भारत सरकार के क्राइम डाटा एवं राज्य सरकारों की रिपोर्टों के अनुसार विगत पांच सालों में केवल बिहार, यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में 785 ऐसे केस पुलिस में रिपोर्ट हुए जिनमें पत्नियों ने ही अपने पति की हत्या की या करवाई। पतियों को मारने वाली इन औरतों में से अधिकांश औरतें पढ़ी-लिखी हैं और आर्थिक रूप से स्वावलम्बी हैं। इस आलेख में पतियों को मारने वाली पढ़ी-लिखी औरतों के मनोविज्ञान का विश्लेषण किया गया है।
कुछ समय पहले तक उन हिन्दू लड़कियों के शव मिलते थे जो लव जिहादियों के हत्थे चढ़कर सूटकेसों में पैक होती थीं किंतु आजकल देश में उन पतियों के शवों की बाढ़ आ गई है जिन्हें उनकी ही ब्याहता पत्नी ने मारा या मरवाया है।
भारत सरकार के क्राइम डाटा एवं राज्य सरकारों की रिपोर्टों के अनुसार विगत पांच सालों में केवल बिहार, यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में 785 ऐसे केस पुलिस में रिपोर्ट हुए जिनमें पत्नियों ने ही अपने पति की हत्या की या करवाई। पतियों को मारने वाली इन औरतों में से अधिकांश औरतें पढ़ी-लिखी हैं और आर्थिक रूप से स्वावलम्बी हैं।
पति या पत्नी के प्राण ले लेना तो भारत की संस्कृति नहीं है, न ही भारत की सामाजिक व्यवस्था ऐसी है जिसमें पति या पत्नी एक-दूसरे की हत्या करें। यह इन आंकड़ों की गहराई में जाएं तो पता चलता है कि पति या पत्नी की हत्याओं का सिलसिला तब से अपने चरम पर पहुंचा है जब से भारत में महिलाओं का सशक्तीकरण किया गया है।
भारत की आजादी के बाद नारी सशक्तिकरण और महिला मुक्ति के बड़े-बड़े आंदोलन चले। अमरीकी एनजीओज तथा यूएन प्रायोजित संस्थाओं द्वारा चलाए गए इन आंदोलनों के नेताओं द्वारा कहा गया कि जब तक भारतीय नारी शिक्षित नहीं होगी, तब तक भारतीय नारी पर अत्याचार होने बंद नहीं होंगे। जब नारियां शिक्षित होने लगीं, तब कहा गया कि जब तक नारी घर से बाहर निकलकर आर्थिक रूप से सशक्त नहीं होगी, तब तक भारतीय नारी स्वयं पर होने वाले अत्याचारों का सामना नहीं कर सकेगी।
इन आंदोलनों का परिणाम यह हुआ कि भारतीय नारी शिक्षा और रोजगार पाने के लिए घरों से बाहर निकलीं और पुरुषों की ही तरह शिक्षा एवं नौकरियां पाकर आर्थिक रूप से सक्षम होने लगीं। उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने लगे। निश्चित रूप से नारी में कार्य करने की क्षमता और लगन, पुरुष से कई गुना अधिक है। इस कारण कुछ ही दशकों में इन शिक्षित भारतीय नारियों ने पुरुषों पर बढ़ बना ली और भारत के निजी क्षेत्र के रोजगारों में पूरी तरह से छा गईं।
शिक्षा और आर्थिक स्वावलम्बन के इस लक्ष्य को पाने के बाद नारी मुक्ति आंदोलन के लोगों ने भारत की शिक्षित एवं पैसे वाली भारतीय नारियों के समक्ष नया लक्ष्य रखा कि नारी का शरीर उसका अपना है, उस पर अन्य किसी का अधिकार नहीं है। नारी को पूरा अधिकार है कि वह अपनी मर्जी के पुरुष से प्रेम करे, उसके साथ लिव इन रिलेशन में रहे, अपनी मर्जी के कपड़े पहने। अपनी मर्जी से डाइवोर्स ले। बड़े शहरों एवं मध्यम कस्बों की बहुत सी पढ़ी-लिखी एवं पैसे वाली नारियों ने इन आवाजों को महामंत्र की तरह स्वीकार कर लिया और उसी रास्ते पर चल पड़ीं।
इस महामंत्र से ग्रस्त नारियों ने सड़कों पर निकलकर नारे लगाए- माई स्कर्ट इज लाउडर दैन योअर वॉइस। यह एक तरह से भारत की सामाजिक परम्परा को सीधी-सीधी चुनौती थी, या यूं कहें कि भारत के परम्परावादी समाज के विरुद्ध खुला विद्रोह था किंतु इन नारी मुक्ति आंदोलन वालों की प्रबलता देखकर भारतीय समाज इतना साहस नहीं जुटा पाया कि वह इस पढ़ी-लिखी, पैसे वाली और स्वतंत्र विचार रखने वाली नारी को विवेक के मार्ग पर चलने की सलाह दे सके ताकि परिवार नामक संस्था को बिखरने से रोका जा सके।
नारी सशक्तीकरण आंदोलनों में कही गई बातों के अनुसार तो इन शिक्षित, स्वावलम्बी और स्वतंत्र मस्तिष्क वाली नारियों को सुखी हो जाना चाहिए था किंतु हुआ ठीक उलटा। बहुत सी शिक्षित, स्वावलम्बी और स्वतंत्र मस्तिष्क वाली नारियां लव जिहाद में फंस गईं। त्रिकोणीय प्रेम सम्बन्धों की आग में घिर गईं। घर और ऑफिस की दोहरी जिम्मदारियों में धंस गईं। बहुत सी औरतें सिगरेट और शराब की आदी होकर स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं से ग्रस्त हो गईं।
जब मनुष्य की जेब में पैसा आता है तो स्वाभाविक है कि उसके मन में कुछ दृढ़ता एवं अहंकार भी जागृत हो जाता है। बहुत सी नारियां अहंकारग्रस्त होकर अपने परिवार, समाज और सहकर्मियों का प्रेम और सहानुभूति खो बैठीं। इन नारियों को सिखाया और समझाया गया कि तुम्हें प्रेम और सहानुभूति की नहीं अपितु अधिकारों की जरूरत है, रूपयों और पदों की जरूरत है। यही कारण था कि इन नारियों को प्रेम और सहानुभूति नहीं मिली, केवल अधिकार मिले, पद मिले, स्वतंत्र रहने के विचार मिले और लाखों रुपयों के पैकेज मिले।
पिछले कुछ दशकों से भारत में अपराध के बढ़ते हुए ग्राफ को देखकर मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि जब से भारत की नारी शिक्षित और आर्थिक रूप से स्वावलम्बी हुई है, भारतीय सामाजिक परम्पराओं के रेशमी और मुलायम बंधनों को तोड़कर स्वतंत्र विचारों की स्वामिनी हुई है तब से भारतीय नारी पर अत्याचारों की मात्रा कई गुना बढ़ गई है। शिक्षा और धन के बल पर स्वतंत्र और सबल हुई नारियों के कटे हुए शव सूटकेसों में मिलने लगे हैं।
आज नारियों के ऊपर पहले से भी अधिक जघन्य अपराध हो रहे हैं। आजादी से पहले के भारतीय समाज में नारी पर दहेज आदि को लेकर जितने अत्याचार होते थे, आज दहेज उत्पीड़न तो सुनने में नहीं मिलता किंतु नारियों की हत्याओं में कई गुना वृद्धि हो गई है। अशिक्षित, कम पढ़ी-लिखी नारी भले ही स्वयं पर होने वाले अत्याचारों का मुकाबला नहीं कर पाती थी किंतु वह स्वयं अपराधों में बहुत कम लिप्त होती थी। शायद ही फूलनदेवी जैसी कोई पीड़ित औरत अपराध और हत्याओं का मार्ग चुनती थी।
आज तो भारतीय नारी त्रिकोणीय प्रेम सम्बन्धों में फंसकर स्वयं भी जघन्य अपराध करने लगी हैं। पिछले पांच साल में ही भारत में बहुत से पुरुषों को अपनी पत्नियों के अत्याचारों से दुखी होकर आत्महत्याएं करनी पड़ी हैं। बहुत से पतियों और प्रेमियों की लाशें सूटकेसों और सीमेंट के ड्रमों, कचरे के डिब्बों और जंगलों में मिली हैं। लवजिहाद में फंसी बहुत सी लड़कियों के शव उनके ही प्रेमियों ने सूटकेसों में बंद करके जंगलों में फैंके हैं या सुनसान जगहों पर छोड़े हैं।
नारियों द्वारा किए जा रहे एवं नारियों के प्रति बढ़ रहे अत्याचारों की आड़ में, मैं यह कतई नहीं कह रहा कि शिक्षा या आर्थिक स्वावलम्बन भारतीय नारियों को अपराध की ओर ले गया है या नारियों पर अत्याचार का कारण बना है। किंतु आदमी सोचने के लिए विवश तो होता ही है कि क्या अब वह समय वापिस आ गया है जब लड़कों को कम पढ़ी-लिखी लड़कियों को अपनी पत्नी के रूप में चुनना चाहिए!
देश में नारियों के प्रति बढ़ रहे अत्याचार के ग्राफ को देखते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि आज के स्कूलों, कॉलेजों एवं यूनिवर्सिटियों में जो शिक्षा दी जा रही है, उस शिक्षा में दोष है। चाहे नारी हो या पुरुष दोनों को ही आज व्यक्तिवादी शिक्षा दी जा रही है जिसमें स्त्री एवं पुरुष दोनों ही अपने-अपने अहंकार एवं अहंकार जन्य कुण्ठाओं से ग्रस्त होकर एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हो गए हैं।
आज की शिक्षा ऐसी है कि चाहे स्त्री हो या पुरुष, दोनों में ही एक दूसरे की सेवा करने की, एक दूसरे से प्रेम करने की, एक दूसरे के प्रति समर्पण भाव रखने की, एक दूसरे को संरक्षण देने की भावना समाप्त को समाप्त करती है तथा एक ऐसे मानसिक अंधकार में धकेल देती है, जहाँ केवल और मैं और मैं का भाव छाया रहता है। जहां दया, करुणा, क्षमा जैसे शब्द अत्याचारों के प्रतीक हैं तथा अधिकारों की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।
आज की युवा पीढ़ी को घर से लेकर विद्यालय तक कोई यह शिक्षा नहीं देता कि स्त्री पुरुष एक दूसरे के शत्रु या प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं, एक दूसरे के मित्र हैं, साथी हैं, अनंतकाल के सहचर हैं, एक दूसरे का जीवन सुखद एवं सरल बनाने के लिए हैं। केवल बराबरी ही स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की एकमात्र धुरी नहीं हो सकती। बराबरी का दावा मनुष्य के जीवन से चैन छीनकर असंतोष भर देता है और एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना जीवन में सुगंध भर देती है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता