हर्ष की उपलब्धियाँ उसके साम्राज्य विस्तार के रूप में तो हमारे सामने आती ही हैं, साथ ही सांस्कृतिक क्षेत्र में भी हर्ष की उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं।
हर्ष की उपलब्धियाँ
हर्ष की गणना भारत के महान् सम्राटों में की जाती है, हर्ष की उपलब्धियाँ इस प्रकार से हैं-
(1) महान् विजेता
स्मिथ ने हर्ष की उपलब्धियों का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘एक युद्ध ने अशोक की रक्त पिपासा को शांत कर दिया किंतु हर्ष अपनी तलवार को म्यान में रखने के लिए तब संतुष्ट हुआ जब उसने लगातार सैंतीस वर्ष तक, जिनमें छः वर्षों तक निरन्तर और शेष समय में सविराम युद्ध कर लिया।’
हर्ष ने पंजाब, कन्नौज, मगध, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, वल्लभी, आनंदपुर, कच्छ, काठिायावाड़ तथा सिंध आदि राज्यों पर विजय प्राप्त की। नेपाल तथा काश्मीर ने उसकी अधीनता स्वीकार की।
(2) महान् साम्राज्य निर्माता
हर्ष एक महान् साम्राज्य निर्माता था। उसे अपने पूर्वजों से थानेश्वर का छोटा सा राज्य प्राप्त हुआ परन्तु अपनी दिग्विजय द्वारा उसने उसे एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया और सम्पूर्ण उत्तरी भारत में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया।
यद्यपि दक्षिण भारत के युद्ध अभियान में उसे सफलता नहीं मिली और चालुक्य राजा पुलकेशिन (द्वितीय) ने उसे परास्त कर दिया परन्तु उसकी उत्तर भारत की विजयें उसे भारत के महान सम्राटों में स्थान दिलवाती हैं। गुप्त साम्राज्य के छिन्न भिन्न हो जाने पर भारत की राजनीतिक एकता को फिर से स्थापित करने का श्रेय हर्ष को ही प्राप्त है।
जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना उसने अपने बाहुबल से की थी वह उसे अपने जीवन काल में सुरक्षित रखने में भी समर्थ रहा। इसलिये उसकी गणना भारत के महान् विजेताओं तथा साम्राज्य निर्माताओं में करनी उचित ही है।
(3) महान् शासक
हर्ष न केवल महान् विजेता तथा साम्राज्य निर्माता था वरन् अपने बाहुबल से उसने जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना की उसके सुशासन की भी सुन्दर व्यवस्था की। एक शासक के रूप में उसकी महानता इस बात में पाई जाती है कि उसका शासन उदार, दयालु तथा प्रजा के लिये हितकारी था।
उसने कर बहुत कम लगाये थे, जिससे प्रजा को कर देने में कष्ट न हो और उसकी आर्थिक दशा भी अच्छी बनी रहे। हर्ष ने देश में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए दण्ड विधान को कठोर बना दिया। अपराधों में कमी होने के कारण प्रजा सुख तथा शान्ति का जीवन व्यतीत करने लगी।
हर्ष अपने राज्य में घूम-घूम कर अपनी प्रजा की कठिनाईयों को जानने तथा उनको दूर करने का प्रयत्न करता था। हर्ष अपने विशाल साम्राज्य के सुशासन की स्वयं देख-रेख करता था और अपने कर्मचारियों पर निर्भर नहीं रहता था।
स्मिथ ने उसके इस गुण की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘अपने विस्तृत साम्राज्य पर नियंत्रण रखने के लिए हर्ष अपने प्रशिक्षित कर्मचारियों की सेना पर निर्भर न रहकर अपने व्यतिगत निरीक्षण पर भरोसा करता था।’
इस सम्बन्ध में डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘अपने विस्तृत शासन सम्बन्धी मामलों के निरीक्षण के कठोर कार्य को उसने स्वयं करने का प्रयत्न किया।’
उसने अनेक लोक मंगलकारी कार्य किए, जिनसे उसकी प्रजा सुखी तथा सम्पन्न बन गई। इसलिये एक शासक के रूप में हर्ष महान् था।
(4) महान् धर्म-परायण
हर्ष का हृदय बड़ा कोमल तथा दयालु था। उसमें उच्च कोटि की धर्मपरायणता थी। प्रारम्भ में वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था और शिव, सूर्य आदि देवों की उपासना करता था। बाद में वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया परन्तु इससे उसके धार्मिक विचारों में किसी भी प्रकार की संकीर्णता नहीं आई।
उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी और वह समस्त धर्मों के मानने वालों को सम्मान देता था। वह समस्त सम्प्रदायों के साधु-सन्यासियों का आदर करता था और उन्हें दान-दक्षिणा देता था। प्रयाग की पंचवर्षीय सभा में वह समस्त धर्म वालों का आदर करता था और उन्हें दान-दक्षिणा देता था। इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी हर्ष महान् शासक था।
(5) महान् विद्यानुरागी
हर्ष महान् साहित्यानुरागी था। उसके विद्यानुराग की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘हर्ष के स्मरणीय होने का एक कारण यह भी है कि वह विद्वानों का उदार आश्रयदाता था।’ हर्ष ने विद्वानों को आश्रय देने के साथ-साथ स्वयं भी अपनी लेखनी का प्रयोग उसी कौशल के साथ किया जिस कौशल से वह अपनी तलवार का प्रयोग करता था।
इस सम्बन्ध में डॉ. विन्सेन्ट स्मिथ ने लिखा है- ‘सम्राट हर्ष न केवल योग्य साहित्यकारों का उदार आश्रयदाता था, वह स्वयं भी एक उच्चकोटि का लेख-विशारद तथा सुविख्यात लेखक था।’
उसने ‘नागानन्द’, ‘रत्नावली’ तथा ‘प्रियदर्शिका‘ नामक तीन ग्रन्थों की रचना की। उसके दरबार का सबसे बड़ा विद्वान बाणभट्ट था, जिसने ‘हर्ष-चरित’ तथा ‘कादम्बरी’ नामक ग्रन्थों की रचना की। शिक्षा प्रसार में भी हर्ष की बड़ी रुचि थी। उसने अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना करवाई और बड़ी उदारतापूर्वक उनकी सहायता की।
हर्ष ने नालन्दा विश्वविद्यालय की सहायता के लिए 220 गाँवों की आय दान में दी। इस प्रकार हर्ष ने प्रजा के न केवल भौतिक सुख तथा आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयत्न किया, अपितु प्रजा के बौद्धिक विकास के लिए भी सुविधाएँ दीं। इस दृष्टि से भी उसे महान् सम्राट् मानना सर्वथा उचित है।
(6) संस्कृति का महान् सेवक
हर्ष ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के पोषण तथा प्रचार का अथक प्रयास किया। उसके शासन काल में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का विदेशों में खूब प्रचार हुआ। तिब्बत, चीन तथा मध्य एशिया के साथ भारत के घनिष्ठ सांस्कृतिक सम्बन्ध बने और इन देशों में भारतीय संस्कृति का खूब प्रचार हुआ।
इस काल में दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीप समूहों में भी भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हुआ। इस प्रकार भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के दृष्टिकोण से भी हर्ष का शासन काल बड़ा गौरवपूर्ण था। इसलिये हर्ष को भारतीय सम्राटों में उच्च स्थान प्रदान करना तथ्य-संगत है।
डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने हर्ष की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘हर्ष प्राचीन भारत के इतिहास के श्रेष्ठतम सम्राटों में से है। उसमें समुद्रगुप्त तथा अशोक दोनों ही के गुण संयुक्त थे। उसका जीवन हमें समुद्रगुत की सैनिक सफलताओं और अशोक की पवित्रता की याद दिलाता है।’
नालंदा विश्वविद्यालय
हर्ष के समय में नालंदा का विश्वविद्यालय अपने शिखर पर था। ह्वेनसांग ने भी छः वर्ष तक नालंदा में रहकर अध्ययन किया। उसके समय में शीलभद्र इस महाविहार का अध्यक्ष था। ह्वेनसांग के अनुसार इस महाविहार में 8500 विद्यार्थी तथा 1510 शिक्षक थे। नालंदा महाविहार में अध्ययन करने के इच्छुक विद्यार्थियों को कड़ी परीक्षा देनी होती थी।
100 परीक्षार्थियों में से केवल 20 को ही प्रवेश मिलता था। यह स्नातकोत्तर विद्यालय था जिसमें भारत, कोरिया, चीन, मंगोलिया, जापान, लंका आदि देशों के विद्यार्थी पढ़ते थे। प्रतिदिन 100 आसनों से शिक्षा दी जाती थी। बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाओं और ग्रंथों के साथ-साथ वेद, सांख्य, योग, न्याय, दर्शन, तर्कशास्त्र, आयुर्वेद, विज्ञान, शिल्प, उद्योग आदि विषय भी पढ़ाये जाते थे।
शीलभद्र, नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबंधु और दिड्नाग आदि प्रसिद्ध आचार्य थे। ह्वेनसांग के समय इसमें आठ विहार थे जिनके भवन गगनचुम्बी थे। पुस्तकालय का भवन नौ मंजिला था। इस महाविहार को 100 गांवों की आय प्राप्त होती थी। विभिन्न राजवंश एवं धनी लोग इस महाविहार को दान तथा आर्थिक सहायता देते थे। विद्यार्थियों को इस महाविहार में अध्ययन करते समय प्रत्येक सुविधा निःशुल्क मिलती थी।
मूल अध्याय – हर्षवर्धन
हर्ष की उपलब्धियाँ