Monday, October 14, 2024
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चांद सुल्ताना बेपर्दा होकर खानखाना के सामने आ खड़ी हुई! (169)

अब्दुर्रहीम खानखाना अहमदनगर की चांद सुल्ताना के बारे में काफी कुछ सुन चुका था और उसका प्रशसंक था। जिस तरह अब्दुर्रहीम भगवान श्रीकृष्ण का भक्त था, उसी प्रकार चांद बीबी भी भगवान मुरली मनोहर श्रीकृष्ण की दासी थी।

अपने समय के इन दो श्रेष्ठ मुस्लिम कृष्ण भक्तों में एक-दूसरे के लिए सहानुभूति होनी स्वाभाविक थी। अब्दुर्रहीम कतई नहीं चाहता था कि चाँद बीबी की कुछ भी हानि हो। इसलिए उसने मुराद से कहा कि श्रेष्ठ उपाय तो यह होगा कि बिना रक्तपात किये अहमदनगर हमारी अधीनता स्वीकार कर ले।

इससे हमारे आदमियों की भी हानि नहीं होगी और इस समय मुगल सेना को जो धान और चारे की कमी है, उससे भी छुटकारा मिल जायेगा।

मुराद चाहता था कि किसी भी तरह अहमदनगर मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ले। मुराद को अपने पिता की राजधानी फतहपुर सीकरी से चले तीन साल हो चले थे और अहमदनगर अब भी दूर की कौड़ी बना हुआ था।

वह फतहपुर सीकरी से अधिक दिनों तक दूर नहीं रहना चाहता था। इसलिए उसने अब्दुर्रहीम को अनुमति दे दी कि वह चांद बीबी से बात करे। शहजादे की अनुमति पाकर स्वयं खानखाना ने मुगलों की ओर से चाँद बीबी के सम्मुख उपस्थित होने का निश्चय किया।

उसने इस आशय का संदेश चांद सुल्ताना को भिजवाया। वैसे तो शहबाज खाँ कम्बो द्वारा की गई लूट के कारण मुगल सेनापति अहमदनगर वालों के सामने अपनी साख खो बैठे थे किंतु जब चांद को ज्ञात हुआ कि स्वयं खाखाना चांद से मिलने आ रहा है तो वह सहमत हो गई।

खानखाना की इस योजना से उसके एक साथ दो उद्देश्य पूरे हो गये। एक तो खानखाना फिर से इस अभियान के केंद्र में आ गया और दूसरा यह कि चाँद बीबी को देख पाने की उसकी साध पूरी हो गयी।

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वह जब से अहमदनगर की सीमा में आया था, तब से चाँद की बुद्धिमत्ता और कृष्ण-भक्ति की बातें सुनता रहा था। बिना पिता, बिना भाई और बिना पुत्र के संरक्षण में एकाकी महिला का राजकाज चलाना स्वयं अपने आप में ही एक बड़ी बात थी! तिस पर चारों ओर दक्खिनियों, हब्शियों एवं मुगलों जैसे खूंखार शत्रुओं की रेलमपेल लगी रहती थी। खानखाना को लगा कि इस साहसी और अद्भुत महिला को अवश्य देखना चाहिये।

खानखाना अपने पाँच सवारों को लेकर अहमदनगर के दुर्ग में दाखिल हुआ। ऊँचे घोड़े पर सवार, लम्बे कद और पतली-दुबली देह का खानखाना दूर से ही दिखाई देता था। चांद सुल्ताना के आदमी उसे सुलताना के महलों तक ले गये। चाँद ने खानखाना के स्वागत की भारी तैयारियां कर रखी थीं। उसने शाही महलों को रंग-रोगन और बंदनवारों से सजाया। चांद ने रास्तों पर रंग-बिरंगी पताकाएं लगवाईं तथा महलों की ड्यौढ़ी पर खड़े रहकर गाजे-बाजे के साथ खानखाना की अगुवाई की।

अहमदनगर के अमीर, साहूकार और अन्य प्रमुख लोग भी खानखाना की अगुवाई के लिये उपस्थित हुए। जब खानखाना शाही महलों में पहुँचा तो उस पर इत्र और फूलों की वर्षा की गयी।

बुर्के की ओट से चाँद ने खानखाना का अभिवादन किया। खानखाना ने एक भरपूर दृष्टि अपने आसपास खड़े लोगों पर डाली और किंचित मुस्कुराते हुए कहा-

‘रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय  मिलाप।

खरो दिवस किहि काम को, रहिबो आपुहि आप।’

वहाँ खड़े तमाम लोग खानखाना की इस रहस्य भरी बात को सुनकर अचंभे में पड़ गये। वे नहीं जान सके कि खानखाना की इस रहस्यमयी बात से बुर्के के भीतर मुस्कान की शुभ्र चांदनी खिली है और उसकी चमक खानखाना तक पहुँच गयी है!

सुलताना ने लोक रीति के अनुसार खानखाना का आदर-सत्कार करके उसे अपने महल के भीतरी कक्ष में पधारने का अनुरोध किया। खानखाना की इच्छानुसार एकांत हो गया।

अब केवल दो ही व्यक्ति वहाँ थे, एक ओर तो खानखाना तथा दूसरी ओर पर्दे की ओट में बैठी चाँद। खानखाना ने पर्दे की ओर देखकर हँसते हुए कहा-

‘रहिमन प्रीति सराहिए, मिले होत रंग दून।

ज्यों जरदी  हरदी  तजै, तजै सफेदी चून।’

पाठकों को बताना समीचीन होगा कि अब्दुर्रहीम खानखाना अपने समय का बहुत बड़ा कवि था। उसकी कविता वैसे तो भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित थी किंतु उसने भक्ति के साथ-साथ नीति और ज्ञान की जो सरिता बहाई, वैसी बहुत कम ही देखने को मिलती है।

खानखाना हिन्दी, उर्दू, फारसी, डिंगल, संस्कृत आदि भाषाओं का जानकार था। इन सभी भाषाओं में उसकी कुछ रचनाएं मिलती हैं किंतु खानखाना ने अपनी अधिकांश रचनाएं हिन्दी भाषा में लिखीं जिसमें ब्रज एवं अवधी का मिश्रण देखने को मिलता है।

खानखाना की बात सुनकर चांद सुल्ताना ने कहा कि यदि खानखाना पहेलियाँ ही बुझाते रहेंगे तो हमारी समझ में कुछ नहीं आयेगा। इस पर खानखाना ने कहा कि सुलताना! मैंने कहा कि उसी प्रेम की सराहना की जानी चाहिये, जब दो व्यक्ति मिलें और अपना-अपना रंग त्याग दें। जैसे चूने और हल्दी को मिलाने पर हल्दी अपना पीलापन त्याग देती है और चूना अपनी सफेदी त्याग देता है।

अर्थात् यदि आप पर्दे में रहेंगी तब मैं कैसे जानूंगा कि हल्दी ने अपना रंग त्याग कर चूने का रंग स्वीकार कर लिया है! इस बार चाँद खानखाना का संकेत समझ गयी। वह पर्दे से बाहर निकल आयी।

बचपन से वह खानखाना के बारे में सुनती आयी है। खानखाना की वीरता, दयालुता और दानवीरता के भी उसने कई किस्से सुने हैं। उसने यह भी सुना है कि खानखाना मथुरा के फरिश्ते किसनजी की तारीफ में कविता करता है।

जिस दिन से चाँद सुल्ताना ने किसनजी की सवारी के दर्शन किये थे, उसी दिन से चाँद के मन में न केवल रसखान पठान, मुगलानी दीवानी और खानखाना अब्दुर्रहीम से मिलने की अभिलाषा प्रबल हो चली थी, अपितु चांद उनकी कविताओं की कुछ पुस्तकें भी मंगवाने में भी सफल हो गई थी।

चांद भी चाहती थी कि वह भी इन लोगों की तरह किसनजी की भक्ति में कविता करे किंतु कविता लिखना उसके वश की बात नहीं थी। इसलिए वह उन लोगों से मिलकर किसनजी के बारे में अधिक से अधिक जानकारी लेना चाहती थी। आज वह अवसर अनायास ही उसे प्राप्त हो गया था। उसे अपने भाग्य पर विश्वास नहीं हुआ कि एक दिन वह इस तरह खानखाना के सामने बेपर्दा होकर खड़ी होगी!       

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