वामपंथी विचारधारा से प्रेरित भारतीय औरतें क्या कभी भी भारत माता की पीड़ा को नहीं समझ पाएंगी? उन्हें हिन्दुओं से बेरुखी और हिन्दू-विरोधियों से सहानुभूति की घुट्टी किसने पिलाई है?
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बीकानेर आए जहाँ से उन्होंने पूरी दुनिया के नाम एक संदेश दिया। उन्होंने कहा कि मेरी रगों में गर्म सिंदूर बहता है। जब सिंदूर बारूद बनता है, तो दुश्मनों के होश उड़ जाते हैं। दो दिन बाद गुजरात की भूमि से नरेन्द्र मोदी ने पाकिस्तान के नाम संदेश दिया- चैन से जियो, अपने हिस्से की रोटी खाओ, नहीं तो मेरी गोली तो है ही।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कण्ठ से निकले ये शब्द भारत की वीरत्व परम्परा की द्योतक है। हम इसी परम्परा के पुजारी हैं। इसी परम्परा को कवि प्रदीप ने इन शब्दों में पिरोया था- ये है अपना राजपुताना, नाज जिसे तलवारों पे। इसने अपना जीवन काटा बरछी तीर कटारों पे। कूद पड़ी थी यहाँ हजारों पदमिनियां अंगारों पे।
सच पूछो तो यह देश अपने परिवार, देश, समाज और धर्म को बचाने के लिए अंगारों पर कूद पड़ने वाली महिलाओं का ही है। उन्होंने ही इस देश को बनाया है।
रामधारीसिंह दिनकर ने हिमालय के प्रति अपनी कविता में लिखा है- पददलित इसे करना पीछे, पहले ले मेरा सिर उतार।
अर्थात्- हिमालय पर्वत शत्रु को ललकारते हुए कहता है कि तू भारत की धरती को अपने पैरों से बाद में रौंदना, पहले मेरा सिर उतार ले। अर्थात् अपने देश की रक्षा के लिए पहला बलिदान मैं दूंगा।
हम भारत के अमर बलिदानी लोग हैं, इसीलिए आज संसार में सिर ऊंचा किए खड़े हैं।
एक मध्यकालीन कवि ने अमर बलिदान की परम्परा को इन शब्दों में लिखा है- इला न देणी आपणी, हालरिया हुलराय। पूत सिखावै पालणै, मरण बड़ाई माय।
अर्थात्- माता अपने पुत्र को झूला झुलाती हुई कहती है कि किसी को कभी अपनी धरती मत देना। हे पुत्र कायर की तरह जीने में नहीं वीर की तरह मरने में ही यश है।
इसी परम्परा को राजस्थान के एक कवि ने महाराणा प्रताप के संदर्भ में लिखा है- माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप। अकबर सूतो ओझकै, जाण सिराणै साँप।
अर्थात्- हे माता। तू ऐसे पुत्रों को जन्म दे जैसे महाराणा प्रताप। प्रताप के भय से अकबर कभी पूरी नींद नहीं लेता था क्योंकि उसे ऐसा लगता था जैसे उसके सिराहने सांप बैठा हो।
भारतीय वीर परम्परा की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद हम 22 अप्रेल 2025 की उस घटना की ओर चलते हैं जब पाकिस्तान से आए खूंखार आतंकियों ने जम्मू कश्मीर प्रांत के पहलगाम में भारतीय पर्यटकों का धर्म पूछकर और उनकी पैण्ट खुलवाकर उनकी हत्या की। एक हिन्दू यवती का पति भी इस हत्याकाण्ड में मारा गया। उस हिन्दू युवती ने इस हत्याकाण्ड पर प्रतिक्रिया देते हुए मीडिया के सामने अपील की कि मेरे पति की मौत का बदला मुसलमानों या कश्मीरियों को मारकर न लिया जाए।
क्या यह हैरान कर देने वाली बात नहीं है कि उस हिन्दू युवती ने यह कहने की बजाय कि मेरे पति के हत्यारों का सिर काट लाओ, उस युवती ने कश्मीरियों और मुसलमानों के प्रति अपनी चिंता व्यक्त की।
क्या उस युवती को सचमुच यह लगता था कि जैसे ही इस हत्याकाण्ड की खबर मीडिया में आएगी, भारत के गैर कश्मीरी और गैर मुस्लिम लोग हथियार उठाकर कश्मीरियों और मुसलमानों को मारने के लिए दौड़ पड़ेंगे?
क्यों उस हिन्दू युवती को भारत की वीर परम्परा का ज्ञान नहीं है? क्यों वह गंभीर शोक के क्षणों में गांधीगिरि दिखा रही है? न तो वह खुद आतंकियों से भिड़ी, न उसने अपनी, अपने पति की और अन्य पर्यटकों की प्राण रक्षा के लिए कोई साहस दिखाया। उसे केवल चिंता थी तो कश्मीरियों की और मुसलमानों की!
आपमें से बहुत से श्रोताओं ने फ्लाइट अटेंडेंट नीरजा भनोत का नाम सुना होगा जिसने वर्ष 1986 में केवल 23 साल की आयु में, मुम्बई से न्यूयॉर्क जा रहे पैन एम फ्लाइट 73 के अपहृत विमान के यात्रियों को फिलिस्तीन आतंकवादियों से बचाते हुए अपनी जान दे दी। भारत सरकार ने उसे अशोक चक्र दिया था।
मैं मानता हूँ कि सब लोग ऐसा साहस नहीं दिखा सकते किंतु कम से कम अपनी वाणी का उपयोग तो सोच समझ कर कर सकते हैं। क्या कश्मीरियों एवं मुसलमानों से बदला न लेने की अपील करने वाली उस युवती को एक भी ऐसी घटना याद है जब स्वतंत्र भारत के हिन्दुओं, जैनों, बौद्धों, सिक्खों, पारसियों एवं ईसाइयों में से किसी ने भी, कभी भी, किसी भी हत्याकाण्ड के विरोध में कोई रक्तरंजित सामूहिक कदम उठाया हो? क्या उसे भारत के लोग बांगलादेशियों की तरह सड़कों पर दंगा करने वाले लगते हैं।
स्वतंत्र भारत के इतिहास पर आज तक केवल दो ही दाग हैं। पहला दाग तब 1984 में लगा था जब भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके ही अंगरक्षकों ने गोलियों से भून दिया था। तब अवश्य ऐसा हुआ था कि हत्यारों के सम्प्रदाय वालों को सड़कों पर मारा गया था किंतु उस हत्याकाण्ड को भारत के लोगों ने स्वतःस्फूर्त उत्तेजना के वशीभूत होकर कारित नहीं किया था, अपितु श्रीमती गांधी की पार्टी के कुछ नेताओं ने उस हत्याकाण्ड का सामूहिक नेतृत्व किया था। कांग्रेस पार्टी के नेताओं के कृत्य के लिए भारत के समस्त लोगों को कलंकित कैसे किया जा सकता है?
भारत में जातीय नरसंहार का दूसरा उदाहरण 1990 का है जब कश्मीर में मुसलमान आतंकवादियों ने हिन्दुओं का नरसंहार किया था जिन्हें कश्मीरी पण्डित कहा जाता है।
जब भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हुई, जब पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंतसिंह की हत्या हुई, जब भारतीय सेना के पूर्व जनरल ए. एस. वैद्य की हत्या हुई, जब जनसंघ के संस्थापकों दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की हत्या हुई, तब भी भारत के किसी भी प्रांत के लोगों ने, भारत के किसी भी धर्म, सम्प्रदाय या पंथ के लोगों ने हत्यारों की जाति या मजहब या प्रांत के लोगों का सामूहिक नरंसहार नहीं किया था। जब काश्मीर के आतंकियों ने कश्मीर के हिन्दुओं को मारा तब भी भारत के हिन्दुओं ने किसी प्रकार का बदला नहीं लिया।
तब फिर उस युवा हिन्दू मोहतरमा ने अपने पति की हत्या पर यह क्यों कहा कि मेरी अपील है कि वे कश्मीरियों और मुसलमानों से बदला न लें? क्या वे बता सकती हैं कि उन्हें किससे डर लग रहा था, कौन कश्मीरियों और मुसलमानों को मारकर उनसे बदला लेने वाले थे?
बदला तो उसी से लिया जाता है, जिसने अपराध किया हो, या फिर किसी और से लिया जाता है? उस युवा महिला के पति की हत्या का बदला लेने के लिए भारत की सेना ने पाकिस्तान पर ही हमला किया, जहां से आए आतंकियों ने यह अपराध किया था या फिर किसी और देश पर कर दिया?
क्या ऐसा नहीं लगता कि इस मोहरतमा को अपने पति की हत्या हो जाने के दुख से अधिक चिंता कश्मीर के उन लोगों तथा उन मुसलमानों की थी, जिन्हें पता नहीं कौन मार डालने वाले थे?
मेरा विश्वास है कि यदि गांधीजी जीवित होते तो इतनी गांधीगिरि तो वे भी नहीं दिखाते जितनी इस मोहतरमा ने दिखाई है।
जिस महिला का पति मरा है, उसका दुख समझा जा सकता है किंतु इस पढ़ी-लिखी युवती की प्रतिक्रिया पर भी तो बात होनी चाहिए जो भारत के समस्त लोगों को बिना किसी कारण के संदेह के कटघरे में खड़ी करती है।
आखिर इस युवती ने अपने निर्दोष पति की निर्मम हत्या पर ऐसी विचित्र प्रतिक्रिया क्यों दी जिसमें भारत की समूची गैर कश्मीरी और समूची गैर मुस्लिम जनता संभावित हत्याकाण्ड के संदेह के घेरे में खड़ी हो गई?
इसी संदर्भ में थोड़ी सी चर्चा कुछ अन्य पढ़ी-लिखी महिलाओं की करते हैं। जब महाराष्ट्र पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी हेमंत करकरे बम्बई के आतंकवादी हमले में आतंकियों की गोलियों से छलनी होकर शहीद हुए और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे को एक करोड़ रुपए की राशि देने की घोषणा की तब कविता करकरे ने नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध बड़ी कड़वी प्रतिक्रिया देते हुए उस राशि को ठुकरा दिया था।
मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि गुजरात के दंगों में निर्दोष जनता को दंगाइयों के हाथों से बचाने में सफलतापूर्वक काम करने वाले मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे के मन में इतनी कड़वाहट क्यों थी? क्या केवल इसलिए कि नरेन्द्र मोदी मुसलमानों के तुष्टिकरण की राजनीति नहीं करते?
इस संदर्भ में श्वेता भट्ट की चर्चा करना भी उचित होगा। गुजरात कैडर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को साम्प्रदायिक दंगों के आरोप में फंसाने के लिए पूरा जोर लगाया किंतु किसी भी स्तर पर नरेन्द्र मोदी की संलिप्तता नहीं पाई गई।
जब संजीव भट्ट को न्यायालय के आदेश से जेल भेज दिया गया तब संजीव भट्ट की पत्नी श्वेता भट्ट ने नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध लगातार जहर उगला तथा उसके बाद हुए गुजरात विधान सभा के चुनावों में नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध चुनाव में उतर पड़ी।
मेरी समझ में यह नहीं आया कि श्वेता भट्ट को अपने पति के काले कारनामों पर शर्मिंदा होने की बजाय नरेन्द्र मोदी पर किस बात का गुस्सा था।? श्वेता भट्ट को ऐसा क्यों लगता था कि गुजरात में साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए नरेन्द्र मोदी ही दंगों के दोषी हैं? क्या केवल इसलिए कि नरेन्द्र मोदी मुसलमानों के तुष्टिकरण की राजनीति नहीं करते?
इसी संदर्भ में एक और घटना की चर्चा करते हैं। 13 दिसम्बर 2001 को कुछ आतंकवादियों ने भारत की संसद पर आतंकी हमला हुआ। इन आतंकवादियों को संसद की रक्षा में नियुक्त सुरक्षा कर्मचारियों ने मार डाला। आतंकियों एवं सुरक्षा कर्मियों के बीच हुए संघर्ष में कुछ सुरक्षा कर्मी शहीद हुए थे।
इस घटना के कुछ वर्ष बाद, उन शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए दिल्ली में एक बैठक का आयोजन किया गया। इस बैठक में एक पढ़ी लिखी महिला ने मानवाधिकारों की दुहाई देते हुए आतंकियों के सरगना मोहम्मद अफजल गुरु को निर्दोष बताया तथा उसे मुक्त करने की मांग की। उस समय अफजल गुरु एवं उसके साथियों पर भारतीय न्यायालयों में मुकदमा चल रहा था।
जब मानवाधिकार वादी उस उच्च शिक्षित महिला ने मोहम्मद अफजल गुरु को निर्दोष बताया तो संसद पर हुए हमले में शहीद हुए एक सुरक्षा कर्मचारी की पत्नी जो कि अपेक्षाकृत कम पढ़ी-लिखी थी और हिन्दी भी ढंग से नहीं बोल सकती थी, उठकर खड़ी हुई और जोर से चिल्लाकर बोली कि आज जो तू यहाँ गुलाबी कपड़ा पहनकर लैक्चर दे रही है, यदि तेरे मोहम्मद अफजल गुरु ने पार्लियामेंट पर हमला नहीं किया होता तो तेरी जगह मैं गुलाबी कपड़ा पहनकर बैठी होती, और तू मेरी जगह धौळा पहर कर बैठती।
जब पढ़ी-लिखी महिलाओं की बात चल ही रही है तो थोड़ी सी चर्चा तीस्ता सीतलवाड़ की भी करते हैं। तीस्ता सीतलवाड़ के दादा मोतीलाल चमनलाल सीतलवाड़ की पोती तथा अतुल सीतलवाड़ और सीता सीतलवाड़ की पुत्री हैं। वे मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं तथा उन्होंने जावेद आनंद नामक एक अल्पसंख्यक अधिकार कार्यकर्ता से निकाह किया है।
तीस्ता सीतलवाड़ ने अपना आधा जीवन गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध षड़यंत्र रचने में बिताया। यदि यह कहा जाए कि तीस्ता सीतलवाड़ के बिछाए हुए खतरनाक जाल से नरेन्द्र मोदी बाल-बाल ही बच सके हैं, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
तीस्ता के मन में नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध के इतना विष क्यों है? नरेन्द्र मोदी ने तो उनका कुछ नहीं बिगाड़ा। बात घूमफिर कर वहीं पहुंच जाती है कि चूंकि नरेन्द्र मोदी मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति नहीं करते, इसलिए तीस्ता उनकी शत्रु बन गई।
एक पढ़ी-लिखी स्त्री का उदाहरण हाल ही का है जिसका नाम स्वाति मल्होत्रा है जो पाकिस्तान के लिए जासूसी करती हुई पकड़ी गई है। भारत के लोगों ने तो उसके परिवार वालों से किसी तरह का बदला लेने की बात तक नहीं सोची। क्योंकि भारत की परम्परा यही है कि जिसने अपराध किया है, अपराधी केवल वही है, उसका बदला उसके परिवार के लोगों से, या जाति-मजहब और प्रांत के लोगों से नहीं लिया जा सकता।
इस ब्लॉग के माध्यम से मैं समस्त पढ़ी-लिखी औरतों पर किसी भी तरह का आरोप नहीं लगा रहा, पढ़ीलिखी महिलाएं ही इस देश और समाज का भविष्य हैं किंतु यह समझने और समझाने में असमर्थ हूं कि क्यों कुछ पढ़ी लिखी महिलाएं मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति न करने वाले नरेन्द्र मोदी, हिन्दुओं के लिए राजनीति करने वाली प्रज्ञा भारती और निर्दोष कर्नल पुरोहित को जेल की सलाखों के पीछे देखना चाहती हैं? क्यों कुछ पढ़ी-लिखी महिलाएं मोहम्मद अफजल गुरु को फांसी के फंदे से छुड़ाने की वकालात करती हैं।
क्यों कुछ पढ़ी लिखी औरतें यह बात नहीं समझ पातीं कि जेहाद के नाम पर आने वाले ये आक्रांता 1400 सालों से पूरी धरती पर निरीह एवं निर्दोष लोगों को मार रहे हैं। हमें उनके इरादों से लड़ना होगा। इसके लिए पूरी दुनिया की अच्छी शक्तियों को एक होना होगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता