अकबर की राजपूतों पर विजय
आम्बेर के साथ मैत्री सम्बन्ध
राजपूताना में स्थित आम्बेर राज्य पर कच्छवाहा राजपूतों का शासन था। इन दिनों राजा भारमल वहाँ शासन कर रहा था जिसे बिहारीमल भी कहते हैं। भारमल का भतीजा सूजा, मेवात के गवर्नर मुहम्मद शरफुद्दीन हुसैन की सहायता से भारमल को आम्बेर से निकालकर स्वयं राजा बनने का प्रयास कर रहा था।
जनवरी 1562 में जब अकबर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगााह के दर्शन करने के लिए अजमेर जा रहा था तब आम्बेर से थोड़ी दूरी पर भारमल उससे भेंट करने के लिये उपस्थित हुआ। उसने अकबर का अभिनन्दन किया और अपने शत्रुओं के विरुद्ध उससे सहायता की याचना की।
अकबर ने उसके साथ उदारता का व्यवहार किया और उसकी सहायता करने का वचन दिया। भारमल ने इस मैत्री सम्बन्ध को सुदृढ़ बनाने के लिए अपनी पुत्री हीराकंवर का विवाह अकबर के साथ कर दिया। अकबर ने राजा भारमल के पुत्र भगवानदास (इसे भगवंतदास भी कहते हैं) तथा पौत्र मानसिंह को भी शाही सेवा में रख लिया। इस प्रकार राजपूतों के साथ अकबर के सम्बन्धों की शुरुआत हुई।
गोंडवाना विजय
गोंडवाना का राजपूत राज्य आधुनिक मध्य प्रदेश के उत्तरी भाग में स्थित था। वह बड़ा ही सम्पन्न तथा सबल राजपूत राज्य था और बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था। चौरागढ़ इस राज्य की राजधानी थी। इन दिनों गोंडवाना के सिंहासन पर वीर नारायण नामक एक अल्पवयस्क राजकुमार आसीन था और शासन का संचालन उसकी माता दुर्गावती के हाथों में था जो महोबा के चन्देल राजा की पुत्री थी।
दुगार्वती न केवल रूप-लावण्य में वरन् वीरता तथा साहस में भी अद्वितीय थी। वह युद्ध कला में प्रवीण थी तथा बन्दूक एवं बाण चलाने में दक्ष थी। उसके बारे में कहा जाता था कि यदि वह सुन लेती थी कि कोई शेर दिखाई दिया है तो उसका शिकार किये बिना पानी नहीं पीती थी। उसने अपने पड़ौसी राज्यों को कई बार परास्त किया।
अकबर के राज्य की सीमा, गोंडवाना राज्य की सीमा से मिल गई थी इसलिये गोंडवाना राज्य का मुगल साम्राज्य से संघर्ष होना अनिवार्य हो गया। कड़ा का मुगल सूबेदार आसफखाँ गोंडवाना की सम्पत्ति लूटने के लिये लालायित रहता था। उसने एक विशाल सेना के साथ गोंडवना पर आक्रमण किया। अफगानों ने भी राजपूतों का साथ दिया।
राजपूतों ने तीन बार मुगलों को पीछे धकेला परन्तु दुर्भाग्वश राजा वीर नारायण घायल हो गया और उसे रणक्षेत्र से हटाकर सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया। वीर नारायण को रणक्षेत्र में न देखकर उसकी सेना का साहस भंग हो गया और वह भाग खड़ी हुई परन्तु रानी दुर्गावती अपने कुछ सौ स्वामिभक्त सैनिकों के साथ मैदान में डटी रही और निर्भय होकर शत्रुओं का संहार करती रही।
सहसा रानी की दाहिनी कनपटी में एक तीर आकर लगा। रानी ने तीर को निकाल फेंका परन्तु उसकी नोक कनपटी में ही रह गयी। इतने में दूसरा तीर रानी के गले में घुस गया। उसने उसे भी बाहर निकला फेंका परन्तु रानी को मूर्छा आने लगी। रानी को शत्रु के हाथों में पड़ने से बचने की कोई आशा न रही।
इस पर रानी ने अपने मंत्री को अपना वध करने का आदेश दिया परन्तु राजपूत मंत्री को अपनी रानी पर तलवार चलाने का साहस नहीं हुआ। इस पर रानी दुर्गावती ने स्वयं अपनी कटार अपने सीने में भोंक ली। वीर नारायण फिर से रणक्षेत्र में आ डटा परन्तु वह भी मारा गया। राजपूतों ने ‘साका’ किया और हिन्दू ललनाओं ने जौहर का आयोजन किया। चौरागढ़ पर आसफ खाँ का अधिकार हो गया तथा रानी दुर्गावती का कोष भी आसफखाँ के हाथ लग गया। रानी दुगार्वती तथा उसकी शौर्यगाथा भारत के इतिहास में अमर हो गई।
मेवाड़ के विरुद्ध संघर्ष
मेवाड़ के शासकों के साथ मुगलों की शत्रुता मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के समय से चली आ रही थी। बाबर ने राणा सांगा को खनवा के मैदान में परास्त किया था। हुमायूँ ने मेवाड़ की राजमाता कर्णावती द्वारा राखी भिजवाये जाने पर भी उसे सहायता नहीं दी थी।
यद्यपि बहुत से राजपूत राज्यों ने अकबर के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया था और मुगल दरबार में उच्च पद प्राप्त कर लिये थे परन्तु मेवाड़ के शासकों ने मुगलों के सामने सिर नहीं झुकाने का निर्णय लिया। उनका यह निर्णय अकबर की साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध था। मेवाड़ राजपूत राज्यों के लगभग मध्य में स्थित था, इसलिये मेवाड़ के स्वतंत्र रहने से अन्य राजपूत राज्यों को भी स्वतन्त्र रहने के लिये प्रोत्साहन प्राप्त हो रहा था।
इस कारण अकबर को अन्य राजपूत राज्यों पर नियन्त्रण रखने में कठिनाई हो रही थी। अतः अकबर ने चित्तौड़ को परास्त कर अपने अधीन करने का निश्चय किया। 30 अगस्त 1567 को अकबर ने आगरा से मेवाड़ के लिये प्रस्थान किया। मुगल सेनाओं ने राजपूताने में प्रवेश करके शिवपुर, कोटा तथा मण्डलगढ़ के दुर्गों पर अधिकार कर लिया।
अब मुगल सेना चित्तौड़ की ओर बढ़ी और उसका घेरा डाल दिया। चित्तौड़ के सरदारों ने मेवाड़ के राणा उदयसिंह को किसी सुरक्षित स्थान में भेजने का निर्णय लिया। राणा उदयसिंह ने सरदारों के निर्णय को स्वीकार कर लिया और जयमल तथा पत्ता को दुर्ग की सुरक्षा का भार देकर स्वयं उदयगिरि की पहाड़ियों की ओर चला गया।
अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग पर भयानक प्रहार किया। राजपूतों ने भी उसी दृढ़ता से अकबर की तोपों तथा बंदूकों का जवाब दिया। राजपूतों की ओर से बहुत से अफगान भी दुर्ग की रक्षा करने में संलग्न थे, जो बन्दूक तथा तोप चलाने में दक्ष थे। दुर्ग को लेने में मुगलों के समस्त प्रयत्न निष्फल होते जा रहे थे।
एक दिन अकबर ने बन्दूकचियों के प्रधान इस्माइल खाँ को देख लिया और उस पर बन्दूक से निशाना साधा। गोली इस्माइल खाँ को लगी और वह धरती पर गिरकर मर गया। अकबर के दूसरे निशाने ने जयमल को घायल कर दिया। इस्माइल खाँ के मर जाने और जयमल के घायल हो जाने से राजपूतों का उत्साह भंग हो गया।
अकबर का दबाव बढ़ता ही गया। इस पर हिन्दू ललनाओं ने जौहर का आयोजन किया। राजपूतों ने ‘साका’ करने का निश्चय किया। वे केसरिया बाना धारण कर दुर्ग के द्वार खोलकर बाहर निकल आये। दोनों ओर से तुमुल युद्ध आरम्भ हो गया। जयमल तथा पत्ता ने अपने राजपूत वीरों के साथ शत्रुओं का संहार करना आरम्भ किया।
अंत में वे दोनों ही रणखेत रहे। पत्ता की माता तथा पत्नी ने भी हाथ में तलवार लेकर शत्रु से युद्ध किया और अपने प्राणों को स्वतन्त्रता देवी की वेदी पर अर्पित कर दिया। चित्तौड़ के दुर्ग पर अकबर का अधिकार हो गया और उसका प्रबन्ध आसफखाँ को सौंप दिया गया।
जब अकबर वापस आगरा लौटा तो उसने आगरा के दुर्ग के मुख्य द्वार के दोनों ओर पत्थर के हाथियों पर आसीन जयमल और पत्ता की मूर्तियाँ बनवाकर लगवाईं। चित्तौड़ दुर्ग अकबर के अधिकार में चला गया किंतु मेवाड़ ने अपनी स्वतंत्रता का त्याग नहीं किया। उदयसिंह ने पहाड़ों में उदयपुर नामक नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया और वहीं से मेवाड़ पर शासन करने लगा।
रणथम्भौर विजय
चित्तौड़ विजय के बाद अकबर ने रणथम्भौर के अभेद्य दुर्ग को जीतने का निश्चय किया जो एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित था। इन दिनों रणथम्भौर पर पृथ्वीराज चौहान के वंशज सुर्जन हाड़ा का अधिकार था। अकबर ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व किया और किले पर भारी गोलीबारी की। सुर्जन हाड़ा ने कई दिनों तक अकबर की विशाल सेना का सामना किया किंतु अंत में विवश होकर अकबर के साथ सम्मानजनक शर्तों पर संधि कर ली और रणथम्भौर का दुर्ग अकबर को समर्पित कर दिया। अकबर ने सुर्जन हाड़ा को गढ़कण्टक का दुर्गपति बना दिया और बनारस तथा चुनार के सूबे भी उसे दे दिए।
कालिंजर विजय
कालिंजर राजपूतों के प्रसिद्ध दुर्गों में से था। अकबर ने मजनूखाँ को इस दुर्ग पर आक्रमण करने भेजा। कालिंजर के दुर्गपति रामचन्द्र ने शत्रु का सामना किया परन्तु जब उसे चित्तौड़ तथा रणथम्भौर के समर्पण की सूचना मिली तब उसका साहस भंग हो गया और उसने समर्पण कर दिया। अकबर ने रामचन्द्र से कालिंजर का दुर्ग लेकर उसे इलाहाबाद के निकट एक जागीर दे दी।
अन्य राजपूत राज्यों का समर्पण
चित्तौड़, रणथम्भौर तथा कालिंजर के प्रसिद्ध दुर्गों पर अधिकार करके अकबर ने अपनी शक्ति तथा प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि कर ली। उसकी इन विजयों का अन्य राजपूत राज्यों के मनोबल पर बुरा प्रभाव पड़ा। जोधपुर के राजा चन्द्रसेन, बीकानेर के राजा कल्याणमल तथा जैसलमेर के महारावल ने युद्ध किये बिना ही अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। अकबर ने इन राजाओं के साथ अधीनस्थ मित्रता का व्यवहार किया और उन्हें उनके राज्यों में बने रहने दिया।
महाराणा प्रताप के साथ संघर्ष
यद्यपि राणा उदयसिंह के समय में चित्तौड़ पर अकबर का अधिकार हो गया था परन्तु उदयसिंह ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी। वह उदयगिरि की पहाड़ियों में उदयपुर नामक नगर की स्थापना करके स्वतन्त्रतापूर्वक शासन करता रहा। फरवरी 1572 में उदयसिंह का निधन हो गया।
वह अपने पुत्र जगमल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर गया था किंतु मेवाड़ के सरदारों ने उदयसिंह के बड़े पुत्र प्रतापसिंह को मेवाड़ के सिंहासन पर बैठाया। जगमल असंतुष्ट होकर अकबर की शरण में चला गया। अकबर ने उसे अपनी चाकरी में रख लिया तथा उसे एक जागीर दे दी।
1573 ई. में अकबर ने आम्बेर के राजकुमार कुंवर मानसिंह को महाराणा प्रतापसिंह से समझौता करने के लिए मेवाड़ भेजा। महाराणा ने मानसिंह का स्वागत किया और मानसिंह ने महाराणा को अकबर की ओर से भेजे गये वस्त्र दिये। महाराणा ने उन्हें भी स्वीकार कर लिया किंतु महाराणा अकबर के दरबार में उपस्थित होने के लिये सहमत नहीं हुआ।
इससे मानसिंह विफल होकर लौट गया। सितम्बर 1573 में अकबर ने आम्बेर के राजा भगवानदास को उसी उद्देश्य से उदयपुर भेजा। महाराणा ने राजा भगवानदास का भी सम्मान पूर्वक स्वागत किया। महाराणा ने अपने पुत्र कुंवर अमरसिंह को राजा भगवानदास के साथ अकबर के दरबार में भेज दिया। नवम्बर 1573 में राजा भगवान दास अमरसिंह के साथ फतेहपुर पहुँच गया। थोड़े दिन बाद राजा टोडरमल भी महाराणा के राज्य से होकर गुजरा। उसके साथ भी महाराणा ने अच्छा व्यवहार किया।
यद्यपि राणा तथा अकबर दोनों ही मैत्री-भाव प्रकट कर रहे थे परन्तु अकबर इस बात पर जोर दे रहा था कि महाराणा स्वयं उसका अभिनन्दन करने के लिए उसके दरबार में आये किंतु महाराणा ऐसा करने के लिए तैयार नहीं था। महाराणा चाहता था कि अकबर मेवाड़ के विजित क्षेत्रों को फिर से लौटा दे परन्तु अकबर ऐसा करने के लिए तैयार नहीं था।
महाराणा ने ऐसे कई राजपूत राजाओं तथा अफगानों के साथ मैत्री कर ली जिनसे अकबर की शत्रुता थी इसलिये अकबर को महाराणा की सद्भावना पर अधिक विश्वास नहीं था। जब जोधपुर तथा बूँदी के राजाओं ने विद्रोह का झण्डा खड़ा किया तब अकबर को लगा कि महाराणा प्रताप उनको उपद्रव करने लिए उकसा रहा है। इसलिये उसने महाराणा से युद्ध करने का निश्चय किया।
1576 ई. में अकबर ने कुंवर मानसिंह को पाँच हजार घुड़सवारों के साथ महाराणा पर आक्रमण करने भेजा। मानसिंह मण्डलगढ़ के मार्ग से हल्दीघाटी के पर्वतीय मार्ग के पास आ गया। महाराणा प्रताप भी तीन हजार घुड़सवारों के साथ वहाँ आ डटा। कई अफगान मित्र भी राणा की सेना से आ मिले।
घमासान युद्ध आरम्भ हो गया। राजपूतों ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिये। ऐसा लगने लगा कि विजयलक्ष्मी महाराणा प्रताप का आलिंगन करेगी। उसी समय यह सूचना फैला दी गई कि अकबर स्वयं विशाल सेना लेकर आ रहा है। तब राणा प्रताप ने अपनी सेना को पीछे हटा लिया और अरावली की पहाड़ियों में गोगुंदा की ओर चला गया। प्रताप ने पच्चीस वर्षों तक मेवाड़ पर शासन किया। 59 वर्ष की आयु में उसका निधन हो गया।
महाराणा प्रताप के शौर्य तथा त्याग की प्रशंसा करते हुए कर्नल टॉड ने लिखा है- ‘इस प्रकार उस राजपूत के जीवन का अन्त हुआ, जिसकी स्मृति की पूजा आज भी प्रत्येक सिसोदिया करता है और तब तक करता रहेगा जब तक नया अत्याचार देश प्रेम की भावना की अवशिष्ट चिनगारियों को बुझा न देगा। भगवान न करे कि ऐसा दिन आये परन्तु यदि उनके भाग्य में यही बदा है तो कम से कम ब्रिटेन अपने सैन्यबल से ऐसा न करे। अरावली की पहाड़ियों में कोई ऐसा पर्वतीय मार्ग नहीं है, जो प्रताप के किसी वीर कार्य, किसी महान् विजय अथवा विजय से भी अधिक श्लाघनीय पराजय से पवित्र न बना दिया गया हो। हल्दीघाटी मेवाड़ का थर्मापोली और देवेर का रणक्षेत्र उसका मराथान है।’
क्या राणा प्रताप तथा अकबर का संघर्ष दो जातियों का संघर्ष था
राणा प्रताप तथा अकबर के बीच के भयानक संघर्ष को कुछ इतिहासकारों ने दो जातियों तथा दो धर्मों का संघर्ष बताया है। उनके विचार से महाराणा प्रताप हिन्दू जाति तथा हिन्दू धर्म के गौरव की रक्षा के लिए मुगलों के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे। जबकि कुछ इतिहासकार इस मत को स्वीकार नहीं करते तथा महाराणा पर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा की बजाय अपने राज्य की रक्षा के लिये युद्ध किया।
इन इतिहासकारों के अनुसार महाराणा प्रताप अव्यवहारिक तथा अदूरदर्शी थे इसलिये उन्होंने संधि का मार्ग न अपनाकर युद्ध का मार्ग अपनाया। इस मत के समर्थन तथा विरोध में दिये जाने वाले तर्क इस प्रकार से हैं-
महाराणा के समर्थन में दिये जाने वाले तर्क
(1.) निश्चित रूप से महाराणा प्रताप हिन्दू धर्म तथा हिन्दू जाति की रक्षा के लिये लड़ रहे थे न कि अपने राज्य के लिये।
(2.) यदि महाराणा प्रताप चाहते तो वे भी कुंवर मानसिंह तथा राजा भगवानदास के बहकावे में आकर अकबर की अधीनता स्वीकार करके सरलता से चित्तौड़गढ़ का दुर्ग प्राप्त कर सकते थे तथा उदयपुर को अपनी राजधानी बनाये रख सकते थे किंतु हिन्दुआनी आन, बान और शान ने उन्हें झुकने नहीं दिया।
(3.) यदि महाराणा प्रताप अपने राज्य तथा सिसोदिया कुल की राज्य सत्ता की रक्षा के लिये ही लड़ रहे थे तो यह कार्य वे अकबर की अधीनता स्वीकार करके भी बड़ी सरलता से कर सकते थे।
(4.) यदि महाराणा प्रताप एकदम अव्यवहारिक, कल्पनाशील तथा वास्तविकता को नहीं समझने वाले थे तो उन्होंने अकबर द्वारा भेजे गये उपहार क्यों स्वीकार किये? उन्होंने अपने कुंवर को अकबर के दरबार में भेजकर सद्भावना का परिचय क्यों दिया? स्पष्ट है कि महाराणा प्रताप अपनी ओर से अकबर से सद्भावना बनाये रखना चाहते थे। वे अकारण युद्ध खड़ा नहीं करना चाहते थे।
(5.) यदि महाराणा प्रताप अव्यवहारिक व्यक्ति होते तो वे अवश्य ही तलवार के बल पर अपने पूर्वजों के दुर्ग चित्तौड़ को लेने का प्रयास करते किंतु उन्होंने परिस्थितियों की वास्तविकता को समझते हुए, ऐसा करने का कभी भी प्रयास नहीं किया।
(6.) महाराणा ने अकबर पर आक्रमण नहीं किया अपितु अकबर ने ही महाराणा पर आक्रमण करके महाराणा को युद्ध करने के लिये विवश किया।
(7.) यदि महाराणा को हिन्दू धर्म की आन, बान और शान की चिंता नहीं होती तो वे अपने अंतिम दिनों में इस बात को लेकर दुखी क्यों होते कि उनका पुत्र अमरसिंह हिन्दुओं के गौरव की रक्षा नहीं कर सकेगा।
(8.) अकबर ने महाराणा पर निरंतर दबाव बनाया कि महाराणा, अकबर के दरबार में उपस्थित होकर उसे मुजरा करें किंतु महाराणा ने हिन्दू धर्म तथा हिन्दू जाति की मर्यादा तथा उसके गौरव की रक्षा के लिये अकबर के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।
(9.) यदि महाराणा को हिन्दू धर्म के गौरव की चिंता नहीं होती तो पीथल के एक पत्र लिखने पर ही महाराणा ने अकबर से संधि करने का विचार नहीं त्यागा होता।
(10.) यदि महाराणा हिन्दू धर्म के गौरव की रक्षा के लिये नहीं लड़ रहे होते तो महाराणा के समकालीन तथा बाद के समय में हुए चारणों, भाटों एवं स्थानीय कवियों ने महाराणा प्रताप की युद्ध गाथा को हिन्दू जाति के गौरव की रक्षा से जोड़कर नहीं लिखा होता।
(11.) सिसोदियों का इतिहास बताता है कि वे मुगलों से बराबरी के स्तर पर तो मित्रता कर सकते थे किंतु उनकी अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। प्रताप से पहले रानी कर्णवती ने भी हुमायूँ को राखी भेजकर मुगलों की तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाया किंतु आम्बेर के राजा भारमल ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर मुगलों की सहायता प्राप्त की।
(12.) वर्तमान राजनीतिक वातावरण में अधिकांश इतिहासकारों को हिन्दू धर्म के गौरव से अधिक चिंता स्वयं को धर्मनिरपेक्ष दिखाने की है। इसलिये वे महाराणा के महान त्याग एवं संघर्ष को तुच्छ राज्य के लिये किया गया संघर्ष बताते हुए नहीं हिचकिचाते।
विरोध में दिये जाने वाले तर्क
(1.) यदि महाराणा प्रताप हिंदू जाति तथा हिंदू धर्म की रक्षा के लिये संघर्ष करते तो महाराणा प्रताप को अफगानों की सहायता प्राप्त नहीं हुई होती।
(2.) ऐसी स्थिति में महाराणा प्रताप अपनी सेना के एक अंग का संचालन हकीम खाँ सूरी को न सौंपते।
(3.) दूसरी तरफ अकबर भी अपनी सम्पूर्ण सेना का संचालन कुंवर मानसिंह को न सौंपता।
(4.) यदि यह हिन्दू जाति, हिन्दू धर्म तथा देश की स्वतन्त्रता की रक्षा का युद्ध होता तो अन्य राजपूत राज्य महाराणा के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर अकबर से लड़े होते।
(5.) यह कहना कि समस्त राजपूत कायर हो गये थे और उनका इतना अधिक नैतिक पतन हो गया था कि वे अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए अपनी स्वतन्त्रता, अपने धर्म तथा मान-सम्मान को मुगलों के हाथ बेच देने के लिए उद्यत हो गये थे, किसी भी प्रकार स्वीकार्य नहीं है।
(6.) वास्तविकता तो यह थी कि राणा प्रताप मेवाड़ राज्य तथा सिसोदिया वंश की राज्य सत्ता की रक्षा के लिये लड़ रहे थे। इसी कारण इस युद्ध से अन्य राजपूत राज्यों को विशेष उत्तेजना नहीं मिली।
(7.) राजपूताना के राजपूत राज्यों को मेवाड़ की साम्राज्यवादी नीति का अनुभव हो चुका था और मेवाड़़ के प्रतापी राजाओं ने उनके साथ जो व्यवहार किया था उनमें मेवाड़ के प्रति पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया था। अब वे मेवाड़ के नेतृत्व में संगठित होने के लिए तैयार नहीं थे।
(8.) अकबर भी जातीयता अथवा धार्मिक भावना से प्रेरित होकर महाराणा से युद्ध नहीं कर रहा था। मेवाड़ पर आक्रमण उसकी साम्राज्यवादी नीति का एक अंग था। यदि मेवाड़ गैर हिन्दू राज्य होता तो भी अकबर उस पर उसी प्रकार आक्रमण करता, जिस प्रकार उसने अन्य हिन्दू अथवा मुसलमान राज्यों पर किया था। अकबर ने विशुद्ध राजनीतिक उद्देशय से मेवाड़ पर आक्रमण किया था।
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि महाराणा प्रताप एक आदर्शवादी राजा थे। वे प्राचीन क्षत्रियों के आदर्श पर चलते हुए हिन्दू जाति तथा धर्म के गौरव को बनाये रखने के लिये जीवन भर संघर्ष करते रहे तथा उन्होंने राज्य को पाने के लिये अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की।
उन्होंने अफगानों की सहायता केवल इसलिये स्वीकार की क्योंकि अफगान, मुगलों के सबसे बड़े शत्रु थे। यह भी स्पष्ट है कि महाराणा का हिन्दुत्व काल्पनिकता तथा कोरी भावुकता से प्रेरित नहीं था जिसमें हाकिम खाँ सूरी जैसे अफगान तोपचियों की सेवा लेने का भी साहस नहीं हो।
हिन्दू जाति तथा हिन्दू गौरव की रक्षा का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि महाराणा के लिये अफगान मित्र भी अस्पर्श्य हो जाते। महाराणा पर थोथे आदर्श, काल्पनिकता तथा कोरी भावुकता का आरोप तभी लग सकता था जब वे मुगलों के साथ-साथ अफगानों को भी अपना शत्रु बना लेते।
जब अकबर राजपूतों की तलवार से राजपूतों को मार सकता था तो महाराणा भी अफगानों की तोपों से मुगलों को मार सकते थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि अकबर मुस्लिम राज्य की स्थापना के लिये लड़ रहा था तथा महाराणा प्रताप हिन्दू गौरव की रक्षा के लिये लड़ रहे थे।