संत शिरोमणि सूरदास का जन्म सोलहवीं सदी में हुआ। वे वल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्य थे तथा भक्ति आंदोलन के महान संत थे किंतु वे उपदेशक अथवा सुधारक नहीं थे।
सूरदास ने अपने गुरु वल्लभाचार्य के निर्देश पर भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन किया तथा भागवत् पुराण में वर्णित लीलाओं को आधार बनाते हुए कई हजार सरस पदों की रचना की। इन पदों में भगवान कृष्ण के यशोदा माता के आंगन में विहार करने से लेकर उनके दुष्ट-हंता स्वरूप का बहुत सुंदर एवं रसमय वर्णन किया गया।
“मैया मोरी, मैं नहीं माखन खायो” जैसे पदों में सूरदास ने भगवान कृष्ण के बालस्वरूप की लीलाओं को जन-सामान्य के समक्ष रखा।
“जटिल जटा कून मुख फूल, सिर मुकुट गिरधरि“ जैसे पदों में सूरदासजी ने भगवान कृष्ण के सौंदर्य की वर्णन करने में अपनी विशिष्ट काव्य प्रतिभा का परिचय दिया।
सूरदास ने भ्रमर गीतों के माध्यम से निर्गुण भक्ति को नीरस एवं अनुपयोगी घोषित किया तथा न केवल सगुण भक्ति करने अपितु भक्त-वत्सल भगवान की रूप माधुरी का रसपान करने वाली भक्ति करने का मार्ग प्रशस्त किया। एक भ्रमर गीत में वे लिखते हैं-
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी ।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी ।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी ।
प्रीति-नदी में पाउँ न बोर्यो, दृष्टि न रूप परागी ।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी ।
संत सूरदास की रचनाएँ- सूरसागर, सूरसारावली एवं साहित्य लहरी में संकलित हैं। उनकी रचनाएं ब्रज भाषा में हैं। ब्रजभाषा में इतनी प्रौढ़ रचनाएं सूरदास के अतिरिक्त अन्य कोई कवि नहीं कर सका।
सूरदास की रचनाओं में भक्ति, वात्सल्य और शृंगार रसों की प्रधानता है। पुष्टि मार्ग में दीक्षित होने से सूरदास की भक्ति में दास्य भाव एवं सखा भाव को प्रमुखता दी गई है। उन्होंने सूरसागर का आरम्भ ‘चरण कमल बन्दौं हरि राई’ से किया है।
अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल! जैसे पदों को देश-व्यापी लोकप्रियता अर्जित हुई तथा जन-सामान्य को अनुभव हुआ कि भक्ति के बल पर भगवान को अपने आंगन में बुलाया जा सकता है। उन्हें संकट के समय पुकारा जा सकता है और अपने शत्रु से त्राण पाने में सहायता ली जा सकती है। परमात्मा की शक्ति से ऐसे नैकट्य भाव का अनुभव इससे पूर्व किसी अन्य सम्प्रदाय द्वारा नहीं कराया गया था।
भ्रमर गीतों के माध्यम से सूरदास ने भगवान कृष्ण एवं गोपियों के बीच ब्रह्म और जीव के बीच अनंत काल से चले आ रह सहज आकर्षण एवं अध्यात्मिक बंधन का निरूपण किया है तथा निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर सगुण ब्रह्म की महत्ता का वर्णन किया है- निरगुन कौन देस को वासी!
मुख्य अध्याय – भारत का मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन
भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार एवं उसके कारण
मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत
सूरदास



