Monday, September 8, 2025
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राजपूतों का राजस्व प्रशासन

राजपूतों का राजस्व प्रशासन इस प्राचीन सिद्धांत पर आधारित था कि भोग रा धणी राज हो, भोम रा धणी म्हाँ छो। अर्थात् भूमि तो जोतने वाले किसान की है, राजा केवल भोग अर्थात् राजस्व का अधिकारी है किंतु मुगल काल में इस मान्यता को ठुकरा दिया गया और राजा एवं जागीरदार ही समस्त भूमि के वास्तविक मालिक बन गए।

राजपूतों का राजस्व प्रशासन

राजपूताना के विभिन्न राज्यों में राजस्व, कर और भूमि व्यवस्था में कुछ परिवर्तन होते हुए भी कुछ बातें एक जैसी थीं। राज्यों की भूमि सामान्यतः खालसा, हवाला, जागीर, भोम और सासण में विभाजित थी। दीवान खालसा भूमि का प्रबन्धन एवं नियन्त्रण करता था। हवालदार हवाला भूमि की देखरेख करता था।

जागीदार जागीर पर प्रत्यक्ष नियंत्रण रखता था। परगना हाकिम यह देखता था कि जागीरदार निश्चित वार्षिक कर समय पर राजकीय खजाने में जमा करवा रहा है या नहीं! जागीरदारों से वार्षिक कर के अतिरिक्त समय-समय पर पेशकश के रूप में धनराशि एकत्रित की जाती थी। भोमियों के नियंत्रण में स्वामित्व के आधार पर भोम की भूमि होती थी।

वे एक निर्धारित राशि फौजबल या भूमबाब के नाम से राज्यकोष में जमा करवाते थे। इसके अतिरिक्त वे किसी अन्य तरह के कर का भुगतान नहीं करते थे परन्तु उन्हें राज्य द्वारा निर्दिष्ट सेवा करनी पड़ती थी। सासण भूमि की उपज का भाग मन्दिरों, ब्राह्मणों, चारणों आदि के उपभोग हेतु पुण्यार्थ दिया जाता था।

राजपूत राज्यों में यह मान्यता थी कि भोग रा धणी राज हो, भोम रा धणी म्हाँ छो। अर्थात् भूमि तो जोतने वाले किसान की है, राजा केवल भोग अर्थात् राजस्व का अधिकारी है। राजा व जागीरदारों द्वारा काश्तकारों को पट्टे दिये जाते थे। उनका विवरण राजकीय रजिस्टर में दर्ज रहता था जिसे दाखला कहते थे।

भू-राजस्व का निर्धारण

राजपूत राज्यों में भोग अर्थात् भू-राजस्व निर्धारित करने एवं उसे वसूल करने के विभिन्न तरीके थे। इसका निर्धारण भूमि के स्वरूप, फसल के प्रकार तथा काश्तकार की जाति के आधार पर किया जाता था। भूमि की उत्पादन क्षमता के आधार पर प्रत्येक श्रेणी पर अलग-अलग दरों से राजस्व की वसूली की जाती थी। एक ही राज्य में अलग-अलग परगनों के राजस्व की दरों में भिन्नता होती थी। मालगुजारी सामान्यतः वस्तुओं (जिन्सों) के रूप में ली जाती थी। इसकी वसूल करने के विभिन्न तरीके थे।

लाटा (बटाई)

राजपूत राज्यों में लाटा अथवा बटाई पद्धति अधिक प्रचलन में थी। इस पद्धति में, जब फसल पककर तैयार हो जाती थी और खलिहान में अच्छी तरह साफ कर ली जाती थी तब एकत्रित अनाज के ढेर को तौलकर या डोरी (रस्सी) द्वारा नापकर राज्य का हिस्सा निश्चित किया जाता था।

कूंता: कहीं-कहीं अनुमान के आधार पर ही राज्य या भू-स्वामी का हिस्सा निश्चित कर लिया जाता था। इस प्रणाली को कंूता कहते थे।

हलगत

राजस्व निर्धारण के लिये कहीं-कहीं हलगत प्रणाली प्रचलन में थी। इस प्रणाली में, प्रत्येक हल पर अर्थात् एक हल से जोती गई भूमि पर राजकीय कर वसूल किया जाता था। एक हल से 50 से 60 बीघा भूमि जोती जा सकती थी। हल पर लगने वाले कर की दर समस्त जगह समान नहीं थी। कई बार हलगत की रकम सामूहिक रूप से जमा के नाम से पूरे गाँव पर लागू कर दी जाती थी।

मुकाता

मुकाता प्रणाली में राज्य की ओर से निश्चित किया जाता था कि प्रत्येक खेत पर नकदी या जिन्सों के रूप में एकमुश्त कितना लगान देना है।

डोरी

इस प्रणाली में एक डोरी में नापे गये बीघे का हिस्सा निर्धारित करके लगान वसूल किया जाता था।

घुघरी

जब प्रति कुआं अथवा प्रति पैदावार की एक निश्चित मात्रा निर्धारित कर दी जाती थी, तब उसे घुघरी कहते थे। रबी और खरीफ के लिये लगान की दरों में भिन्नता होती थी।

राजस्व का वितरण

जब तक उपज की बटाई नहीं होती थी, तब तक बलाई और सहणा खलिहान में धान की चौकीदारी करते थे। बटाई के समय हवालदार, कनवारिया, चौधरी (पटेल), पटवारी, कामदार (जागीर क्षेत्र में) और काश्तकार उपस्थित रहते थे। कनवारिया, सहणा, बलाई, पटवारी, तोलायत, चौधरी आदि समस्त लोगों को बटाई में से हिस्सा प्राप्त होता था।

नेग

बटाई के समय काश्तकार विभिनन लोगों को अनेक प्रकार के नेग व लाग देता था। सुथार, लुहार, नाई, धोबी, दर्जी, नट, मेहतर, रेगर, चमार आदि को अनाज की ढेरी में से कुछ मुट्ठी अनाज दिया जाता था। कुछ अनाज मन्दिरों में भेंट स्वरूप दिया जाता था। उपज की बटाई करने के बाद प्रायः किसान के पास इतना अनाज नहीं बचता था कि साल भर परिवार का काम चल सके। इसलिये किसान को अन्य कार्यों से आय करनी पड़ती थी।

लाग-बाग

जागीरदार अपनी-अपनी जागीरों में किसानों, चरवाहों एवं विभिन्न प्रकार के कार्य करने वाले लोगों से विभिन्न प्रकार की लाग-बाग वसूल करते थे जिनकी संख्या कहीं-कहीं तो सौ से भी अधिक थी। लाग कर को तथा बाग बेगार को कहते थे।

विभिन्न प्रकार के कर

राजपूत राज्यों में विभिन्न व्यक्तियों, जातियों और विशेष अवसरों पर विभिन्न प्रकार के कर लगाये जाते थे। गृहकर, घासमरी, व्यवसायिक जातियों पर लगाये गये कर, पेशकशी, नजराना, अंग, फौजबल, रखवाली भाछ, जुर्माना, टकसाल, कारखाना, न्यौता, विवाह, त्यौहार, जकात (सायर), व्यापारियों पर लगाये गये कर, बिक्री कर, वन, खान, नमक आदि पर लगाये गये करों से राज्य को बहुत आय होती थी।

इसके अतिरिक्त जागीरदारों से निश्चित राशि उपलब्ध होती थी। राजपूत राज्यों में 70 से 80 प्रतिशत अथवा उससे भी अधिक भूमि जागीरदारों के अधीन थी। जागीरदार, किसानों एवं अन्य लोगों से वसूल किये गये करों में से राज्य को नजर, हुक्मनामा या खड्गबन्दी, तागीरात, रेख, पेशकशी, नजराना, न्यौता, बेतलबी शुल्क आदि देता था। इस कारण राजपूताने की जनता करों के भार से बुरी तरह दबी हुई थी।

करों में छूट

गाँवों में किसानों तथा विभिन्न व्यवसायों में लगे लोगों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। प्राकृतिक आपदा की स्थिति में लोगों के लिये यह संभव ही नहीं होता था कि वे राजकीय करों का भुगतान करें। ऐसी स्थिति में राजा करों में छूट देता था। अकाल, सूखा, महामारी व अन्य दैवीय प्रकोपों के अवसर पर किसानों को हासल में छूट दी जाती थी।

छूट की मात्रा तीन प्रकार की होती थी- (1.) चौथाई, (2.) आधी और (3.) पूरी। नये गाँव बसाने या पुरानी बस्तियों को फिर से बसाने तथा व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य की ओर से विभिन्न प्रकार करों में भी राहत दी जाती थी।

राजकीय आय का व्यय

राजकीय आय मुख्यतः राजा, राज-परिवार के सदस्यों, ड्योढ़ियों की देखभाल, राजकीय कारखानों के संचालन एवं उनकी व्यवस्था, राजकीय कार्यालयों एवं न्यायालयों के संचालन, राज्य-कर्मचारियों के वेतन, महलों व सार्वजनिक निर्माण कार्य, सिरोपाव, ईनाम, दान-पुण्य, षट्दर्शन आदि पर व्यय होती थी। राजा सेना पर बहुत कम धन व्यय करता था, क्योंकि सेना के अधिकांश भाग की पूर्ति सामन्तों की सेना से होती थी। सामन्त अपनी सेना का खर्च स्वयं वहन करते थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मुख्य आलेख – राजपूत राज्यों का प्रशासन, समाज एवं अर्थव्यवस्था

राजपूत राज्यों का प्रशासन

राजपूतों का राजस्व प्रशासन

राजपूतों की न्यायिक व्यवस्था

राजपूतों का सैन्य प्रबन्धन

राजपूत राज्यों की अर्थव्यवस्था

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