अकबर भारत जैसे विशाल देश के अधिकांश हिस्से पर शासन करता था। यह केवल एक विशाल सेना के बल पर ही किया जा सकता था। इस कारण अकबर का सैन्य प्रबन्धन अत्ंयंत बेहतर अवस्था में था।
अकबर ने विशाल मुगल सल्तनत का निर्माण सेना के बल पर ही किया था। सल्तनत की सुरक्षा एवं सल्तनत में शांति बनाये रखने के लिये भी एक विशाल, सेना की आवश्यकता थी। इसलिये अकबर को विशाल सेना के प्रबंधन के लिये कई कदम उठाने पड़े।
अकबर का सैन्य प्रबन्धन
सेना के दोषों का निवारण
सर्वप्रथम उसने अपनी सेना के उन दोषों को दूर करने का प्रयास किया जो उस युग की सेना में विद्यमान थे।
(1.) नगद वेतन की व्यवस्था
मुगल सैन्य व्यवस्था में सबसे बड़ा दोष यह था कि अफसरों को नकद वेतन देने के स्थान पर जागीरें दी जाती थीं। अकबर ने 1575 ई. में जागीर प्रथा को समाप्त करके सैनिक अधिकारियों एवं सैनिकों को नकद वेतन देने की व्यवस्था आरम्भ की।
(2.) घोड़ों को दागने की प्रथा
मुगल सेना में घोड़ों को दागने की प्रथा नहीं थी। इससे झूठे घोड़ों के दिखला देने की आशंका बनी रहती थी। अकबर ने बलबन की तरह घोड़ों को दागने की प्रथा को फिर से आरम्भ किया। समस्त अधिकारियों को आदेश दिये गये कि वे अपने घोड़ों को बख्शी के सामने लाकर दाग लगवायें।
(3.) प्रत्येक अमीर के लिये दाग का अलग निशान
घोड़ों को दागने की प्रथा आरम्भ करने के बाद कुछ लालची अधिकारी दूसरों के दाग लगे घोड़े दिखाकर बख्शी को धोखा देने लगे। इस बेईमानी को रोकने के लिए अकबर ने प्रत्येक अधिकारी की सेना के लिए अलग-निशान निश्चित कर दिये।
(4.) वर्ष में एक बार घोड़ों का निरीक्षण अनिवार्य
घोड़ों को वर्ष में कम से कम एक बार बख्शी को दिखाना पड़ता था। यदि कोई अमीर अपने घोड़ों को दाग लगवाने में देरी करता था तो उस पर कड़े जुर्माने किये जाते थे।
विभिन्न प्रकार की सेनाओं का प्रबंधन
अकबर के अधीन पाँच विभिन्न प्रकार की सेनाएँ थीं- (1.) अधीन राजाओं की सेना, (2.) मनसबदारों की सेना, (3.) दाखिली सेना, (4.) अहदी सेना तथा (5.) स्थायी सेना।
(1.) अधीन राजाओं की सेना
बहुत से राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इन राजाओं को अपनी-अपनी सेनाओं के साथ साम्राज्य की सेवा करनी पड़ती थी। राजा लोग इन सेनाओं का संगठन अपने ढंग से करते थे और वही उसके सेनापति होते थे। साधारणतः उन्हें शाही खजाने से कोई राशि नहीं दी जाती थी। प्रत्येक राजा कितनी सेना भेजेगा यह निश्चित कर दिया गया था।
(2.) मनसबदारों की सेना
अकबर ने मनसबदारी प्रथा का प्रचलन किया था। ‘मनसब’ का अर्थ होता है पद या दर्जा। मनसबदारों की सेना का संगठन पद या दर्जे के आधार पर किया गया था। अकबर ने मनसबदारों के पद या दर्जे बनाये। मनसबों की संख्या 33 थी। नीचे से ऊपर तक मनसबदारों की शृंखला बनी हुई थी।
सबसे छोटे मनसबदार के पास 10 सैनिक और सबसे बड़े मनसबदार के पास बारह हजार सैनिक होते थे। जिन मनसबदारों के पास 500 से 2500 तक सैनिक होते थे वे अमीर कहलाते थे। जिनके पास 2500 से अधिक सैनिक होते थे वे अमीर आजम कहलाते थे। सबसे बड़ी सैनिक उपाधि खान-ए-जमान थी जो बाद में खान-ए-खानान में बदल दी गई।
यह उपाधि एक समय में एक ही व्यक्ति को दी जाती थी। पाँच हजार से ऊपर के मनसब प्रायः मुगल शहजादों के लिये सुरक्षित रहते थे। कोई भी अफसर सात हजार से अधिक का मनसब प्राप्त नहीं कर सका था। मनसबदारों का पद आनुवंशिक नहीं होता था। वे बादशाह द्वारा नियुक्त किये जाते थे। मनसबदारों को ऊँचे वेतन दिये जाते थे जिनमें से आधा वेतन उन्हें अपनी सेना की व्यवस्था पर व्यय करना पड़ता था और आधे वेतन में वे अपना निजी व्यय चलाते थे।
(3.) दाखिली सेना
दाखिली अरबी भाषा के दख्ल शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है अन्दर या भीतर। इस प्रकार दाखिली सेना का अर्थ हुआ आन्तरिक सेना। यह सेना आन्तरिक शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये थी। इसकी तुलना आज की पुलिस व्यवस्था से की जा सकती है। दाखिली सैनिक राज्य की ओर से भर्ती किए जाते थे। उन्हें शाही कोष से वेतन मिलता था। यह सेना मनसबदारों की अध्यक्षता में काम करती थी।
(4.) अहदी सेना
अहदी अरबी भाषा के अहद शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है वचन देना। अहदी उन सैनिकों को कहते थे, जो बादशाह के बड़े विश्वसनीय होते थे और जो बादशाह के लिये अपना तन-मन-धन न्यौछावर करने का वचन देते थे। अहदी सेना में कुलीन लोग रखे जाते थे। उन्हें ऊँचे वेतन दिये जाते थे।
मनसबदारों से इनका सम्बन्ध नहीं रहता था। यह स्वतन्त्र सेना होती थी और सीधे बादशाह से आदेश प्राप्त करती थी। इस सेना के दीवान तथा बख्शी अलग होते थे। प्रत्येक अहदी सैनिक को अधिकतम आठ घोड़े रखने पड़ते थे किन्तु बाद में घोड़ों की अधिकतम संख्या पाँच कर दी गई। अहदी सैनिक बादशाह के अंगरक्षक का भी काम करते थे।
(5.) स्थायी सेना
यह सेना सदैव बादशाह के साथ रहती थी। बादशाह इस सेना को कोई भी कार्य करने के लिये तुरन्त आदेश दे सकता था। बादशाह स्वयं इस सेना का संचालन करता था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि अकबर की स्थायी सेना का आकार बहुत छोटा था परन्तु अकबर जैसे महत्त्वाकांक्षी एवं साम्राज्यवादी बादशाह की स्थायी सेना निश्चित रूप से काफी बड़ी रही होगी।
सेना के विभिन्न अंग
मुगल सेना 6 भागों में विभक्त थी- (1.) घुड़सवारों की सेना, (2.) पैदल सेना, (3.) हाथियों की सेना, (4.) तोपखाना, (5.) नौसेना तथा (6.) शाही खेमा।
(1.) अश्वारोहियों की सेन
यह सेना मुगल सेना की सबसे महत्त्वपूर्ण तथा प्रधान अंग समझी जाती थी और इसी पर मुगल सर्वाधिक भरोसा करते थे। समतल मैदानों के युद्ध में यह सेना विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध होती थी क्योंकि वह बड़ी ही गतिशील होती थी और इसका प्रहार बड़ा ही प्रभावशाली होता था। चूँकि भारत में अभी बन्दूकों का अधिक प्रचलन नहीं था इसलिये अश्वारोहियों के महत्त्व में कोई कमी नहीं आई थी। वास्तव में अश्वारोही ही मुगल सेना के सबसे प्रबल अंग थे।
(2.) पैदल सेना
अकबर के पास विशाल पैदल सेना थी। ऊबड़-खाबड़ तथा पर्वतीय प्रदेशों में पैदल सेना अश्वारोहियों की सेना से अधिक लाभदायक सिद्ध होती थी। युद्ध की दृष्टि से पैदल सेना दो भागों में विभक्त थी- (1.) बन्दूकची तथा (2.) शमशेरबाज।
शमशेरबाज बन्दूकची सैनिक बंदूकों से युद्ध करते थे। अकबर के समय में इनकी संख्या 12,000 थी। ये सैनिक ‘दारोगा-तोपचियन’ की अध्यक्षता में युद्ध करते थे। शमशेरबाजों की सेना उनके अस्त्रों के अनुसार विभिन्न रिसालों में विभक्त रहती थी। जो सैनिक तलवार लेकर लड़ते थे वे शमशेरबाज कहलाते थे। यह सेना तलवार के अतिरिक्त कटार, चाकू, कोड़े आदि का भी प्रयोग करती थी। इन्हीं हथियारों के अनुसार इनके रिसाले होते थे।
(3.) हाथियों की सेना
हाथियों का प्रयोग समान ढोने तथा युद्ध करने में होता था। सावधानी से प्रयोग करने पर हस्ति सेना बड़ी लाभदायक सिद्ध होती थी परन्तु हाथी बिगड़ जाने पर खतरनाक सिद्ध होते थे और पीछे मुड़कर अपनी सेना को रौंद डालते थे। अकबर की हस्ति सेना में 5000 शिक्षित हाथी थे। बादशाह अपने हाथियों के प्रशिक्षण एवं भोजन पर विशेष रूप से ध्यान देता था।
(4.) तोपखाना
भारत में तोपखाने का प्रयोग सबसे पहले बाबर ने किया था। उसके बाद शेरशाह सूरी ने भी युद्धों में तोपों का सफल प्रयोग किया। अकबर ने अपने तोपखाने में सुधार करके उसे और अधिक उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया। उसने ऐसी बन्दूकें बनवाईं जो गाड़ी से अलग की जा सकती थीं और सरलता से एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाई जा सकती थीं। तोपखाने का प्रधान ‘मीर-आतीश’ अथवा ‘दारोगा-ए-तोपखाना’ कहलाता था।
(5.) नौ-सेना
गुजरात पर अधिकार कर लेने के बाद अकबर के साम्राज्य की सीमा समुद्र-तट तक पहुँच गई थी इसलिये अकबर ने नौ-सेना का भी निर्माण किया। इन दिनों पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर अपनी नौ-शक्ति को अत्यन्त प्रबल बना लिया था। यदि कोई भारतीय शासक नौ-सेना के संगठन तथा वृद्धि का प्रयत्न करता तो उनके साथ संघर्ष हो जाना अनिवार्य था।
इस संघर्ष से भारतीय व्यापार को बहुत बड़ी क्षति की आशंका थी। दक्षिण भारत पर पूर्ण रूप से अपना प्रभुत्व स्थापित किये बिना अकबर नौ सेना के संगठन को सफल नहीं बना सकता था। नदियों के युद्ध के लिये अकबर ने बड़ी-बड़ी नावों का निर्माण करवाया। इन नावों का प्रयोग बंगाल, बिहार तथा सिन्ध में किया जाता था। लाहौर तथा इलाहाबाद में नावों के निर्माण की व्यवस्था की गई थी।
(6.) शाही सेना
मुगल सैनिक संगठन की एक बहुत बड़ी विशेषता शाही खेमे की व्यवस्था थी। शाही शिविर बड़ा ही विशाल होता था विशेषतः तब जबकि बादशाह स्वयं सेना के साथ चलता था। उस समय उसका खेमा एक बड़े नगर का रूप धारण कर लेता था। वह पाँच से बीस मील तक विस्तृत होता था और उसमें एक से दो लाख तक व्यक्ति विद्यमान रहते थे।
इस विशाल जनसमुदाय में पूर्ण संयम तथा अनुशासन बना रहता था। शाही खेमे की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि केवल चार घण्टे के भीतर इसकी व्यवस्था कर दी जाती थी। शाही खेमे में आवश्यकता की समस्त वस्तुएँ उचित मूल्य पर मिलती थीं।
खाने-पीने की चीजें बंजारे दिया करते थे जो खेमे के साथ चलते थे। अमीर तथा बड़े-बड़े अफसर कई दिनों की खाद्य सामग्री अपने साथ लेकर चलते थे। साधारण सैनिक तथा सेवक लोग खाने का सामान उर्दू बाजार से खरीदते थे। मुगल खेमे में सामान आपूर्ति की अच्छी व्यवस्था की गई थी।