Tuesday, September 9, 2025
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मुगलकालीन प्रौद्योगिकी एवं उद्योग

प्राचीन काल से ही भारत में प्रौद्योगिकी विकास की गति बहुत धीमी रही थी। मुगलकालीन प्रौद्योगिकी एवं उद्योग भी विशेष उन्नति नहीं कर सका।

मुगलकालीन प्रौद्योगिकी

धातु प्रौद्योगिकी

इस युग में धातु-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कुछ उन्नति हुई। कांसे, पीतल, लोहे, सोना और चाँदी के बर्तन, मूर्तियाँ बनाने की प्रौद्योगिकी पहले की ही तरह चलती रही। धातु को गर्म करके उसे पीट-पीटकर चद्दरें बनाई जाती थीं और उन चद्दरों से तश्तरियाँ, थालियाँ, कटोरियाँ आदि बनाई जाती थीं।

इस काल में पीतल की सुन्दर कलात्मक सुराहियाँ बनाने की तकनीक विकसित हुई। धातु के बर्तनों पर सुन्दर नक्काशी का काम होता था। अच्छी किस्म के शुद्ध लोहे से तलवारें एवं बरछियाँ बनाई जाती थीं। अस्त्र-शस्त्र बनाने की प्रौद्योगिकी तथा आभूषण बनाने की प्रौद्योगिकी में विकास देखा गया।

काष्ठ प्रौद्योगिकी

यद्यपि इस समय तक युद्धों में रथों का प्रयोग कम हो गया था, फिर भी काष्ठ-प्रौद्योगिकी से रथों का निर्माण होता रहा। मुगलों की अपनी कोई नौ-सेना विकसित नहीं हुई थी, फिर भी समुद्र तटीय राज्यों द्वारा अपनी सेनाओं के लिये बड़ी नावों एवं जहाजों का निर्माण किया जाता था। युद्ध के साथ-साथ व्यापारिक आवश्यकताओं के लिये भी बड़ी नौकाओं की आवश्यकता थी। माल ढोने के लिए मालवाहक जहाजों का भी निर्माण किया जाने लगा। इनके अलावा लकड़ी का सुन्दर सजावटी सामान पहले की ही तरह सम्पूर्ण भारत में होता रहा। उसकी तकनीक में कोई विशेष विकास नहीं हुआ।

आभूषण प्रौद्योगिकी

मुगल बादशाह, शहजादे तथा बेगमें आभूषण पहनने एवं रखने के बड़े शौकीन थे इसलिये आभूषण बनाने वाले कारीगर नई-नई डिजाइन के आभूषण तैयार करते थे जिनमें तकनीकी कौशल स्पष्ट दिखाई देता था।

कृषि प्रौद्योगिकी

कृषि प्रौद्योगिकी में सीमित विकास हुआ। अधिकतर खेती पहले की ही तरह वर्षा पर निर्भर थी। बहुत कम संख्या में नदियों पर बांध बनाये गये थे तथा बहुत कम संख्या में नदियों से नहरें निकाली गई थीं। मुगल शासकों ने मध्य एशिया में पैदा होने वाली कुछ फसलों को भारत में उगाने के प्रयास किये।

उन्होंने नये फल-फूलों को पैदा करने की तकनीकी विकसित की। खेती के कुछ नये उपकरणों का भी विकास हुआ जिनकी सहायता से आलू की फसल तैयार की जाने लगी तथा अँगूरों की खेती की जाने लगी। भारत में पहली बार तरबूज पैदा किये गये।

यद्यपि खेत जोतने के लिए हल का ही प्रयोग किया जाता था किन्तु अब हल के नीचे लोहे के तीखे फलक लगाये जाने लगे जिससे भूमि को अधिक गहराई तक खोदा जा सके। फसल काटने के लिए लोहे की दरांती का प्रयोग किया जाता था। तैयार फसल को खलिहान में साफ करने तथा उससे भूसी निकालने की परम्परागत पद्धति ही काम में ली जाती थी। स्पष्ट है कि कुछ नई फसलें पैदा करने और कुछ नये उपकरणों का निर्माण करने के अतिरिक्त कृषि प्रौद्योगिकी में विशेष प्रगति नहीं हुई।

युद्ध प्रौद्योगिकी

इस काल में युद्ध प्रौद्योगिकी का काफी विकास हुआ। मुसलमानों ने युद्धों में तोपों और बन्दूकों का प्रयोग आरम्भ किया। अतः भारत में तोपें और बारूद बनाने की प्रौद्योगिकी का विकास हुआ। बाबर ने भारत में पहली बार युद्ध क्षेत्र में तुलुगमा पद्धति का प्रयोग किया, जो भारतीय सेनाओं के विरुद्ध अधिक सफल रही।

इसलिये अब शत्रु सेना को घेरने की नई रणनीतियों का प्रयोग किया जाने लगा। अब सैनिकों की सुरक्षा के लिए धातु-निर्मित कवचों का प्रयोग अत्यधिक बढ़ गया परन्तु अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण की प्रौद्योगिकी में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।

वस्त्र प्रौद्योगिकी

मुगल काल में वस्त्र प्रौद्योगिकी, विशेषकर सूती, ऊनी और रेशमी कपड़ा तैयार करने की प्रौद्योगिकी का बहुत विकास हुआ। इस कारण इस काल में वस्त्र उद्योग भारत का सबसे बड़ा उद्योग बन गया। नये प्रकार के कपड़े तैयार होने लगे। ढाका की बनी हुई मलमल पूरे विश्व में अपनी बारीकी के लिए प्रसिद्ध हो गई।

ढाका में ऐसे करघे बनाये गये जिनसे बना हुआ कपड़ा अधिक कीमत का होता था। बादशाहों एवं शासक वर्ग के लोगों के लिये लाहौर और लखनऊ में चीकन का कपड़ा तैयार किया जाता था। कालीकट के सिरोंज का कपड़ा अत्यन्त बारीक होता था। रेशमी वस्त्रों पर सोने-चाँदी के तारों से कसीदाकारी की जाती थी।

कश्मीर में बहुत ही मुलायम ऊनी शाल बनाये जाते थे। इस काल में कपड़ों की रंगाई और छपाई में नये प्रयोग हुए। रसायनों से रंग तैयार किये जाते थे। बांधनू की रंगाई अत्यन्त प्रसिद्ध थी।

कागज प्रौद्योगिकी

मुगल काल में कागज प्रौद्योगिकी का विशेष विकास नहीं हुआ। फिर भी दिल्ली, आगरा तथा लाहौर में कागज बनाये जाने का उल्लेख मिलता है। बहुसंख्यक हस्तलेखों से भी कागज की उपलब्धता प्रमाणित होती है। लाहौर तथा आगरा के शाही कारखानों में कागज तैयार किया जाता था।

विभिन्न प्रयोगों के लिए विभिन्न प्रकार के कागज बनाने की प्रौद्योगिकी विकसित हुई, जैसे शाही फरमानों के लिए शोभायुक्त कागज तथा व्यापारियों और दलालों के लिए टिकाऊ प्रकार का कागज बनाया जाता था। जिल्दसाजी के लिए मजबूत कागज बनाया जाता था।

चर्म प्रौद्योगिकी

मुगल काल में चमड़े से विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाने की तकनीक का भी विकास हुआ। घोड़ों के लिए काठी, लगाम, तलवार के लिए म्यान, जूते, पानी के मशक आदि वस्तुएं बड़ी मात्रा में बनाई जाती थीं। गुजरात में चमड़े की वस्तुएँ बड़ी मात्रा में बनती थीं जिनका अरब देशों में निर्यात किया जाता था। इस काल में गन्ने से चीनी बनाने की तकनीक विकसित हुई। लाहौर, दिल्ली तथा आगरा चीनी उद्योग के बड़े केन्द्र थे।

स्थापत्य एवं शिल्प प्रौद्योगिकी

मुगल काल में भवन निर्माण, नगर-नियोजन एवं मूर्तियाँ बनाने की प्रौद्योगिकी का अच्छा विकास हुआ। भवन निर्माण प्रौद्योगिकी में मुस्लिम शैली का प्रयोग किया गया। अधिकतर इमारतें लाल पत्थर की बनाई गईं। बड़े-बड़े पत्थरों को काटकर उन्हें उचित आकार देना तथा उन्हें आकर्षक बनाने के लिए उन पर विभिन्न आकृतियों ऊकेरना शिल्पकारों की उच्च तकनीक का प्रमाण हैं।

दिल्ली का लाल किला और फतेहपुर सीकरी की इमारतें इस युग की उच्च स्थापत्य एवं शिल्प प्रौद्योगिकी के श्रेष्ठ उदारहरण हैं। कुछ मुगल शासकों तथा उनकी बेगमों के मकबरे संगमरमर पत्थर से बनाये गये। संगमरमर के पत्थरों पर की गई नक्काशी अत्यंत उच्च कोटि की है।

मुमताज महल का मकबरा ताजमहल, आबू का देलवाड़ा मन्दिर और फतेहपुर सीकरी में शेख सलीम चिश्ती का मकबरा, संगमरमर के भवन-निर्माण प्रौद्योगिकी के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। यद्यपि मूर्तियां बनाना इस्लाम के विरुद्ध था, फिर भी विभिन्न सूबों में देव प्रतिमाओं का निर्माण होता रहा।

संगमरमर के बड़े-बड़े शिलाखण्डों को उचित आकार में काटकर छैनी और हथोड़े से प्रतिमा-निर्माण की प्रौद्योगिकी का भी विकास हुआ। हाथी दाँत के सुन्दर खिलौने और कंगन बनाने की तकनीक मौर्य काल से ही चली आ रही थी। उसमें भी कुछ विकास हुआ।

वनस्पति आधारित प्रौद्योगिकी

सैनिकों को निरंतर लड़ते रहने के लिये अफीम का सेवन करना पड़ता था। मुगल काल में युद्ध निरंतर चलते रहते थे इसलिये अफीम का सेवन भी बहुत बढ़ गया था। इसलिए इस काल में अफीम की खेती भी बढ़ी और उसके पौधे के फूलों से रस निकालकर अफीम तैयार करने की तकनीक भी विकसित हुई।

कश्मीर में तथा कुछ अन्य स्थानों पर तिल तथा अरण्डी के बीज से तेल निकालने की तकनीक विकसित हुई। बंगाल और उड़ीसा में पैदा होने वाली लाख से स्त्रियों के लिए चूड़ियाँ, कंगन-कड़े आदि बनाये जाने लगे। गुजरात में इन कंगनों और कड़ों पर रंगीन कांच के टुकड़े लगाकर उन्हें आकर्षक बनाने की कला विकसित हुई।

बेंत और बांस के वृक्षों से बांस आदि को छीलकर टोकरी, चटाइयाँ आदि बनाई जाती थीं। माना जाता है कि मुसलमानों ने भारत में शतरंज का खेल प्रचलित किया। मुगल काल में भारत के विभिन्न भागों में शतरंज के पट्टे एवं मोहरे बनाये जाने लगे। लकड़ी एवं हाथी दाँत से चौपड़ की गोटियाँ बनाई जाती थीं।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मुगल काल में युद्ध, वस्त्र, भवन, नगर नियोजन, धातु उद्योग, काष्ठ उद्योग, हाथी दाँत उद्योग आदि क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी का पर्याप्त विकास हुआ किंतु कृषि क्षेत्र में प्रौद्योगिकी का विशेष विकास नहीं हुआ।

मुगल कालीन उद्योग

मुगल काल में गाँवों तथा नगरीय क्षेत्रों में शिल्पी तथा कारीगर आदि श्रमजीवी जातियां अपने पुराने पारिवारिक एवं परम्परागत कार्यों को करती थीं। उनके औजारों में भी विशेष तकनीकी विकास नहीं हुआ था। इस कारण मुगल काल में किसी भी उद्योग का बड़े पैमाने पर विकास नहीं हुआ।

अधिकांश उद्योग स्थानीय थे जो पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होते थे। लगातार एक ही काम करते रहने से देश के कई नगर और क्षेत्र अपने विशिष्ट और श्रेष्ठ उत्पादों के लिए विख्यात हो गये थे। फारस की पद्धति के अनुसार राज्य की ओर से कुछ शाही कारखानों की स्थापना की गई थी। जिनमें शाही तथा दरबारी लोगों की आवश्यकता की चीजें बनाई जाती थीं।

इनमें सुनार, किमखाब या रेशम तैयार करने वाले, कसीदाकारी करने वाले, चित्रकार, दर्जी, मलमल तथा पगड़ी बनाने वाले आदि अनेक प्रकार के कारीगर होते थे, जो साथ मिलकर काम करते थे। प्रान्तों में भी स्थानीय माँग के अनुसार विभिन्न प्रकार की चीजों को बनाने के कारखाने स्थापित किये गये थे।

वस्त्र उद्योग

यह प्राचीन उद्योग था तथा मुगल काल में सबसे बड़ा उद्योग था जिसका विस्तार सम्पूर्ण देश में हुआ। इसके मुख्य केन्द्र बंगाल, गुजरात, बनारस, उड़ीसा और मालवा थे। मुगल काल में सूरत, काम्बे, पटना, बुरहानपुर, दिल्ली, आगरा, लाहौर, मुल्तान, ठट्टा आदि नगर भी विशेष प्रकार के कपड़े तैयार करने के लिए प्रसिद्ध हो गये थे।

नये प्रकार के कपड़ों में बैरामी, शानबफ, शीरीबफ और कत्तने रूमी की शुरूआत हो चुकी थी। ढाका में बनी मलमल पूरे विश्व में अपनी बारीकी के लिए प्रसिद्ध हो चुकी थी। इसकी श्रेष्ठता को देखकर विदेशी यात्री भी चकित हो जाते थे। सोनार गाँव में अति उत्तम प्रकार की मलमल तैयार की जाती थी जिसके एक टुकड़े की कीमत चार हजार रुपये तक होती थी।

उत्तम प्रकार की मलमल को बड़े सुन्दर नाम दिये गये थे, जैसे मलमल खास (बादशाह के लिये मलमल), सरकार-ए-आली (नवाबों के लिए निमित्त), आब-ए-रमान (जल-प्रवाह), शबनम (ओस) आदि। ढाका में करघे पर तैयार किये गये कपड़े सबसे अधिक महंगे होते थे।

समाना और सुल्तानपुर उत्तम वस्त्रों के लिए विख्यात थे। जौनपुर तो आज भी उत्तम प्रकार की दरियों के लिए विख्यात है। कालीकट के सिरोंज के कपड़े तो इतने बारीक होते थे कि उसे पहनने पर भी आदमी नंगा दिखता था।

कासिम बाजार, माल्दा, मुर्शिदाबाद, पटना, काश्मीर और बनारस रेशम उद्योग के मुख्य केन्द्र थे। गुजरात में रेशम का उत्पादन नहीं होता था किन्तु वहाँ रेशम की बुनाई का काम अच्छा होता था। रेशम से तथा रेशमी, सुनहले सोने तथा चाँदी मढ़े सूतों से सूरत में दरियाँ तैयार होती थीं।

गुजरात भी किमखाब, बदला कुर्त्ता, कसीदाकारी के वस्त्र तथा किनारी (चाँदीतार) आदि के लिए प्रसिद्ध था। असम भी रेशमी कपड़ों के लिए प्रसिद्ध था। दक्षिण में कोयंबटूर के निकट रेशम उत्पादन का एक बड़ा केन्द्र था।

ऊन उद्योग

भारत के रेगिस्तानी एवं पहाड़ी क्षेत्रों में भेड़ पालन बड़े पैमाने पर होने के कारण काबुल, काश्मीर तथा पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, जैसलमेर तथा बीकानेर आदि शहर ऊन तैयार करने के प्रसिद्ध केन्द्र थे। उत्तम प्रकार की ऊन तिब्बत से आती थी।

काश्मीर के शॉल बहुत मुलायम तथा गर्म होते थे। काश्मीर में शॉल के साथ-साथ विविध प्रकार के ऊनी वस्त्र एवं कम्बल भी तैयार होते थे। लाहौर, आगरा, पटना में भी बड़े स्तर पर शॉल बनते थे। बुरहानपुर, जौनपुर तथा अमृतसर में ऊनी वस्त्र उद्योग खूब फल-फूल गया था।

रंगाई उद्योग

इस काल में रंगाई उद्योग भी खूब विकसित था। लाहौर और उसके आसपास पर्याप्त मात्रा में नील का उत्पादन होता था। दिल्ली सूती वस्त्र रंगने में, विशेष रूप से बांधनू की रंगाई के काम के लिए प्रसिद्ध था। बैना तथा समीपवर्ती क्षेत्रों का रंगाई का काम अति उत्तम माना जाता था। दूसरे दर्जे की उत्तम रंगाई गुजरात में सरखेज तथा गोलकुण्डा में की जाती थी। रंगाई के अन्य महत्त्वपूर्ण केन्द्र आगरा, लखनऊ, अहमदाबाद, फरूखाबाद तथा मछलीपट्टम थे। बंगाल में ढाका तथा कासिम बाजार कपड़ा रंगाई के मुख्य केन्द्र थे।

धातु उद्योग

भारतीय वैदिक सभ्यता से ही धातुओं का उपयोग करना सीख गये थे। मौर्य काल में धातु कला का विस्तार हुआ था। भारतवासी लोहे को शुद्ध करने की प्रक्रिया से अच्छी तरह परिचित थे। समकालीन संस्कृत साहित्य में भिन्न प्रकार के लोहे के गुणों का विवरण मिलता है।

मुगल काल में लोहा, ताम्बा, पीतल, सोना, चाँदी, जस्ता आदि विभिन्न धातुओं का बड़े स्तर पर उपयोग होता था। लोहे का उपयोग धारिया, तलवारें, हथियार तथा बरछे बनाने में होता था। सर्वोत्तम इस्पात का उपयोग तलवारों और बरछों के निर्माण में होता था, जिनकी अरब तथा फारस के देशों में बड़ी माँग थी।

श्रीनगर, लाहौर, आगरा, मुल्तान, वजीराबाद, भड़ौंच, ढाका तथा चटगाँव में नावें, रथ तथा लकड़ी की कई प्रकार की सामग्री बनाई जाती थीं। मुगलों के पास नियमित नौ-सेना नहीं थी, अतः जहाजों के निर्माण को अधिक प्रोत्साहन नहीं मिला, फिर भी लाहौर, वजीराबाद, कोरोमण्डल तट पर मडापल्लम तथा नसीपुर में मालवाहक जहाजों का निर्माण और उनकी मरम्मत होती थी।

कागज उद्योग

मुगल काल में कागज के प्रयोग का उल्लेख मिलता है किंतु यह उद्योग अधिक विकसित अवस्था में नहीं था। अमीर खुसरो ने कोरे तथा रेशम की भाँति शमी तथा सीरियन कागज के दिल्ली में बनाये जाने का उल्लेख किया है। चीनी यात्री माहुआन, जिसने सुल्तान गियासुद्दीन आजमशाह के काल में बंगाल का भ्रमण किया था, ने वृक्ष की छाल से श्वेत चमकीले कागज के उत्पादन का उल्लेख किया है।

बहुसंख्यक हस्तलेखों से भी कागज की उपलब्धता का प्रमाण मिलता है। कागज निर्माण के मुख्य केन्द्र पटना, दिल्ली, राजगीर, शहजादपुर, सियालकोट, मानसिंघी तथा खरपुरी में थे। मानसिंघी कागज को उसकी रेशमी बनावट, श्वेत रंग तथा टिकाऊ होने से बहुत पसन्द किया जाता था। लाहौर तथा आगरा में स्थापित शाही कारखाने भी कागज का उत्पादन करते थे।

सर्वोत्तम कागज कश्मीर में बनता था। विभिन्न प्रकार के कागज विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होते थे। शोभायुक्त कागज का उपयोग शाही फरमानों के लिए होता था, टिकाऊ प्रकार के कागज का प्रयोग व्यापारियों तथा दलालों के लेखा के निमित्त तथा बुद्धिजीवियों द्वारा होता था और जिल्दसाजी के लिए मोटे तथा मजबूत कागज का प्रयोग होता था।

सामान्यतः प्रांतों तथा बड़े नगरों के बाहर कागज बनाने का छोटा गाँव होता था, जिसे कागजी मोहल्ला अथवा कागजीपुर कहा जाता था। फरूखाबाद में आज भी कागजी बाजार नाम की एक गली है।

चमड़ा उद्योग

मुगलकाल में चमड़े के विभिन्न प्रकार के सामान का उपयोग होता था। जूते, चमड़े के जैकेट, तम्बू, घोड़ों के लिए काठी तथा लगाम, तलवार के लिए म्यान, ढाल, सामान रखने के थैले, चटाई, पानी की मशक, बैलगाड़ियों के पर्दे आदि के लिये चमड़े की मांग रहती थी। बंगाल में चमड़े का उपयोग विदेशों को निर्यात की जाने वाली चीनी की पैकिंग में किया जाता था।

सिन्ध में बने चमड़े के सामान उत्तम माने जाते थे। दिल्ली में भी सम्पन्न चमड़ा उद्योग स्थापित था। कैंबे, चप्पलों के लिए प्रसिद्ध था। गुजरात सोने और चाँदी से कढ़ी चमड़े की चटाइयों के लिए प्रसिद्ध था। वहाँ चमड़े की वस्तुएँ बड़ी मात्रा में बनती थी जिनका अरब देशों को निर्यात होता था।

असम के जंगलों में सांडों तथा हिरणों की बहुतायत से चमड़ा उद्योग विकसित अवस्था में था। पश्चिमी राजस्थान में भी चमड़े की युद्धोपयोगी एवं घरेलू उपभोग की विविध सामग्री बनती थी।

चीनी उद्योग

चीनी की खपत देशभर में प्रचुर मात्रा में होती थी। चीनी गन्ने से तैयार की जाती थी, जो लाहौर से आगरा तक के समस्त क्षेत्र में तथा बंगाल, अजमेर एवं मालवा तक विस्तृत बहुत बड़े क्षेत्र में पैदा किया जाता था। उत्तम प्रकार की चीनी लाहौर, दिल्ली, बियाना, कालपी, पटना तथा आगरा में बनाई जाती थी। पटना में बनने वाली चीनी बंगाल को निर्यात की जाती थी।

मिट्टी के खिलौने एवं बर्तन उद्योग

मुगल काल में मिट्टी के बर्तन बनाने का काम पूरे देश में होता था। बुरहानपुर, वैलोर, कुम्भाकोनम तथा महरई चमकीले बर्तनों के लिए प्रसिद्ध थे। मिट्टी के बर्तनों पर चमकीले कलात्मक तथा शोभायुक्त डिजाइन बनाते थे। दिल्ली, लखनऊ और काश्मीर इस उद्योग के मुख्य केन्द्र थे।

इस प्रकार मिट्टी के बर्तन बनाने का उद्योग देशभर में व्याप्त था किंतु मिट्टी की मूर्तियाँ एवं खिलौने बनाने का उद्योग मुगल काल में लगभग बंद हो गया। इसका मुख्य कारण इस्लाम का प्रसार था जिसमें आदमी तथा जानवरों के बुत एवं चित्र बनाने का निषेध था। फिर भी केन्द्रीय एवं प्रांतीय राजधानी से दूर स्थित ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों के खिलौने बनाने का काम होता रहा।

कृषि आधारित उद्योग

मुगलकाल में विभिन्न कृषि उत्पादनों- नारियल, गिंगली, तिल तथा अरण्डी के बीज से तेल निकालने के उद्योग विकसित अवस्था में थे। खुशबूदार तेल, इत्र, मसाले, दवायें, शरबत आदि भी बनते थे। नूरजहाँ ने इत्र एवं खुशबूदार तेल बनाने के क्षेत्र में कई नये प्रयोग किये। मूंझ की रस्सी बनाकर उससे चारपाइयां एवं चटाइयां बुनी जाती थीं। सिरकियों से चटाइयां एवं टट्टियां बनाई जाती थीं। खस की टट्टियां भी बड़े पैमाने पर बनती थीं।

विविध उद्योग

मुगल काल में पत्थर पर नक्काशी करने, कांच की बोतलें बनाने तथा जालीदार झरोखे एवं खिड़कियां तैयार करने के काम बड़े स्तर पर होते थे जो बादशाहों एवं अमीरों के मकानों में काम आते थे। काश्मीर लकड़ी के विभिन्न उत्पादों के लिये प्रसिद्ध था। बेंत एवं बाँस से टोकरी, चटाई, छतें तथा झौंपड़ी बनाने तथा सजाने का काम होता था।

बंगाल तथा उड़ीसा में लाख पैदा होता था। इससे स्त्रियों के कंगन, कड़े तथा बच्चों के खिलौने बनाये जाते थे। इसका मुख्य उद्योग गुजरात में था। हाथी दाँत का काम करने वाले जड़ाऊ तथा अन्य प्रकार की वस्तुएँ बनाने में बड़े निपुण थे। इनमें कड़े, कंगन, शतरंज के पट्टे तथा शतरंज के मोहरे मुख्य थे।

दिल्ली तथा पूर्वाेत्तर मुल्तान इस कार्य के लिए प्रसिद्ध थे। देश के विभिन्न भागों में विविध प्रकार के आभूषण बनाने एवं उन पर मीनाकरी तथा पच्चीकारी करने का काम बड़े पैमाने पर होता था। विदेशी यात्री नूनीज ने 1509 ई. से 1529 ई. के बीच विजयनगर का भ्रमण किया था। उसने लिखा है कि भारत में हाथी दाँत के गुटके बनाये जाते थे जिन पर सोने की पच्चीकारी की जाती थी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मुख्य आलेख – मुगलकालीन अर्थव्यवस्था

मुगलकालीन अर्थव्यवस्था के प्रमुख तत्त्व

मुगलकालीन प्रौद्योगिकी एवं उद्योग

मुगलकालीन व्यापार तथा वाणिज्य

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