महाराष्ट्र के सन्तों में नामदेव का नाम अग्रणी है। उनका जन्म ई.1270 में एक दर्जी परिवार में हुआ। उनका विवाह बाल्यावस्था में ही कर दिया गया तथा पिता की मृत्यु के बाद परिवार का बोझ भी उनके कन्धों पर आ पड़ा। माता और पत्नी ने उन पर पैतृक व्यवसाय करने के लिए जोर डाला परन्तु नामदेव केवल हरि-कीर्तन करते रहे। कुछ समय बाद वे पण्ढरपुर में जाकर बस गए। यहाँ से वे भारत भ्रमण के लिए निकले। पंजाब आदि प्रान्तों में भक्ति का प्रचार करके वे पुनः पुण्ढरपुर आ गए।
नामदेव ने जनसाधारण को प्रेममयी-भक्ति का उपदेश दिया और परम्परागत रीति-रिवाज तथा जाति-पाँति के बन्धनों को हटाने का प्रयास किया। उनके शिष्यों में समस्त जातियों और वर्गों के लोग थे। नामदेव भी अन्य सन्तों की भाँति एकेश्वरवादी थे और मूर्ति-पूजा तथा पुरोहितों के नियन्त्रण के विरुद्ध थे। उनकी मान्यता थी कि भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है। दक्षिण भारत की जनता पर नामदेव के उपदेशों का बड़ा प्रभाव पड़ा। उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों से अपनी बुराइयां त्यागने को कहा-
हिन्दू अन्धा, तुरको काना।
दूवौ तो ज्ञानी सयाना।
हिन्दू पूजै देहरा, मुसलमान मसीद,
नामा सोई सेविया जहं देहरा न मसीद।।
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