कहने को तो खानिम बेगम अकबर की चाची थी किंतु उन दोनों की आयु में अधिक अंतर नहीं था। इस कारण दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई। इस प्रकार अकबर के बचपन की दोस्त थी खानिम बेगम!
बदख्शां का शासक मिर्जा सुलेमान अपनी पत्नी, भतीजे, जंवाई एवं मंत्रियों से धोखा खाकर अपने राज्य से हाथ धो बैठा तथा अपने अन्य भतीजे अकबर से सैनिक सहायता लेने के लिए भारत आया। अकबर उसका स्वागत करने के लिए स्वयं फतहपुर सीकरी से बाहर आया और तीन कोस आगे आकर अपने चाचा से मिला।
अकबर ने मिर्जा सुलेमान को बड़ी संख्या में हाथी-घोड़े एवं धन-दौलत उपहार के रूप में भेंट किए तथा उसे विश्वास दिलाया कि मैं पंजाब से एक सेना खानेजहाँ के नेतृत्व में बदख्शां भेजूंगा ताकि कृतघ्न कामरान के कृतघ्न पुत्र मिर्जा शाहरुख को बदख्शां से निकाला जा सके।
मिर्जा सुलेमान ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा अकबर को उसी प्रकार अपना बादशाह मान लिया, जिस प्रकार मिर्जा सुलेमान अकबर के दादा बाबर को और अकबर के पिता हुमायूँ को अपना बादशाह मानता था। अकबर मिर्जा सुलेमान को अपने महलों में ले गया।
मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि अकबर ने मिर्जा सुलेमान के लिए हथियापोल में विशेष आवास बनवाया जहाँ नक्कारखाना बना हुआ था। शाम के समय अकबर प्रायः इबादतखाने में जाया करता था, अब वह अपने चाचा सुलेमान को भी उसमें ले जाने लगा।
मिर्जा सुलेमान के लिए इबादतखाना एक विस्मयकारी एवं आह्लादकारी स्थान सिद्ध हुआ। मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि मिर्जा सुलेमान शेखों एवं दरवेशों का सान्निध्य प्राप्त करके आनंद से चीखने लगता। वह सामूहिक प्रार्थना में सम्मिलित होने में कभी भी चूक नहीं करता था।
मुल्ला लिखता है कि एक दिन जब मैंने अपनी इबादत पूरी की तो मिर्जा सुलेमान ने मुझे टोका कि मैंने इबादत के बाद फातिहा क्यों नहीं पढ़ा! इस पर मैंने उससे कहा कि पैगम्बर के समय इबादत के बाद फातिहा पढ़ने का रिवाज नहीं था।
मेरा यह जवाब सुनकर मिर्जा सुलेमान नाराज हो गया। वह बोला कि क्या तुम यह कहना चाहते हो कि जो लोग इबादत के बाद फातिहा पढ़ते हैं, उन्हें इस्लाम का ज्ञान नहीं है तथा उनमें बुद्धि भी नहीं है?
इस पर मैंने मिर्जा सुलेमान से कहा कि हमें लिखित नियमों की पालना करनी चाहिए न कि फालतू के पचड़ों की। अकबर हम दोनों की यह बहस सुन रहा था, उसने मुझे आदेश दिया कि मैं फातिहा पढ़ूं। इस पर मैंने बादशाह के आदेश की पालना करते हुए फातिहा पढ़ा।
इस प्रकरण के माध्यम से मुल्ला बदायूंनी ने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि मिर्जा सुलेमान ने अकबर का विश्वास एवं स्नेह जीत लिए।
मुल्ला लिखता है कि पंजाब के शासक खानेजहाँ को आदेश दिया गया कि वह पांच हजार तीर-कमान-धारियों के साथ मिर्जा सुलेमान की सेवा में बदख्शां जाए तथा मिर्जा शाहरुख से बदख्शां प्राप्त करके मिर्जा सुलेमान के सुपुर्द कर दे और उसके बाद स्वयं लाहौर लौट आए।
इसी के साथ मुल्ला बदायूंनी इस प्रकरण को यह लिखकर बंद कर देता है कि वास्तव में मसला दूसरे ही प्रकार से हो गया। मुल्ला यह नहीं बताता कि मसला दूसरी प्रकार से कैसे हुआ।
अबुल फजल इस प्रकरण में थोड़ी जानकारी और देता है। हालांकि वह भी पूरी जानकारी नहीं देता किंतु जितना भी उसने लिखा है उससे अनुमान हो जाता है कि अकबर मिर्जा सुलेमान की कोई सहायता नहीं कर पाया और वह चाहकर भी कामरान के बेटे शाहरुख को बदख्शां से बाहर नहीं निकाल पाया। इसका कारण जानने के लिए हमें थोड़े पुराने इतिहास में जाना होगा।
पाठकों को स्मरण होगा कि मिर्जा कामरान का एक पुत्र अकबर के पिता हुमायूँ के पास भी रहा करता था जिसका नाम मिर्जा अबुल कासिम था। मिर्जा कामरान की बेटी गुलरुख बेगम और गुलरुख बेगम का पुत्र इब्राहीम हुसैन मिर्जा भी हुमायूँ के पास रहते थे। जब अकबर बादशाह बना तो कामरान की औलादें अकबर के संरक्षण में रहने लगीं।
बहुत से मुगल अमीर कामरान की औलादों को अकबर के विरुद्ध भड़काते रहते थे। अतः अकबर ने अपना भविष्य सुरक्षित बनाने के लिए अपने चचेरे भाई मिर्जा अबुल कासिम की बिना किसी अपराध के ही हत्या करवा दी थी।
इस कारण कामरान की बेटी गुलरुख बेगम और उसका बेटा इब्राहीम हुसैन मिर्जा भी बागी हो गए थे। बाद में अकबर ने मिर्जा इब्राहीम हुसैन मिर्जा की भी हत्या करवा दी थी और गुलरुख बेगम दक्षिण भारत के राज्यों में भाग गई थी।
चूंकि बदख्शां का नया शासक मिर्जा शाहरुख उसी कामरान का बेटा था, इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि अकबर को उसे भी नष्ट करने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी। फिर भी अकबर के लिए मिर्जा शाहरुख के विरुद्ध कदम उठाना आसान नहीं था। इसका एक विशेष कारण यह था कि शाहरुख की माता खानिम बेगम अकबर की बचपन की दोस्त थी।
पाठकों को स्मरण होगा कि जब मिर्जा अस्करी एक साल के बालक अकबर को हुमायूँ के शिविर में से उठा कर ले गया था, तब मिर्जा कामरान ने अकबर को अपने हरम में रखा था जहाँ हुमायूँ की बुआ खानजादः बेगम ने अकबर को पाला था।
मिर्जा कामरान के हरम में बहुत सारी औरतें थीं जिनमें हर समय कुछ न कुछ वृद्धि होती रहती थी। कुछ समय बाद कामरान ने खानिम बेगम नामक एक बहुत सुंदर लड़की से विवाह किया। इस प्रकार खानिम बेगम से अकबर का पहला परिचय अपनी चाची के रूप में हुआ।
जब हुमायूँ और कामरान की बुआ खानजादः बेगम कामरान के शिविर से हुमायूँ के पास चली गई तो अकबर की जिम्मेदारी कामरान की नई पत्नी खानिम बेगम को सौंप दी गई। कहने को तो खानिम बेगम अकबर की चाची थी किंतु उन दोनों की आयु में अधिक अंतर नहीं था। इस कारण खानिम बेगम अकबर की दोस्त बन गई।
समय के साथ दोनों के रिश्तों में बदलाव आया। जब हुमायूँ ने कामरान की आंखें फोड़कर उसे मक्का भेज दिया तो खानिम बेगम ने मिर्जा सुलेमान से निकाह कर लिया। इस नए रिश्ते में भी खानिम बेगम अकबर की चाची लगती थी। इस प्रकार अकबर और खानिम बेगम के बीच दोस्ती का जो रिश्ता बचपन में कायम हुआ था, वह आगे भी चलता रहा। इस रिश्ते में भी खानम बेगम अकबर की दोस्त बनी रही।
जब अकबर साढ़े तेरह वर्ष का हुआ तो वह अपने पिता हुमायूँ के साथ काबुल से भारत चला आया। उन बातों को अब बीस साल हो चुके थे। इस कारण अब वह दोस्ती केवल स्मृतियों में ही बची थी।
इस बीच समय कई बार करवटें ले चुका था। खानिम बेगम अपने पहले पति से हुए बेटे के साथ, अपने दूसरे पति मिर्जा सुलेमान के छोटे से बदख्शां राज्य पर कब्जा किए बैठी थी और उसका दूसरा पति मिर्जा सुलेमान अकबर से सहायता लेने के लिए फतहपुर सीकरी में शरण लिए हुए था।
भारत के विशाल प्रदेशों का स्वामी अकबर इस समय तक इतना शक्तिशाली हो चुका था कि वह न केवल बदख्शां के भाग्य का निर्णय कर सकता था अपितु सम्पूर्ण अफगानिस्तान को अपने पैरों तले रौंद सकता था!
अतः खानिम बेगम ने भी अपने दूत अकबर के पास भिजवाने का निश्चय किया ताकि वह अपना पक्ष अकबर के समक्ष रखकर अकबर को मिर्जा सुलेमान की सहायता करने तथा अपने पुत्र शाहरुख के विरुद्ध कार्यवाही करने से रोक सके। कुछ ही दिनों बाद शाहरुख मिर्जा के दूत अब्दुल रहमान बेग और मिर्जा अशाक भी अकबर के दरबार में आ पहुंचे।
कहने को वे मिर्जा शाहरुख द्वारा भेजे गए थे किंतु वास्तव में वे खानिम बेगम के दूत थे और उसी के आदेश पर अकबर के पास आए थे। अबुल फजल ने लिखा है कि खानिम बेगम का विचार था कि मिर्जा सुलेमान ने, न जाने बादशाह पर क्या प्रभाव डाला होगा!
उससे अवश्य ही शाहरुख मिर्जा के सम्मान की क्षति हुई होगी। अब्दुल रहमान बेग और मिर्जा अशाक ने खानिम बेगम और उसके पुत्र शाहरुख मिर्जा की प्रार्थना अकबर के समक्ष प्रस्तुत की तो अकबर ने स्नेह और शिष्टता से उस प्रार्थना को स्वीकार किया। फिर उनको विदा कर दिया।
अकबर ने कुछ दिनों पहले ही पंजाब के सूबेदार खानेजहाँ को आदेश दिए थे कि वह बदख्शां पर कार्यवाही करके मिर्जा सुलेमान को उसका राज्य वापस दिलवाए किंतु अब अकबर ने अपना इरादा बदल दिया तथा खानेजहाँ को बंगाल का सूबेदार बनाकर भेज दिया।
मिर्जा सुलेमान ने अपनी आशा पूरी होते हुए नहीं देखकर हज्जाज पर जाने का निश्चय किया। उसका सोचना था कि शायद वहाँ जाने से बदख्शां प्राप्त करने का कोई मार्ग खुल जाए। जब सुलेमान ने अकबर से हज्जाज जाने की अनुमति मांगी तो अकबर ने कुलीज खाँ तथा रूपसिंह को आदेश दिया कि वे सुलेमान को गुजरात के बंदरगाह तक पहुंचा दें। मिर्जा सुलेमान को हज्जाज रवाना कर दिया गया। इस प्रकार अकबर ने अपनी बचपन की दोस्त खानिम बेगम की बात रख ली और बदख्शां उसके पुत्र शाहरुख के पास ही रह गया।