दिल्ली सल्तनत का पतन सोलहवीं शताब्दी ईस्वी के भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसके बाद भारत में मध्य एशियाई मुगलों का शासन स्थापित हुआ।
1206 ई. में दिल्ली सल्तनत का उदय हुआ था। गुलाम वंश का शासन काल दिल्ली सल्तनत की बाल्यावस्था का काल था, अलाउद्दीन खिलजी का शासन काल दिल्ली सल्तनत की प्रौढ़ावस्था का काल था, तुगलक वंश का उत्तरार्द्ध दिल्ली सल्तनत की वृद्धावस्था का काल था।
सैयद वंश और लोदी वंश के शासन काल में दिल्ली सल्तनत का अस्थिपंजर ही शेष बचा था। इब्राहीम लोदी के काल में 1526 ई. में दिल्ली सल्तनत का अवसान हो गया।
दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण
दिल्ली सल्तनत के पतन के कई कारण थे जिनमें से कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार से हैं-
(1.) भारत की उष्ण जलवायु
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि तुर्क तथा अफगान लोग शीत कटिबन्ध से आये थे। भारत की जलवायु उष्ण होने के कारण उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा जिससे वे निर्बल तथा आलसी हो गये; परन्तु ऐतिहासिक तथ्यों से इस मत की पुष्टि नहीं होती।
प्रायः यही तर्क हिन्दुओं की पराजय के सम्बन्ध में भी दिया जाता है परन्तु हिन्दुओं ने कई बार मुस्लिम आक्रांताओं को परास्त करके अपने बल का परिचय दिया था। इसी प्रकार तुर्कों का साहस तथा बल भारत की उष्ण जलवायु के कारण कम नहीं हुआ था। अनेक बार दिल्ली की सेनाओं ने शीत-प्रधान देशों से आये आक्रांताओं का सफलतापूर्वक सामना किया था। अतः दिल्ली सल्तनत के पतन के कुछ और ही कारण थे।
(2.) निरंकुश शासन पद्धति
दिल्ली की सल्तनत स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश थी। जनता को शासन में भाग लेने से वंचित कर दिया गया। वास्तव में इस शासन का आधार सैनिक-बल था, प्रजा की सद्भावना नहीं। शक्ति के बल पर शासन कभी स्थायी नहीं हो पाता। केवल प्रतिभावान एवं बलशाली सुल्तान ही ऐसे शासन को चला सकते थे।
अयोग्य तथा विलासी सुल्तानों के हाथों में सल्तनत का नष्ट-भ्रष्ट होना अवश्यम्भावी था। इसलिये कुतुबुद्दीन, बलबन तथा अलाउद्दीन खिलजी आदि प्रतिभावान सुल्तान सफलतापूर्वक शासन करते थे परन्तु अयोग्य सुल्तानों के समय में सल्तनत छिन्न-भिन्न होने लगती थी। लोदी वंश के समय में यह अपने विनाश को पहुँच गई।
(3.) साम्राज्य का अति विस्तार
मुहम्मद बिन तुगलक के काल में दिल्ली सल्तनत का विस्तार अपने चरम पर पहुँच गया। संचार तथा यातायात के सीमित साधनों के कारण इतनी विशाल सल्तनत का संचालन दिल्ली अथवा किसी भी एक केन्द्र से होना अत्यंत दुष्कर था। इससे दूरस्थ प्रान्तों में विद्रोह होने लगे और प्रान्तपति स्वतन्त्र होने लगे। अतः साम्राज्य का अति विस्तार उसके पतन का कारण सिद्ध हुआ।
(4.) मुहम्मद बिन तुगलक की नीति
: मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाओं तथा नीतियों का भी साम्राज्य पर बुरा प्रभाव पड़ा। राजकोष रिक्त हो गया और शासन का आर्थिक आधार कमजोर हो गया। योजनाओं के विफल हो जाने से प्रजा में बड़ा असन्तोष फैला और शासन के प्रति उसकी श्रद्धा तथा सहानुभूति कम हो गयी।
(5.) फीरोजशाह की दोषपूर्ण नीतियाँ
दिल्ली सल्तनत के लिये, फीरोजशाह तुगलक की नीतियां मुहम्मद बिन तुगलक से भी अधिक अहितकर सिद्ध हुईं। मुस्लिम प्रजा के प्रति फीरोज की उदारता तथा हिन्दू प्रजा के लिये फीरोज की धर्मान्धता मानवता की सीमा का उल्लघंन करती थी जो सल्तनत के लिए बड़ी अहितकर सिद्ध हुई।
सेनापतियों को नगद वेतन के स्थान पर जागीर प्रथा को पुनः मजबूत बनाना, लोगों को नौकरी देने के लिये गुलाम प्रथा को बढ़ावा देना, राज्य में उलेमाओं के हस्तक्षेप को बढ़ावा देना तथा सैनिक की नौकरी को वंशानुगत बनाना आदि दोषपूर्ण नीतियां सल्तनत की भीतरी शक्ति को खोखला बनाने के लिये पर्याप्त थीं।
(6.) फीरोज के अयोग्य उत्तराधिकारी
फीरोज की मृत्यु के उपरान्त कोई ऐसा योग्य सुल्तान न हुआ जो दिल्ली सल्तनत को छिन्न-भिन्न होने से बचा सकता।
(7.) उत्तराधिकार के अनिश्चित नियम
मुसलमानों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था। अतः प्रत्येक सुल्तान की मृत्यु के उपरान्त उत्तराधिकार के लिये अमीरों तथा शहजादों में संषर्ष आरम्भ हो जाता था। इन संघर्षों का सल्तनत के स्थायित्व पर बुरा प्रभाव पड़ता था।
(8.) दरबार में दलबन्दी
: मुस्लिम राज्य व्यवस्था में अमीर तथा उलेमा ही प्रायः नये सुल्तान का निर्वाचन करते थे। इन अमीरों तथा उलेमाओं में दलबन्दी का जोर रहता था। सुल्तान तथा सल्तनत पर प्रभाव स्थापित करने के लिये प्रायः इन दलों में खूनी संघर्ष होते थे तथा हत्याओं का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला चलता रहता था जो अंततः सुल्तान तथा सल्तनत के लिये घातक सिद्ध होता था।
(9.) धार्मिक असहिष्णुता
दिल्ली सल्तनत के अधिकतर सुल्तानों में धार्मिक असहिष्णुता कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने हिन्दुओं पर घनघोर अत्याचार किये। उनके मन्दिरों को तोड़ा तथा उन पर असह्य कर लगाये। इससे हिन्दुओं में सुल्तान तथा सल्तनत के प्रति घृणा का स्थाायी भाव बना रहा। हिन्दुओं को जब कभी अवसर मिलता था, वे विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देते थे। शासन और प्रजा के बीच घृणा तथा विद्रोह की भावना का दिल्ली सल्तनत के स्थायित्व पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।
(10.) अन्तर्जातीय विवाह
कुछ इतिहासकारों के विचार में अन्तर्जातीय विवाहों से मुसलमानों में वर्णसंकर प्रजा उत्पन्न हो गई। इससे मुसलमानों का भद्र समाज पतित हो गया। क्योंकि भारत की निम्न कोटि की जातियों ने ही अधिक संख्या में इस्लाम स्वीकार किया था जिनमें सामरिक प्रवृत्ति नहीं थी। इस कारण विदेशी मुसलमानों में भारतीय मुसलमानों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न नहीं हो सकी तथा मुसलमान भी दो वर्गों अर्थात् विदेशी मुसलमानों तथा भारतीय मुसलमानों में बंट गये। इस कारण सल्तनत की शक्ति क्षीण हो गई।
(11.) मंगोल आक्रमण
दिल्ली सल्तनत पर मंगोलों के आक्रमणों का घातक प्रभाव पड़ा। गुलाम वंश के शासन काल से ही दिल्ली सल्तनत पर मंगोलों के आक्रमण आरम्भ हो गये थे और वे निरन्तर चलते ही रहे।
तैमूर लंग का आक्रमण दिल्ली सल्तनत के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ। उसने सल्तनत की जड़ों को हिला दिया। बाबर ने दिल्ली सल्तन को जड़ से उखाड़ फेंका और नये शासन की स्थापना की।
(12.) लोदी सुल्तानों की नीति
लोदी वंश के सुल्तानों ने जिस सामन्तीय नीति का अनुसरण किया, वह सल्तनत के लिए बड़ी घातक सिद्ध हुई। धीरे-धीरे भूमिपतियों की शक्ति इतनी बढ़ गई कि उन पर नियंत्रण रखना कठिन हो गया। अमीरों तथा सरदारों ने अपने स्वार्थ के लिए सल्तनत के हितों की उपेक्षा की। प्रान्तीय गवर्नरों के विद्रोहों से सल्तनत में अशांति फैल जाती थी। इन परिस्थितियों के सम्मिलित प्रभाव से दिल्ली सल्तनत का मंगोलों के हाथों समूल विनाश हो गया।