Sunday, August 17, 2025
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भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार एवं उसके कारण

भारत के मध्यकालीन इतिहास में भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार एक बड़ी घटना थी जिसने न केवल भारत की संस्कृति का आमूल-चूल परिवर्तन किया अपितु भारत के इतिहास की धारा का रुख भी मोड़ दिया।

भारतीय संस्कृति में भक्ति आंदोलन वस्तुतः एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है जो वेदों के काल से आरम्भ होकर आज तक चल रही है। समय-समय पर उसके पुनरुद्धार की आवश्यकता होती है। जब-जब किन्हीं भी बाह्य कारणों से संस्कृति पर खतरा मण्डराने लगता है तो भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार आरम्भ हो जाता है।

दिल्ली सल्तनत काल (ई.1206-1526) में, हिन्दू-धर्म को इस्लाम से बचाने के लिए भारत भूमि पर भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार हुआ। भक्ति आंदोलन तब तक वेगवती नदी के समान प्रवाहरत रहा जब तक कि पंद्रहवीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत कमजोर न पड़ गई। इस भक्ति आंदोलन के प्रभाव से हिन्दुओं को नवीन मनोबल प्राप्त हुआ तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रांतीय राज्यों का उदय हुआ। इनमें से अनेक राज्य हिन्दू राजपूतों द्वारा शासित थे। उनके सरंक्षण में हिन्दू-धर्म के भीतर भक्ति आंदोलन अपने चरम को पहुँच गया।

भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार – कारण एवं आवश्यकता

भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार करने के निम्नलिखित कारण प्रतीत होते हैं-

(1.) राष्ट्रीय आवश्यकता

भारत में जिस समय दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई, उस समय देश में प्रचलित वैष्णव धर्म, शैव धर्म, शाक्त धर्म, बौद्ध धर्म तथा जैन-धर्म तो उपस्थित थे ही, साथ ही इन धर्मों के भीतर भी बड़ी संख्या में मत-मतांतर एवं सम्प्रदाय बने हुए थे। राजाओं-महाराजाओं एवं साधु-संतों से लेकर साधारण प्रजा तक दिग्भ्रमित होकर इन सम्प्रदायों में टूटी और बिखरी हुई थी।

प्रत्येक सम्प्रदाय स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ एवं एकमात्र सत्य घोषित करता था तथा दूसरे सम्प्रदाय को पूरी तरह नकारता था। ऐसी स्थिति में भारत भूमि पर जब इस्लाम का आक्रमण हुआ तो इन सम्प्रदायों को एक ही दार्शनिक भावभूमि में पिरोकर एक सर्व-स्वीकार्य धर्म की छतरी के नीचे लाने की आवश्यकता हुई। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो खण्ड-खण्ड हुआ हिन्दू-धर्म इस्लाम की चपेट खाकर पूरी तरह से नष्ट हो जाता।

इस काल में बौद्ध धर्म नष्ट-प्रायः था तथा जैन-धर्म का प्रभाव अत्यंत सीमित था किंतु हिन्दू-धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों को समेट कर एक करने की आवश्यकता थी। शंकर के अद्वैतवाद और मायावाद, हिन्दुओं को इस्लाम के समक्ष टिकाए रखने में समर्थ नहीं थे। इसलिए हिन्दू-धर्म को ऐसे दार्शनिक आधार की आवश्यकता थी जो भगवान के सर्व-सामर्थ्यवान एवं भक्त-वत्सल होने का भरोसा दे सके ताकि लोग अपने धर्म की श्रेष्ठता में विश्वास करें और विदेशी धर्म को स्वीकार नहीं करें।

(2.) हारे को हरि नाम

मुस्लिम शासन काल में हिन्दू किसानों पर समस्त कर लाद दिए गए तथा मुसलमान बनने वाले किसानों के कर माफ कर दिए गए। इसी प्रकार हिन्दुओं के लिए राजकीय सेवा के द्वार बंद कर दिए गए थे किंतु मुसलमान बनने वालों को राजकीय सेवा में रखा जाता था और उन्हें सम्मानित किया जाता था।

जब हिन्दुओं का पेट भरना कठिन हो गया तो वे स्वतः ही मुसलमान बनने लगे। बहुत से लोग ऐसे भी थे जो मरना पंसद करते थे किंतु मुसलमान नहीं बनते थे। ऐसे लोगों ने हारे को हरिनाम कहावत को सार्थक करते हुए ईश्-भक्ति का सहारा लिया।

बर्नीयर ने तारीखे फीरोजशाही में लिखा है- ‘हिन्दुओं के पास धन अर्जित करने के साधन नहीं रह गये थे। उनमें से अधिकांश को निर्धनता एवं अभावों का जीवन-यापन करते हुए अजीविका के लिये निरंतर संघर्ष करना पड़ता था। हिन्दू प्रजा के रहन-सहन का स्तर अत्यंत निम्न कोटि का था। करों का समस्त भार उन्हीं पर था। राज्य पद उनको अप्राप्य थे। अल्लाउद्दीन खिलजी ने दोआब के हिन्दुओं से उपज का 50 प्रतिशत भाग बड़ी कठोरता से उगाहा था।’

इन विकट परिस्थतियों में हिन्दुओं में हारे को हरिनाम अर्थात् परास्त एवं कमजोर व्यक्ति का आसरा स्वयं परमेश्वर है, की भावना ने जन्म लिया तथा हिन्दुओं ने अपने कष्टों को कम करने के लिये ईश्वर की शरण में जाने का मार्ग पकड़ा। फलतः सल्तनत काल में हिन्दू-धर्म में भक्ति आंदोलन का पुनरुद्धार हुआ।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि यह बात अत्यन्त उपहासास्पद है कि जब मुसलमान उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे तब उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्तों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार से यदि भक्ति की धारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिन्ध में, फिर उत्तर भारत में, प्रकट होना चाहिए था, पर हुई वह दक्षिण में। 

(3.) क्रियात्मक शक्ति के नियोजन की आवश्यकता

जब हिन्दुओं को बड़ी संख्या में राजकीय सेवाओं से निकाल दिया गया, उनकी खेती बाड़ी चौपट हो गई, खेत एवं घर मुसलमानों द्वारा छीन लिये गये, उन्हें सम्पत्ति कमाने तथा रखने के अधिकारों से वंचित कर दिया गया तब हिन्दुओं के पास अपनी क्रियात्मक शक्ति को नियोजित करने का कोई माध्यम नहीं रहा। ऐसी स्थिति में संकटापन्न एवं विपन्न हिन्दुओं ने स्वयं को भगवद्-भक्ति में नियोजित किया। इस प्रकार भक्ति भावना की अपार धारा प्रवाहित हो चली।

(4.) सबके लिये सुलभ मार्ग की आवश्यकता

मुस्लिम शासन काल में हिन्दू-धर्म के बाह्याडम्बरों एवं जाति प्रथा से तंग आकर बहुत से हिन्दू स्वेच्छा से मुसलमान बनने लगे। तब हिन्दू-धर्म-सुधारकों ने इस बात को अनुभव किया कि हिन्दू-धर्म को सब लोगों के लिये सुगम बनाना होगा ताकि लोग इसे छोड़कर अन्य धर्म न अपनायें। इसलिये ईश्वर की सरल भक्ति का मार्ग विस्तारित किया गया जो सबके लिये सुलभ थी और सबको बराबर स्थान देती थी।

(5.) पराधीनता के कष्टों को भूलने का साधन

दिल्ली सल्तनत के शासकों द्वारा हिन्दुओं को आभूषण पहनने, घोड़े पर चढ़ने, राजकीय सेवा करने, सम्पत्ति रखने आदि अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। यह पराधीनता उन्हें सालती थी। भक्ति-मार्ग उनकी पराधीनता के विस्मरण का अच्छा साधन सिद्ध हुआ। ईश्वर की प्राप्ति तथा मोक्ष को सर्वप्रधान मानकर यह प्रचारित किया जाने लगा कि ईश्वर की प्राप्ति केवल ईश्वर की दया एवं भक्ति से हो सकती है।

(6.) परस्पर सहयोग की आवश्यकता

मनुष्य सामाजिक प्राणी है, साथ-साथ रहने से उसे एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। यह तभी संभव है जब समाज में कटुता नहीं हो। भगवद्-भक्ति का आधार भी समस्त प्राणियों को ईश्वर की संतान मानकर उनसे प्रेम करने की प्रेरणा ही है। इस भावना को निरंतर विस्तारित करने की आवश्यकता थी, इसलिये भक्ति आंदोलन निरंतर आगे बढ़ता रहा।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

भारत का मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन

भगवद्भक्ति की अवधारणा

भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार एवं उसके कारण

मध्य-युगीन भक्ति सम्प्रदाय

भक्तिआन्दोलन की प्रमुख धाराएँ

भक्ति आन्दोलन का प्रभाव

मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत

रामानुजाचार्य

माधवाचार्य

निम्बार्काचार्य

संत नामदेव

रामानंदाचार्य

वल्लभाचार्य

सूरदास

संत कबीर

भक्त रैदास

गुरु नानकदेव

मीरा बाई

तुलसीदास

संत तुकाराम

दादूदयाल

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