चीनी चात्री ह्वेनसांग की भारत यात्रा सातवीं शताब्दी ईस्वी में हुई। उस समय उत्तर भारत में हर्षवर्धन बहुत बड़े क्षेत्र पर शासन कर रहा था। ह्वेनसांग की भारत यात्रा के विवरण से हमें सातवीं शताब्दी ईस्वी के भारत के इतिहास की विश्वसनीय जानकारी प्राप्त होती है।
चीनी चात्री ह्वेनसांग
ह्वेनसांग एक चीनी यात्री था, जो हर्षवर्धन के शासन काल में भारत आया था। ह्वेनसांग का जन्म 605 ई. में चीन के एक नगर में हुआ था। ह्वेनसांग का बड़ा भाई बौद्ध भिक्षु था। ह्वेनसांग ने भी उसका अनुसरण किया और बौद्ध भिक्षु के रूप में दीक्षा ले ली। ह्वेनसांग बाल्यकाल से ही बड़ा जिज्ञासु था और सदैव सत्य की खोज में संलग्न रहता था।
उसने चीन के विभिन्न स्थानों में जाकर अध्ययन किया और अपने ज्ञान की वृद्धि की। अन्त में वह चड्गगन में निवास करने लगा। यहीं पर उसने भारत आने की योजना बनाई। वह अपने कुछ मित्रों के साथ चीन सम्राट् के पास गया और उससे भारत यात्रा में सहायता देने की प्रार्थना की। सम्राट ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की परन्तु ह्वेनसांग निराश नहीं हुआ।
ह्वेनसांग की भारत यात्रा
626 ई. में जब उसकी अवस्था 24 वर्ष की थी, वह दो अन्य साहसिक व्यक्तियों को अपने साथ लेकर भारत के लिए चल पड़ा। कुछ समय तक ह्वेनसांग के साथ यात्रा करने के उपरान्त उसके दोनों साथी हताश हो गए और अपने देश लौट गए परन्तु ह्वेनसांग ने साहस नहीं छोड़ा और मार्ग की कठिनाईयांे को झेलता हुआ आगे बढ़ता गया। मार्ग में व्यापारियों से उसे बहुत सहायता मिली। मार्ग की भयंकर कठिनाइयों को सहन करता हुआ ह्वेनसांग अपने गन्तव्य की ओर बढ़ता गया। जिस किसी राज्य में ह्वेनसांग गया, वहीं उसका स्वागत तथा सम्मान हुआ और उसे सहायता मिली।
ह्वेनसांग 631 ई. में काश्मीर पहुंचा। यहाँ पर उसने एक बौद्ध विहार में रहकर दो वर्ष अध्ययन मंें व्यतीत किए। इसके उपरांत वह काश्मीर से मथुरा तथा थानेश्वर आदि स्थानों की यात्रा करता हुआ हर्ष की राजधानी कन्नौज पहुंचा। हर्ष ने उसका बड़ा स्वागत तथा आदर-सत्कार किया।
उसने कन्नौज, अयोध्या, श्रावस्ती, कपिलवस्तु आदि तीर्थ-स्थानों की यात्रा की। वह प्रयाग, कौशाम्बी, अयोध्या, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर, पाटलिपुत्र, गया तथा राजगृह होता हुआ नालन्दा पहुंचा। वहाँ पर उसने संस्कृत तथा बौद्ध-ग्रन्थों के अध्ययन में दो वर्ष व्यतीत किए।
640 ई. में वह कांचीपुर अर्थात् कांजीवरम पहुंचा। यहाँ से वह महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, सिन्धु, मुल्तान तथा गजनी होता हुआ काबुल नदी के किनारे पहुंच गया। वहाँ से पामीर की पहाड़ि़यों को पार करके काशगर तथा खोतान होता हुआ अपने देश को लौट गया।
चीन के राजा ने ह्वेनसांग का बड़ा स्वागत तथा आदर सत्कार किया। ह्वेनसांग ने अपने जीवन का शेष भाग भारत से लाये हुए ग्रंथों का अनुवाद करने तथा अपनी यात्रा के विवरण लिखने में व्यतीत किया। 664 ई. में ह्वेनसांग का निधन हो गया परन्तु भारत तथा चीन के इतिहास में ह्वेनसांग का नाम अमर हो गया।
ह्वेनसांग की भारत यात्रा का विवरण
ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा का वर्णन करते हुए भारत की तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दशा पर अच्छा प्रभाव डाला है।
(1) राजनीतिक दशा
तत्कालीन राजनीतिक दशा का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्ष का शासन प्रबंध बड़ा ही अच्छा था। वह अपनी प्रजा की सुरक्षा तथा सुख का बड़ा ध्यान रखता था। राज्य कर बहुत कम तथा हल्के थे। इससे प्रजा बड़ी सुखी तथा सम्पन्न थी। लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। श्रमिकों से बेगार नहीं ली जाती थी।
किसानों से भूमि की उपज का छठा भाग राजकीय कर के रूप में लिया जाता था। राजकीय भूमि चार भागों में बंटी थी। एक भाग की आय से राजकीय व्यय चलता था। दूसरा भाग राजकीय कर्मचारियों को जागीर के रूप में दिया जाता था। तीसरे भाग की आय विद्या तथा कला कौशल में व्यय की जाती थी।
चौथे भाग की आय विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों की सहायता करने तथा दान-दक्षिण देने में व्यय की जाती थी। सड़कें बड़ी सुन्दर तथा चौड़ी होती थीं और सड़क के किनारे छायादार वृक्ष लगे होते थे। यद्यपि सड़कों पर सुरक्षा की पूरी व्यवस्था रहती थी, परन्तु वे डाकुओं से मुक्त नहीं थीं।
यात्रियों को राज्य की ओर से हर प्रकार की सुविधा देने का प्रयत्न किया जाता था। अपराधियों को बड़े कठोर दण्ड दिये जाते थे। राजद्राहियों को जीवन भर के लिए बन्दीगृह में डाल दिया जाता था। बड़े अपराधों के लिए अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था और लोगों के हाथ, पैर, नाक-कान काट लिए जाते थे। व्यापार से राज्य को अच्छी आय होती थी। हर्ष की सेना बड़ी विशाल थी और उसके सैनिक शस्त्र चलाने में बड़े कुशल थे।
(2) सामाजिक दशा
ह्वेनसांग के विवरण से भारत की तत्कालीन सामाजिक दशा का ज्ञान होता है। वह लिखता है कि भारत के लोग बड़ी सरल प्रकृति के तथा ईमानदार होते थे। उनका जीवन बड़ा ही सादा था। लोगों का रहन-सहन तथा खान-पान आडम्बरहीन था। दूध, घी, भुने चने तथा मोटी रोटी लोगों का साधारण भोजन था।
मांस, लहसुन, प्याज आदि का प्रयोग बहुत कम लोग करते थे। मिट्टी तथा काठ के बर्तनों में केवल एक बार भोजन किया जाता था, फिर उन्हें फेंक दिया जाता था। जाति-प्रथा के बन्धन कठोर थे। लोग छूआछूत का बड़ा विचार करते थे। वस्त्रों की स्वच्छता पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। अन्तर्जातीय विवाहों की प्रथा नहीं थी।
बाल-विवाह का प्रचलन था। पर्दे की प्रथा नहीं थी और स्त्री-शिक्षा पर ध्यान दिया जाता था। सती-प्रथा का प्रचलन था। विधवा-विवाह की प्रथा नहीं थी। विद्या तथा कला कौशल में लोगों की बड़ी रुचि थी। संस्कृत ही विद्वानों की भाषा थी। समाज में संन्यासियों का बड़ा आदर था। वे जनता में ज्ञान का प्रचार करते थे। सन्यासियों पर निन्दा तथा प्रशंसा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।
(3) आर्थिक दशा
ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्ष की प्रजा सुखी तथा सम्पन्न थी। अधिकांश लोग खेती करते थे। खेती ही उनकी आजीविका का प्रधान साधन थी। वैश्य जाति व्यापार करती थी। व्यापार जल तथा स्थल दोनों ही मार्गों से होता था। उन दिनों भवन इतने सुन्दर बनते थे कि ह्वेनसांग उनकी सुन्दरता को देखकर आश्चर्य चकित हो गया था।
निर्धन लोगों के मकान भी ईंट अथवा काठ के बने होते थे। इन भवनों पर भांति-भांति की चित्रकारी बनी रहती थी। देश धन-धान्य से पूर्ण था और लोग सुखी थे। ह्वेनसांग स्वयं बहुमूल्य धातुओं की बनी बुद्ध की मूर्तियां अपने साथ चीन ले गया था।
(4) धार्मिक दशा
ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि उन दिनों भारत में ब्राह्मण धर्म का अधिक प्रचार था। ब्राह्मणों को समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता था। प्रजा में यज्ञ आदि खूब होते थे। अधिकांश प्रजा वैष्णव अथवा शैव धर्म की अनुयायी थी। थानेश्वर में शैव धर्म का प्रचलन अधिक था। मंदिरों में पूजा के लिए देव मूर्तियों की स्थापना की जाती थी।
ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म का भी प्रचार था। जिन क्षेत्रों में ब्राह्मण धर्म उन्नत दशा में था, उन क्षेत्रों में बौद्ध धर्म का जोर कम था। बौद्ध धर्म के महायान तथा हीनयान दोनों ही पंथों का प्रचलन था। पश्चिमोत्तर भारत में बौद्ध धर्म निष्प्राण सा हो गया था परन्तु पूर्वी भारत में उसका प्रचार था।
बौद्धों की संख्या धीरे-धीरे घटती जा रही थी, परन्तु उनके विहार, मठ, स्तूप आदि अब भी बहुत बड़ी संख्या में विद्यमान थे। बौद्ध लोग भी मूर्ति पूजा करते थे। ये लोग बुद्ध को ईश्वर का अवतार मानने लगे थे और उनकी मूर्ति बनाकर पूजा करते थे।
(5) सांस्कृतिक दशा
ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्ष के राज्य में शिक्षक विद्यार्थियों से सहानुभूति रखते थे और उन्हें परिश्रम के साथ पढ़ाते थे। शिक्षा निःशुल्क थी। विद्यार्थियों से व्यक्तिगत सेवा के अतिरिक्त कुछ नहीं लिया जाता था। अध्यापक योग्य तथा चरित्रवान होते थे। नालन्दा उस समय का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय था जो पटना जिले में राजगृह के निकट स्थित था।
ह्वेनसांग ने स्वयं दो वर्षों तक इस विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। इस विश्वविद्यालय की इतनी अधिक ख्याति थी कि विदेशों से भी विद्यार्थी अध्ययन करने के लिए आते थे। नालंदा में कई हजार भिक्षु निवास करते थे। यद्यपि नालन्दा प्रधानतः बौद्ध शिक्षा का केन्द्र था परन्तु इनमें समस्त धर्मों की शिक्षा दी जाती थी।
विद्वानों को वाद-विवाद करने की पूरी स्वतंत्रता थी। विश्वविद्यालय के नियम कठोर थे जिनका पालन अध्यापकों तथा विद्यार्थियों दोनों को करना पड़ता था। इस संस्था में आचार्यों की संख्या लगभग 1000 और विद्यार्थियों की संख्या लगभग 10,000 थी। इसका व्यय 220 गांवों की आय से चलता था। इस काल में बौद्ध शिक्षा के साथ-साथ ब्राह्मण शिक्षा भी बड़ी उन्नत दशा में थी।
मूल अध्याय – हर्षवर्धन
ह्वेनसांग की भारत यात्रा