Sunday, August 17, 2025
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दादू दयाल

भारत के मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के संतों में दादू दयाल का नाम आदर से लिया जाता है। दादू दयाल का जन्म ई.1544 में गुजरात के अहमदाबाद नगर में हुआ तथा उनका अधिकांश जीवन राजस्थान में व्यतीत हुआ।

संत कबीर एवं नानकदेव की भाँति दादू ने भी अन्धविश्वास, मूर्ति-पूजा, जाति-पाँति, तीर्थयात्रा, व्रत-उपवास आदि का विरोध किया और जनता को सीधा और सच्चा जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया।

दादू दयाल एक अच्छे कवि थे। उन्होंने भजनों के माध्यम से विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य प्रेम एवं भाईचारे की भावना बढ़ाने पर जोर दिया। उनका पन्थ दादू-पन्थ के नाम से विख्यात हुआ। उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्यों- गरीबदास और माधोदास ने उनके उपदेशों को जनसाधारण में प्रचारित किया।

दादू दयाल हिंदी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख संत और कवि थे। उन्होंने दादूपंथ की स्थापना की जो कि निर्गुणवादी संप्रदाय है। दादू दयाल का नाम पहले बाहुबली था किंतु इनकी पत्नी का निधन हो जाने के बाद इन्होंने संन्यासी जीवन अपना लिया. पत्नी के निधन के बाद वे राजस्थान में जयपुर के निकट के आमेर में आकर रहे।

इनकी भेंट फतेहपुर सीकरी में अकबर से हुई उसके बाद ये सांभर के निकट नरैना नामक गाँव में रहने लगे। नरैना में ही ई.1603 में दादू दयाल का निधन हुआ। उस स्थान को अब श्री दादू पालकांजी भैराणाधाम कहा जाता है।

इनके गुरु का नाम बुड्डन बाबा था। ज्ञानाश्रयी संत एवं कवि होने के कारण इन्हें राजस्थान का कबीर भी कहा जाता है। दादूदयाल के 52 मुख्य शिष्य थे जिनमें लालदास, गरीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना मुख्य थे।

दादू दयाल हिंदी, गुजराती एवं डिंगल आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने शबद और साकी लिखीं। इनकी रचनाएं प्रेमभाव से पूर्ण हैं। इन्होंने हिन्दुओं से जाति-पांति तोड़ने का आग्रह किया एवं हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए भी आवाज उठाई।

दादूपंथी साधु विवाह नहीं करते और बच्चों को गोद लेकर अपना पंथ चलाते हैं। दादू पंथ के सत्संग को अलख दरीबा कहा जाता है। दादू पंथ की प्रमुख पीठ राजस्थान के नरैना में भैराणाधाम में स्थित है। यहाँ प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को मेला लगता है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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