Friday, October 10, 2025
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सातवाहन अथवा आन्ध्र वंश

सातवाहन राजाओं के नामों में गौतम और वसिष्ठ लगा हुआ है। ये ब्राह्मण गोत्र हैं। नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि की माता गौतमी बलश्री को राजर्षिवधू कहा गया है।

आन्ध्र वंश अथवा सातवाहन

आन्ध्र एक जाति का नाम था जो गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के मध्य-भाग में निवास करती थी। वायु पुराण के अनुसार आन्ध्र जाति में उत्पन्न सिन्धुक, कान्वायन सुशर्मा एवं शुंगों की अवशिष्ट शक्ति को नष्ट कर राज्य प्राप्त करेगा। इस कथन से अनुमान होता है कि सिमुक ने कण्व तथा शुंग दोनों वंशों की शक्ति को नष्ट किया। इससे यह भी अनुमान होता है कि कण्वों के समय में भी शुंग किसी न किसी भू-भाग पर किसी न किसी रूप में शासन कर रहे थे।

आर्य अथवा अनार्य ?

निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि आन्ध्र लोग आर्य थे अथवा अनार्य! कुछ विद्वानों के विचार से ये मूलतः अनार्य थे परन्तु आर्यों के घनिष्ठ सम्पर्क में आ जाने से इन्होंने आर्य-सभ्यता तथा संस्कृति को अपना लिया था। इससे यह बताना कठिन हो गया कि ये लोग आर्य थे अथवा अनार्य। आंयगर के अनुसार आन्ध्र लोग अनार्य प्रजाति के थे जो धीरे-धीरे आर्य बना लिये गये। वे दक्षिण भारत के उत्तरी-पूर्वी भाग में निवास करते थे और काफी शक्तिशाली थे।’

भारतीय पुराण इस राजवंश को आन्ध्रजातीय अथवा आन्ध्रभृत्य लिखते हैं किंतु इस वंश के लेखों में कहीं पर भी आन्ध्र नाम का प्रयोग नहीं हुआ है। इस वंश के राजा स्वयं को सातवाहन लिखते थे। लिखित साहित्य में इस वंश के लिये कहीं-कहीं शालिवाहन शब्द भी प्रयुक्त हुआ है।

प्राचीन ब्राह्मण ग्रंथ दक्षिणी भारत में गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के बीच के प्रदेश को आन्ध्र जाति का निवास स्थान बताते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार यह प्रदेश आर्य संस्कृति से बाहर था। पुराणों में आन्ध्रों की गणना पुण्ड्र, शबर और पुलिंद आदि अनार्यों के साथ हुई है। उपरोक्त तथ्यों के अनुसार यदि इस वंश को आन्ध्र वंश माना जाये तो यह राजवंश अनार्य सिद्ध होता है।

क्या सातवाहन ब्राह्मण थे ?

जहां पुराण एक ओर आंध्र वंश को अनार्य बताते हैं वहीं वे, सातवाहन राजाओं को ब्राह्मण बताते हैं जो मगध पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने से पहले दक्षिण भारत में निवास करते थे। कुछ सातवाहन राजाओं के नामों में गौतम और वसिष्ठ लगा हुआ है। ये ब्राह्मण गोत्र हैं। नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि की माता गौतमी बलश्री को राजर्षिवधू कहा गया है।

इससे अनुमान होता है कि वह ब्राह्मण-कन्या नहीं थी यदि ब्राह्मण-कन्या होती तो उसे ब्रह्मर्षि कन्या लिखा जाता। नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि को एकबम्हन कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि वह एक ब्राह्मण था। सेनार, ब्यूलर आदि अधिकांश विद्वानों ने सातवाहनों को ब्राह्मण माना है।

डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने सातवाहनों को आन्ध्र का भृत्य बताते हुए लिखा है- ‘यह विश्वास करने योग्य बात है कि आन्ध्र-भृत्य अथवा सातवाहन राजा ब्राह्मण थे जिनमें कुछ नाग-रक्त का सम्मिश्रण था।’

यदि यह वंश, आर्य वंश था तथा ब्राह्मण जाति का था फिर भी ब्राह्मण ग्रंथों ने इसे अनार्य क्यों कहा ? इसका कारण यह था कि यह वंश पहले, महाराष्ट्र में राज्य करता था परंतु कालान्तर में शकों ने इस राजवंश को परास्त करके महाराष्ट्र से निकाल दिया। पराजित राजवंश महाराष्ट्र को छोड़कर गोदावरी एवं कृष्णा के बीच आन्ध्र प्रदेश में जाकर बस गया। आंध्र देश पर राज्य करने के कारण यह राजवंश आन्ध्र कहलाने लगा। अतः आन्ध्र नाम, प्रादेशिक संज्ञा है, जातीय संज्ञा नहीं है।

आंध्र अथवा सातवाहन ?

बृहद्देशी नामक ग्रंथ में आन्ध्री और सातवाहनी नामक दो पृथक-पृथक रागिनियों का उल्लेख है। इससे कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि आन्ध्र तथा सातवाहन दो पृथक जातियां थीं किंतु कतिपय विद्वानों के अनुसार आन्ध्र जाति में सातवाहन नामक राजकुमार हुआ, जिसके वंशज सातवाहन कहलाये। इस प्रकार आन्ध्र ‘जाति’ का और सातवाहन ‘कुल’ का नाम था।

सातवाहन शासक

सिमुक

सातवाहन-वंश का पहला राजा सिमुक था। उसे सिसुक सिंधुक, शिशुक तथा शिप्रक आदि नामों से भी पुकारा गया है। इसे भृत्य भी कहा गया है। अतः अनुमान होता है कि वह आरंभ में किसी राजा का सामन्त था। बाद में स्वतंत्र शासक बना। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान अथवा पैठन थी जो गोदावरी नदी के तट पर स्थित थी। 28 ई.पू. में सिन्धुक ने कण्व-वंश के अन्तिम शासक देवभूति की हत्या करके मगध पर अधिकार कर लिया। डॉ. राय चौधरी ने इसे 60 ई.पू. से 37 ई.पू. के बीच के कालखण्ड का माना है।

कृष्ण

पुराणों के अनुसार सिमुक का भाई कृष्ण, सिमुक का उत्तराधिकारी था। कुछ इतिहासकार नासिक गुहा लेख में वर्णित कन्ह को इस कृष्ण से मिलाते हैं। उसके समय में एक श्रमण महामात्र ने नासिक में एक गुफा का निर्माण करवाया। इससे प्रकट होता है कि नासिक पर कृष्ण का शासन था।

शातकर्णि (प्रथम)

सातवाहन वंश का प्रथम शक्तिशाली राजा शातकर्णि था। इसके शासन के अनेक साक्ष्य मिलते हैं। पुराण इसे कृष्ण का पुत्र कहते हैं किंतु नानाघाट शिलालेख में उसे सिमुक सातवाहनस वंसवधनस (सिमुक सातवाहन के वंश को बढ़ाने वाला) कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि वह सिमुक का पुत्र था।

शातकर्णि की रानी का नाम नागानिका था जो अंगीय वंश के राजा की पुत्री थी। शातकर्णि ने दो बार अश्वमेध यज्ञ किये। नानाघाट अभिलेख द्वितीय अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख करता है। प्रथम अश्वमेध यज्ञ के उल्लेख वाला अभिलेख अब तक प्राप्त नहीं हो सका है। द्वितीय अश्वमेध यज्ञ में उसने बड़ी संख्या में गाय, घोड़े, हाथी, गांव, सुवर्ण आदि का दान किया।

सांची अभिलेख में भी राजा शातकर्णि का उल्लेख मिलता है। जिससे प्रकट होता है कि शातकर्णि का शासन मालवा पर भी था। यह प्रदेश स्वयं शातकर्णि ने जीता था। शातकर्णि ने मालवा शैली की गोल मुद्राएं चलाई थीं। शातकर्णि ने एक विशाल राज्य की स्थापना की जिसमें महाराष्ट्र का अधिकांश भाग, उत्तरी कोंकण और मालवा सम्मिलित थे। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी। शातकर्णि ही प्रथम सातवाहन राजा था जिसने दक्षिण भारत में सातवाहनों की प्रभुसत्ता स्थापित की।

शातकर्णि के उत्तराधिकारी

शातकर्णि की मृत्यु के समय उसके दो पुत्र अल्पवयस्क अवस्था में थे इसलिये शातकर्णि की रानी नागानिका ने संरक्षिका के रूप में शासन भार संभाला। शातकर्णि के निर्बल उत्तराधिकारियों को शकों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। यहीं से शक-सातवाहन संघर्ष आरम्भ हुआ जो दीर्घकाल तक चलता रहा।

शकों ने महाराष्ट्र, राजपूताना के कुछ भाग, अपरान्त, गुजरात, काठियावाड़ और मालवा पर अधिकार कर लिया। इनमें से कुछ प्रदेश पहले सातवाहनों के अधीन थे। शातकर्णि प्रथम तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के बीच का लगभग 100 वर्ष का इतिहास अंधकार मय है।

इस अवधि में सातवाहन राजाओं के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती। इस अवधि में सातवाहनों का एकच्छत्र राज्य बिखर गया तथा उनकी कई शाखाएं विकसित हो गईं। पौराणिक विवरणों में शातकर्णि तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के बीच 10, 12, 13, 14 अथवा 19 राजाओं के नाम मिलते हैं।

गौतमी-पुत्र शातकर्णि

106 ई. के लगभग सातवाहन वंश में महापराक्रमी नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णि का उदय हुआ जिसने सातवाहन वंश का पुनरुद्धार किया। पुराणों के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णि, सातवाहन वंश का तेइसवाँ राजा था। वह सातवाहन वंश का सर्वाधिक प्रतापी तथा शक्तिशाली राजा था।

उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और सम्पूर्ण दक्षिणापथ तथा मध्य भारत पर अधिकार कर लिया। एक विजेता के रूप में उसका सबसे अधिक प्रशंसनीय कार्य यह था कि उसने शकों को महाराष्ट्र से मार भगाया। गौतमी-पुत्र शातकर्णि महान् विजेता ही नहीं, वरन् कुशल शासक भी था। वह अपने राज्य में पूर्ण शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने में सफल रहा। उसने 106 ई. से 130 ई. तक शासन किया।

गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियाँ

गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियां सम्पूर्ण सातवाहन वंश को गौरव प्रदान करती हैं। गौतमीपुत्र शातकर्णि की सफलताओं का विवरण गौतमीपुत्र शातकर्णि के पुत्र वसिष्ठीपुत्र पुलमावी के नासिक अभिलेख तथा गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख में मिलता है। उसकी उपलब्धियों का मूल्यांकन निम्नलिखित तथ्यों के आलोक में किया जा सकता है-

(1) सातवाहन वंश की पुनर्स्थापना

गौतमीपुत्र शातकर्णि ने विगत एक शताब्दी से भी अधिक समय से पतन की ओर जा रहे सातवाहन वंश का उद्धार करके इस वंश की पुनर्स्थापना की। गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख में उसे अपराजितविजय पताकः कभी परास्त न होने वाला कहा गया है।

(2) शक, यवन और पह्लवों पर विजय

वसिष्ठीपुत्र पुलमावी के नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि को सातवाहन कुल के यश को फिर से स्थापित करने वाला बताया गया है। इस कार्य को पूर्ण करने के लिये उसे क्षत्रियों के दर्प और मान का मर्दन करना पड़ा। शक, यवन और पह्लवों का नाश करना पड़ा और क्षहरात वंश का निर्मूलन करना पड़ा।

(3) क्षत्रियों के दर्प का मर्दन

गौतमीबलश्री के नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि को ‘खतिय-दप-मान-मदनस’ अर्थात क्षत्रियों के दर्प एवं मान का मर्दन करने वाला कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि उसने बहुत से तत्कालीन क्षत्रिय राजाओं को परास्त करके अपने साम्राज्य का विस्तार किया।

(4) क्षहरात वंश पर विजय

नासिक के दो अभिलेखों से प्रकट होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने क्षहरात वंश को पराजित करके अपने वंश का राज्य स्थापित कर लिया। जोगलथम्भी-मुद्रा-भाण्ड में ऐसी 9000 मुद्रायें मिली हैं जिन पर नहपान तथा गौतमीपुत्र दोनों के नाम अंकित हैं। इससे प्रकट होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने नहपान को पराजित करने के पश्चात् उसकी मुद्राओं पर अपना नाम अंकित करने के पश्चात् उन्हें फिर से प्रसारित किया। कुछ विद्वान यह नहीं मानते कि नहपान तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि समकालीन थे।

स्मिथ के अनुसार जोगलथम्भी-मुद्रा-भाण्ड में नहपान की जो 13 हजार मुद्राएं मिली हैं तथा जिनमें से 9000 मुद्राओं को गौतमीपुत्र शातकर्णि द्वारा फिर से चलाया गया था, वे बहुत पहले से चल रही थीं तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के समय में भी चल रही थीं। इन मुद्राओं से यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने नहपान को परास्त किया था। नहपान तो गौतमीपुत्र शातकर्णि से पहले ही मर चुका था।

(5) सम्पूर्ण दक्षिणापथ पर विजय

नासिक अभिलेख के अनुसार उसके साम्राज्य में गोदावरी और कृष्णा के मध्य का प्रदेश (असिक), गोदावरी का तटीय प्रदेश (अश्मक), पैठान के चतुर्दिक प्रदेश (मूलक), दक्षिणी काठियावाड़ (सुराष्ट्र), उत्तरी काठियावाड़ (कुकुर), बम्बई का उत्तरी प्रदेश (अपरांत), नर्मदा नदी पर महिष्मति प्रदेश (अनूप), बरार (विदर्भ), पूर्वी मालवा (आकर), पश्चिमी मालवा (अवन्ति) सम्मिलित थे।

(6) तीनों समुद्रों तक सीमा का विस्तार

गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णि का राज्य सम्पूर्ण दक्षिणापथ में विस्तृत था। इस अभिलेख में उसे कभी परास्त न होने वाला कहा गया है। इसी अभिलेख में उसे त्रिसमुद्र तोय-पीत-वाहनस्य कहा गया है। अर्थात् उसके वाहनों (हाथियों) ने तीनों समुद्रों (अरब सागर, बंगाल की खाड़ी तथा हिन्द महासागर) का जल पिया। यह हो सकता है कि यह केवल एक काव्यात्मक अतिरंजना हो किंतु निश्चय ही इतनी विजयों के बाद उसका प्रभाव सम्पूर्ण दक्षिण भारत ने स्वीकार कर लिया होगा।

(7) वर्णाश्रम धर्म की पुनर्स्थापना

गौतमी बलश्री के अभिलेख  के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णि को राम, केशव, अर्जुन और भीम के सदृश पराक्रम वाला बताया गया है। वह विजयोन्मत्त नहीं था। उसका निर्भय हाथ अभयोदक देने में आर्द्र रहता था। शत्रुओं की प्राण हिंसा में उसकी रुचि नहीं थी। वह आगमों का ज्ञाता था, श्रेष्ठ पुरुषों का आश्रयदाता था और सदाचारी था। वह धर्मशास्त्र सम्मत कर ही लेता था। वह द्विज एवं द्विजेत्तर समस्त कुलों का पोषक था। उसने वर्ण संकरता को रोककर वर्णाश्रम व्यवस्था को स्थिरता प्रदान की।

(8) शकों से वैवाहिक सम्बन्ध

शकों की शक्ति को ध्यान में रखते हुए गौतमीपुत्र शातकर्णि ने उनसे वैवाहिक सम्बन्ध बनाये ताकि उसके वंशजों का भविष्य सुरक्षित हो सके और उसके साम्राज्य को स्थायित्व मिल सके। उसने अपने पुत्र वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि का विवाह शक क्षत्रप रुद्रदामन की पुत्री के साथ किया।

वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि

पौराणिक विवरणों के अनुसार गौतमीपुत्र के बाद वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि सातवाहन सम्राट बना। वह 130 ई. में सिंहासन पर बैठा। टॉलेमी ने अपनी पुस्तक ज्योग्राफी में प्रतिष्ठान का शासक सिरोपोलेमायु को बताया है। पुराणों में उसे पुलोमा कहा गया है। उसकी कुछ मुद्राओं पर उसका नाम वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि मिलता है।

150 ई. के रुद्रदामन अभिलेख में जूनागढ़, पूर्वी मालवा, महिष्मती का निकटवर्ती प्रदेश, कठियावाड़, पश्चिमी राजस्थान और उत्तरी कोंकण आदि क्षेत्र रुद्रदामन के राज्यक्षेत्र में बताये गये हैं। ये प्रदेश गौतमीपुत्र शातकर्णि के समय में सातवाहनों के अधिकार में थे।

अतः अनुमान होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि की मृत्यु के बाद शकों ने फिर से सिर उठा लिया तथा सातवाहनों के कई प्रदेश छीन लिये। रुद्रदामन का अभिलेख कहता है कि रुद्रदामन ने शातकर्णि राजा को दो बार परास्त किया किंतु उससे वैवाहिक सम्बन्ध होने के कारण उसे नष्ट नहीं किया।

वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि ने अपने क्षेत्रों की भरपाई करने के लिये आंध्र, विदर्भ तथा कोरोमण्डल तट तक अपना राज्य विस्तृत किया। प्रतिष्ठान उसकी राजधानी बनी रही। नासिक भी उसके अधीन बना रहा। नासिक अभिलेख में उसे दक्षिणापथेश्वर कहा गया है। पुलुमावि ने 130 ई. से 154 ई. अथवा 159 ई. तक शासन किया। उसके उत्तराधिकारी निर्बल थे। उनमें से कइयों का तो अब विवरण भी नहीं मिलता।

यज्ञश्री शातकर्णी

इस वंश का अन्तिम उल्लेखनीय शासक यज्ञश्री शातकर्णी था। पुराणों के अनुसार वह, गौतमीपुत्र के 35 वर्ष बाद सिंहासन पर बैठा तथा उसने 29 वर्ष शासन किया। अनुमान होता है कि वह 165 ई. से 194 ई. तक शासन करता रहा। अपरांत की राजधानी सोपारा से उसके सिक्के मिले हैं जो रुद्रदामन के सिक्कों का प्रतिरूप मात्र हैं इससे अनुमान होता है कि उसने शकों से अपरान्त फिर से छीन लिया था।

यज्ञश्री शातकर्णि की मुद्रायें गुजरात, काठियावाड़, पूर्वी तथा पश्चिमी मालवा, मध्यप्रदेश और आन्ध्र प्रदेश में पाई गईं। वे शक मुद्राओं के प्रारूप पर बनी हैं इससे अनुमान होता है कि उसने शकों पर विजय प्राप्त की। उसके काल में सातवाहन राज्य अरबसागर तक विस्तृत था। उसके काल में व्यापारिक उन्नति हुई। उसकी कुछ मुद्राओं पर दो मस्तूल वाले जहाज, मछली एवं शंख आदि का अंकन मिलता है। सातवाहन शक संघर्ष का यह अंतिम चरण था। इसके बाद दोनों के संघर्ष के उल्लेख अप्राप्य हैं।

अंतिम शासक

यज्ञश्री शातकर्णी के बाद सातवाहन वंश का उत्तरोत्तर पतन ही होता गया। सातवाहन वंश का अंतिम शासक पुलुमावि चतुर्थ था। पुराणों के अनुसार उसने सात वर्ष शासन किया। उसका शासन काल सम्भवतः 220 ईस्वी से 227 ईस्वी तक था। कालान्तर में महाराष्ट्र पर आभीर-वंश ने और दक्षिणापथ पर इक्ष्वाकु तथा पल्लव-वंश ने अधिकार स्थापित कर लिये। इस प्रकार तीसरी शताब्दी तक सातवाहन वंश का अन्त हो गया।

सातवाहन कालीन साहित्य

अनेक सातवाहन राजा उच्च कोटि के विद्वान थे और विद्वानों के आश्रयदाता थे। हाल नामक सातवाहन राजा अपने समय में प्राकृत का विख्यात कवि था जिसने शृंगार-रस की ‘गाथा सप्तसती’ नामक ग्रन्थ की रचना की। हाल की राजसभा में गुणाढ्य नामक विद्वान् रहता था जिसने ‘वृहत्कथा’ नामक ग्रंथ की रचना की।

सातवाहनों के शासन काल में धर्म

सातवाहन-काल में भारत में बौद्ध तथा ब्राह्मण, दोनों ही धर्म उन्नत दशा में थे। शासक वर्ग में अश्वमेध तथा राजसूय यज्ञ करने तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा देने का प्रचलन था। इस काल में दक्षिण भारत में शैव-धर्म का सर्वाधिक प्रचार हुआ। उत्तर भारत में शिव तथा कृष्ण की आराधना विशेष रूप से होती थी। इस काल में धार्मिक-सहिष्णुता उच्च कोटि की थी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – ब्राह्मण राज्य

शुंग वंश एवं कण्व वंश

आन्ध्र अथवा सातवाहन वंश

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