अलाउद्दीन खिलजी ने सुल्तान के विरुद्ध होने वाले विद्रोहों के कारण का अनुमान लगा लेने के उपरान्त उन कारणों को दूर करने का निश्चय किया। उसने विद्रोहों को रोकने के लिए निम्नलिखित कदम उठाये-
(1.) गुप्तचर-विभाग का संगठन
विद्रोहियों का पता लगाने के लिए सुल्तान ने गुप्तचर-विभाग फिर से संगठित किया। गुप्तचरों को अमीरों तथा राज्याधिकारियों के घरों, कार्यालयों, नगरों तथा गाँवों में नियुक्त किया गया। इससे अमीरों के बारे में छोटी से छोटी सूचना सुल्तान तक पहुँचने लगी। इसका परिणाम यह हुआ कि अमीरों, राज्याधिकारियों तथा साधारण लोगों की गुप्त बातें समाप्त हो गईं।
(2.) अमीरों की सम्पत्ति का हरण
अलाउद्दीन खिलजी ने उन धनी अमीरों की सम्पत्ति को छीनना आरम्भ किया जो भूमि, लोगों को इनाम अथवा दान के रूप में प्राप्त थी, बहुत से लोगों की पेन्शन छीन ली गई। जिन्हें कर मुक्त भूमि मिली थी, उनकी भूमि पर फिर से कर लगा दिया गया। इससे सुल्तान को पर्याप्त धन प्राप्त हो गया और अमीरों की समृद्धि पर अंकुश लग गया।
(3.) मद्यपान-निषेध
अलाउद्दीन ने स्वयं मद्यपान त्याग दिया और अन्य लोगों को भी शराब पीने से रोक दिया। अलाउद्दीन ने शराब पीने के अपने बहुमूल्य बर्तन तुड़वा दिये और आज्ञा दी कि दिल्ली में जितनी शराब है वह सड़कों पर फैंक दी जाये। सुल्तान की आज्ञा का पालन किया गया और दिल्ली की सड़क शराब से भर गयी। सुल्तान ने यह भी आज्ञा दे दी कि यदि कोई व्यक्ति मद्यपान किये हुए मिले तो उसे दिल्ली के बाहर एक गड्ढे में फिंकवा दिया जाय। सुल्तान की आज्ञा का उल्लंघन करने वालों को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था की गई।
(4.) अमीरों की सामाजिक गोष्ठियों तथा पारस्परिक विवाहों का निषेध
अलाउद्दीन खिलजी ने अमीरों की दावतें बन्द करवा दीं और उन्हें एक दूसरे के यहाँ आने जाने तथा गोष्ठी करने से मना कर दिया। बिना सुल्तान की आज्ञा के अमीर लोग परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध भी नहीं स्थापित कर सकते थे। इससे अमीरों का संगठन धीरे-धीरे समाप्त होने लगा।
(5.) प्रान्तों पर कड़ा नियन्त्रण
अलाउद्दीन खिलजी ने प्रांतीय सेना पर अपना सीधा नियन्त्रण रख प्रांतपतियों की शक्ति को कम करने का प्रयत्न किया। उसने प्रान्तों में रहने वाली सेना की नियुक्त तथा सैनिकों का नियन्त्रण, स्थानान्तरण, पद वृद्धि आदि सारे कार्य अपने हाथ में ले लिये। सैनिकों को भूमि देने के स्थान पर नकद वेतन देना आरम्भ किया। उसने इस बात पर जोर दिया कि प्रान्तपति निर्धारित संख्या में सैनिक रखें तथा उन्हें पूरा वेतन दें।
(6.) जलाली अमीरों का दमन
अलाउद्दीन ने उन समस्त जलाली अमीरों को नष्ट कर दिया जिन्होंने धन अथवा पद के प्रलोभन से विरोधियों का साथ दिया था। उनकी सम्पत्ति छीन ली गई और बहुतों की आँखें निकलवा कर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। दूसरे अमीरों को उन्मूलित करने में भी सुल्तान ने संकोच नहीं किया। उसने कई अनेक उच्च पदाधिकारियों तथा उनके सम्बन्धियों को विष दिलवा कर मार डाला।
(7.) हिन्दुओं का कठोरता से दमन
अलाउद्दीन खिलजी ने हिन्दुओं को पूरी तरह निर्धन बनाने का प्रयत्न किया जिससे वे विद्रोह की कल्पना तक नहीं कर सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सुल्तान ने कई कदम उठाये। दोआब बड़ा ही उपजाऊ प्रदेश था और वहाँ के हिन्दू प्रायः विद्रोह खड़ा कर देते थे।
अतः सुल्तान ने दो आब के क्षेत्र में उपज का 50 प्रतिशत मालगुजारी के रूप में वसूल करने की आज्ञा दी। जजिया, चुंगी तथा अन्य कर पूर्ववत् हिन्दुओं को देने पड़ते थे। चौधरी और मुकद्दम लोगों को घोड़ों पर चढ़ने, हथियार रखने, अच्छे वस्त्र पहनने, पान खाने से मनाही कर दी गई। इस प्रकार हिन्दुओं की समस्त सुविधाएँ छीन ली गईं और उनके साथ बड़ी क्रूरता का व्यवहार किया गया।
न्याय व्यवस्था में सुधार
अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी मुस्लिम प्रजा के लिये न्याय की समुचित व्यवस्था की। हिन्दुओं के झगड़ों का न्याय भी मुस्लिम काजियों द्वारा किया जाता था किंतु हिन्दुओं के झगड़ों का निबटारा अलग प्रकर से किया जाता था। मुसलमान प्रजा की बजाय हिन्दुओं पर अधिक कड़े दण्ड लगाये जाते थे तथा अधिक कड़ी शारीरिक यातानाएं दी जाती थीं।
(1.) लोक आधारित न्याय व्यवस्था
अलाउद्दीन से पहले, दिल्ली सल्तनत की न्याय व्यवस्था, मुस्लिम धर्म ग्रन्थों पर आधारित थी परन्तु अलाउद्दीन ने उसे लौकिक स्वरूप प्रदान किया। उसने इस्लाम की उपेक्षा नहीं की परन्तु उसने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि परिस्थिति तथा लोक कल्याण के विचार से जो नियम उपयुक्त हों, वही राजनियम होने चाहिए।
(2.) उपयुक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति
सुल्तान ने न्याय करने वाले काजियों की संख्या में वृद्धि कर दी ताकि लोगों को न्याय के लिये अपने झगड़ों का निबटारा करवाने के लिये अधिक दिनों तक नहीं भटकना पड़े तथा अपराधियों को जल्दी से जल्दी सजा दी जा सके।
(3.) न्यायाधीशों की सहायतार्थ पुलिस तथा गुप्तचरों का प्रबन्ध
सुल्तान ने न्यायाधीशों की सहायता के लिए पुलिस की भी समुचित व्यवस्था की। प्रत्येक नगर में एक कोतवाल रहता था जो पुलिस का प्रधान होता था। उसका प्रधान कर्त्तव्य अपराधों का अन्वेषण करना होता था। न्यायाधीश की सहायता के लिए पुलिस के साथ-साथ गुप्तचरों का भी प्रबन्ध किया गया जो अपराधों एवं अपराधियों के अन्वेषण में सहायता करते थे।
(4.) कठोर दण्ड का विधान
अलाउद्दीन का दण्ड-विधान अत्यन्त कठोर था। अपराधी तथा उसके साथियों और सम्बन्धियों को बिना किसी प्रमाण के केवल सन्देह के कारण मृत्यु-दण्ड तक दे दिया जाता था। अपराधियों को प्रायः अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था। कठोर दण्ड विधान से जनता में शासन के प्रति भय बैठ गया। लोग अपराध करने तथा विवाद में पड़ने से डरने लगे।
सेना में सुधार
अलाउद्दीन ने बाह्य आक्रमणों से साम्राज्य की रक्षा करने, साम्राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करने तथा साम्राज्य का विस्तार करने के लिये मजबूत सेना का गठन किया तथा उसमें कई सुधार किये-
(1.) सैनिकों की भर्ती करने में सुधार
सुल्तान ने सेना को पूर्ण रूप से अपने नियंत्रण में रखने के लिए सेना के सम्बन्ध में निर्णय लेने का काम अपने तक सीमित कर लिया। उसने सैनिकों को भर्ती करने की व्यवस्था में परिवर्तन किया। सेना का संगठन करने के लिए उसने ‘आरिज-ए-मुमालिक’ की नियुक्ति की। सेना में वही लोग भर्ती किये जाते थे जो घोड़े पर चढ़ना, अस्त्र-शस्त्र चलाना तथा युद्ध करना जानते थे।
(2.) सैनिकों का प्रशिक्षण
उस काल में सेना के प्रशिक्षण एवं परेड आदि की कोई व्यवस्था नहीं थी। सैनिकों का प्रशिक्षण रण क्षेत्र में ही होता था तथा सेना को सक्रिय बनाने रखने के लिए उसे हर समय किसी न किसी युद्ध में नियोजित रखना पड़ता था। शांति काल में सेना को आखेट में व्यस्त रखा जाता था।
(3.) सैनिकों का वर्गीकरण तथा नकद वेतन की व्यवस्था
सुल्तान ने घुड़सवार सैनिकों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया और प्रत्येक श्रेणी के सैनिकों का वेतन निश्चित कर दिया। पहली श्रेणी का सैनिक दो से अधिक घोड़े रखता था, दूसरी श्रेणी का सैनिक केवल दो घोड़े और तीसरी श्रेणी का सैनिक केवल एक घोड़ा रखता था। प्रथम श्रेणी के सैनिक को 234 टंक, द्वितीय श्रेणी के सैनिक को 152 टंक और तृतीय श्रेणी के सैनिकों को 78 टंक वार्षिक वेतन मिलता था। सैनिकों को जागीर देने की प्रथा हटा दी गई और उन्हें नकद वेतन दिया जाने लगा।
(4.) उत्तम अश्वों की व्यवस्था
अलाउद्दीन खिलजी की सेना में घुड़सवार सैनिकों की प्रधानता थी। अतः सुल्तान ने अश्व-विभाग के सुधार पर विशेष रूप से ध्यान दिया। उसने बाहर से अच्छी नस्ल के घोड़ों को मंगाने की व्यवस्था की। प्रायः मंगोलों के परास्त होने पर सुल्तान को लूट में अच्छे घोड़े प्राप्त हो जाते थे। दक्षिण भारत के राजाओं को परास्त करके सुल्तान ने कुछ अच्छे घोड़े प्राप्त किये थे। राज्य ने अच्छी नस्ल के घोड़े उत्पन्न करने की भी व्यवस्था की।
(5.) हुलिया की व्यवस्था
प्रायः लोग सैन्य-प्रदर्शन के समय अथवा रणक्षेत्र में घोड़े तथा सवार लाकर दिखा देते थे जबकि वे घोड़े तथा सवार वास्तव में युद्ध में भाग नहीं लेते थे। इस बेईमानी को रोकने के लिए सुल्तान ने सैनिकों की हुलिया लिखवाने की प्रथा चलाई। फलतः प्रत्येक सैनिक को एक रजिस्टर में अपनी हुलिया लिखवाना पड़ता था।
(6.) घोड़ों को दागने की व्यवस्था
सैनिक सदैव अच्छे घोड़े नहीं रखते थे। सुल्तान ने इसके लिए घोड़ों को दागने की प्रथा चलाई जिससे सैनिक झूठे घोड़े दिखला कर सुल्तान को धोखा न दें।
(7.) अच्छे शस्त्रों तथा सेनापतियों की व्यवस्था
सुल्तान द्वारा लागू की गई नई व्यवस्था में सैनिकों को अच्छे से अच्छे घोड़ों तथा उत्तम हथियारों से सज्जित होकर राज्य की सेवा के लिये सदैव तैयार रहना पड़ता था। सुल्तान ने अपनी सेना के संचालन के लिये योग्य सेनापतियों को नियुक्त किया।
(8.) स्थायी सेना की व्यवस्था
अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने स्थायी सेना की व्यवस्था की। यह सेना राज्य की सेवा के लिये सदैव राजधानी में उपस्थित रहती थी। इस स्थायी सेना में चार लाख पचहत्तर हजार सैनिक होते थे।
(9.) दुर्गों की व्यवस्था
सुल्तान ने उन समस्त किलों की मरम्मत कराई जो मंगोलों के मार्गों में पड़ते थे। उसने बहुत से नये दुर्ग भी बनवाये। इन किलों में उसने योग्य तथा अनुभवी सेनापतियों की अध्यक्षता में सुसज्जित सेनायें रखीं।
आर्थिक सुधार
अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली सल्तनत की आर्थिक व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिये कई आर्थिक सुधार किये-
(1.) व्यक्तिगत सम्पत्ति का अपहरण
अलाउद्दीन खिलजी अमीरों एवं जनता की व्यक्तिगत सम्पत्ति को आन्तरिक उपद्रवों का कारण समझता था। इसलिये उसने अमीरों एवं जनता की व्यक्तिगत सम्पत्ति को उन्मूलित करके उस सम्पत्ति को राजकीय कोष में जमा कर लिया। इस कार्य के लिये उसने साधारण जनता से लेकर अमीरों तक पर अत्याचार किये तथा उनकी हत्याएं करवाईं।
(2.) दान की भूमि का अपहरण
मुसलमानों को मिल्क, इनाम, इशरत (पेंशन) तथा वक्फ (दान) के रूप में जो भूमि प्राप्त थी, उसका सुल्तान ने अपहरण कर लिया। इस प्रकार की कुछ भूमि फिर भी बची रह गई थी परन्तु अधिकांश भूमि छीन ली गई थी।
(3.) जागीरों का अपहरण
सुल्तान ने सैनिकों को जागीर देने की प्रथा बन्द करके नकद वेतन देने की व्यवस्था की। इससे राज्य की आय में वृद्धि हो गई।
(4.) सम्पूर्ण भूमि का खालसा भूमि में परिवर्तन
खालसा भूमि उस भूमि को कहते थे जो सीधे केन्द्र सरकार के अधिकार में होती थी। चूंकि अलाउद्दीन ने जागीरदारी की प्रथा हटा दी, इसलिये अब समस्त भूमि सीधे सरकार के नियन्त्रण में आ गई और खालसा भूमि बन गई।
(5.) भूमि की नाप तथा कर का निर्माण
सुल्तान ने सम्पूर्ण भूमि की नाप करवा कर सरकारी लगान निश्चित कर दिया। जितनी उपजाऊ भूमि होती थी, उसी के हिसाब से लगान देना पड़ता था। वह दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जिसने भूमि की पैमाइश करवाकर लगान वसूल करना आरम्भ किया। इसके लिये एक बिस्वा को एक इकाई माना गया। वह लगान को गलले में लेना पसंद करता था। लगान का निर्धारण तीन प्रकार से किया जाता था-
1. कनकूत- कनकूत से आशय यह था कि जब फसल खड़ी हो तभी लगान का अन्दाजा लगा लिया जाय।
2. बटाई- बटाई से यह तात्पर्य था कि अनाज तैयार हो जाने पर सरकार का हिस्सा निश्चित करके ले लिया जाय।
3. लंकबटाई- लंकबटाई से यह तात्पर्य था कि फसल तैयार हो जाने पर बिना पीटे ही सरकारी हिस्सा ले लिया जाय।
(6.) करों में वृद्धि
अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में किसान की फसल में से 50 प्रतिशत हिस्सा राज्य का होता था। किसानों को चारागाह तथा मकान का भी कर देना पड़ता था। कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि इतना अधिक कर केवल दोआब में लिया जाता था जहाँ की भूमि अधिक उपजाऊ थी और लोग अधिक विद्रोह करते थे।
(7.) हिन्दू राज्याधिकारियों के विशेषाधिकारों का समापन
यद्यपि सुल्तान ने लगान वसूली के लिए अपने सैनिक अफसर नियुक्त कर दिये थे तथापि पुरानी व्यवस्था को वह पूरी तरह नष्ट नहीं कर सका था। लगान वसूली का कार्य अब भी हिन्दू मुकद्दम, खुत तथा चौधरी करते थे जिन्हें कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे। सुल्तान ने उनके समस्त विशेषाधिकारों को समाप्त करके उनका वेतन निश्चित कर दिया। खुत तथा बलहर अर्थात् हिन्दू जमींदारों को नष्ट नहीं किया गया परन्तु उन पर इतना अधिक कर लगाया गया कि वे निर्धन हो गये और कभी भी राज्य के विरुद्ध सिर नहीं उठा सके।
(8.) दोआब में अनाज लेने की व्यवस्था: दोआब के किसानों से लगान के रूप में अनाज लिया जाता था। उस अनाज को जमा करने के लिए सरकारी बखार होते थे। इन बखारों में इतना अधिक अनाज जमा होता था कि अकाल के समय सेना के लिये पर्याप्त होता था।
(9.) दीवान ए मुस्तखराज की स्थापना
अलाउद्दीन खिलजी ने बकाया कर वसूलने के लिये दीवान-ए-मुस्तखराज नामक विभाग की स्थापना की। उसने सम्पूर्ण साम्राज्य को कई भागों में विभक्त करके प्रत्येक भाग को एक सैन्य-अधिकारी के अनुशासन में रख दिया। यह सैन्य अधिकारी जनता से मालगुजारी वसूल करता था और जितनी सेना उसके सुपुर्द की जाती थी, उसका व्यय निकालने के उपरान्त शेष धन राजकोष में भेज देता था।
अलाउद्दीन द्वारा किये गये सुधारों के परिणाम
उपरोक्त सुधारों से राजकीय आय में भारी वृद्धि हो गई। जनता पर करों का बोझ बढ़ गया। करों का अधिकांश बोझ हिन्दुओं पर ही पड़ा जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि था और जिन्हें अन्य करों के अतिरिक्त जजिया भी देना पड़ता था।
अलाउद्दीन द्वारा बाजारों का प्रबन्धन
राज्य में घूसखोरी तथा अनैतिक तरीके से धन संग्रहण की प्रवृत्ति को रोकने के लिये अलाउद्दीन खिलजी ने बाजारों में मूल्य नियंत्रण के लिये कठोर उपाय किये।
(1.) वस्तुओं का सूचीकरण तथा उनका मूल्य निर्धारण
अलाउद्दीन ने उन वस्तुओं की सूचि तैयार करवाई जिनकी उसके सैनिकों को प्रतिदिन आवश्यकता पड़ती थी। यह सूचि ऐसी सावधानी से बनाई गई थी कि प्रतिदिन के प्रयोग की कोई वस्तु छूटी नहीं थी। इन सब वस्तुओं के मूल्य निश्चित कर दिये गये। इन वस्तुओं को कोई भी दुकानदार निर्धारित मूल्य से अधिक मूल्य पर नहीं बेच सकता था।
(2.) वस्तुओं की पूर्ति की व्यवस्था
सुल्तान ने बाजार में वस्तुओं की माँग तथा पूर्ति में संतुलन बनाने के लिये भी राज्य की ओर से व्यवस्था की। वस्तुओं की पूर्ति का उत्तरदायित्व राज्य ने अपने ऊपर ले लिया। जो वस्तुएँ राज्य स्वयं उत्पन्न कर सकता था, उनके उत्पन्न करने की व्यवस्था की गई; जो राज्य के सुदूर प्रान्तों से मँगवाई जाती थीं, वे वहाँ से मँगवाई जाने लगीं और जो वस्तुएँ देश में नहीं मिल सकती थीं, वे विदेशों से मँगवाई जाने लगीं।
(3.) वितरण की व्यवस्था
वस्तुओं की आपूर्ति व्यवस्था के साथ-साथ उनके बाजारों में वितरण की भी समुचित व्यवस्था की गई। दिल्ली में तीन बाजारों की व्यवस्था की गई। एक बाजार सराय अदल कहलाती थी, दूसरी शहना-ए-मण्डी और तीसरे बाजार का नाम अब उपलब्ध नहीं है। तीनों बाजारों में भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुएँ प्राप्त होती थीं। प्रत्येक नियन्त्रित दूकान को उतनी ही मात्रा में वस्तुएँ दी जाती थीं जितनी उस दुकान के उपभोक्ताओं की मांग होती थी।
(4.) बाजार के कर्मचारी
अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार में कई श्रेणियों के अधिकारी नियुक्त किये और उन्हें आदेश दिये कि वे बाजारों पर कड़ा नियंत्रण रखें। इस व्यवस्था का प्रमुख अधिकारी दीवाने रियासत कहलाता था। उसे तीनों बाजारों पर नियन्त्रण रखना पड़ता था। दीवाने रियासत के नीचे प्रत्येक बाजार में तीन पदाधिकारी नियुक्त किये गये थे।
पहला पदाधिकारी शाहनाह (निरीक्षक), दूसरा बरीद-ए-मण्डी (लेखक) और तीसरा मुन्हीयान (गुप्तचर) कहलाता था। शाहनाह बाजार के सामान्य कार्यों को देखता था, बरीद घूम-घूम कर बाजार का नियन्त्रण करता था और मुन्हीयान गुप्त एजेन्ट अथवा कारदार होता था।
बरीद बाजार की पूरी सूचना शाहनाह के पास, शाहनाह इस सूचना को दीवाने रियासत के पास और दीवाने रियासत सुल्तान के पास भेज देता था। मुन्हीयान को सुल्तान स्वयम् नियुक्त करता था। वह बाजार की अपनी अलग रिपोर्ट तैयार करके सीधे ही सदर दफ्तर में भेजता था। यदि उसकी तथा अन्य पदाधिकारियों की रिपोर्ट में कुछ अन्तर पड़ता था तो गलत रिपोर्ट देने वाले को बड़ा कठोर दण्ड दिया जाता था।
(5.) कठोर दण्ड की व्यवस्था
: सुल्तान उन लोगों को बड़े कठोर दण्ड देता था जो बईमानी करते थे और त्रुटियुक्त बाट रखते थे। कहा जाता है कि जो व्यापारी जितना कम तोलता था, उतना ही मांस उसके शरीर से काटने के निर्देश दिये गये थे परन्तु कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जब इस नियम को कार्यान्वित किया गया हो।
(6.) कपड़े के क्रय-विक्रय की व्यवस्था
सुल्तान की ओर से कपड़ों का भी मूल्य निर्धारित किया परन्तु इस मूल्य पर कपड़ा बेचने में व्यापारियों को हानि होने की सम्भावना थी। इसलिये व्यापारियों में कपड़े की दूकानों का अनुज्ञापत्र लेने का साहस नहीं होता था। इसलिये सुल्तान ने कपड़े का व्यापार मुल्तानी व्यापारियों को सौंप दिया। इन व्यापारियों को कपड़ा खरीदने के लिए राजकोष से धन मिलता था और कपड़ा बिक जाने पर इन्हें निर्धारित कमीशन दिया जाता था।
(7.) पशुओं का मूल्य निर्धारण
सुल्तान ने पशुओं के क्रय-विक्रय पर भी राज्य का पूरा नियन्त्रण रखा और उनका मूल्य निर्धारित कर दिया। इस प्रकार प्रथम श्रेणी के घोड़ों का मूल्य 100 से 120 टंक, दूसरी श्रेणी के घोड़ों का 80 टंक और तीसरी श्रेणी के घोड़ों का 65 से 70 टंक निश्चित किया गया। टट्टुओं का मूल्य 10 से 25 टंक निश्चित किया गया। दूध देने वाली गाय का मूल्य तीन-चार टंक और बकरियों का मूल्य 10 से 14 जीतल निश्चित किया गया।
(8.) गुलामों तथा वेश्याओं का मूल्य निर्धारण
बाजार की अन्य वस्तुओं की तरह गुलामों तथा वेश्याओं का भी मूल्य निश्चित किया गया। गुलामों का मूल्य 5 से 12 टंक तथा वेश्या का मूल्य 20 से 40 टंक निश्चित किया गया। कुछ उत्तम गुलामों के दाम 100 से 200 टंक हुआ करते थे। बड़े सुन्दर गुलामों के लड़के 20 से 30 टंक में खरीदे जा सकते थे। गुलाम नौकरानियों का मूल्य 10 से 15 टंक हुआ करता था। घर में कामों के लिये गुलाम 7 से 8 टंक में खरीदे जा सकते थे।
(9.) दलालों का नाश
सुल्तान ने बाजार से दलालों को निकाल दिया तथा उनके नेताओं को कठोर दण्ड दिया।
बाजार प्रबंधन के परिणाम
बाजार के इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि आवश्यक वस्तुएं कम मूूल्य पर मिलने लगीं। सैनिकों के लिये यह संभव हो गया कि वे कम वेतन में भी सुखमय जीवन व्यतीत कर सकें और अपने परिवार का ठीक से पालन कर सकें। दलालों को बाजार से हटा देने से समस्त चीजों के मूल्य राज्य द्वारा निर्धारित मूल्य पर बने रहे तथा बाजार से काला बाजारी जैसे हरकतें समाप्त हो गईं।
डॉ. के. एस. लाल ने सिद्ध किया है कि बाजारों का यह नियंत्रण केवल राजधानी तथा उसके आसपास तक ही सीमित था। डॉ. लाल के अनुसार उसकी सफलता भावों को कम करनू में उतनी नहीं है जितनी कि एक लम्बे समय तक भावों को नियंत्रण में रखने में है। बरनी ने लिखा है कि सुल्तान की मृत्युपर्यंत वस्तुओं के भाव एक जैसे ही बने रहे।
सुधारों की सफलता
यह पहले बताया जा चुका है कि सुल्तान के तीन प्रधान लक्ष्य थे- पहला मंगोलों के आक्रमणों को रोकना, दूसरा अमीरों के षड्यन्त्रों तथा विद्रोहों को नष्ट कर आंतरिक शांति तथा सुव्यवस्था स्थापित करना और तीसरा साम्राज्य का विस्तार करना। अलाउद्दीन ने जिन उद्देश्यों से सुधार आरम्भ किये थे उनमें उसे पूर्ण सफलता प्राप्त हुई।
(1.) विशाल तथा सुसंगठित सेना की सहायता से उसने मंगोलों को भगाया और सम्पूर्ण भारत में अपनी राज-सत्ता स्थापित की।
(2.) अमीरों के षड्यन्त्रों तथा विद्रोहों के दबाने में भी उसे अपूर्व सफलता प्राप्त हुई। कड़े नियमों तथा कठोर दण्ड द्वारा अपने अपराधों में कमी कर दी। वस्तुओं का मूल्य गिर जाने से साधारण जनता का जीवन सुखी हो गया और लोग सुल्तान की निरंकुशता के समर्थक बन गये।
(3.) यद्यपि सुल्तान को अपनी आय का अधिकांश भाग युद्धों में ही व्यय करना पड़ता था परन्तु सार्वजनिक हित के भी बहुत से कार्य किये गये। उसने दिल्ली के पास एक सुन्दर महल बनवाया। इस्लामी विद्वानों तथा फकीरों को सुल्तान का आश्रय प्राप्त था।
(4.) सुधारों का सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि केन्द्रीय सरकार की शक्ति बहुत बढ़ गई और सुल्तान की सत्ता सर्व-व्यापी हो गई। सुदूरस्थ प्रान्तों के प्रान्तपति भी सुल्तान की आज्ञाओं का अक्षरशः पालन करने लगे।
(5.) राज्य के समस्त पदाधिकारी बड़ी सतर्कता तथा ईमानदारी के साथ काम करते थे क्योंकि नियमानुसार कार्य न करने वालों को कठोर दण्ड दिये जाते थे।
सुधारों की विफलता
अलाउद्दीन खिलजी की राज्य व्यवस्था सैनिक शक्ति पर आधारित थी। उसके समस्त सुधार सुल्तान की सैनिक शक्ति को बढ़ाने के लिये किये गये थे। ऐसा शासन दीर्घकालीन नहीं हो सकता था। ज्यों-ज्यों सुल्तान की शारीरिक एवं मानसिक शक्ति क्षीण होने लगी, त्यों-त्यों उसकी नीतियों के प्रति असन्तोष भी बढ़ने लगा।
बहुत से लोग सुल्तान की योजनाओं से असन्तुष्ट थे। अमीर अपनी जागीरें फिर से प्राप्त करने की ताक में थे। राजपूत जागीरदार एवं पुराने राजवंश अपने खोये हुए राज्यों एवं अधिकारों को फिर से प्राप्त करने के लिये प्रयासरत थे। व्यापारी वर्ग भी सुल्तान की नीतियों से असंतुष्ट था। वस्तुओं के भाव निश्चित कर देने से व्यापारी वर्ग लाभ से वंचित हो गया था। जो व्यापारी दिल्ली से बाहर जाते थे, उनके कुटुम्ब पर शासन द्वारा पूरा नियंत्रण रखा जाता था।
इससे उनके परिवारों की सुरक्षा पर हर समय खतरा बना रहता था। किसान और हिन्दू जनता, करों के बोझ से दब गई थी। गुप्तचर विभाग की मनमानी से भी लोगों में असंतोष बढ़ गया था। सुल्तान के अतिरिक्त किसी और व्यक्ति को शासन के सम्बन्ध में निर्णय लेने और उसे लागू करने का अधिकार नहीं था। ऐसी व्यवस्था तब तक ही चल सकती थी जब तक कि सुल्तान में उसे चलाने की योग्यता रहे। इन सब कारणों से उसकी व्यवस्था स्थायी नहीं हो सकी और उसके आँखें बन्द करते ही यह व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट हो गई।