पीथल और पाथल बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीसिंह और मेवाड़ के महाराणा प्रतापसिंह को कहा जाता है। कन्हैयालाल सेठिया ने इसी शीर्षक से एक कविता लिखकर पीथल और पाथल के बीच हुए संवाद का काव्यमय वर्णन किया है। यह घटना डिंगल के कवियों में विशेष लोकप्रिय है जिसमें कहा गया है कि प्रताप रूपी सिंह अकबर रूपी गीदड़ के साथ नहीं बैठेगा!
राजस्थान में यह जनश्रुति प्रचलित है कि एक दिन अकबर ने अपने दरबार में रहने वाले बीकानेर के राजा रायसिंह राठौड़ के छोटे भाई पृथ्वीराज राठौड़ से कहा कि राणा प्रताप अब हमें बादशाह कहने लगा है और हमारी अधीनता स्वीकार करने पर उतारू हो गया है।
कुंअर पृथ्वीराज, भगवान श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त था तथा अपने समय का श्रेष्ठ कवि था। जब उसने अकबर के मुँह से यह बात सुनी तो उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने अकबर से कहा कि यह सूचना असत्य है। इस पर अकबर ने कहा कि तुम सत्य सूचना मंगवाकर मुझे सूचित करो।
मलसीसर ठाकुर भूरसिंह शेखावत ने ‘महाराणा यश प्रकाश’ में लिखा है कि इस पर पृथ्वीराज राठौड़ ने नीचे लिखे हुए दो दोहे बनाकर महाराणा के पास भेजे-
पातल जो पतसाह, बोलै, मुख हूंतां बयण।
मिहर पछम दिस मांह, ऊगे कासप राव उत।।
पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज तन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक।।
अर्थात्- यदि पातल (महाराणा प्रताप) अकबर को अपने मुख से बादशाह कहे तो कश्यप का पुत्र (सूर्य) पश्चिम दिशा में उग जावे। अर्थात् यह असंभव है। हे दीवाण! (महाराणा) मैं अपनी मूंछों पर ताव दूँ अथवा अपनी तलवार से अपने ही शरीर पर प्रहार करूं, इन दो में से एक बात लिख दीजिये।
ज्ञातव्य है कि उदयपुर के महाराणा, भगवान एकलिंगजी को मेवाड़ का राजा और स्वयं को उनका दीवान अर्थात् मंत्री कहते थे। भूरसिंह शेखावत ने महाराणा यशप्रकाश में लिखा है कि महाराणा ने इन दोहों का उत्तर इस प्रकार भिजवाया-
तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग।।
खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछां पाण।
पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ सिर केवाण।
सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर सवाद।
भड़ पीथल जीतो भलां, वैण तुरक सूं बाद।।
अर्थात्- भगवान् एकलिंगजी इस शरीर से (प्रतापसिंह के) मुख से अकबर को तुर्क ही कहलवायेंगे और सूर्य यथावत् पूर्व दिशा में उदय होता रहेगा। हे राठौड़ पृथ्वीराज! जब तक प्रतापसिंह की तलवार यवनों के सिर पर है तब तक आप अपनी मूछों पर खुशी से ताव देते रहिये।
प्रताप अपने सिर पर सांग (भाले) का प्रहार सहेगा क्योंकि अपने बराबर वाले का यश जहर के समान कटु होता है। हे वीर पृथ्वीराज! उस तुर्क अर्थात् अकबर के साथ के वचन रूपी विवाद में आप भलीभांति विजयी हों।
कन्हैयालाल सेठिया ने भी महाराणा द्वारा कष्ट सहन करके भी संघर्ष जारी रखने के संदर्भ में पीथल और पाथल शीर्षक से एक बड़ी भावप्रवण काव्य की रचना की है। उन्होंने लिखा है कि एक बार महाराणा ने अपने परिवार के दुःखों से घबराकर अकबर को पत्र लिखा कि मैं तुम्हारी अधीनता स्वीकार करने को तैयार हूँ।
अरे घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हों सो अमर्यो चीख पड़्यो राणा रो सोयो दुःख जाग्यो।
हूँ लड़्यो घणो हूँ सह्यो घणो मेवाड़ी मान बचावण नै।
मैं पाछ नहीं राखी रण में बैर्यां रो खून बहावण नै।
जब याद करूँ हल्दीघाटी नैणां में रगत उतर आवै।
सुखदृदुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा जावै।
पण आज बिलखतो देखूँ हूँ जद राजकंवर नैॉ रोटी नै।
तो क्षात्र धर्म नै भूलूँ हूँ भूलूँ हिंदवाणी चोटी नै।
आ सोच हुई दो टूक तड़कॉ राणा री भीम बजर छाती।
आँख्यां मैं आँसू भर बोल्यो हूँ लिखस्यूँ अकबर नै पाती।
राणा रो कागद बाँच हुयो अकबर रो सपनो सो सांचो।
पण नैण कर्या बिसवास नहीं जद् बाँच बाँच नै फिर बाँच्यो।
बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथल नै तुरत बुलावण नै।
किरणां रो पीथल आ पूग्यो अकबर रो भरम मिटावण नै।
म्हें बांध लियो है पीथल! सुणॉ पिंजरा में जंगली सेर पकड़।
यो देख हाथ रो कागद है तू देखां फिरसी कियां अकड़।
हूँ आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है।
अब बता मनै किण रजवट नैॉ रजपूती खून रगां में है।
जद पीथल कागद ले देखी राणा री सागी सैनांणी।
नीचै सूं धरती खिसक गयी आख्यों मैं भर आयो पाणी।
पण फेर कही तत्काल संभल आ बात सफा ही झूठी है।
राणा री पाग सदा ऊंची राणा री आन अटूटी है।
ज्यो हुकुम होय तो लिख पूछूँ, राणा नै कागद रै खातर।
लै पूछ भला ही पीथल! तूॉ आ बात सही बोल्यो अकबर।
म्हें आज सुणी हैॉ नाहरियो, स्याळां रै सागै सोवैलो।
म्हें आज सुणी हैॉ सूरजड़ो बादल री ओटां खोवैलो
पीथल रा आखर पढ़ता ही राणा री आँख्यां लाल हुई।
धिक्कार मनैॉ हूँ कायर हूँ नाहर री एक दकाल हुई।
हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं मेवाड़ धरा आजाद रहै।
हूँ घोर उजाड़ां मैं भटकूँ पण मन में माँ री याद रह्वै
पीथल के खिमता बादल री जो रोकै सूर उगाली नै।
सिंहा री हाथल सह लेवै वा कूंख मिली कद स्याळी ने।
जद राणा रो संदेश गयो पीथल री छाती दूणी ही।
हिंदवाणों सूरज चमके हो अकबर री दुनियां सूनी ही।
यह एक श्रेष्ठ साहित्यिक रचना है जिसमें शौर्य के उच्च भावों की सृष्टि की गई है किंतु इस कविता का इतिहास की सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है।
न तो कभी महाराणा अपने परिवार के दुःखों से घबराया, न कभी महाराणा के परिवार ने घास की रोटी खाई, न महाराणा कभी इतना निर्धन हुआ कि उसके पास खाने को अनाज भी न रहा।
न कभी महाराणा ने अकबर को लिखा कि वह अकबर की अधीनता स्वीकार करने को तैयार है। यह तो अकबर के द्वारा रचा गया केवल एक झूठ था जिस पर पृथ्वीराज राठौड़ ने महाराणा प्रताप को पत्र लिखकर वस्तुस्थिति पूछी थी और महाराणा ने उस पत्र का समुचित उत्तर भिजवाकर स्पष्ट कर दिया था कि मैंने कभी भी अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए पत्र नहीं लिखा।
ऐसा एक पत्राचार महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह तथा अब्दुर्रहीम खानखाना के बीच हुआ था जिसकी चर्चा हम यथा-समय करेंगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!