चैतन्य महाप्रभु महाप्रभु वल्लभाचार्य के समकालीन थे। चैतन्य का जन्म ई.1486 में कलकत्ता से 75 मील उत्तर में स्थित नवद्वीप अथवा नादिया ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उस समय मुसलमानों के आतंक से भयभीत वैष्णव-भक्त बंगाल से भागकर नवद्वीप में शरण ले रहे थे। इस कारण नवद्वीप में वैष्णव-भक्ति की धारा अबाध गति से बह रही थी।
चैतन्य ने संस्कृत, व्याकरण और काव्य का अध्ययन करने के बाद भागवत पुराण तथा अन पुराणों का अध्ययन किया। उनके बड़े बड़े भाई विष्णुरूप ने बहुत कम आयु में ही सन्यास ले लिया था, इसलिए उनकी माता ने बाल्यकाल में ही चैतन्य का विवाह कर दिया। जब चैतन्य 11 वर्ष के हुए तो उनके पिता का देहान्त हो गया। पिता के पिण्डदान और श्राद्ध के लिए ई.1505 में चैतन्य को गया जाना पड़ा।
वहाँ उनकी भेंट ईश्वरपुरी नामक सन्यासी से हुई। चैतन्य उनके शिष्य हो गए। इसके बाद चैतन्य गृहस्थ जीवन से विरक्त होकर कृष्ण-भक्ति में लीन रहने लगे। चैतन्य ने वेदों और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया किंतु उनसे चैतन्य की जिज्ञासा शान्त हुई तो उन्होंने भक्ति तथा प्रेम के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग अपनाया। 24 वर्ष की आयु में वे केश्व भारती से दीक्षा लेकर सन्यासी हो गए। सन्यास लेने के बाद आठ वर्ष तक चैतन्य ने देश का भ्रमण किया।
वे सर्वप्रथम नीलांचल गए और इसके बाद दक्षिण भारत के श्रीरंग क्षेत्र एवं सेतुबंध आदि स्थानों पर रहे। उन्होंने देश के कोने-कोने में जाकर हरिनाम की महत्ता का प्रचार किया। ई.1515 में विजयादशमी के दिन चैतन्य ने अपनी विशाल शिष्य मण्डली के साथ वृंदावन के लिए प्रस्थान किया। ये वन के रास्ते ही वृंदावन को चले।
कहा जाता है कि चैतन्य के हरिनाम उच्चारण से वशीभूत होकर वन्यपशु भी नाचने लगते थे। शेर, बाघ और हाथी आदि भी इनके आगे प्रेमभाव से नृत्य करते चलते थे। कार्तिक पूर्णिमा को चैतन्य अपने शिष्यों सहित वृंदावन पहुँचे। वृंदावन में आज भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन गौरांग-आगमनोत्सव मनाया जाता है।
वृंदावन में महाप्रभु ने इमली-तला और अक्रूर-घाट पर निवास किया तथा जन साधारण के समक्ष प्राचीन श्रीधाम वृंदावन की महत्ता प्रतिपादित कर लोगों की सुप्त भक्ति-भावनाओं को जागृत किया। वृंदावन से महाप्रभु प्रयाग गए। वहाँ कुछ काल तक निवास करने के पश्चात् महाप्रभु ने काशी, हरिद्वार, शृंगेरी (कर्नाटक), कामकोटि पीठ (तमिलनाडु), द्वारिका, मथुरा आदि तीर्थों में भगवद्नाम संकीर्तन किया।
उनका मानना था कि ईश्वर कई रूप धारण करता है परन्तु उनमें सबसे मोहक और आकर्षक रूप श्रीकृष्ण का है। वे कृष्ण को ईश्वर का अवतार न मान कर ईश्वर मानते थे। उनके विचार से सबसे ऊँची भक्ति और प्रेम का घनिष्ठ स्वरूप पति-पत्नी के सम्बन्ध में होता है जिसमें किसी प्रकार का व्यापार नहीं होता और न उस प्रेम की कोई सीमा नहीं होती। इसलिए राधा और कृष्ण की कल्पना की गई है।
कृष्ण परम-ब्रह्म हैं और उनके भक्त राधा स्वरूप हैं। इसलिए भक्त का कृष्ण के प्रेम में विह्वल होना स्वाभाविक है। चैतन्य आत्मविभोर होकर अपना अस्तित्त्व भूल जाते थे और कृष्ण में लीन हो जाते थे।
चैतन्य ने भगवान की भक्ति के लिए संगीत और नृत्य का सहारा लिया जो संकीर्तन कहलाता था। उन्होंने अपने शिष्यों के साथ ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य बजाकर, नृत्य करते हुए उच्च स्वर में हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया- ‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे।’
उनकी संकीर्तन पद्धति मथुरा-वृन्दावन से लेकर पूर्वी-बंगाल तक व्यापक रूप से लोकप्रिय हो गई। इसमें भक्तजन समूह में संकीर्तन करते थे। चैतन्य और उनके अनुयाई सार्वजनिक मार्गों पर भजन-कीर्तन करते हुए नाचते-गाते थे और अर्द्ध-मूर्च्छित स्थिति में पहुँच जाते थे। स्वयं चैतन्य भी भक्ति के आवेश में मूर्च्छित और समाधिस्थ हो जाते थे।
चैतन्य ने लोगों को कृष्ण-भक्ति का मन्त्र दिया। कृष्ण-भक्ति एवं कीर्तन का प्रचार उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था। उनके निर्मल चरित्र एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार से असंख्य लोग उनके अनुयाई बन गए।
चैतन्य का धर्म रस्मों और आडम्बरों से मुक्त था। उन्होंने परमात्मा में पूर्ण आस्था रखने का उपदेश दिया। उनकी उपासना का स्वरूप प्रेम, भक्ति, कीर्तन और नृत्य था। प्रेमावेश में ही भक्त परमात्मा से साक्षात्कार का अनुभव करता है। चैतन्य का कहना था कि यदि कोई जीव कृष्ण पर श्रद्धा रखता है, अपने गुरु की सेवा करता है तो वह मायाजाल से मुक्त होकर कृष्ण के चरणों को प्राप्त करता है। चैतन्य ने ज्ञान के स्थान पर प्रेम और भक्ति को प्रधानता दी।
उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों से पृथक् रहने का उपदेश दिया। वे मूर्ति-पूजा और धर्मग्रन्थों के विरोधी नहीं थे परन्तु उन्हें कर्मकाण्ड तथा आडम्बरों से घृणा थी। चैतन्य के अनुसार समस्त लोग समान रूप से ईश्वर की भक्ति कर सकते हैं। भक्ति मार्ग में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं होता, समस्त भक्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणाश्रित होने के अधिकारी हैं।
चैतन्य और उनके अनुयाइयों ने मुसलमानों एवं निम्न जातियों के लोगों को भी कृष्ण-भक्ति का उपदेश दिया। चैतन्य के प्रभाव से शूद्रों को भी भक्ति का अधिकार मिल गया। चैतन्य ने अपने ‘शिक्षाष्टक’ में कृष्ण-भक्ति के विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनके अनुसार भक्ति का प्रथम और प्रमुख साधन ‘हरिनाम संकीर्तन’ है।
चैतन्य महाप्रभु बंगाल के सबसे बड़े धर्म-सुधारक थे। उनके विचार में केवल कर्म से कुछ नहीं होता। मोक्ष प्राप्ति के लिए हरि-भक्ति तथा उनका गुण-गान करना आवश्यक है। प्रेम तथा लीला इस सम्प्रदाय की विशेषताएँ हैं। चैतन्य सम्प्रदाय, निम्बार्काचार्य की भांति भेदाभेद के सिद्धान्त को मानते थे अर्थात् जीवात्मा एक दूसरे से भिन्न तथा अभिन्न दोनों है। केवल भक्ति के बल से ही मानव की आत्मा श्रीकृष्ण तक पहुँच सकती है। मनुष्य की आत्मा ही राधा है। उसे श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन रहना चाहिए। दास, मित्र, पत्नी तथा पुत्र के रूप में श्रीकृष्ण से प्रेम करना मानव जीवन का प्रधान लक्ष्य है।
चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष जगन्नाथ पुरी में व्यतीत किए। वे जीवन के अन्तिम बारह वर्ष में कृष्ण-विरह में व्याकुल रहा करते थे और हर समय उनके नेत्रों से आँसू बहा करते थे। उनके भक्त उन्हें कृष्ण की प्रेम-लीलाएँ सुना-सुना कर सान्त्वना दिया करते थे। ई.1533 में 47 वर्ष की अल्पायु में रथयात्रा के दिन चैतन्य भक्ति के उन्माद में समुद्र में घुस गए तथा उनका शरीर पूरा हो गया।
बंगाल, बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर प्रदेश की प्रजा पर चैतन्य महाप्रभु की संकीर्तन भक्ति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी मृत्यु के पश्चात् वृन्दावन के गोस्वामियों ने चैतन्य के सिद्धान्तों और संकीर्तन-पद्धति को व्यवस्थित रूप प्रदान किया तथा चैतन्य-सम्पद्राय की स्थापना की। इस सम्प्रदाय को गौड़ीय सम्प्रदाय भी कहा जाता है। वृन्दावन के गोस्वामी, चैतन्य को अपना प्रभु मानते थे परन्तु नादिया ग्राम के अनुयाई उन्हें कृष्ण का अवतार मानने लगे और गौरांग महाप्रभु के रूप में स्वयं चैतन्य की पूजा होने लगी।