Sunday, August 17, 2025
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मीरा बाई

मध्य-कालीन भक्तों में मीरा बाई का नाम अग्रणी है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मीरा का जन्म वि.सं. 1573 (ई.1516) में माना है जबकि गौरीशंकर हीराचंद ओझा, हरविलास शारदा तथा गोपीनाथ शर्मा आदि इतिहासकारों ने मीरा बाई का जन्म वि.सं. 1555 (ई.1498) में माना है। मीरा मेड़ता के राठौड़ शासक राव दूदा के पुत्र रतनसिंह की पुत्री थी।

जब मीरा बाई दो साल की थीं, उनकी माता का निधन हो गया। मीरा का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ। विवाह के सात वर्ष बाद ही भोजराज एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। कुछ दिन बाद मीरा के श्वसुर महाराणा सांगा और पिता रतनसिंह भी खानवा के युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुए। कुछ समय बाद जोधपुर के राजा मालदेव ने मीरां के चाचा वीरमदेव से उनका मेड़ता राज्य छीन लिया।

बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति की थीं और श्रीकृष्ण को अपना पति मानती थीं। अब वह सांसारिक सुखों से विरक्त होकर साधु-संतों के साथ भगवान का भजन करने लगीं। महाराणा सांगा के बाद उनके पुत्र रतनसिंह और विक्रमादित्य क्रमशः मेवाड़ के महाराणा हुए किंतु उन दोनों को मीरा का साधुओं के साथ भजन गाना एवं नृत्य करना अच्छा नहीं लगा।

उन्होंने मीरा को रोकने का प्रयास किया किंतु मीरा चितौड़ छोड़़कर वृन्दावन चली गई। वहाँ से कुछ दिन वह द्वारिका चली गई और वहीं उसका शरीर पूरा हुआ।

मीराबाई ने चित्तौड़ के राजसी वैभव त्यागकर वैराग्य धारण किया तथा चमार जाति में जन्मे संत रैदास को अपना गुरु बनाया। वे जाति-पांति तथा ऊँच नीच में विश्वास नहीं करती थीं। उन्होंने ईश्वर के सगुण-साकार स्वरूप की भक्ति की। वे उच्चकोटि की कवयित्री थीं।

जन-साधारण में उनके भजन आज भी बड़े प्रेम एवं चाव से गाए जाते हैं। मीराबाई से प्रेरणा पाकर देश की करोड़ों नारियों ने श्रीकृष्ण भक्ति का मार्ग अपनाया जिससे हिन्दू परिवारों का वातावरण श्रीकृष्ण मय हो गया। राजपूताने के अनेक राजाओं ने भी श्रीकृष्ण भक्ति एवं ब्रज भाषा की कविता का प्रचार किया।

मीरा बाई की आध्यात्मिक यात्रा के तीन सोपान हैं। पहले सोपान में मीरा कृष्ण के लिए लालायित हैं और अत्यंत व्यग्र होकर गाती हैं- ‘मैं विरहणी बैठी जागूँ, जग सोवे री आली।’ कृष्ण-विरह सी पीड़ित होकर वे गाती हैं- ‘दरस बिन दूखण लागे नैण।’ कृष्ण भक्ति के दूसरे सोपान में मीरा श्रीकृष्ण को प्राप्त कर लेती हैं और वह कहती हैं- ‘पायोजी मैंने राम रतन धन पायो।’

भक्ति के तीसरे और अन्तिम सोपान में मीरा बाई को आत्मबोध हो जाता है और वे परमात्मा से एकाकार हो जाती हैं। यही सायुज्य भक्ति का चरम बिंदु है। इस सोपान में पहुँचकर मीरा कहती हैं- ‘म्हारे तो गिरधर गोपाल दूजो न कोई।’

मीरा के काव्य में सांसारिक बन्धनों को त्यागकर ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव मिलता है। मीरा कृष्ण को ही परमात्मा और अविनाशी मानती थी। उनकी भक्ति आडम्बर रहित है। मीरा किसी सम्प्रदाय विशेष से बँधी हुई नहीं थीं और उनके मन्दिर के द्वार सबके लिए खुले हुए थे। मीरा ने बहुत से पदों की रचना की जो फुटकर रूप में प्राप्त होते हैं। महादेवी वर्मा के अनुसार मीरा के पद विश्व के भक्ति साहित्य के अनमोल रत्न हैं। मीरा ने ‘राग गोविन्द’ नामक ग्रन्थ भी लिखा था किंतु यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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