अकबर ने अपनी सल्तनत में मनसबदारी व्यवस्था लागू की। इस व्यवस्था का दुरुपयोग करते हुए अकबर के अमीरों ने नकली सिपाही खड़े कर दिए और राजकोष को चूना लगा दिया!
मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी (Mulla Abdul Qadir Badauni ) ने लिखा है- ‘वह (अर्थात् मुल्ला ब्दुल कादिर बदायूंनी) ई.1574 में अकबर के दरबार (Akbar’s Court) में सम्मिलित हुआ। इसी वर्ष नागौर के शेख मुबारक का बेटा शेख अबू-अल-फजल भी अकबर के दरबार में हाजिर हुआ। उसके ज्ञान और समझ का सितारा बुलंद था। अकबर ने उसे बहुत सम्मानित किया। इसी वर्ष अकबर ने गुजरात के गवर्नर मुजफ्फर खाँ को सारंगपुर से आगरा बुलाकर उसे अपना प्रधानमंत्री बनाया तथा राजा टोडरमल (Raja Todarmal) को उसके नीचे वित्तमंत्री अथवा राजस्व मंत्री बनाया।’
इस प्रकार ई.1574 में अकबर की प्रशासनिक व्यवस्था (administrative system of Akbar) नया आकार लेने लगी। नई शासन व्यवस्था में समस्त दरबारियों, मंत्रियों, सेनापतियों, अमीरों, उमरावों तथा अन्य अधिकारियों को मनसब (Ranks of Mansabdari System) दिए गए।
शाही खालसा भूमि (Khalsa Bhumi) अर्थात् केन्द्र सरकार की भूमि को प्रांतीय सरकारों की भूमि से अलग किया गया। सरकारी सेना के घोड़ों पर जलते हुए लोहे से नम्बर लगाने आरम्भ किए गए जिसे दाग लगाना (Horse Tagging) कहा जाता था।
अंग्रेजी में इसे टैगिंग करना कहा जा सकता है जिसका प्रयोग पशुओं का बीमा करने वाली कम्पनियां पशु की पहचान करने के लिए करती हैं। भारत में यह व्यवस्था नई नहीं थी। अकबर (Akbar) से पूर्व भी दिल्ली के सुल्तान बलबन (Sultan Balban) तथा अल्लाउद्दीन खिलजी (Alauddin Khilji) और सूरी सल्तनत के सुल्तान शेरशाह सूरी (Shershah Suri) ने भी इस व्यवस्था को अपनाया था।
मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने अकबर द्वारा अपनाई गई घोड़ों को दाग लगाने की प्रथा (Horse Tagging) का रोचक वर्णन किया है। वह लिखता है कि यह निश्चय किया गया कि हर अमीर (Mughal Noble) बीस का नाम होगा। इसका अर्थ यह होता है कि बीस घुड़सवारों वाला एक बीसी, चालीस घुड़सवारों वाला दो बीसी और सौ घुड़सवारों वाला पांच बीसी कहलाएगा। उसे अपने घोड़े एवं घुड़सवार, शाही पंजीकरण कार्यालय में पंजीकृत करवाने होंगे तथा घोड़ों पर ठप्पा (दाग or Horse Tagging) लगवाना होगा। पंजीकृत घोड़े एवं घुड़सवारों की संख्या के अनुसार ही उस अमीर को शाही खजाने से वेतन मिलेगा।
प्रत्येक अमीर को पंजीकृत संख्या के अनुसार हाथी, घोड़े एवं ऊंट आदि रखने होंगे। उन्हीं के अनुपात में फौजी सामान रखना होगा। जिस अमीर को एक हजार हाथी, घोड़े एवं ऊंट रखने की स्वीकृति मिलेगी उसे एक हजारी मनसब (Ranks of Mansabdari System) दिया जाएगा।
इसी अनुपात में दो हजारी, तीन हजारी एवं पांच हजारी मनसब दिया जाएगा। जो अमीर (Mughal Noble)अपने पशुओं एवं सवारों को पंजीकरण करवाने के बाद अपनी नौकरी से हटा देगा, उन अमीरों को नीचे के मनसब मनसब (Ranks of Mansabdari System) में डाल दिया जाएगा।
मुल्ला लिखता है कि नए नियमों से फौजियों की स्थिति बदतर हो गई। बहुत से अमीरों ने वास्तविक सैनिकों को अपनी नौकरी से निकाल दिया तथा अपने आसपास के गांवों में रहने वाले ग्रामीणों तथा उनके पशुओं को शाही कार्यालय में पंजीकृत करवाकर शाहीकोष से वेतन स्वीकृत करवा लिया। इस प्रकार अकबर की सेना में नकली सिपाही भर लिए गए।
इनमें जुलाहे, कपास साफ करने वाले, सुथार, माली, धोबी, नाई, भिश्ती, सुनार, किसान, मोची आदि समस्त वर्गों के लोग नकली सिपाही बन गए। उनमें से बहुतों के पास अपने घोड़े नहीं थे अपितु वे अपने किसी पड़ौसी का या पड़ौसी गांव के किसी व्यक्ति का घोड़ा लाकर ठप्पा लगवाते थे।
मुगल अमीर (Mughal Noble) इन नकली सिपाही (Fake Soldiers) एवं उधार के घोड़ों का पंजीकरण करवाकर उनके नाम से वेतन उठाकर अपनी जेबें भरने लगे। जब बादशाह को सेना की आवश्यकता होती थी, तब वे अमीर अपने नकली सिपाहियों को फौजी लिबास पहनाकर इकट्ठा कर लेते थे और जब युद्ध होता था, तब वे नकली सिपाही (Fake Soldiers ) चुपचाप अपने गांवों को चले जाते थे।
इस व्यवस्था का लाभ यह हुआ कि कोई मुगल अधिकारी एक ही घोड़े को दो जगह दिखाकर उसके लिए शाहीकोष से वेतन नहीं ले सकता था और युद्ध के समय बादशाह को उतने ही घुड़सवार मिलने की उम्मीद होती थी जितने घोड़ों के लिए शाहीकोष से वेतन दिया जाता था।
इस व्यवस्था का नुक्सान यह हुआ कि असली सैनिकों की थाली में धूल पड़ गई, वे बेरोजगार हो गए। क्योंकि मुगल अमीर उन्हें पूरे साल का वेतन देने की बजाय नकली सिपाहियों (Fake Soldiers) को नाममात्र का वेतन देता था। असली सैनिकों के असली घोड़े को साल भर दाना-चारा खिलाने की बजाय कुछ ही दिनों का दाना-चारा देना पड़ता था।
मुल्ला लिखता है कि कई बार जब किसी अमीर को आदेश दिए गए कि वह अपने घुड़सवार सैनिक लेकर आए तो उसके अधिकांश सैनिक फटे हुए कपड़ों में, बिना किसी घोड़े के और बिना किसी हथियार के ही आते थे। अकर ने स्वयं पंजीकरण के अहाते में ऐसे सैनिकों को देखा।
कुछ लोगों के पास जो घोड़े होते थे, वे भी इतने मरियल थे कि जब उन्हें काठी, कपड़े एवं रास सहित हाथ-पैर बांधकर तोला गया तो वे 90 से 100 किलो के बीच होते थे। ऐसे घोड़ों पर बैठकर कोई भी असली या नकली सिपाही युद्ध कैसे लड़ सकता था! पूछताछ करने पर पता चलता था कि घोड़े से लेकर, काठी तक और सैनिक से लेकर सैनिक की पोषाक तक, सब-कुछ किराये का होता था।
मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि अमीरों (Mughal Noble) की बेईमानी से फौज की वास्तविक दुकान बर्बाद हो गई किंतु सौभाग्य से बादशाह के सभी शत्रु परास्त हुए एवं उसे फौजियों की बड़ी संख्या में आवश्यकता नहीं पड़ी।
जब अकबर (Akbar) ने इन घटनाओं को बार-बार देखा तो वह समझ गया कि इस व्यवस्था से असली सैनिकों को बहुत नुक्सान हुआ है तथा बेईमान अमीरों की मौज आ गई है। मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि शहंशाह (Akbar or Akbarshah) ने कहा कि इन सैनिकों को देखकर मेरी आंखें खुल गईं। मुझे इन्हें वेतन देना चाहिए था।
अकबर के कहने आशय का आशय यह था कि अमीरों के माध्यम से सिपाहियों को वेतन न दिया जाकर उन्हें सीधे ही शाही कोष से वेतन दिया जाना चाहिए था। इससे अमीर लोग असली सिपाहियों की जगह नकली सिपाहियों की फौज खड़ी न करते।
इसके बाद अकबर (Akbar) ने सैनिकों एवं उनके घोड़ों को सीधे ही शाहीकोष से वेतन देने की व्यवस्था की। इन सैनिकों को यकस्पा, दुआस्पा तथा नीमास्पा में बांट दिया।
यकस्पा का अर्थ था- ऐसा सैनिक जो एक घोड़ा सदैव अपने साथ रखता है।
दुआस्पा का अर्थ था- ऐसा सैनिक जो दो घोड़े सदैव अपने साथ रखता है।
नीमास्पा से आशय इस बात से था कि दो सैनिक मिलकर एक घोड़ा रखते थे।
मुल्ला ने लिखा है कि नीमास्पा अर्थात् दो सैनिक और एक घोड़े को शाहीकोष से 6 रुपए प्रतिमाह दिए जाते थे, जिन्हें वे आपस में बांट लेते थे।
— डॉ. मोहनलाल गुप्ता (Dr. Mohanlal Gupta) की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (Third Mughal Jalaluddin Muhammad Akbar) से!



