Friday, October 10, 2025
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हर्षवर्धन

हर्षवर्धन के शासनकाल की जानकारी कई साधनों से मिलती है। हर्ष के दरबार में रहने वाले कवि बाणभट्ट ने अपनी कृति हर्षचरित में हर्ष तथा उसके पूर्वजों का वर्णन किया है।

पुष्यभूति वंश का उदय

गुप्त साम्राज्य के छिन्न-भिन्न हो जाने के उपरान्त भारत की राजनीतिक एकता एक बार पुनः समाप्त हो गई और देश के विभिन्न भागों में फिर छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना हो गई जिनमें निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। देश में कोई ऐसी प्रबल शक्ति नहीं थी जो देश की रक्षा कर सकती और इन छोटे-छोटे राज्यों पर नियंत्रण रख कर देश को सुख तथा शान्ति प्रदान कर सकती।

जिस समय देश पर हूणों के आक्रमण हो रहे थे और गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो रहा था उन्हीं दिनों छठी शताब्दी के आरम्भ में थानेश्वर में एक नये राजवंश की स्थापना हुई। इस वंश का संस्थापक पुष्भूति था जो भगवान शिव का परम भक्त था। उसके नाम पर इस वंश को पुष्यभूति वंश कहा जाता है। उसके अधिकांश वंशजों के नाम के अंत में वर्धन प्रत्यय लगा हुआ है, इससे इस वंश को वर्धन वंश भी कहा जाता है।

पुष्यभूति वंश के प्रारंभिक शासक

इस वंश के प्रारंभिक शासकों के विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलती है। पुष्यभूति के उपरान्त नरवर्धन, राज्यवर्धन तथा आदित्यवर्धन शासक हुए जो स्वतंत्र शासक न होकर किसी स्वतंत्र शासक के सामन्त के रूप में शासन कर रहे थे। इन शासकों की उपाधि महाराज थी। इनका उल्लेख अभिलेखों तथा राजकीय मोहरों पर मिलता है। अनुमान है कि प्रारंभ में ये गुप्तों के अधीन शासन कर रहे थे और गुप्तों के बाद हूण शासकों के अधीन शासन कर रहे थे।

प्रभाकरवर्धन

हर्ष चरित के अनुसार प्रभाकरवर्धन इस वंश का चौथा शासक था। वह 580 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसने परमभट्टारक तथा महाराजाधिराज उपाधियां धारण कीं जिनसे ज्ञात होता है कि वह स्वतंत्र तथा प्रतापी शासक था। उसने गुर्जरों के विरुद्ध सफलता पूर्वक युद्ध किया। प्रभाकरवर्धन के चार संतानें थीं, तीन पुत्र- राज्यवर्धन, हर्षवर्धन तथा कृष्णवर्धन और एक पुत्री- राज्यश्री। राज्यश्री का विवाह कान्यकुब्ज (कन्नौज) के मौखरी राजा ग्रहवर्मन के साथ हुआ था। 605 ई. में प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हो गई।

राज्यवर्धन

प्रभाकरवर्धन के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन सिंहासन पर बैठा। शासन संभालते ही उसे मालवा के शासक देवगुप्त के विरुद्ध अभियान पर जाना पड़ा क्योंकि देवगुप्त ने मौखरी राज्य पर आक्रमण करके राज्यवर्धन के बहनोई ग्रहवर्मन की हत्या कर दी तथा राज्यवर्धन की बहिन राज्यश्री को बन्दीगृह में डाल दिया।

इस दुर्घटना का समाचार पाते ही राज्यवर्धन ने शासन का भार अपने छोटे भाई हर्षवर्धन को सौंपकर स्वयं एक विशाल सेना के साथ देवगुप्त को दण्डित करने के लिए प्रस्थान कर दिया। राज्यवर्धन ने देवगुप्त को युद्ध में परास्त किया और उसके राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।

गौड़ (बंगाल) का राजा शशांक देवगुप्त का मित्र था। उसने विश्वासघात करके राज्यवर्धन की हत्या करवा दी और कन्नौज पर अधिकार कर लिया। उसने राज्यश्री को मुक्त कर दिया जो विन्ध्य पहाड़ि़यों में अज्ञात स्थान को चली गई। हर्ष के बांसखेड़ा तथा मधुबन अभिलेखों में उसके चार पूर्वज शासकों- नरवर्धन, राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन तथा प्रभाकर वर्धन एवं उनकी रानियों के नाम मिले हैं।

हर्षवर्धन

राज्यवर्धन की मृत्यु के उपरान्त उसका छोटा भाई हर्षवर्धन थानेश्वर के सिंहासन पर बैठा। हर्ष के सिंहासनारोहण पर टिप्पणी करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘छठी शताब्दी ईस्वी का प्रारम्भ राजनीतिक मंच पर एक अलौकिक व्यक्ति के आगमन से होता है। यद्यपि हर्षवर्धन में न तो अशोक का उच्चादर्श था और न चन्द्रगुप्त मौर्य का सैनिक कौशल, फिर भी वह उन्हीं दोनों महान् सम्राटों की भांति इतिहासकारों की दृष्टि को आकृष्ट करने में सफल हुआ है।’

हर्षवर्धन कालीन इतिहास जानने के साधन

हर्षवर्धन के शासनकाल की जानकारी कई साधनों से मिलती है। हर्ष के दरबार में रहने वाले कवि बाणभट्ट ने अपनी कृति हर्षचरित में हर्ष तथा उसके पूर्वजों का वर्णन किया है। हर्ष के समकालीन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने ग्रंथ सी-यू-की में भी हर्ष तथा उसके शासन की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख किया है।

हर्षवर्धन ने स्वयं भी रत्नावली, नागानंद और प्रियदर्शिका नामक ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में उस समय की राजनीतिक स्थितियों का उल्लेख है। मधुबन, बांसखेड़ा, सोनीपत आदि स्थानों से हर्ष के अभिलेख मिले हैं। इनमें भी कई सूचनाएं दी गई हैं। हर्षकालीन सिक्के भी हर्ष की तिथि, राज्य विस्तार, राज्यकाल की अवधि तथा आर्थिक परिस्थिति पर प्रकाश डालते हैं।

हर्षवर्धन का राज्याभिषेक

राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद 606 ई. में हर्षवर्धन राजगद्दी पर बैठा। उस समय हर्ष की आयु 16 वर्ष थी।

हर्षवर्धन की आरंभिक समस्याएं

हर्षवर्धन के समक्ष कई बड़ी समस्याएं थीं। उसके पिता की मृत्यु और भाई की हत्या को अधिक समय नहीं हुआ था। बहनोई की हत्या हो चुकी थी तथा बहन राज्यश्री जंगलों में थी। इस प्रकार उसका परिवार लगभग नष्ट हो चुका था तथा स्वयं हर्ष अल्पायु था। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। उसके समक्ष दो बड़ी चुनौतियां थीं। पहली चुनौती अपनी बहन को जंगलों से ढूंढकर गौड़ के राजा शशांक को दण्डित करने की तथा दूसरी चुनौती स्वयं अपने राज्य को व्यवस्थित करने की।

(1) राज्यश्री की खोज

हर्षवर्धन अपनी सेना के साथ विंध्याचल के जंगलों में पहुंचा तथा बौद्ध भिक्षु दिवाकरमित्र की सहायता से अपनी बहन राज्यश्री को ढूंढ निकाला। जिस समय हर्ष ने राज्यश्री को देखा, उस समय राज्यश्री अपने दुखों से तंग आकर अग्नि में प्रवेश करने जा रही थी। हर्ष अपनी बहन को समझा-बुझा कर अपने साथ ले आया।

(2) कन्नौज की समस्या

राज्यश्री के कोई संतान नहीं थी। इसलिये कन्नौज राज्य का कोई उत्तराधिकारी नहीं था। कन्नौज के मंत्रियों ने हर्ष से प्रार्थना की कि वह कन्नौज का राज्य भी संभाल ले। हर्ष ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार हर्ष दो राज्यों का राजा बन गया। इससे हर्ष की जिम्मेदारी तथा शक्ति दोनों ही बढ़ गईं। हर्ष ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।

हर्षवर्धन की दिग्विजय

हर्ष के पास एक विशाल सेना थी। इस सेना की सहायता से उसने दिग्विजय करने का निश्चय किया। स्मिथ ने हर्ष की विजय योजनाओं की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘सम्पूर्ण भारत को एक छत्र के नीचे लाने के उद्देश्य से उसने अपनी सारी शक्ति तथा योग्यता को एक सुव्यवस्थित विजय योजना के कार्यान्वयन में लगा दिया।’

(1) गौड़ नरेश शशांक पर आक्रमण

हर्ष ने सर्वप्रथम गौड़ नरेश शशांक को दण्डित करने और उसके राज्य को जीतने का निर्णय लिया। हर्षचरित के अनुसार हर्ष को जब अपने भाई की हत्या का समाचार मिला, उसी समय उसने प्रण किया कि कुछ ही दिनों में धरती को गौड़विहीन कर दूंगा। उसकी इस घोषणा का उसके मंत्रियों ने स्वागत किया।

बाणभट्ट तथा ह्वेनसांग दोनों ने ही इस युद्ध की घटनाओं तथा परिणामों की जानकारी नहीं दी है। ह्वेनसांग के अनुसार शशांक बौद्ध धर्म के प्रति हिंसक था। उसने बुद्ध के पदचिह्नों से अंकित पत्थरों को नदी में डलवा दिया तथा गया के बोधि वृक्ष को कटवा दिया।

मंजूश्रीमूलकल्प के अनुसार हर्ष ने गौड़ नरेश शशांक की राजधानी पुण्ड्र पर आक्रमण कर उस पर विजय अर्जित की किंतु इस विजय के अन्य प्रमाण नहीं मिलते हैं क्यांेकि शशांक की अंतिम तिथ 619 ई. प्राप्त होती है। ह्वेनसांग के अनुसार 637 ई. में उसने जब बोधि वृक्ष को देखा, तब शशांक उसे कटवा चुका था तथा उन्हीं दिनों में शशांक की मृत्यु हुई थी।

(2) पंच भारत पर विजय

ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि जैसे ही हर्ष राजा हुआ, उसने एक विशाल सेना के साथ अपने भाई के हत्यारे से बदला लेने के लिये प्रस्थान किया। वह पूर्व की ओर बढ़ा और लगातार 6 वर्षों तक उन राज्यों से युद्ध करता रहा जो बिना लड़े, उसकी अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उसने पंचभारत पर भी विजय प्राप्त की। पंच भारत में पंजाब, कन्नौज, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा आते थे। इस प्रकार लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भारत उसके अधिकार में आ गया।

(3) वल्लभी पर विजय

उस काल में सौराष्ट्र अर्थात् काठियावाड़ में मैत्रक वंश शासन कर रहा था। वल्लभी उसकी राजधानी थी। यह राज्य उत्तर भारत के कन्नौज और दक्षिण भारत के चालुक्य राज्यों के मध्य में स्थित था। इसलिये सैनिक दृष्टिकोण से उसका बहुत बड़ा महत्त्व था। इन दिनों धु्रवसेन द्वितीय वल्लभी में शासन कर रहा था।

633 ई. में हर्ष ने वल्लभी पर आक्रमण करके ध्रुवसेन को परास्त कर दिया। धु्रवसेन ने हर्ष से मैत्री कर ली। हर्ष ने अपनी कन्या का विवाह धु्रवसेन के साथ कर दिया। सम्भवतः धु्रवसेन ने हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली और उसी के सामन्त के रूप में वह वल्लभी में शासन करने लगा। वल्लभी के अधीन राज्यों- आनंदपुर, कच्छ तथा काठिायावाड़ ने भी हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली।

(4) चालुक्य राज्य पर आक्रमण

वल्लभी राज्य के दक्षिण में चालुक्य वंश शासन कर रहा था। पुलकेशिन (द्वितीय) इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी तथा शक्तिशाली शासक था जो हर्ष का समकालीन था। उसने अपने पड़ौसी राज्यों को नत मस्तक कर अपनी शक्ति का विस्तार किया था। लगभग 634 ई. में हर्ष ने पुलकेशिन के राज्य पर आक्रमण किया।

पुलकेशिन ने नर्मदा के तट पर हर्ष का सामना किया और उसे परास्त कर दिया। हर्ष निराश होकर नर्मदा के तट से लौट आया। नर्मदा ही उसके राज्य की सीमा बन गई। ह्वेनसांग ने भी इस युद्ध में हर्ष की पराजय का उललेख किया है।

(5) सिंध पर विजय

बाणभट्ट के हर्षचरित के अनुसार हर्ष ने सिंध क्षेत्र पर भी आक्रमण किया तथा सिंधुराज को जीतकर उसकी समस्त सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया। ह्वेनसांग ने लिखा है कि जिस समय वह (ह्वेनसांग) सिंधु प्रदेश पहुंचा, उस समय सिंधु प्रदेश एक स्वतंत्र राज्य था। अन्य स्रोतों से भी हर्ष की सिंध विजय के उल्लेख नहीं मिलते।

(6) नेपाल तथा काश्मीर पर विजय

समकालीन साहित्य से ज्ञात होता है कि नेपाल तथा काश्मीर ने भी हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली।

(7) पूर्वी भारत पर विजय

हर्ष को पूर्वी भारत में की गई विजय यात्रा में बड़ी सफलता प्राप्त हुई। उसने मगध पर अधिकार कर लिया और 641 ई. में मगध के राजा की उपाधि धारण की। कामरूप (आसाम) के राजा भास्कर वर्मन से उसकी मैत्री हो गई।

(8) गौड़ नरेश का अंत

यद्यपि हर्ष अपने सबसे बड़े शत्रु शशांक के राज्य का अन्त न कर सका परन्तु बाद में उसके मित्र भास्करवर्मन ने गौड़ राज्य का अन्त कर दिया।

हर्ष का साम्राज्य

हर्ष का साम्राज्य उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तक और पूर्व में आसाम से पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला था। इस सम्पूर्ण प्रदेश में उसका प्रत्यक्ष शासन नहीं था। कुछ भाग में वह स्वयं शासन करता था और कुछ में उसके सामन्त शासक करते थे।

हर्ष का शासन प्रबंध

हर्ष महान् विजेता होने के साथ-साथ कुशल शासक भी था। डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार ने हर्ष की प्रशासकीय प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘इसमें सन्देह नहीं कि वह भारत के महानतम सम्राटों में एक था। उथल-पुथल के काल में उसे दो विश्ृंखलित राज्यों पर शासन करना पड़ा। वह उत्तरी भारत के विशाल क्षेत्र के बहुत बड़े अंश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा।’

हर्ष के शासन की इकाइयां: हर्ष का साम्राज्य अत्यंत विशाल था जिसे राज्य अथवा मण्डल कहते थे। हर्ष ने अपने राज्य में गुप्त शासकों की भांति चार स्तरीय शासन व्यवस्था लागू कर रखी थी- 1. केन्द्रीय शासन, 2. प्रांतीय शासन 3. जिला स्तरीय शासन तथा 4. स्थानीय शासन।

केन्द्रीय शासन

हर्ष की शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी जिसमें सम्राट समस्त शासन का केन्द्र बिंदु था। हर्ष ने थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ गुप्त कालीन शासन व्यवस्था का ही अनुसरण किया।

(1) सम्राट

सम्राट केन्द्रीय शासन का प्रधान था। शासन के विभिन्न भागों पर वह अपनी कड़ी दृष्टि रखता था। युद्ध के समय वह स्वयं रणक्षेत्र में उपस्थित रहकर सेना का संचालन करता था। शान्ति के समय वह अपनी प्रजा के हित के कार्यों को करने में संलग्न रहता था। प्रजा की दशा को जानने के लिए सम्राट अपने राज्य के विभिन्न भागों में यात्राएं करता था। सम्राट का सारा समय धार्मिक कार्यों को करने तथा शासन को सुचारू रीति से चलाने में व्यतीत होता था।

(2) मन्त्रि परिषद

सम्राट को सहायता देने के लिए मन्त्रि परिषद भी होती थी। ये मन्त्री सचिव अथवा अमात्य कहलाते थे। सम्राट के लिये इस परिषद की सलाह मानना अनिवार्य नहीं था। हर्ष का प्रधान सचिव भाण्डि एवं प्रधान सेनापति सिंहनाद था।

(3) शासन के अधिकारी

हर्ष के दानपत्रों में विभिन्न अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। जिनका विवरण इस प्रकार है-

            महासंधिविग्रहाधिकृत : युद्ध और शांति का प्रमुख मंत्री

            महाबलाधिकृत : सर्वोच्च सेनापति

            राजस्थानीय : राज्यपाल

            कुमारामात्य : युवराज

            उपरिक  : प्रांतीय गवर्नर

            विषयपति  : जिला अधिकारी

            भोगपति  : राजकीय कर एकत्रित करने वाला प्रांतीय अधिकारी।

(4) सैन्य प्रबंधन

अपनी दिग्विजय को सफल बनाने तथा साम्राज्य को शत्रुओं के आक्रमणों से सुरक्षित रखने के लिए हर्ष ने एक विशाल सेना का संगठन किया। इस सेना में हाथी, घोड़े तथा पैदल सैनिक हुआ करते थे। हर्ष ने रथ सेना की व्यवस्था नहीं की थी। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की सेना में 60 हजार हाथी थे।

यद्यपि सम्राट स्वयं अपनी सेना का सेनाध्यक्ष होता था और रणक्षेत्र में उसका संचालन करता था परन्तु सेना के रख-रखाव के लिये एक अलग सेनापति होता था जो महाबलाधिकृत कहलाता था। सेना के विभिन्न अंगों के लिए अलग-अलग सेनापति होते थे।

(5) न्याय-व्यवस्था

सम्राट स्वयं न्याय विभाग का सर्वोच्च न्यायाधीश था। वह अपराधियों को दण्ड देता था। हर्ष के शासन काल में दण्ड विधान बड़ा कठोर था। साधारण अपराधों के लिए अर्थदण्ड दिया जाता था और जघन्य अपराधों के लिये हाथ, नाक, कान काट लिये जाते थे। राजद्रोहियों को जीवन भर के लिए जेल में बन्द कर दिया जाता था। दंड विधान की कठोरता के कारण अपराध कम होते थे और लोग शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। उसके शासन काल में चोर एवं डाकू भी थे जो अवसर प्राप्त होते ही प्रजा को लूट लेते थे। सड़कें चोर-डाकुओं से सुरक्षित नहीं थीं। चीनी यात्री ह्वेनसांग कई बार डाकुओं के चक्कर में पड़ गया था।

(6) राजस्व विभाग

हर्ष उदार शासक था। गुप्तों की भांति वह भी अपनी प्रजा से उपज का केवल छठा भाग कर के रूप में लेता था। आयात कर भी बहुत कम था जो सीमा स्थित चुंगीघरों में वसूल किया जाता था। राज्य की आय का बहुत बड़ा भाग विद्वानों को पुरस्कार देने, धार्मिक कृत्यों को सम्पादित करने तथा विभिन्न सम्प्रदायों को दान-दक्षिणा देने में व्यय होता था।

(8) लोकहित के कार्य

हर्ष प्रजापालक शासक था। वह सदैव अपनी प्रजा के कल्याण की चिन्ता करता था। उसने प्रजा का आवागमन सुगम बनाने के लिये कई सड़कें बनवाईं तथा उनके किनारे छायादार वृक्ष लगवाये। यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं बनवाईं। इन धर्मशालाओं में यात्रियों के लिए भोजन, चिकित्सा तथा औषधि की व्यवस्था की गई थी।

नालन्दा तथा अन्य शिक्षा-केन्द्रों को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी। विद्वानों एवं साहित्यकारों को भी राज्य की ओर से सहायता एवं प्रोत्साहन दिया जाता था। हर्ष में उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। विभिन्न धर्मों के मतावलम्बी उससे दान-दक्षिणा प्राप्त करते थे। उसने अनेक मंदिर, चैत्य, विहार, स्तूप आदि बनवाये थे।

हर्ष की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘हर्ष एक विजेता तथा शासक के रूप में तो महान् था ही, वह शान्ति कालीन कलाओं में और भी अधिक महान् था जिनकी विजयें युद्ध की विजयों से कम विख्यात नहीं होतीं।’

(9) प्रयाग की पंचवर्षीय सभा

हर्ष प्रति पांचवें वर्ष प्रयाग में एक सभा का आयोजन करता था। इस अवसर पर वह बुद्ध, सूर्य, शिव आदि देवताओं की प्रतिमाओं की बड़े समारोह के साथ पूजा करता था। इन सभाओं में वह समस्त सम्प्रदाय वालों तथा दीन-दुखियों को दान-दक्षिणा देता था। इसी से वह महादान-भूमि कहलाता था। सम्राट इस अवसर पर अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान में दे देता था। यहाँ तक कि वह अपने मूल्यवान आभूषण भी दान में दे देता था। प्रयाग की एक पंचवर्षीय परिषद् में चीनी यात्री ह्वेनसांग भी विद्यमान था, जिसका उसने आंखों देखा वर्णन किया है।

प्रांतीय शासन

केन्द्रीय राजधानी से सम्पूर्ण साम्राज्य को संभालना सम्भव नहीं था। फलतः हर्ष ने अपने साम्राज्य को गुप्त शासकों की भांति कई प्रान्तों में विभक्त कर रखा था। ये प्रान्त ‘भुक्ति’, देश आदि नामों से पुकारे जाते थे। भुक्ति के शासक राजस्थानीय, राष्ट्रीय, उपरिक आदि कहलाते थे। इन पदों पर प्रायः राजकुल के राजकुमार नियुक्त होते थे।

जिला स्तरीय शासन

प्रत्येक प्रान्त कई ‘विषयों’ में विभक्त रहता था। इनका शासक विषयपति कहलाता था। विषयपति की नियुक्ति प्रांतीय शासक करते थे। अधिष्ठानों में विषयपति के केन्द्र होते थे जहां उनके अधिकरण (न्यायालय) होते थे। विषय अनेक पठकों में विभक्त थे जिन्हें आज के तहसील के समकक्ष माना जा सकता है। प्रांतीय एवं जिला स्तरीय शासकों की सहायता के लिये दण्डिक, चोरोद्धरणिक तथा दण्डपाशिक आदि पुलिस अधिकारी नियुक्त किये जाते थे।

स्थानीय शासन

शासन की सबसे छोटी इकाई गांव होता था। गांव के समस्त मामलों की देखभाल गांव के प्रतिष्ठित लोग करते थे जो ‘महत्तर’ कहलाते थे। गांव के प्रबन्धन के लिए ‘ग्रामिक’ भी होता था। हर्ष के लेखों में ग्राम स्तरीय अन्य अधिकारियों के भी उल्लेख मिलते हैं। आठ कुलों का निरीक्षक अष्टकुलाधिकरण कहलाता था। शुल्क अर्थात् चुंगी वसूलने वाले को शौल्किक कहते थे।

वन, उपवन आदि का निरीक्षक गौल्मिक कहलाता था। भूमिकर का अध्यक्ष धु्रवाधिकरण, गांव का लेखा-जोखा रखने वाला तलवाटक तथा कागज-पत्र रखने वाला अक्षपटलिक कहलाता था। अधिकारियों की इस सूची से अनुमान होता है कि ग्राम शासन पर्याप्त सुदृढ़ था। यह सुदृढ़ता उनकी स्वावलम्बी स्थिति को इंगित करती है।

हर्षवर्धन का धर्म

शैव धर्म

हर्ष चरित के अनुसार हर्ष के पूर्ववर्ती चारों पुष्भूति शासक, शैवधर्म के अनुयायी थे। हर्ष भी प्रारंभ में शैव था जिसकी पुष्टि विभिन्न स्रोतों से होती है। हर्ष ने अपने नाटकों रत्नावली एवं प्रियदर्शिका में भी शिव पार्वती एवं अन्य देवी देवताओं की स्तुति की है।

बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म के प्रति हर्ष का झुकाव बौद्ध भिक्षु दिवाकरमित्र से भेंट होने के बाद हुआ। दिवाकरमित्र ने राज्यश्री को ढूंढने में हर्ष की सहायता की। इस भेंट के बाद लगातार छः वर्षों तक हर्ष युद्धों में व्यस्त रहा। हर्ष ने ह्वेनसांग के प्रभाव से बौद्ध धर्म स्वीकार किया। ह्वेनसांग ने उसे बौद्ध धर्म की महायान शाखा में दीक्षित किया।

महायान धर्म में दीक्षित होने के बाद हर्ष ने कन्नौज में धार्मिक सभा आयोजित की ताकि ह्वेनसांग समस्त धर्मों पर महायान धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध कर सके। अनेक विद्वान इस बात से सहमत नहीं हैं कि हर्ष ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा है कि यद्यपि अंत में हर्ष का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर हो गया था किंतु संभवतः उसने अपना प्राचीन धर्म छोड़ा नहीं।

न ही अन्य धर्मों को छोड़कर बौद्ध धर्म को आश्रय दिया। मजूमदार के पास अपनी बात सिद्ध करने का कोई प्रमाण नहीं है जबकि ह्वेनसांग तथा बाणभट्ट दोनों ही स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि हर्ष ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। हर्ष द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु धर्म सभायें आयोजित करना, स्तूप व विहारों का निर्माण करना तथा नालंदा विश्वविद्यालय को दान देना, काश्मीर नरेश से महात्मा बुद्ध के दांत प्राप्त करना, हर्ष के बौद्ध धर्म ग्रहण करने की पुष्टि करता है।

हर्ष धर्म-सहिष्णु राजा था, बौद्ध धर्म ग्रहरण करने पर भी उसने अन्य धर्मों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाया। कन्नौज एवं प्रयाग की सभाओं में उसने बुद्ध के साथ-साथ शिव एवं सूर्य की भी पूजा की।

बौद्ध धर्म का प्रचार

हर्ष के प्रयासों से चीन में महायान धर्म का प्रचार हुआ। भारत में उसके प्रचार की गति तेज हुई। ह्वेनसांग के सम्मान में हर्ष ने गया में धर्म सभा का आयोजन किया जिसमें 20 राज्यों के राजाओं, धार्मिक विद्वानों ब्राह्मणों, हीनयान तथा महायान के हजारों अनुयायियों ने भाग लिया।

इस अवसर पर कन्नौज में विशाल संघाराम तथा 100 फुट ऊँचा बुर्ज बनवाया गया। इसमें हर्ष के कद के बराबर की भगवान बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित की गई। हर्ष ने काश्मीर से बुद्ध का दांत मंगवाकर कन्नौज में प्रतिष्ठापित किया। इस सभा में ह्वेनसांग ने महायान सम्प्रदाय की श्रेष्ठता सिद्ध की।

ह्वेनसांग के विवरण के अनुसार इस अवसर पर ब्राह्मणों द्वारा संघाराम में आग लगा दी गई तथा हर्ष की हत्या करने का प्रयास किया गया। इस आरोप में 500 ब्राह्मणों को गया से निष्कासित किया गया।

महामोक्ष परिषद का आयोजन: बौद्ध धर्म ग्रहण करने के उपरांत भी हर्ष प्रत्येक पांचवे वर्ष में प्रयाग में महामोक्ष परिषद का आयोजन करता रहा जिसमें बुद्ध सूर्य तथा शिव की पूजा होती थी। इस अवसर पर वह अपनी समस्त सम्पत्ति यहां तक कि अपने वस्त्र भी दान में दे देता था।

ह्वेनसांग ने छठे परिषद का उल्लेख किया है। इस अवसर पर पांच लाख श्रमण, निर्ग्रन्थ, ब्राह्मण, निर्धन, अनाथ आदि एकत्र हुए। यह परिषद 75 दिनों तक चली। इसमें प्रथम दिन बुद्ध की, दूसरे दिन सूर्य की तथा तीसरे दिन शिव की पूजा हुई। चौथे दिन दान दिया गया।

हर्षवर्धन के शासन काल में सांस्कृतिक विकास

हर्ष के शासन काल में साम्राज्य में वृद्धि तथा प्रशासनिक कौशल के साथ-साथ कला और साहित्य की भी उन्नति हुई। हर्ष स्वयं कला और साहित्य का अनुरागी था।

वास्तुकला तथा मूर्तिकला

इस काल में भारत में बड़ी संख्या में हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्मों के मंदिर, चैत्य तथा संघाराम बने। एलोरा का मंदिर, एलिफैण्टा का गुहा मंदिर, कांची में मामल्लपुरम् का शैल मंदिर इसी काल में बने। मंदिरों के निर्माण के कारण मूर्तिकला का भी पर्याप्त विकास हुआ।

बौद्धों ने बुद्ध की तथा हिन्दुओं ने शिव तथा विष्णु आदि देवताओं की सुंदर मूर्तियों का निर्माण किया। इस काल की मूर्तिकला में भारशिव शैली तथा मथुरा शैली का सम्मिलन हो गया तथा गोल मुख के स्थान पर लम्बे चेहरे बनाये जाने लगे। अजंता की गुफा संख्या 1 एवं 2 की मूर्तियां इसी काल की हैं।

चित्रकला

इस काल के चित्र अजन्ता की गुफा संख्या 1 और 2 में देखने को मिलते हैं। ये दो प्रकार के चित्र हैं- प्रथम प्रकार के चित्रों में गति और जीवन का अभाव है जबकि द्वितीय प्रकार के चित्रों में संयोजन की समानता का अभाव है। एक चित्र में पुलकेशिन (द्वितीय) को फारस के सम्राट खुसरो परवेज का स्वागत करते हुए दिखाया गया है। इन गुफाओं में बुद्ध तथा पशु-पक्षियों के अनेक चित्र हैं।

अन्य कलायें

हर्ष के काल में उत्तरी भारत में संगीत कला, मुद्रा कला तथा नाट्य कलाओं का विकास हुआ। इनके विकास में हर्ष तथा उसके समकालीन राजाओं ने पर्याप्त रुचि ली।

साहित्य का विकास

हर्षवर्धन विद्वानों का सम्मान करता था एवं उनका आश्रयदाता था। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष ने अपने दरबारी कवियों से रचनाएं लिखने के लिये कहा था जिनके संग्रह को जातकमाला कहा जाता है। हर्ष अपने राजकोष का एक भाग, विद्वानों को पुरस्कार देने में व्यय करता था।

हर्ष के दरबारी लेखक बाणभट्ट ने हर्षचरित तथा कादम्बरी नामक ग्रंथों की रचना की। हर्ष ने संस्कृत में तीन नाटक- नागानंद, रत्नावली तथा प्रियदर्शिका की रचना की। संस्कृत साहित्य में इन नाटकों का विशेष स्थान है। बाणभट्ट ने हर्ष को सुंदर काव्य रचना में प्रवीण बताया है।

हर्ष की सभा में बाणभट्ट के साथ-साथ मयूर, हरिदत्त, जयसेन, मातंग, दिवाकर, भृतहरि आदि प्रसिद्ध कवि और लेखक रहते थे। हर्ष के समय में अन्य लेखकों ने भी बड़ी संख्या में ग्रंथ लिखे।

हर्षवर्धन की मृत्यु

लगभग 42 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन करने के उपरान्त 648 ई. में हर्ष का निधन हो गया। उसके कोई पुत्र नहीं था, इसलिये उसकी मुत्यु के उपरांन्त उसके मंत्री अर्जुन ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। साम्राज्य बिखर गया और कई नये राज्यों की स्थापना हो गई। इस प्रकार पुष्यभूति वंश का अन्त हो गया।

हर्षवर्धन की मृत्यु के साथ ही भारत के इतिहास में प्राचीन क्षत्रिय राजकुल नेपथ्य में चले जाते हैं तथा राजपूत राजकुलों का उदय होता है। हर्षवर्धन की मृत्यु के साथ ही भारत के इतिहास में प्राचीन क्षत्रिय राजकुल नेपथ्य में चले जाते हैं तथा राजपूत राजकुलों का उदय होता है। ये राजपूत कुल लगभग पांच शताब्दियों तक पश्चिम की ओर से होने वाले इस्लामिक आक्रमणों का सामना करते हैं तथा मुसलमानों को भारत भूमि से दूर रखने में सफल रहते हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – हर्षवर्धन

हर्षवर्धन

हर्ष की उपलब्धियाँ

ह्वेनसांग की भारत यात्रा

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