Tuesday, December 30, 2025
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महाराणा प्रताप का शौर्य (122)

हल्दीघाटी के युद्ध (War of Haldighati) में महाराणा प्रताप का शौर्य (Valor of Maharana Pratap) देखते ही बनता था। भारतीय राजा स्वयं युद्ध के मैदान में उतरकर लड़ते थे और अपने सैनिकों तथा सामंतों के समक्ष उच्च आदर्श प्रस्तुत करते थे। महाराणा प्रताप का शौर्य इसी उच्च आदर्श का प्रदर्शन था।

18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध आरम्भ हुआ जिसकी पहल महाराणा प्रताप ने की और वह युद्ध के प्रारंभिक भाग में ही मुगलों पर भारी पड़ गया। महाराणा की सेना के हरावल में हकीम खाँ सूरी की सेना थी जो मुगलों की सेना में धंसकर आगे बढ़ गई।

इस पर महाराणा की सेना का मध्य भाग मुगलों पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ा। मेवाड़ी सेना के इस भाग की अध्यक्षता स्वयं महाराणा प्रताप के हाथों में थी।

यह लड़ाई (War of Haldighati) हल्दीघाटी में आरम्भ हुई थी और लड़ाई का मध्य आते-आते दोनों पक्षों के सैनिक लड़ते-लड़ते रक्ततलाई में पहुंच गये जहाँ युद्ध का तीसरा और सबसे भयानक चरण आरम्भ हुआ।

बड़ी संख्या में सैनिक कट-कट कर मैदान में गिरने लगे। मैदान मनुष्यों, हाथियों एवं अश्वों के कटे अंगों तथा शवों से भर गया और रक्त की नदी बह निकली। रक्त तथा मिट्टी से बनी कीचड़ में पैदल सैनिक तथा घोड़े फिसलने लगे। इस कारण लड़ाई और भी कठिन हो गई।

महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) लगातार अपने शत्रुओं को गाजर मूली की तरह काटता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसका निश्चय अकबर के सेनापति मानसिंह कच्छवाहे को सम्मुख युद्ध में मार डालने का था।

महाराणा अपने नीले घोड़े पर सवार था जो विश्व-इतिहास में चेटक (Chetak) के नाम से विख्यात है। महाराणा प्रताप को देखते ही मुगल सेना में भगदड़ सी मची जिसके कारण महाराणा प्रताप तेजी से आगे बढ़ता हुआ मानसिंह (Kunwar Masingh) के हाथी के सामने जा पहुंचा। महाराणा प्रताप का शौर्य देखते ही बनता था।

देवीसिंह मंडावा ने अपनी पुस्तक स्वतंत्रता के पुजारी महाराणा प्रताप में लिखा है कि मुगल अमीर बहलोल खाँ, कच्छवाहा मानसिंह के ठीक आगे उसकी रक्षा करता हुआ चल रहा था। जब महाराणा प्रताप का घोड़ा कुंअर मानसिंह की तरफ बढ़ने लगा तो बहलोल खाँ ने महाराणा प्रताप पर वार करने के लिये अपनी तलवार ऊपर उठायी।

उसी समय महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) ने अपना घोड़ा बहलोल खाँ पर कुदा दिया तथा उस पर अपना भाला दे मारा जिससे बहलोल खाँ का बख्तरबंद फट गया और बहलोल खाँ वहीं पर मृत्यु को प्राप्त हुआ। इस प्रकार प्रताप का घोड़ा चेटक मुगल सेनापति मानसिंह के हाथी के ठीक सामने पहुँच गया।

महाराणा ने चेटक को चक्कर दिलाकर कुंवर मानसिंह (Kunwar Mansingh) के हाथी के सामने स्थिर किया तथा मानसिंह से कहा कि तुमसे जहाँ तक हो सके, बहादुरी दिखाओ, प्रतापसिंह आ पहुँचा है। इसी के साथ महाराणा प्रताप का शौर्य अपने चरम पर पहुंच गया।

महाराणा के घोड़े ने अपने स्वामी का संकेत पाकर मानसिंह के हाथी की सूण्ड पर अपने दोनों अगले पैर टिका दिये और महाराणा ने मानसिंह पर भाले का भरपूर वार किया परन्तु मानसिंह हाथी के हौदे में झुक गया जिससे महाराणा का भाला उसके कवच में लगा और मानसिंह बच गया।

कुछ लोग मानते हैं कि महाराणा का भाला लोहे के हौदे में लगा जिससे मानसिंह बच गया परन्तु नीचे लिखे एक प्राचीन पद्य के अनुसार भाला बख्तरबंद में लगा था-

      वाही  राण  प्रतापसी  बखतर में बर्छी।

     जाणे झींगरन जाळ में मुँह काढ़े मच्छी।

अर्थात्- महाराणा प्रताप ने मानसिंह के बख्तरबंद में अपनी बर्छी का प्रवेश करवाया। वह इस प्रकार दिखाई देने लगी जैसे कोई मछली किसी जाल के छेद में से मुँह निकाले पड़ी हो!

जब मानसिंह (Kunwar Masingh) हौदे में गिर पड़ा तो महाराणा प्रताप ने समझा कि मानसिंह मर गया। महाराणा के घोड़े ने अपने दोनों अगले पैर मानसिंह के हाथी की सूण्ड से हटा लिए। इसी समय मानसिंह के हाथी की सूण्ड में पकड़ी हुई तलवार से चेटक का पिछला एक पैर जख्मी हो गया। महाराणा ने मानसिंह को मारा गया समझ कर घोड़े को पीछे मोड़ लिया।

इस युद्ध का उस समय का बना हुआ एक बड़ा चित्र उदयपुर में मौजूद है जो ई.1911 में दिल्ली दरबार के समय आयोजित प्रदर्शनी में रखा गया था। चित्र में हाथी पर बैठे मानसिंह पर महाराणा प्रताप द्वारा भाले का प्रहार (The spear attack by Maharana Pratap on Man Singh) अंकित है। इस चित्र में महाराणा प्रताप का शौर्य बहुत खूबसूरती से अंकित किया गया है।

रक्ततलाई में चल रहा युद्ध का तीसरा चरण भी महाराणा प्रताप के पक्ष में जा रहा था इसलिये मुगल सेना में भयानक निराशा छा गई और उसके पैर उखड़ने लगे। अचानक मुगल सेना में यह अफवाह फैल गई कि शहंशाह अकबर स्वयं अपनी सेना लेकर आ रहा है।

मुगल सेना जब भी परास्त होने लगती थी या उसमें भगदड़ मच जाती थी, तब मुगल अधिकारियों द्वारा सुनियोजित रूप से मुगल सैनिकों एवं शत्रुपक्ष के सैनिकों में यह अफवाह फैलाई जाती थी कि बादशाह अपनी विशाल सेना लेकर आ पहुँचा है।

इस अफवाह को सुनकर भागते हुए मुगल सैनिक थम जाते थे और दुगुने जोश से लड़ने लगते थे। इस चाल से कई बार, हारी हुई बाजी पलट जाती थी।

हल्दीघाटी के युद्ध (War of Hadighati) में भी जब मुगल सेना में भगदड़ मच गई तो मुगलों की चंदावल सेना के बीच यह अफवाह उड़ाई गई। यह चाल सफल रही तथा भागती हुई मुगल सेना ने पलटकर राणा को घेर लिया। इससे महाराणा के प्राण संकट में आ गये।

अबुल फजल ने लिखा है- ‘अल्लाह की ओर से सहायता आयी, विजय की वायु इस्लाम वालों की आशाओं के गुलाब के पौधों को हिलोरें देने लगी और स्वामिभक्ति में अपने को न्यौछावर करने को उत्सुक लोगों की सफलता की गुलाब-कलियां खिल उठीं।

अहंकार और अपने को ऊँचा मानने का स्वभाव अपमान में बदल गया। सदा-सर्वदा रहने वाले सौभाग्य की एक और नयी परीक्षा हुई। सच्चे हृदय वालों की भक्ति बढ़ गई। जो सीधे-सादे थे, उनके दिल सच्चाई से भर गये।

जो शंकाएं किया करते थे उनके लिये स्वीकार-शक्ति और विश्वास की प्रातःकालीन पवित्र वायु बहने लगी, शत्रु के विनाश का रात का गहन अन्धकार आ गया। लगभग 150 गाजी रणक्षेत्र में काम आये और शत्रु पक्ष के 500 विशिष्ट वीरों पर विनाश की धूल के धब्बे पड़े।’

महाराणा पर चारों ओर से भयानक प्रहार होने लगे। इस चौथी और अंतिम मुठभेड़ में महाराणा प्रताप के शरीर पर सात घाव लगे, तीन घाव भाले से, एक घाव बंदूक की गोली से तथा तीन घाव तलवारों से। शत्रु उस पर बाज की तरह गिरते थे परंतु वह अपना छत्र नहीं छोड़ता था। वह तीन बार शत्रुओं के समूह में से निकला। संकट की इस घड़ी में महाराणा प्रताप का शौर्य (Valor of Maharana Pratap) ही उसकी रक्षा कर रहा था।

एक बार जब महाराणा प्रताप सैनिकों की भीड़ में दब कर कुचल जाने ही वाला था कि झाला सरदार मानसिंह (Jhala Manna) तेजी से महाराणा की ओर दौड़ा और महाराणा को इस विपत्ति से निकाल कर ले गया।

आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, जदुनाथ सरकार तथा वॉल्टर ने इस मेवाड़ी सामंत का नाम झाला बीदा लिखा है जबकि कर्नल टॉड ने इसका नाम झाला मन्ना लिखा है। वस्तुतः झाला मानसिंह को ही झाला बीदा एवं झाला मन्ना के नामों से जाना जाता था।

झाला मानसिंह ने प्रताप के घोड़े पर लगा राजकीय छत्र उतारकर स्वयं अपने घोड़े पर लगा लिया और शत्रुओं को ललकार कर बोला- ‘मैं महाराणा हूँ!’  

इस समय हल्दीघाटी का युद्ध  (War of Hadighati) अपने चरम पर जा पहुंचा था।                                            

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

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