी सल्तनत में लागू कर दी गई।

(5.) भूमि का वर्गीकरण

अकबर ने भूमि की उर्वरता के अनुसार उसका वर्गीकरण करवाया। यह वर्गीकरण इस प्रकार से था-

(अ.) पोलज

जिस भूमि में वर्ष में दो बार फसल काटी जाती थी और जिस पर निरन्तर खेती की जाती थी पोलज कहलाती थी। यह सबसे उत्तम भूमि होती थी।

(ब.) पड़ौती

दूसरी श्रेणी की भूमि पड़ौती कहलाती थी। यह भूमि कुछ दिनों तक खेती करने के बाद एक वर्ष के लिए परती या खाली छोड़ दी जाती थी जिससे वह अपनी खोई हुई उर्वरा शक्ति को फिर से प्राप्त कर ले।

(स.) चाचर

तीसरी कोटि की भूमि चाचर कहलाती थी। वह भूमि पड़ौती से भी निम्न कोटि की होती थी। उर्वरा शक्ति कम हो जाने पर इसे तीन-चार वर्ष तक परती छोड़ देना पड़ता था जिससे वह अपनी उत्पादन शक्ति को फिर से प्राप्त कर ले।

(द.) बंजर

सबसे निम्न कोटि की भूमि बंजर कहलाती थी। इस भूमि को पाँच वर्ष या उससे भी अधिक समय तक परती छोड़ना पड़ता था।

पोलज तथा पड़ौती भूमि को पुनः तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया था- उत्तम श्रेणी, मध्यम श्रेणी तथा निम्न श्रेणी।

(6.) उपज का औसत

भूमि का वर्गीकरण करने के उपरांत उत्तम, मध्यम तथा निम्न-श्रेणी की पोलज तथा पड़ौसी भूमि की उपज की औसत निकाली गई। चाचर तथा बंजर भूमि की उपज की औसत निकालते समय सिंचाई की व्यवस्था का ध्यान रखा गया।

(7.) लगान का निर्धारण

उपज की औसत निकालने के बाद औसत उपज का तीसरा भाग सरकारी लगान निश्चित कर दिया गया। यह लगान नकद अथवा जिन्स दोनों ही रूपों दे दी जा सकती थी परन्तु सरकार नकद रुपया ही देने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करती थी।

(8.) मालगुजारी का भुगतान

अकबर के समय में मालगुजारी की तीन व्यवस्थाएँ प्रचलित थीं- (1.) गल्ला-बख्शी, (2.) नस्क तथा (3.) जाब्ती।

(.) गल्ला-बख्शी

गल्ला-बख्शी प्रथा भारत में बड़ी पुरानी थी। इस प्रथा के अनुसार फसल का कुछ भाग सरकार ले लेती थी। किसान इस प्रथा को स्वीकार करने अथवा न करने के लिए स्वतन्त्र थे।

(.) नस्क

इस प्रथा में भू-स्वामि तथा सरकार के बीच लगान का समझौता हो जाता था। रैयतवारी प्रथा में यह समझौता किसान और सरकार के और जमींदारी प्रथा में यह समझौता सरकार तथा जमींदार के बीच होता था।

(.) जाब्ती

इस प्रथा में लगान का निश्चय फसल के आधार पर होता था। जिस प्रकार की फसल खेत में बोई जाती थी उसके अनुसार लगान का निश्चय होता था। सरकार इस प्रथा को अधिक पसन्द करती थी क्योंकि इससे नकद रुपया मिलता था और उपज के घटने-बढ़ने का प्रभाव सरकारी कोष पर नहीं पड़ता था। अकबर के शासन काल में ये तीनों प्रथाएँ प्रचलन में थीं। किसान किसी भी प्रथा को अपना सकते थे।

अकबर का भूमि प्रबन्धन : परिणाम

अकबर के शासन काल में किसानों के लिये नई व्यवस्था के तहत जो लगान निश्चित किया गया वह बहुत कम नहीं था परन्तु किसान नई व्यवस्था से बहुत सन्तुष्ट थे। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इस व्यवस्था में पारदर्शिता अधिक थी। इस कारण सरकारी कर्मचारियों की लूट कम हो गई। इस प्रकार हम देखते हैं कि अकबर का भूमि प्रबन्धन एक बेहतर व्यवस्था थी। यह अत्यंत सरल थी जिसके कारण किसानों के समझ में आ गई। लगान के निश्चित हो जाने से किसान तथा सरकार दोनों ही चिन्ता से मुक्त हो गये।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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