अकबर की राजपूत नीति मध्यकालीन भारतीय इतिहास मे युगांतरकारी परिवर्तन लाने में सक्षम सिद्ध हुई। अकबर ने राजपूतों के साथ सुलह एवं मैत्री का मार्ग अपनाया।
अकबर अशिक्षित था किंतु संघर्षों ने उसे चतुर राजनीतिज्ञ बना दिया था। कामरान की निर्दयता, बैरमखाँ की संगति, हरम के कुचक्रों तथा मिर्जाओं के षड़यंत्रों ने अकबर को अपनी तथा अपने साम्राज्य की रक्षा के लिये विशेष रूप से सतर्क कर दिया था। इसलिये अकबर ने अफगानों के साथ विजय तथा उन्मूलन की नीति का अनुसरण किया परन्तु राजपूतों के साथ उसने क्षमा, मित्रता तथा सहयोग की नीति को अपनाया।
डॉ. ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में- ‘बिना राजपूतों के सहयोग के भारतीय साम्राज्य सम्भव नहीं था और बिना उनके विवेकपूर्ण तथा सक्रिय सहयोग के सामाजिक तथा राजनीतिक एकता स्थापित नहीं हो सकती थी। नई राज-संस्था हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों को मिलाकर बनानी थी और दानों ही का कल्याण करना था।’
अकबर की राजपूत नीति के प्रमुख कारण
अकबर द्वारा अपनाई गई राजपूत नीति के कई कारण कारण थे-
(1.) मुस्लिम अमीरों पर नियन्त्रण रखने में सुविधा
अकबर को मुगल, तुर्क, अफगान तथा चगताई अमीरों और मिर्जाओं पर विश्वास नहीं था, क्योंकि वे प्रायः विद्रोह करके तख्त हड़पने का प्रयास करते थे। वे लोग प्रायः विद्रोही अमीरों एवं बादशाह के शत्रुओं से मिल जाते थे और उनकी शक्ति को प्रबल बना देते थे।
ऐसी स्थिति में अकबर को ऐसे नये अमीरों की आवश्यकता थी, जो अकबर के प्रतिद्वंद्वी न हों, जिनकी स्वामिभक्ति अटल हो और जिनकी सहायता से अकबर विश्वासघाती तथा विद्रोही मुस्लिम अमीरों पर नियंत्रण रख सके। अकबर की इस आवश्यकता की पूर्ति राजपूतों की वीर, विश्वसनीय तथा स्वाभिमानी जाति ही कर सकती थी। इसलिये अकबर ने राजपूत अमीरों का एक प्रबल दल बनाने का निश्चय किया।
(2.) अलोकप्रियता का निवारण
मुगल भारत में बर्बर तथा विदेशी समझे जाते थे। बाबर अपनी अकाल मृत्यु के कारण और हुमायूँ अपने संघर्षमय जीवन के कारण इस अलोकप्रियता को दूर नहीं कर सका था। अकबर चाहता था कि भारतीय प्रजा उसे भयवश नहीं वरन् प्रेम तथा श्रद्धा से अपना शासक स्वीकार करे।
चूँकि मुगलों ने अफगानों से राज्य छीना था, इसलिये अफगानों के हृदय पर इतनी जल्दी विजय प्राप्त करना सम्भव नहीं था जबकि राजपूतों की स्वतंत्र सत्ता को समाप्त हुए समय हो चुका था इसलिये उन्हें अधिक सरलता से अपनी तरफ किया जा सकता था।
(3.) राजपूतों के प्रति कृतज्ञता
अकबर का जन्म एक राजपूत राजा के संरक्षण में तथा उसके महल में हुआ था जबकि अकबर के अपने चाचा ने अकबर के प्राण लेने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। इसलिये अकबर राजपूतों की उदारता का जवाब उनके साथ उदारता व्यवहार करके देना चाहता था। अपने हिन्दू शिक्षकों के उदार स्वभाव तथा उनके प्रभाव के कारण भी अकबर ने हिन्दुओं, विशेषकर राजपूतों के साथ उदारता का व्यवहार किया।
(4.) राजपूतों के गुणों का उपयोग
अकबर राजपूतों के विलक्षण गुणों के कारण भी उन्हें अपना मित्र बनाने के लिए उत्सुक था। वह राजपूतों की वीरता तथा साहस से प्रभावित था। वह जानता था कि राजपूत अपने वचन के पक्के होते हैं और कभी विश्वासघात नहीं करते। अकबर को इस वीर जाति की सहायता की बड़ी आवश्यकता थी। इसलिये उसने राजपूतों से मैत्री करने का निश्चय कर लिया।
(5.) सैनिक आवश्यकता की पूर्ति
अकबर को अपने उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए एक विशाल सेना की आवश्यकता थी। उसे अपने पूर्वजों के प्रदेश से सैनिक सहायता प्राप्त होने की आशा नहीं थी वरन् उस ओर से संकट की ही संभावना बनी रहती थी। उसे भारत में योग्य तथा कुशल सैनिक राजपूताने से ही प्राप्त हो सकते थे जिन्हें अपनी सेना में भर्ती करके अकबर अपनी शक्ति में वृद्धि कर सकता था।
(6.) राजपूताने का भौगोलिक महत्त्व
राजपूताना दिल्ली तथा आगरा के अत्यन्त निकट स्थित था। इसलिये राजपूत मुगल साम्राज्य तथा उसकी राजधानी के लिए कभी भी खतरनाक अथवा उपयोगी सिद्ध हो सकते थे। ऐसी स्थिति में अकबर के पास दो मार्ग थे- या तो वह राजपूतों को अपना मित्र बना ले या उनसे युद्ध करके उन्हें समाप्त कर दे।
अकबर जानता था कि राजपूतों को समाप्त करना सम्भव नहीं था। यदि वह उनके साथ उलझ जाता तो उसकी दक्षिण विजय तथा अन्य योजनाएँ सफल नहीं हो पातीं। इसलिये उसने राजपूतों को अपना सहायक बनाकर उनकी सहायता से अपने उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयत्न किया।
(7.) साम्राज्य की सुरक्षा तथा स्थायित्व में सहयोग
अकबर समझ गया था कि बहुसंख्यक हिन्दुओं, विशेषकर स्थानीय राजपूत शासकों की सहायता के बिना उसका साम्राज्य सुरक्षित नहीं रहेगा और न उसे स्थायित्व प्राप्त होगा। साम्राज्य को आमूलचूल सुदृढ़ बनाने के लिए स्थानीय शासन का समर्थन प्राप्त करना आवश्यक था।
चूँकि राजपूत लोग ही हिन्दू जाति के नेता थे, इसलिये उनका समर्थन प्राप्त करने का तात्पर्य सम्पूर्ण हिन्दू जाति का समर्थन तथा सहयोग प्राप्त करना था। अतः अकबर ने राजपूतों के साथ उदारता का व्यवहार करके उनके हृदय पर विजय प्राप्त करने तथा साम्राज्य निर्माण में उनकी सहायता प्राप्त करने का निर्णय लिया।
(8.) साम्राज्य विस्तार में सहायता
साम्राज्य विस्तार के कार्य में भी राजपूत सहायक सिद्ध हो सकते थे। अकबर न केवल मुसलमान राज्यों अपितु स्वतंत्रता प्रेमी राजपूत राज्यों का विध्वंस करने में मित्र राजपूत राज्यों की सहायता ले सकता था। राजपूतों को राजपूतों की ही तलवार से नष्ट करने में अधिक आसानी रहने की संभावना थी।
(9.) सुलह-कुल की भावना
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अकबर सुलह-कुल की भावना से प्रेरित था। इसलिये वह उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण करके समस्त प्रजा को प्रसन्न रखना चाहता था। इस प्रकार न केवल उपयोगिता की दृष्टि से अपितु सुलह-कुल की नीति के कारण भी अकबर ने राजपूतों को अपना मित्र बनाने का निश्चय किया था।
अकबर की राजपूत नीति का क्रियात्मक स्वरूप
अकबर की राजपूत नीति का क्रियात्मक स्वरूप इस प्रकार से था-
(1.) राजपूतों की सैनिक क्षमता का उपयोग
अकबर ने राजपूत सैनिकों को अपनी सेना में भरती किया और राजपूत राजाओं को मुगल सेना में उच्च पद दिये। इससे अकबर को अपने साम्राज्य का विस्तार करने में बड़ी सहायता मिली। उसने राजपूतों को न केवल शत्रु मुस्लिम राज्यों के विरुद्ध अपितु शत्रु राजपूत राज्यों के विरुद्ध भी प्रयोग किया।
(2.) राजपूतों की शासन क्षमता का उपयोग
अकबर ने शासकीय विभाग में भी राजपूतों को उच्च पद दिये। उसने राजपूत राजाओं को बड़े-बड़े प्रान्तों का शासक बनाया और केन्द्रीय सरकार में उच्च पद दिये। इस प्रकार उसने राजपूतों की शासकीय प्रतिभा का लाभ उठाकर अपने साम्राज्य की नींव को सुदृढ़ बनाया।
(3.) राजपूतों की स्वामिभक्ति का उपयोग
अकबर ने राजपूत राजाओं एवं राजकुमारों को अपने दरबार में उच्च पद दिये और राजपूत मनसबदारों का एक प्रबल दल खड़ा कर लिया। स्वामिभक्त मनसबदारों का यह दल विद्रोही अमीरों के विरुद्ध बादशाह की ढाल बनकर खड़ा हो गया। जब भी कोई तुर्की, चगताई, अफगान अथवा मंगोल अमीर बादशाह के विरुद्ध विद्रोह करता था, अकबर राजपूत मनसबदारों को उसके विरुद्ध झौंक देता था।
(4.) राजपूतों की प्रतिष्ठा का दमन
राजपूत राजाओं तथा राजुकमारों ने मुगल सेना में भर्ती होकर, शासकीय पदों पर काम करके तथा मुगल दरबार में मनसबदारी स्वीकार करके मुगल साम्राज्य की जितनी सेवा की, वैसा उदाहरण विश्व इतिहास में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। इस मुगल भक्ति के कारण जनता की दृष्टि में राजपूतों की प्रतिष्ठा तथा गौरव पहले जैसा नहीं रहा।
प्रजा अब उन्हें राष्ट्र का रक्षक न मानकर मुगलों का चाकर मानने लगी। मुगल दरबार में उन्हें चाहे जो सम्मान मिला हो परन्तु देशवासियों की दृष्टि में वे गिर गये और उनका जातीय अभिमान कमजोर पड़ गया। केवल राणा प्रताप जैसे कुछ राजपूत शासक ही मुगलों के विरुद्ध टिके रहकर अपनी गौरव पताका को गिरने से बचा सके थे।
(5.) राजपूतों की राज्य लक्ष्मी का हरण
मुगलों के भारत में आने से पहले राजपूतों ने मुसलमान शासकों की अधीनता अथवा मित्रता स्वीकार नहीं की थी। वे लगातार लड़ते रहे और अपनी खोई हुई राज्यसत्ता को प्राप्त करने का प्रयास करते रहे। अकबर ने सुलह-कुल की नीति के तहत उन्हें मित्रता के बहाने से अधीन बनाया।
वही राजपूत अपनी रियासत पर शासन कर सकता था जो बादशाह की चाकरी स्वीकार करे। यदि कोई राजपूत शासक अथवा राजकुमार ऐसा नहीं करता था तो उसका राज्य उसके किसी भाई को दे दिया जाता था। इस प्रकार राजपूत अपनी रियासत के वास्तविक स्वामी नहीं रहकर मुगलों के प्रतिनिधि बन गये।
(6.) राजपूतों की कुलीय उच्चता पर प्रहार
अकबर ने मुगल राजकुमारों से राजपूत राजकन्याओं के विवाह करवाकर राजपूतों की कुलीय उच्चता एवं मर्यादा को नष्ट करने का प्रयास किया। उसने राजपूत कन्याओं के विवाह तो मुसलमान शहजादों के साथ करवाये परन्तु किसी मुगल शहजादी का हाथ किसी हिन्दू राजा के हाथ में नहीं दिया।
यहाँ तक कि मुगलों ने शहजादियों के विवाह की परम्परा ही समाप्त कर दी ताकि भारत में कोई भी राजवंश, मुगलों की बराबरी अथवा उच्चता का दावा न कर सके। जब कोई मुगल शहजादा, बादशाह के विरुद्ध विद्रोह करता था तो उसे पकड़कर लाने वाले राजपूत सेनापति अथवा मनसबदार को यह अधिकार नहीं होता था कि वह विद्रोही मुगल शहजादे को अपमानित करे, उसका अंग-भंग करे, उसे मृत्यु दण्ड दे अथवा उसे किसी भी तरह नीचा दिखाये। राजपूत राजाओं को युद्ध क्षेत्र में लाल रंग के तम्बू लगाकर रहने की अनुमति नहीं थी। ऐसा करने पर उन्हें दण्डित किया जाता था।
(7.) राजपूतों की सामरिक क्षमताओं का दमन
अकबर ने राजपूतों की सामरिक शक्ति को यथा सम्भव निर्बल बनाने का प्रयत्न किया। जिन राजपूत राजाओं अथवा राजकुमारों ने अकबर का विरोध किया उन्हें नष्ट कर दिया गया। जिन राजपूतों ने उसके आधिपत्य को स्वीकार कर लिया, उन्हें भी यथासम्भव निर्बल बनाकर रियासत दी गई।
राजपूतों के अत्यन्त प्रबल तथा महत्त्वपूर्ण दुर्ग उनसे छीन लिये गये और उन्हें किसी अन्य स्थान पर जागीर दे दी गई। बड़ी रियासतों में से छोटी-छोटी रियासतें बनाकर उसी वंश के राजकुमारों में बांट दी गईं। राजपूत राजा, अकबर की अनुमति के बिना अपने दुर्ग में जीर्णोद्धार अथवा नवीन निर्माण नहीं करवा सकते थे।
(8.) राजपूतों का अपनी प्रजा से अलगाव
अकबर राजपूत राजाओं एवं राजकुमारों को गुजरात, दक्षिण भारत अथवा काबुल आदि देशों में नियुक्त करके लम्बे समय के लिये उनकी रियासत से दूर भेज देता था जिससे रियासत में उसका प्रभाव तथा महत्त्व कम हो जाये और प्रजा से उनका सीधा सम्पर्क कट जाये। राजा के रियासत से दूर होने के कारण सरकारी कारिंदे अपनी मनमानी करते थे तथा उनकी शिकायतों को सुनने वाला भी कोई उपलब्ध नहीं होता था।
(9.) राजपूत राजाओं तथा उनके सामंतों के बीच अलगाव
अकबर ने राजपूत शासकों की शक्ति के स्रोत पर चोट की। उसने राजपूत शासकों एवं उनके सामंतों के बीच अलगाव उत्पन्न करने के लिये राजपूत राज्यों के सामन्तों को भी सीधे अपने अधीन करके उन्हें मनसब दिये। इससे बड़े-बड़े राजपूत राजाओं की प्रतिष्ठा तथा उनका प्रभाव कम हो गया। अनेक शक्तिशाली सामंत अब राजा के सेवक न रहकर उनके प्रतिद्वंद्वी बन गये। इस प्रकार अकबर ने एक कुशल राजनीतिज्ञ की भाँति राजपूतों की शक्ति को जड़ से काट दिया।
(10.) राजपूत राजाओं का परस्पर अलगाव
अकबर ने प्रयास किया कि राजपूत राजा बिना उसकी अनुमति के एक दूसरे से नहीं मिलें, ताकि राजपूत राजा एवं राजकुमार अपना कोई संगठन खड़ा नहीं कर सकें।
अकबर की राजपूत नीति के परिणाम
अकबर की राजपूत नीति के परिणाम व्यापक तथा दूरगामी थे। इस नीति के भारत के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिवेश पर गहरे प्रभाव हुए-
(1.) मुगलों की सैनिक शक्ति में वृद्धि
राजपूत सैनिक युद्ध क्षेत्र में तब तक लड़ते रहते थे जब तक कि या तो विजय प्राप्त हो जाये या प्राण चले जायें। वे अंतिम समय तक शत्रु सेना का संहार करते थे। ऐसे समर्पित योद्धाओं के मुगल सेना में भर्ती हो जाने तथा उच्च पदों पर पहुँच जाने से मुगल साम्राज्य की सैनिक शक्ति में बड़ी वृद्धि हुई।
(2.) मुगल साम्राज्य को स्थायित्व
राजपूत केवल बादशाह के प्रति स्वामिभक्त थे। उन्हें मुस्लिम अमीरों के कुचक्रों से कोई लेना-देना नहीं था। इन स्वामिभक्त राजपूतों की मुगल दरबार में उपस्थिति हो जाने से बादशाह की स्थिति बहुत मजबूत हो गई तथा मुगल साम्राज्य को दृढ़ता तथा स्थायित्व प्राप्त हो गया।
(3.) मुगल साम्राज्य में शांति एवं सुव्यवस्था की स्थापना
प्रांतीय एवं स्थानीय शासन में हिन्दू शासकों की सहायता उपलब्ध हो जाने से अकबर को अपने साम्राज्य में आन्तरिक विद्रोहों का दमन करने तथा दूरस्थ प्रांतों में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करने में सफलता मिल गई।
(4.) मुगल साम्राज्य के विस्तार में तेजी
अकबर का सैनिक बल बढ़ जाने से मुगल साम्राज्य के विस्तार का कार्य सरल हो गया। इससे सम्पूर्ण उत्तर भारत और दक्षिण का बहुत बड़ा भाग मुगल साम्राज्य के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष नियंत्रण में हो गया। राजपूतों तथा मुगलों की संयुक्त सेनाओं ने न केवल अफगानों अपितु स्वतन्त्र राजपूत राज्यों की शक्ति को नष्ट प्रायः कर दिया।
(5.) हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच घृणा में कमी
अपने अपने धर्म में आस्था रखने के कारण हिन्दू तथा मुलसमान एक दूसरे से घृणा करते थे। अकबर की उदार राजपूत नीति के कारण हिन्दू तथा मुसलमान एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में आ गये और उनमें विचार-विनिमय बढ़ गया। इससे परस्पर घृणा में कमी आ गई।
(6.) हिन्दुओं को धार्मिक अधिकार
राजपूतों का विश्वास जीतने के लिये अकबर को धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनानी पड़ी जिससे हिन्दुओं को भी धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई। मन्दिरों तथा मूर्तियों का तुड़वाया जाना बंद हो गया और नये मन्दिर बनवाने की स्वतंत्रता मिल गई। हिंदुओं को जजिया तथा अन्य प्रकार के करों से मुक्ति मिल गई।
(7.) हिन्दुओं को सरकारी नौकरियाँ
चूँकि सरकारी नौकरियों के द्वार हिन्दुओं के लिए भी खोल दिये गये इसलिये हिन्दुओं को भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने एवं आगे बढ़ने के अवसर प्राप्त हो गये।
(8.) जन जीवन में आर्थिक सुधार
अकबर की राजपूत नीति का भारतीयों के आर्थिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। हिन्दुओं को जजिया तथा अन्य कई करों से मुक्ति मिल गई। इससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आने लगा। राजा टोडरमल ने जो भूमि सुधार किये, उससे सरकारी कर्मचारियों की लूट में कमी आई तथा राजकीय कोष के साथ-साथ प्रजा को भी आर्थिक लाभ हुआ।
(9.) सांस्कृतिक परिवेश में सुधार
अकबर की राजपूत नीति का देश के सांस्कृतिक परिवेश पर भी बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। राजपूतों के मुगल दरबार में सभासद बन जाने से हिन्दू उत्सवों, उनके आचार विचार तथा रीति रिवाजों का मुगल दरबार में प्रवेश हो गया। अकबर ने हिन्दी तथा संस्कृत को प्रश्रय दिया और हिन्दू भी फारसी का अध्ययन करने लगे। उस काल के स्थापत्य पर हिन्दू-मुस्लिम मिश्रित शैली की छाप दिखाई देती है।
(10.) राजपूतों के गौरव में कमी
अकबर की राजपूत नीति से राजपूतों के प्राचीन गौरव को भीषण आघात लगा। उनकी राजनीतिक स्वतन्त्रता समाप्त हो गई और वे मुगल शहजादों के सेवक बन गये। उन्होंने अपनी बेहिन-बेटियों को मुगलों को देकर अपने कुल की प्रतिष्ठा तथा मान-मर्यादा को धूल में मिला दिया।
डॉ. अवध बिहारी पाण्डेय ने इस नीति के दुष्परिणाम पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘इससे राजपूत लोग उत्साहहीन तथा असन्तुष्ट हो गये। मुगल दरबार के अन्य अमीरों की संगति ने उन्हें दुर्गुणों का आखेट बना दिया और वे अपने पुराने गुणों को खोकर विलासप्रिय बन गये और अवसर मिलने पर धोखा तथा विश्वासघात करने लगे और पूर्ण रूप से विश्वास योग्य न रहे गये।’
अब राजपूत राजकुमार भी मुगल शहजादों की तरह राज्य प्राप्ति के लिये पिता, भाई तथा अन्य सम्बन्धियों की हत्याएँ करने लगे।
राजपूत शासकों द्वारा अकबर के साथ मैत्री के कारण
मेवाड़ को छोड़कर शेष राजपूत राज्यों ने अकबर के साथ मैत्री क्यों की, इस विषय पर इतिहासकारों में विभिन्न राय है। इस सम्बन्ध में दिये जाने वाले तर्क इस प्रकार से हैं-
(1.) अकबर से राजपूत मैत्री के युग का आरम्भ राजा भारमल द्वारा अपनी पुत्री का विवाह अकबर के साथ करने के बाद हुआ था। भारमल के लिये इस विवाह के परिणाम सुखद रहे। भारमल की पुत्री भारत की साम्राज्ञी बन गई। भारमल को छोटे-बड़े शत्रुओं से छुटकारा मिल गया तथा उसका राज्य सुरक्षित हो गया। उसके पुत्र तथा पौत्र को मुगल सेना में उच्च पद मिल गये। अन्य राजपूतों ने भी भारमल के इस कदम का अनुकरण करना ही ठीक समझा।
(2.) अकबर ने अपने व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया कि वह मित्र राजपूत राज्यों को उन्मूलित नहीं करेगा। उसने समस्त विजित मुसलमान राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया किंतु एक भी बड़े राजपूत राज्य को मुगल साम्राज्य में नहीं मिलाया।
(3.) युद्ध में परास्त होकर अधीनता स्वीकार करने वाले राजपूत शासकों को भी अकबर ने उसके राज्य से हटाकर अन्य स्थान पर जागीर देकर उसके अस्तित्त्व को बनाये रखा।
(4.) अकबर ने राजपूतों को यह विश्वास दिला दिया कि अकबर केवल इतना ही चाहता था कि समस्त राजपूत राज्य उसकी अधीनता स्वीकार कर लें और मुगल साम्राज्य के निर्माण में सहयोग प्रदान करें। इसके बदले में उन्हें शांति, सुरक्षा, उच्च पद, वेतन एवं जागीरें मिलेंगी।
(5.) जिन राजपूत राज्यों ने अकबर से मित्रता की, अकबर ने उन राजपूत राज्यों के आन्तरिक शासन में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया। उसने उन राज्यों की केवल विदेश नीति पर नियंत्रण स्थापित किया।
(6.) अकबर ने राजपूतों को विश्वास दिला दिया कि अकबर उनकी स्वतन्त्रता नहीं हड़पना चाहता है और न उनके सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा संास्कृतिक जीवन में किसी प्रकार का हस्तेक्षप करना चाहता है।
(7.) अकबर ने राजपूत राजाओं तथा राजकुमारों को मुगल साम्राज्य में उच्च पद प्रदान किये और उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जैसा दरबार के अन्य मुसलमान अमीरों के साथ किया जाता था। वह राजपूत तथा मुसलमान अधिकारियों को समान दृष्टि से देखता था और जाति तथा धर्म के आधार पर उनसे भेदभाव नहीं करता था।
(8.) राजपूतों को मुगल साम्राज्य में अपनी सामरिक तथा प्रशासनिक प्रतिभा के प्रदर्शन का पूर्ण अवसर प्राप्त था, जिससे वे अपनी भुजाओं का जौहर दिखा सकते थे।
(9.) दिल्ली सल्तनत की स्थापना से बहुत पहले से राजपूत राजा, मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध करते आये थे जिससे उनकी शक्ति को बहुत हानि पहुँची थी। उनके लिये अकबर की विशाल सेनाओं तथा उसके प्रचुर साधनों के समक्ष ठहर पाना कठिन था।
(10.) राजपूत यह समझ गये थे कि अकबर से लोहा लेने का तात्पर्य था भीषण नर-संहार, अपार सम्पत्ति का विनाश और अन्त में असफलता।
(9.) निरन्तर युद्ध का क्षेत्र बन जाने से राजपूताना नष्ट होता जा रहा था। राजपूताने को बचाने तथा शांति स्थापित करने का कार्य अकबर से मैत्री स्थापित करके बड़ी सरलता से किया जा सकता था।
(11.) कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राजपूतों में प्राचीन क्षत्रियों जैसा तेज नहीं रह गया था। इसलिये वे एक शक्तिशाली केन्द्रीय शासक की छत्रछाया में अपने राज्यों को सुरक्षित बनाये रखना चाहते थे।
(12.) राजपूत शासकों में अहंकार की भावना इतनी अधिक थी कि उनमें परस्पर भाईचारा स्थापित होना संभव नहीं था। वे सदैव किसी न किसी बात पर अपने पड़ौसी राज्यों से लड़ते रहते थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने स्वजातीय राजपूत शासक से परास्त होकर अथवा उसकी अधीनता स्वीकार करके रहने की बजाय विदेशी शक्ति के सहायक होकर रहना अधिक पसंद किया।
(13.) असंतुष्ट राजपूत राजकुमारों के लिये अकबर का दरबार सबसे बड़ी शरण स्थली था जहाँ उसे जागीर, ऊँचा मनसब तथा ऊँचा वेतन पाने के अवसर थे। इसलिये जगमाल जैसे असंतुष्ट राजकुमारों ने मुगलों की चाकरी स्वीकार कर ली।
निष्कर्ष
अकबर ने राजपूतों के साथ जिस नीति का अनुसरण किया, उससे उसकी दूरदृष्टि तथा कूटनीति का परिचय मिलता है। उसने मुसलमानों तथा हिन्दुओं दोनों के विरुद्ध राजपूतों का सफल प्रयोग किया तथा अपने विरुद्ध अफगानों एवं राजपूतों का संयुक्त मोर्चा नहीं बनने दिया। यह उसकी बहुत बड़ी सफलता थी। अकबर की राजपूत नीति से देश के राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश पर गहरा प्रभाव पड़ा।
राजपूतों को शासन में भागीदारी देने से शासकों एवं जनता के बीच पहले जैसी दूरी नहीं रही। जब तक अकबर की राजपूत नीति का अनुसरण किया गया तब तक मुगल साम्राज्य सुदृढ़ बना रहा और उसकी उत्तरोत्तर उन्नति होती गई परन्तु जब औरंगजेब के शासनकाल में अकबर द्वारा स्थापित नीति को त्याग दिया गया तब मुगल साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया।
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि राजपूत राजा और राजकुमार लम्बे समये तक मुस्लिम सेनाओं के विरुद्ध लड़ते हुए यह समझ गये थे कि राजपूत नष्ट हो सकते हैं किंतु जीत नहीं सकते। इसलिये वे अकबर द्वारा अपनाई गई सुलह-कुल की नीति का शिकार हो गये। अहंकारी होने के कारण वे परस्पर लड़ते रहे और केन्द्रीय शक्ति की छत्रछाया में अपने राज्यों को सुरक्षित बनाने में सफल रहे।