Sunday, August 17, 2025
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धर्म – पुरुषार्थ-चतुष्टय (1)

पुरुषार्थ में धर्म का स्थान सर्वोपरि है परन्तु यह किसी विशेष प्रकार के धार्मिक विश्वासों, सम्प्रदायों की मान्यताओं अथवा ईश्वर की विशिष्ट उपासना पद्धतियों तक ही सीमित नहीं है। पुरुषार्थ के अर्थ में इसका आशय अत्यंत व्यापक है। इसका आशय स्वयं को संयमित, मर्यादित, अनुशासित करने से है।

इस प्रकार ‘धर्म’ व्यक्ति के चिंतन, आचरण और व्यवहार की एक आदर्श-संहिता है जो उसके कार्यों को देश, काल और पात्र के अनुसार व्यवस्थित, नियमित और नियंत्रित करता है तथा उसे निर्मल और पाप-रहित जीवन-यापन के लिए प्रेरित करता है। जिन कर्मों से मनुष्य, मुनष्यत्व को प्राप्त करता है, उसी को धर्म कहते हैं। इस प्रकार पुरुषार्थ के संदर्भ में इसका आशय उसकी व्यक्तिगत नैतिकता से है।

वेदों में मनुष्य-मात्र के लिए जिन कर्मों का विधान किया गया है, उन्हें धर्म कहा जा सकता है। महाभारत में आचार अथवा सदाचार को धर्म का लक्षण माना गया है तथा आचार से ही धर्म को फलीभूत होने वाला कहा गया है। आचार (सद्-आचरण) और धर्म को एक-दूसरे का पूरक मानकर आचार को ही परमधर्म स्वीकार किया गया है।

बौद्ध और जैन साहित्य में भी शुद्ध और सात्विक आचरण पर जोर दिया गया है, यह शुद्ध और सात्विक आचरण ही धर्म है। मनु का कथन है कि वेद और समृतियों में वर्णित आचार ही श्रेष्ठधर्म है। इस प्रकार ‘धर्म’ आचरण की वह संहिता है जिसके माध्यम से व्यक्ति समाज के सदस्य के रूप में और एक व्यक्तित्त्व के रूप मे नियंत्रित होता हुआ क्रमशः विकसित होता हुआ, अन्त में चरम उद्देश्य अर्थात् ‘मोक्ष’ की प्राप्ति करता है।

धर्म के तीन मूल कार्य हैं-

(1.) आत्म-नियंत्रण

(2.) व्यक्तित्त्व का उत्थान और

(3.) मोक्ष की उपलब्धि।

धर्म के द्वारा मनुष्य अपने कर्त्तव्यों और व्यवहारों को परिष्कृत करता है तथा बुरी कामनाओं को त्याग कर सद्-कामनाओं की पूर्ति करता है। इसलिए मनुष्य-मात्र का कर्त्तव्य है कि उसका प्रत्येक कार्य और उसका नित्य-स्वभाव नैतिकता से युक्त हो एवं सदाचरण पूर्वक संचालित हो। इससे मनुष्य के जीवन को पूर्णता प्राप्त होती है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि धार्मिकता ऐसे मनुष्य की वह सहज प्रवृत्ति है जो किसी को क्लेश नहीं पहुँचाता, अपितु लोक कल्याण के माध्यम से समाज को सुखी बनाता है और स्वयं सुखी होता है।

मनु ने धर्म के चार आधार बताए हैं- (1.) श्रुति (वेद), (2.) स्मृति (धर्मशास्त्र), (3.) सदाचरण (नैतिक आचरण) और (4.) आत्मतुष्टि (संतोष)। धर्मसूत्रों ने वेदों, स्मृतियों तथा शीलगत व्यवहार को धर्म का मूल बताया है। वशिष्ट के अनुसार वेद और समृतियां, सदाचार से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

वेदों और स्मृतियों में मनुष्य के लिए जो कर्त्तव्य निर्देशित किए गए हैं, उनका निष्ठापूर्वक पालन ही धर्म है। भिन्न-भिन्न देशों और वर्गों के सद्-आचार भिन्न हो सकते हैं और एक जैसे भी, किंतु उनका मूल नैतिकता में निहित है। सामान्यतः सत्य-भाषण, नीति-युक्त आचरण और नैतिक व्यवहार को सदाचार माना जाता है। धर्मग्रन्थों में वर्णित कुछ सदाचरण युग के साथ बदल जाते हैं किन्तु प्रत्येक युग में उनका आधार वही रहते हैं।

साधारणधर्म

प्रत्येक स्थान एवं प्रत्येक युग में किए जाने वाले अपरिवर्तनीय-कर्त्तव्य एवं आचरण को ‘साधारणधर्म’ कहा जाता है। ‘साधारणधर्म’ मनुष्य के मानवता-युक्त नैतिक आचरण से सम्बन्धित होता है। समस्त मानव मूल्यों का नियोजन साधारण धर्म के अन्तर्गत होता है, जो प्रायः समस्त व्यक्तियों के लिए अनुकरणीय होता है। सदा सत्य बोलना, हिंसा न करना, किसी का धन न हड़पना, पराई स्त्री को माता समझना, ब्राह्मण, गौ, स्त्री, अशक्त एवं शरणागत की रक्षा करना मनुष्य-मात्र के ‘साधारणधर्म’ हैं।

विशिष्टधर्म

देश, काल एवं पात्र के साथ बदलने वाले ‘कर्त्तव्य’ अथवा ‘सदाचरण’ को ‘विशिष्ट धर्म’ कहा जाता है। सत्य बोलना साधारण धर्म है किंतु किसी परिस्थिति विशेष में किसी निर्दोष प्राणी के प्राण बचाने के लिए मिथ्या भाषण करना ‘विशिष्ट धर्म’ है। देश-धर्म, जाति-धर्म और कुल धर्म भी विशिष्ट धर्म हैं। शास्त्रकारों ने कई प्रकार के अन्य स्मार्त-धर्मों का भी उल्लेख किया है, जैसे- वर्णधर्म, आश्रमधर्म, वर्णाश्रम धर्म, गूढ़धर्म और नैमित्तिक धर्म।

धर्म के लक्षण

अलग-अलग धर्माचार्यों ने धर्म के अलग-अलग लक्षण बताए हैं। शास्त्रों में धर्म के तीस लक्षण भी वर्णित हैं। मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं-

धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम्।।

अर्थात् धर्म के दस लक्षण हैं- धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध।

सत्य

शास्त्रों में में कहा गया है कि ‘सत्यम् वद् धर्मम् चर’, अर्थात् सत्य बोलो और धर्म का आचरण करो। मनु के अनुसार, सत्य बोले, प्रिय बोले, सत्य भी अप्रिय न बोले और प्रिय भी असत्य न बोले, यही सनातन धर्म है। सत्य सम्भाषण से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। सत्य से व्यक्ति और समाज दोनों की उन्नति होती है।

समस्त मानव-व्यवहारों का आधार सत्य है। असत्य आचरण से मन कलुषित तथा समाज दूषित होता है। अतः विकट से विकट परिस्थिति में भी मनुष्य को सत्य बोलना चाहिए। दान ध्यान, सहिष्णुता, लज्जा, दया, अहिंसा, निष्पक्षता, इन्द्रिय-निग्रह, सहर्ष कष्ट सहन, विवेक आदि को सत्य माना गया है।

ब्रह्मचर्य

स्त्री संसर्ग से दूर रहने को ब्रह्मचर्य कहते हैं। मन की काम-वासनाओं पर नियंत्रण करना ही इसका उद्देश्य है। इससे शरीर बलिष्ठ रहता है, मन अपने काम पर केन्द्रित रहता है और मनुष्य ब्रह्म अर्थात् ईश्वर की कृपा प्राप्त करता है। इस व्रत का पालन करने से व्यक्ति के निजी जीवन में श्रेष्ठता आती है तथा समाज में नैतिकता का प्रसार होता है।

अहिंसा

उपनिषदों में ‘अहिंसा’ को ‘परमधर्म’ कहा गया है। किसी भी प्राणी को अपने मन, वचन एवं कर्म से हानि नहीं पहुँचाना ही अहिंसा है। मनु के अनुसार जो मनुष्य जीवों का वध तथा बंधन नहीं करना चाहता, वह सबका हिताभिलाषी होकर अत्यन्त सुख प्राप्त करता है। समाज में शांति की स्थापना के लिए अहिंसा अत्यंत आवश्यक है।

इन्द्रिय-निग्रह

मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों (आंख, नाक, कान, जीभ एवं त्वचा) से सुख-दुःख का अनुभव करता है एवं अपनी कर्मेन्द्रियों (हाथ, पांव, मुख, जननेन्द्रिय तथा गुदा) से सुख-दुःख का सृजन करता है। इन समस्त प्रकार की इन्द्रियों को नियंत्रण में रखना ही इन्द्रिय-निग्रह (दम) है। जो मनुष्य अपने कर्मों को तो अनुशासित रखता है किन्तु मन से संयमित नहीं है, वह भी मिथ्याचारी है।

जो पूर्ण रूप से तथा प्रत्येक दृष्टि से अपने मन एवं कर्म पर संयम रखता है, वही वास्तविक संयमी है। मन अर्थात् इच्छाओं पर नियन्त्रण न रहने से विषयों अर्थात् भोग-विलास में आसक्ति बढ़ती है, विषय-कामनाओं की पूर्ति नहीं होने से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से मूढ़ता आती है, मूढ़ता से स्मृति लुप्त होती है, स्मृति के लुप्त होने से बुद्धि नष्ट होती है और बुद्धि के नष्ट होने से व्यक्ति का विनाश हो जाता है।

अतः मनुष्य को अपने मन, मस्तिष्क और शरीर पर समान रूप से संयम रखना चाहिए। इस प्रकार इन्द्रिय निग्रह प्रत्येक मनुष्य का धर्म है।

क्षमा

प्रत्येक प्राणी के प्रति क्षमा का भाव रखना मनुष्य का साधारण धर्म है। अपकार करने वाले व्यक्ति के प्रति भी उपकार की भावना रखना, क्षमाशील व्यक्ति की सबसे बड़ी पहचान है। सामर्थ्यवान ही क्षमा जैसे महान् गुण को धारण कर सकता है। इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है- ‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’ अर्थात् क्षमा वीर पुरुषों का आभूषण होता है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए मधुर शब्दों का प्रयोग करना, क्रोध के वशीभूत होकर कठोर वचनों के उच्चारण से बचना, बदले की भावना न रखना आदि गुण भी क्षमा के अंतर्गत ही आते हैं।

श्रद्धा

मनुष्य को सृष्टि की प्रत्येक उपकारी वस्तु, व्यक्ति एवं व्यवस्था के प्रति श्रद्धा का भाव रखना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास ने शिव और पार्वती की तुलना श्रद्धा और विश्वास से की है- ‘भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।’

माता, पिता और गुरु के प्रति श्रद्धावान् होना धर्म है। नदियाँ जल देकर, पर्वत प्राणवायु एवं औषधियां देकर, आकाश वर्षा एवं स्थान देकर, सूर्य प्रकाश एवं ऊर्जा देकर, धरती अन्न एवं आश्रय देकर, गाय दूध, पंचगव्य एवं बछड़े देकर मनुष्य का उपकार करते हैं। सृष्टि में बहुत सी रचनाएं हैं जो मनुष्य को कुछ न कुछ देती हैं। मनुष्य को प्रकृति की व्यवस्था एवं उसे बनाने वाले आकाश, नदी, पर्वत, वृक्ष, गाय सूर्य, आदि के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।

मधुर वचन

मधुर सम्भाषण करना भी धर्म का महत्वपूर्ण अंग है। विनम्र व्यक्ति ही अहंकार रहित होने के कारण मधुर वाणी और प्रिय वचन बोलने में समर्थ होते हैं। मनु ने कटु सत्य को भी मधुरवाणी में कहने का निर्देश दिया है। मनुष्य की मधुर वाणी अच्छे और बुरे सभी लोगों को आकर्षित करती है। मधुर सम्भाषण से विरोधी एवं शत्रु को भी सरलता से झुकाया जा सकता है।

शील

शील का अर्थ ‘अच्छा स्वभाव’ होता है। धर्म और सत्य, शील पर ही निर्भर करते हैं। अर्थात् शीलवान् हुए बिना मनुष्य धर्म और सत्य युक्त आचरण नहीं रह सकता। महाभारत में कहा गया है- ‘शीलं प्रधानं पुरुषे।’ अर्थात् मनुष्य में शील ही सबसे प्रधान गुण है। मनुष्य का चरित्र, व्यवहार और आचरण शील से ही उत्पन्न होता है। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए शील का होना अनिवार्य है। शीलवान व्यक्ति अपने कार्यों से मित्रों और शत्रुओं में भी प्रिय बन जाता है। जो मनुष्य विचार, वाणी, कर्म, अनुग्रह और दान में भी शील बनाए रखता है, वही व्यक्ति शीलसम्पन्न माना जाता है।

अतिथि-सेवा

अतिथि-सेवा को गृहस्थ द्वारा सम्पन्न किए जाने वाले पंचमहायज्ञों में सम्मिलित किया गया है। इसे ‘अतिथि-धर्म’ भी कहा जाता है। मनु ने लिखा है कि अतिथि का पूजन करने से व्यक्ति को धन, आयु, यश और स्वर्ग मिलता है। बहुत से अतिथियों के एक साथ आ जाने पर आसन, विश्राम-स्थान, शैया, अनुगमन और सेवा, ये समस्त सत्कार, बड़ों का अधिक, मध्य श्रेणी वालों का मध्यम तथा निम्न श्रेणी वालों का कम करना चाहिए। महाभारत और भागवत पुराण के अनुसार यदि कभी शत्रु भी अपने द्वार पर आ जाए तो उसकी भी सेवा-सुश्रुषा करनी चाहिए।

विशिष्ट धर्म

देश, काल और पात्र के अनुसार मनुष्य को अपने साधारण धर्मों से हटकर कुछ विशिष्ट कर्त्तव्यों का निर्वाह करना पडता है जिन्हें ‘विशिष्ट धर्म’ कहा जाता है। समाज के प्रति मनुष्य के दायित्वों को भी ‘विशिष्ट धर्म’ के अन्तर्गत रखा जाता है। इन्हें मनुष्य का ‘स्वधर्म’ भी कहा जाता है।

वर्ण-धर्म

वर्ण-धर्म का तात्पर्य विभिन्न वर्णों के कर्त्तव्यों और नियमों के पालन से है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में चारों वर्णों के अलग-अलग कर्त्तव्य और नियम निर्धारित किए गए हैं। ब्राह्मण के लिए वेद पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना, दान देना और लेना; क्षत्रिय के लिए प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना और विषयों में आसक्त न रहना; वैश्य के लिए पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना और कृषि करना तथा शूद्रों के लिए तीनों वर्णों की सेवा करना मुख्य कर्त्तव्य बताए गए हैं। विभिन्न वर्णों के ये कर्त्तव्य ही वर्ण-धर्म हैं। इनके पालन से समस्त वर्णों के लोग धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक उपलब्धि कर सकते हैं।

आश्रम-धर्म

वैदिक-काल से ही आर्यों ने ‘आश्रम-व्यवस्था’ की ओर बढ़ना आरम्भ कर दिया था। उत्तरवैदिक-काल में चार आश्रमों का स्वरूप स्पष्ट रूप से सामने आया। ऋषियों ने मनुष्य जीवन को बाल्यावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक चार आश्रमों में विभाजित किया- ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम।

इस व्यवस्था के माध्यम से मनुष्य अपना नैतिक, आध्यात्मिक और शारीरिक विकास कर सकता था। मनु के अनुसार इन चारों आश्रमों का विधिवत् पालन करके मनुष्य परम मोक्ष को प्राप्त करता है तथा ब्रह्मलोक का भागी बन जाता है। आश्रम-धर्म का पालन समस्त द्विज वर्ग के लिए श्रेयस्कर माना गया है। मनुष्य जीवन के अन्तिम लक्ष्य अर्थात् ‘मोक्ष’ को प्राप्त करने का यही एक सुगम और सुनियोजित मार्ग था। प्रत्येक आश्रम के लिए अलग नियम और संयम निर्धारित किए गए थे।

ब्रह्मचर्य आश्रम

ब्रह्मचर्य आश्रम के अन्तर्गत ब्रह्मचारी के लिए निर्देशित किया गया कि वह गुरु के सानिध्य में रहकर वेदाध्ययन करे, सूर्योदय से पूर्व उठे, स्नानादि से निवृत्त होकर सन्ध्योपासना और गायत्री मंत्र का जाप करे, शाकाहारी रहते हुए प्रसाधन सामग्री, स्त्री-स्पर्श, संगीत, नत्य आदि से दूर रहे, अपनी इन्द्रियों को वश में रखे, गुरु की सेवा करे तथा भिक्षा मांग कर अपना तथा गुरु का पोषण करे आदि।

गृहस्थ आश्रम

गृहस्थ के लिए आवश्यक था कि वह त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) का सेवन करता हुआ गृहस्थी के कार्यों का सम्पादन करे। मनु के अनुसार गृहस्थ आश्रम समुद्र के समान है जिसमें अन्य आश्रम नदी की तरह आकर मिलते हैं। गृहस्थ के लिए अंहिसा, सत्य वचन, दान आदि उत्तम धर्म माने गए। साथ ही पंच महायज्ञों का प्रावधान किया गया। देव-ऋण और पितृ-ऋण से मुक्ति भी गृहस्थ आश्रम के माध्यम से ही संभव थी।

वानप्रस्थ आश्रम

वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति को सांसारिक मोह-माया त्यागकर वन में रहना होता था। उसे दम (इन्द्रिय निग्रह), संयम, त्याग, अनुशासन, धर्माचरण, सेवाभाव, तपस्या धर्म-चर्चा एवं स्वाध्याय आदि के माध्यम से स्वयं को सन्यास आश्रम के लिए तैयार करना होता था।

सन्यास आश्रम

सन्यास आश्रम में व्यक्ति स्वयं को संसार से पूर्णतः विरक्त करके ईश्वर भक्ति में लीन हो जाता था। उसे मोह, लोभ, क्रोध आदि से दूर रहकर सत्य, अंिहंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, तप, स्वाध्याय आदि का पालन करना पड़ता था।

इस प्रकार आश्रम-धर्म का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का परम कर्त्तव्य था, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन को संतुलित एवं उन्नत बनाता था।

कुल-धर्म

वर्णधर्म और आश्रम धर्म के साथ-साथ मनुष्य को अपने कुल-धर्म का भी पालन करना होता था। इसके अंतर्गत पारिवारिक और वंशगत नियमों तथा आचारों की पालना करनी होती थी। व्यक्ति का परिवार के सदस्यों के प्रति व्यवहार तथा कर्त्तव्य-पालन ही कुलधर्म का मुख्य अंग थे। पिता-धर्म, माता-धर्म, पति-धर्म, पुत्र धर्म, भ्रातृ-धर्म आदि कुल-धर्म के ही अंग हैं।

पिता का धर्म अपनी सन्तान और परिवार के अन्य सदस्यों की आवश्यकताओं का ध्यान रखना है। माता का धर्म अपनी समस्त सन्तानों के प्रति प्रेम और परिवार के अन्य सदस्यों की सुविधाओं आदि का ध्यान रखना है। पति का धर्म अपनी पत्नी, सन्तान, माता-पिता आदि के साथ यथोचित व्यवहार तथा विनम्रता और सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करना है।

पत्नी का धर्म पति की सेवा, यौन-पवित्रता, सम-व्यवहार, बड़ों का आदर और छोटों से प्रेम तथा अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना है। पुत्र का धर्म अपने से बड़ों का आदर-सत्कार करना, माता-पिता की आशाओं को पूरा करना और देव-ऋण, ऋषि-ऋण, पितृ-ऋण से मुक्त होना है। कन्या के प्रति माता-पिता का कर्त्तव्य तथा कन्या का माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति कर्त्तव्य कुल-धर्म का ही अंग है।

युग-धर्म

युग-धर्म साधारण धर्म से अलग होता है। यह काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है। युग के अनुसार नैतिक आदर्श, कार्य-प्रणाली, आचार-विचार, व्यवहार, सांस्कृतिक प्रतिमान और नियम परिवर्तित होते रहते हैं। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग तत्कालीन समय के धर्म और आदर्श को व्यक्त करते हैं। सतयुग तप-धर्म के लिए, त्रेतायुग ज्ञान-धर्म के लिए, द्वापर युग यज्ञ-धर्म के लिए और कलियुग दान-धर्म की प्रधानता होती है।

राज-धर्म

राजा के लिए निर्धारित किए गए आदर्श एवं कर्त्तव्य साधारण जन के आदर्शों एवं कर्त्तव्यों से भिन्न हो सकते हैं। राजा को अपने स्वार्थ की रक्षा करने की बजाए प्रजा-हित पर अधिक ध्यान देना होता है तथा प्रजा में आदर्श स्थापित करने के लिए अपने सम्बन्ध में अप्रिय निर्णय लेने पड़ते हैं। राजा को प्रजा पर अपनी इच्छा आरोपित करने की बजाए धर्म के अनुसार शासन करना होता है तथा प्रजा को अपनी सन्तान मानकर उसके कल्याण के उपाय करने होते हैं।

राजा के प्रायः तीन प्रधान धर्म थे- (1.) बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा करना, (2.) देश और समाज को नियंत्रित रखना और (3.) समाज के लोगों को वर्णाश्रम धर्म पर चलने के लिए प्रेरित करना। राजा के लिए धर्म और नीति का ज्ञान होना अनिवार्य था। महाभारत के अनुसार धर्म का अनुपालन करने से राजा स्वर्ग का भागी होता है और अधर्म का अनुगमन करने पर नर्क का। सज्जन लोगों की रक्षा करना, दुर्जन लोगों को दण्डित करना तथा राज्य में सुख शान्ति और समृद्धि बनाए रखना राजा के मुख्य कर्त्तव्य थे।

स्वधर्म

परिवार और समाज के प्रति प्रत्येक मनुष्य के कुछ कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व होते हैं। परिस्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व भिन्न हो सकते हैं। इन्हीं कर्त्तव्यों को व्यक्ति का स्वधर्म कहा जाता है। पिता, माता, पुत्र, पुत्री आदि की स्थितियाँ धर्म के अनुसार भिन्न हैं, इसलिए उनके कर्त्तव्य भी भिन्न हैं।

वर्णाश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत मनुष्य जिन नैतिक कर्त्तव्यों का पालन करता है, वे कर्त्तव्य भी स्वधर्म के ही भाग हैं। भगवद् गीता के अनुसार अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए परधर्म से, गुणरहित स्वधर्म श्रेष्ठ है। स्वधर्म में मरना भी कल्याणकारक है, परधर्म भय उत्पन्न करने वाला है- ‘श्रेयान्स्व धर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो मृत्यु भयावहा।’ यहाँ स्वधर्म का आशय वर्णाश्रम धर्म एवं मनुष्य के निजी कर्त्तव्य से है।

आपद्धर्म

परिस्थितियों के प्रतिकूल होने पर अथवा विपत्तिकाल में मनुष्य को साधरण धर्म का पालन करने से शिथिलता मिल जाती थी एवं वह आपद्धर्म का पालन कर सकता था। एक वर्ण के सदस्य विशेष परिस्थितियों में दूसरे वर्ण के धर्म को अपना सकते थे। ब्राह्मण क्षत्रिय अथवा वैश्य का, क्षत्रिय वैश्य का और वैश्य शूद्र का काम कर सकता था। ऐसी स्थिति में व्यक्ति का जन्म के वर्ण से सम्बन्धित कर्त्तव्य छूट जाता था तथा वह दूसरे वर्ण के कर्त्तव्य अपनाकर जीविकोपार्जन करता था।

शत्रु से घिर जाने पर राजा, अपने कुल एवं देश की रक्षार्थ युद्ध का त्याग कर सकता था। वह विपत्तिकाल में किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर में छिपकर रहता था तथा शत्रु को धोखा देने एवं राजा या राजकुमार के प्राण बचाने के लिए ब्राह्मण उसे अपनी थाली में भोजन करवाता था। इस प्रकार वर्ण-विरुद्ध आचरण करने से भी ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय को दोष नहीं लगता था। 

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

यह भी देखें

पुरुषार्थ-चतुष्टय की अवधारणा

धर्म – पुरुषार्थ-चतुष्टय (1)

अर्थ – पुरुषार्थ-चतुष्टय (2)

काम – पुरुषार्थ-चतुष्टय (3)

मोक्ष – पुरुषार्थ-चतुष्टय (4)

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