रामानुज तथा माधवाचार्य के बाद निम्बार्क स्वामी ने बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म को नवीन गति दी। उनका जन्म मद्रास प्रान्त के वेलारी जिले में हुआ था। वे रामानुज के समकालीन थे। रामानुज की भांति निम्बार्क ने भी शंकाराचार्य के अद्वैतवाद का खण्डन किया किंतु निम्बाकाचार्य मध्यम मार्गी थे। वे द्वैतवाद तथा अद्वैतवाद दोनों में विश्वास करते थे।
इस कारण उनका मत ‘द्वैताद्वैतवाद’ तथा ‘भेदाभेदवाद’ कहा जाता है। निम्बार्क के अनुसार जीव तथा ईश्वर व्यवहार में भिन्न हैं किन्तु सिद्धान्त्तः अभिन्न (एक) हैं। ब्रह्म इस विश्व का रचयिता है। निम्बार्काचार्य ‘कृष्ण-मार्गी’ थे और कृष्ण को ईश्वर का अवतार मानते थे। उनके विचार से राधा-कृष्ण के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति एवं आत्मसमर्पण से मोक्ष मिल सकता है। निम्बार्क के मत को ‘सनक सम्प्रदाय’ भी कहा जाता है।
सनक सम्प्रदाय में शरणागति का भाव तो स्वीकार्य था परन्तु ध्यान एवं योग आदि को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। निम्बार्क का कृष्ण समस्त अच्छे गुणों से युक्त तथा समस्त विकारों से परे है। उनका अवतारवाद में भी विश्वास था। उन्होंने नैतिकता के नियमों के पालन पर जोर दिया। निम्बार्क सम्प्रदाय ने जन साधारण को चमत्कार दिखाकर भक्ति में शक्ति होने का विश्वास दिलाया।
भारत का मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन
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