राजपूतों की न्यायिक व्यवस्था और दण्ड-व्यवस्था का आधार प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्र थे। परम्परा, रीति-रिवाज तथा देशाचार को भी मान्यता दी जाती थी।
गाँवों में न्याय व्यवस्था
गाँव में ग्राम चौधरी या पटेल न्याय देने को कार्य करते थे। ग्राम पंचायत और जाति पंचायतों द्वारा भी न्याय का कार्य किया जाता था। पंचायतों के निर्णयों के विरुद्ध परगना अधिकारी या राजा को अपील की जा सकती थी।
परगनों में न्याय व्यवस्था
परगनों में न्याय का कार्य हाकिम, या आमिल या हवलगिर करता था। हाकिम को दीवानी और फौजदारी सम्बन्धी समस्त मामलों की सुनवाई करने का अधिकार था।
नगरों में न्याय व्यवस्था
राजधानी व अन्य बड़े-बड़े नगरों में नियुक्त कोतवाल भी न्यायाधीश का कार्य करते थे।
जागीरों में न्याय व्यवस्था
बड़े जागीरदार को उनकी जागीर सीमा में परगना हाकिमों के समान न्यायिक अधिकार प्राप्त थे। कहीं-कहीं सामन्त स्वयं दीवानी और फौजदारी मामलों की सुनवाई करता था। कुछ बड़े सामान्तों को अपने क्षेत्र के अपराधियों को मृत्युदण्ड तक देने का अधिकार होता था। राजा या सामन्त किसी भी मामले में मनमाना निर्णय नहीं दे सकता था। राज्य के प्रचलित नियमों एवं स्थापित परम्पराओं के आधार पर निर्णय देना होता था। सामन्तों के न्यायिक अधिकारों में सामान्यतः राजा हस्तक्षेप नहीं कर सकता था।
राजधानी में न्याय व्यवस्था: परगना हाकिम के निर्णय के विरुद्ध दीवान के समक्ष अपील की जा सकती थी। सामान्यतः दीवान, दीवानी मुकदमों की सुनवाई करता था किंतु कुछ मामलों में वह फौजदारी मुकदमों को भी निपटाता था। मेवाड़ राज्य में दंडपति नामक न्यायिक अधिकारी होता था।
आम्बेर राज्य में आमिल अपनी कचहरी में प्रतिदिन मुकदमे सुनता था। दीवान, आमिल व फौजदार को विभिन्न प्रकार के अपराधों में दंड देने के सम्बन्ध में निर्देश भेजता था। दीवान के निर्णय के विरुद्ध राजा के समक्ष अपील की जा सकती थी। राजा के समक्ष सीधे ही वाद प्रस्तुत किया जा सकता था।
राजद्रोह व अन्य जघन्य अपराधों की जाँच राजा स्वयं करता था। वादी, प्रविवादी और गवाहों को सुनने के बाद राजा न्याय करता था। गवाह को शपथ लेकर बयान देना पड़ता था। आवश्यकता पड़ने पर राजा न्याय-विशेषज्ञों की सलाह लेता था। धार्मिक मामलों में राजा, पुरोहित से परामर्श करता था।
दण्ड व्यवस्था
राजपूत राज्यों की दण्ड व्यवस्था काफी कठोर थी। विभिन्न प्रकार के अपराधों के लिए अलग-अलग दण्ड दिये जाते थे। अंग-भंग, देश-निर्वासन, कारागार, जुर्माना आदि दण्डों के साथ-साथ शिरोच्छेदन तथा मृत्युदण्ड भी दिये जाते थे। राज्य में कारावास बने होते थे। मुसलमानों को शरीअत के अनुसार न्याय मिलता था। राजधानियों व बड़े-बड़े नगरों में काजी नियुक्त किये जाते थे, जिनके परामर्श के अनुसार मुालमानों के अपराधों एवं मुकदमों का निर्णय किया जाता था।
मुख्य आलेख – राजपूत राज्यों का प्रशासन, समाज एवं अर्थव्यवस्था
राजपूतों की न्यायिक व्यवस्था