Friday, October 10, 2025
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शुंग वंश एवं कण्व वंश

मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारत में एक के बाद एक तीन ब्राह्मण राज्य स्थापित हुए। इन राज्यों के संस्थापक शुंग वंश, कण्व वंश एवं सातवाहन वंश के थे। इस अध्याय में शुंग वंश एवं कण्व वंश का इतिहास दिया गया है।

मौर्य-साम्राज्य भारत का प्रथम विशाल साम्राज्य था। मौर्य काल में भारत को जो राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक एकता प्राप्त हुई वह इसके पूर्व कभी नहीं थी। अशोक के काल में यह एकता चरम पर पहुंच गई परन्तु अशोक की मृत्यु के पश्चात राष्ट्र में फिर से विच्छिन्नता आरम्भ हो गई।

लगभग पांच शताब्दियों तक यह स्थिति रही जिससे भारत न केवल राजनीतिक वरन् सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी छिन्न-भिन्न हो गया। मौर्य साम्राज्य के नष्ट हो जाने पर भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये। राजनीतिक विच्छिन्नता के परिणाम स्वरूप भारत पर पुनः विदेशी आक्रमण आरम्भ हो गये और भारत के विभिन्न भागों में विदेशियों के राज्य स्थापित हो गये।

राष्ट्र की राजनीतिक एकता के लिये बौद्ध धर्म और जैन धर्म के अहिंसात्मक सिद्धांतों के दुष्परिणाम सामने आ चुके थे। इस कारण मौर्योत्तर युग में वर्णाश्रम धर्म ने फिर से जोर पकड़ा और ब्राह्मण धर्म का महत्त्व पुनः बढ़ने लगा। संस्कृत भाषा का महत्त्व फिर से बढ़ा और उसी में साहित्य रचना होने लगी।

शुंग वंश और उसकी उपलब्धियाँ

शुंग वंश का प्रथम शासक पुष्यमित्र शुंग था। वह मौर्य वंश के अन्तिम शासक वृहद्रथ का सेनापति था। पुष्यमित्र शुंग ने 184 ई.पू. में एक सैनिक निरीक्षण के समय अपने स्वामी का वध कर दिया तथा स्वयं पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठ गया।

पतंजलि के महाभाष्य, विभिन्न पुराण, कालिदास के मालविकाग्निमित्रम्, बाणभट्ट के हर्षचरित, जैन लेखक मेरुतुंग के थेरावली, बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान एवं तारानाथ लिखित बौद्ध धर्म का इतिहास आदि साहित्यिक स्रोतों से शुंग वंश की जानकारी मिलती है। खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख, धनदेव के अयोध्या अभिलेख से इस जानकारी की पुष्टि होती है तथा भरहुत एवं सांची के स्तूपों से शुंग वंश की कलात्मक प्रगति का ज्ञान होता है।

पतंजलि के महाभाष्य, पाणिनी की अष्टाध्यायी, गार्गी संहिता, विभिन्न पुराण, बाणभट्ट का हर्षचरित आदि ग्रंथ निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं कि शुंग ब्राह्मण थे। तिब्बती आचार्य तारानाथ भी उन्हें ब्राह्मण बताता है।

पुष्यमित्र शुंग

प्राचीन भारतीय शासकों में पुष्यमित्र शुंग महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उसने उत्तरमौर्य कालीन शासकों के समय गिरती हुई राजसत्ता के गौरव को पुनः स्थापित किया। सैन्य शक्ति एवं बौद्धिक क्षमता के बल पर उसने भारत की राजनीतिक एकता को पुनः सृजित करने का प्रयास किया।

वह सेनापति से शासक बना था इसलिये उसने अंतिम समय तक अपनी सेना से सम्बन्ध बनाये रखा। उसने कभी भी सम्राट की उपाधि धारण नहीं की तथा स्वयं को सेनापति ही कहता रहा। तत्कालीन समस्त साक्ष्यों में उसे सेनानी ही कहा गया है जबकि उसके पुत्र और उत्तराधिकारी अग्निमित्र के लिये राजा शब्द का प्रयोग किया गया है।

उसके काल की तीन प्रमुख घटनाएँ है- (1) विदर्भ के राजा को युद्ध में परास्त करना (2) यूनानियों के आक्रमणों को रोकना और (3) अश्वमेध यज्ञ करना।

(1) विदर्भ विजय

जिस समय पुष्यमित्र मगध का राजा बना, उस समय विदर्भ पर यज्ञसेन का शासन था जो कि मौर्यों की राजसभा के एक मंत्री का सम्बन्धी था। मालविकाग्निमित्र नामक नाटक से पुष्यमित्र तथा यज्ञसेन के मध्य हुए संघर्ष की सूचना मिलती है। संभवतः यज्ञसेन ने अंतिम मौर्य सम्राट की हत्या से उत्पन्न हुई उथल-पुथल की स्थिति का लाभ उठाने की चेष्टा की तथा स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र ने यज्ञसेन को परास्त करके विदर्भ को पुनः शंुग साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

(2) यूनानियों की पराजय

पुष्यमित्र शुंग के समय में यवनों ने भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर आक्रमण किया। पतंजलि के महाभाष्य, मालविकाग्निमित्र तथा गार्गी संहिता के यज्ञ पुराण से इस आक्रमण की सूचना मिलती है कि यवन सेनाएं साकेत, पांचाल तथा मथुरा को रौंदते हुई पाटलिपुत्र तक पहुंच गईं। पुष्यमित्र ने इस युद्ध के बाद अश्वमेध यज्ञ किया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यवनों के साथ हुए युद्ध में पुष्यमित्र शुंग की विजय हुई। मालविकाग्निमित्र के अनुसार वसुमित्र ने यवनों को सिंधु नदी के तट पर पराजित किया था।

(3) अश्वमेध यज्ञ

वैदिक काल से ही आर्य राजा अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने और स्वयं को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राजा घोषित करने के लिये अश्वमेध यज्ञ करते थे। चूंकि पुष्यमित्र शुंग स्वयं ब्राह्मण था इसलिये उसने वैदिक परम्परा के अनुसार अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया ताकि उसके अधीनस्थ राजा उसे सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट स्वीकार कर लें।

पुष्यमित्र का साम्राज्य

विदर्भ विजय से मगध राज्य की खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त हुई। यवनों को परास्त करके उसने अपने राज्य की पश्चिमी सीमा स्यालकोट तक बढ़ा ली। साकेत से यूनानियांे को भगा देने से मध्य प्रदेश में उसके राज्य को स्थायित्व मिल गया। विदर्भ विजय ने उसका राज्य दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत कर दिया। इस प्रकार पुष्यमित्र का राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सिंधु नदी तक विस्तृत था।

पुष्यमित्र की उपलब्धियाँ

ब्राह्मण धर्म का पुनरुद्धार

चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म को तथा अशोक ने बौद्ध धर्म को राज्याश्रय दिया। इस कारण ब्राह्मण धर्म का वेग मंद पड़ गया। पुष्यमित्र शुंग स्वयं ब्राह्मण था इसलिये उसने ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान के लिये प्रयास किया। पुष्यमित्र के राजपुरोहित का यह कथन उल्लेखनीय है कि ब्राह्मणों एवं श्रमणों में शाश्वत विरोध है।

पतंजलि पुष्यमित्र के राजपुरोहित थे। इतिहासकारों का मानना है कि पतंजलि ने संस्कृत भाषा को बोधगम्य एवं सरल बनाने के लिये अष्टाध्यायी के महाभाष्य की रचना पुष्यमित्र के शासन काल में की। मनुस्मृति भी इसी काल में लिखी गई। इसमें भावी ब्राह्मण व्यवस्था की रूपरेखा थी।

महर्षि पंतजलि के महाभाष्य से हमें ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसने ब्राह्मण-धर्म को संरक्षण प्रदान किया और उसे राज धर्म बना दिया। ब्राह्मण धर्म और व्यवस्था के पुनरुद्धार का यह कार्य कण्वों और सातवाहनों के समय में भी चलता रहा।

बौद्ध धर्म का दमन

बौद्ध-ग्रन्थ ‘दिव्यावदान’ के अनुसार पुष्यमित्र, बौद्धों का विरोधी था और उनके साथ अत्याचार करता था। पुष्यमित्र ने 84 हजार स्तूपों को नष्ट करके ख्याति प्राप्त करने का प्रयत्न किया तथा बहुत से स्तूपों को नष्ट कर दिया। उसने यह घोषणा करवाई कि जो कोई व्यक्ति उसे बौद्ध भिक्षु का सिर लाकर देगा, उसे 100 दीनार देगा।

तिब्बती लेखक तारानाथ लिखता है कि पुष्यमित्र ने मध्य प्रदेश से जालंधर तक बहुत से बौद्धों का वध किया और उनके स्तूपों तथा विहारों को भूमिसात किया। आर्य मंजूश्रीमूलकल्प में भी इसी प्रकार का वर्णन है। अधिकांश विद्वानों ने इन कथनों का विरोध करते हुए लिखा है कि चूंकि वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था इसलिये बौद्धों ने उसके विरुद्ध इस तरह की अनर्गल बातें लिखीं।

भारतीय इतिहास में इस तरह की परम्परा कभी भी देखने को नहीं मिलती जब किसी भारतीय आर्य राजा ने दूसरे धर्मावलम्बियों की हत्या करवाई हो। पुष्यमित्र के समय भारतवासी दीनार शब्द से परिचित ही नहीं थे इसलिये दीनार देने की घोषणा करने वाली बात मिथ्या है तथा बाद के किसी काल में गढ़ी गई है।

सहिष्णु शासक

अधिकांश इतिहासकार पुष्यमित्र को सहिष्णु राजा स्वीकार करते हैं। पुष्यमित्र ने भरहुत, बोध गया तथा सांची के स्तूपों को नया रूप दिया और उनके आकार को बढ़ाया। भरहुत स्तूप के प्राचीर पर सुगनं रजे लिखा हुआ है जिसका अर्थ है कि स्तूप का यह भाग शुंग शासक के काल में निर्मित हुआ।

दिव्यावदान में उल्लेख है कि उसने कई बौद्धों को अपना मंत्री बनाया। मालविकाग्निमित्र से विदित होता है कि पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र की राजसभा में एक बौद्ध धर्मावलम्बी भगवती कौशिकी नामक महिला थी जिसे बहुत सम्मान दिया जाता था। अतः स्पष्ट है कि पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था तथा आर्य परम्पराओं के अनुसार उसने दूसरे धर्मों के लोगों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार किया।

पुष्यमित्र का शासन काल

वायु पुराण तथा कतिपय अन्य पुराणों में पुष्यमित्र द्वारा 60 वर्ष तक शासन किया जाना बताया गया है जो कि सत्य प्रतीत नहीं होता। संभवतः इसमें वह अवधि भी जोड़ ली गई है जिस अवधि में उसने अवंति के गवर्नर के रूप में शासन किया। कुछ इतिहासकार पुष्यमित्र के शासन की अवधि 36 वर्ष तथा कुछ इतिहासकार 33 वर्ष मानते हैं। माना जाता है कि 148 ई. पू. में उसका निधन हुआ।

पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी

शुंग-वंश में कुल दस शासक हुए, जिन्होंने लगभग 112 वर्ष तक शासन किया। इनके नाम इस प्रकार से हैं- (1) पुष्यमित्र, (2) अग्निमित्र, (3) वसुज्येष्ठ, (4) वसुमित्र, (5) आन्ध्रक, (6) पुलिन्डक, (7) घोष, (8) वज्रमित्र, (9) भाग और (10) देवभूति।

शुंगकालीन कला

शुंग-काल में यद्यपि मौर्यकालीन अनेक भवनों एवं स्तूपों के निर्माण को पूरा किया गया था किन्तु इस काल में ब्राह्मण-धर्म के प्रभाव से मन्दिरों एवं मूर्तियों का अधिक बाहुल्य दिखाई पड़ता है। हिन्दू देवी-देवताओं विष्णु, शिव, ब्रह्मा, बलराम, लक्ष्मी, वासुदेव आदि की मूर्तियों की बहुतायत है। बेसनगर में गरुड़ध्वज के साथ खड़ी विष्णु मूर्ति इसी काल में निर्मित हुई।

शुंग वंश का अंत

कहा जाता है कि शुंगवंश का अंतिम शासक देवभूति अत्यंत कामुक राजा था। 72 ई.पू. में देवभूति के मन्त्री वसुदेव कण्व ने देवभूति का वध करके नये राजवंश की स्थापना की।

कण्व-वंश

इस वंश का संस्थापक वसुदेव कण्व था। इतिहासकार अब तक इस वंश के समय की किसी उल्लेखनीय घटना अथवा विशेष उपलब्धि का पता नहीं लगा पाये हैं। इस वंश में कुल चार शासक- वसुदेव, भूमिमित्र, नारायण तथा सुशर्मा हुए जिन्होंने कुल 45 वर्षों तक शासन किया। इस वंश का अन्तिम शासक सुशर्मा था।

पुराणों में कहा गया है कि कण्व वंश के शासक धर्मानुकूल शासन करेंगे। इससे अनुमान होता है कि शुंगों के शासन काल में ब्राह्मण धर्म व्यवस्था चलती रही। इस वंश के शासन के बारे में इससे अधिक जानकारी नहीं मिलती।

पुराणों से ज्ञात होता है कि 28 ई.पू. अथवा 27 ई.पू. में आन्ध्र अथवा सातवाहन वंश के सिमुक ने सुशर्मा का वध करके कण्व वंश का अन्त कर दिया और स्वयं मगध का शासक बन गया। कण्व काल में संस्कृत के प्रसिद्ध कवि भास ने ‘प्रतिज्ञा यौगन्धरायण’ नाटक की रचना की।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – ब्राह्मण राज्य

शुंग वंश एवं कण्व वंश

आन्ध्र अथवा सातवाहन वंश

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