भक्ति मार्गी सन्त रामानुजाचार्य
ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी से भारत में वैष्णव आचार्यों की एक नवीन परम्परा आरम्भ हुई। इस परम्परा में आलवार संत यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य रामानुजाचार्य (ई.1016-1137) को विशेष सफलता प्राप्त हुई। रामानुजाचार्य को मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का जन्मदाता कहा जाता है। उनका जन्म ई.1016 में श्रीरंगम् के आचार्य परिवार में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद उन्हें कांजीवरम् के यादव प्रकाश के पास वेदान्त की शिक्षा के लिए भेजा गया।
वेद की ऋचाओं के अर्थ निकालने में उनका अपने गुरु से मतभेद हो गया और उन्होंने स्वतन्त्र रूप से अपने विचारों का प्रचार आरम्भ किया। कुछ दिनों तक गृहस्थ जीवन बिताने के बाद उन्होंने सन्यास ले लिया। उन्होंने दक्षिण तथा उत्तर भारत के धार्मिक स्थानों का भ्रमण किया तथा विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया।
उन्होंने अपने विचारों की पुष्टि के लिए पाँच ग्रन्थों की रचना की-(1.) वेदान्त सारम् (2.) वेदान्त संग्रहम्, (3.) वेदान्त दीपक, (4.) भगवद्गीता की टीका और (5.) ब्रह्मसूत्र की टीका जो ‘श्रीभाष्य’ के नाम से प्रसिद्ध है।
रामानुजाचार्य ने 120 वर्ष के दीर्घ आयुकाल में ‘श्री सम्प्रदाय’ की स्थापना की तथा शंकर के ‘अद्वैतवाद’ एवं ‘मायावाद’ का खण्डन करके ‘विशिष्टाद्वैत दर्शन’ का प्रतिपादन किया। शंकर का ब्रह्म शुद्ध, बुद्ध और निराकार था। उसका मनुष्य से कोई सीधा सम्पर्क नहीं है। साधारण मनुष्य उसकी कल्पना भी नहीं कर पाता था।
इसी ब्रह्म में ईश्वरत्व का आरोपण कर रामानुज ने उसे साधारण मनुष्य की बुद्धि की पकड़ में लाने का प्रयास किया। रामानुज ने ईश्वर, जगत् और जीव, तीनों को सत्य, नित्य और अनादि माना तथा जीव और जगत् को अनिवार्य रूप से ईश्वर पर आश्रित माना। रामानुज का ईश्वर सगुण, सर्वगुण सम्पन्न, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वत्र है।
वह इस सृष्टि का निर्माता है और उसकी रचना सीमित अर्थ में सृष्टि से अलग है। ईश एवं सृष्टि का यही द्वैध, भक्ति के सिद्धान्त का आधार है। भक्ति के माध्यम से जीव ईश्वर से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित कर सकता है।
रामानुजाचार्य को ‘शेष’ अर्थात् लक्ष्मण का अवतार माना जाता है। उनके शिष्यों की मान्यता है कि शेष ही राम के साथ लक्ष्मण के रूप में तथा श्रीकृष्ण के साथ बलराम के रूप में अवतरित हुए तथा कलियुग में उन्होंने रामानुज के रूप में अवतार लेकर विष्णु-धर्म की रक्षा की। रामानुज ने विष्णु एवं लक्ष्मी को एक ही घोषित किया तथा उनकी सगुण भक्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सुझाया।
वे ईश्वर को प्रेम तथा सौन्दर्य के रूप में मानते थे। उनका मानना था कि विष्णु सर्वेश्वर हैं। वे मनुष्य पर दया करके इस पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं। रामानुज ‘राम’ को विष्णु का अवतार मानते थे और राम की पूजा पर जोर देते थे। उनका कहना था कि पूजा तथा भक्ति से मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
रामानुज के प्रयासों से, सगुणोपासना करने वाले वैष्णव धर्म को सम्पूर्ण दक्षिण भारत में लोकप्रियता प्राप्त हुई एवं जनसाधारण तेजी से इस ओर आकर्षित होने लगा। उन्हें न केवल अपने धर्म की श्रेष्ठता में विश्वास हुआ अपितु भगवान के भक्त-वत्सल होने तथा भगवान द्वारा भक्तों की रक्षा करने के लिए दौड़कर चले आने में भी विश्वास हुआ।
रामानुज ने भक्ति के साथ-साथ ‘प्रपत्ति’ का मार्ग भी सुझाया। मोक्ष प्राप्ति के लिए यह मार्ग सबसे सरल है, क्योंकि इसमें ज्ञान, विद्याभ्यास तथा योग साधना की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर में पूर्ण विश्वास करके स्वयं को उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कर देना ही ‘प्रपत्ति’ है। ईश्वर प्राप्ति का यह मार्ग समस्त मनुष्यों के लिए खुला था। इससे लाखों शूद्रों और अन्त्यजों के लिए भी हिन्दू-धर्म में बने रहने के लिए नवीन आशा का संचार हुआ। अब उन्हें धार्मिक तथा आध्यात्मिक सन्तोष के लिए दूसरा मार्ग ढूँढने की आवश्यकता न रही।
भारत का मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन
भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार एवं उसके कारण